Author : Kabir Taneja

Published on Dec 03, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या अफ़ग़ानिस्तान संकट और इसकी वजह से सुरक्षा पर ख़तरे का सामना करने के लिए ईरान और भारत एकजुट होंगे? 

दक्षिण एशिया: भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान संकट

10 नवंबर को भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात पर चर्चा करने के लिए सात क्षेत्रीय देशों के वरिष्ठ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों की मेज़बानी की. अगस्त में काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बाद पहली बार भारत ने इस तरह की बैठक की. इस कॉन्क्लेव का नतीजा ‘दिल्ली घोषणापत्र’ था जहां भागीदार देशों यानी रूस, ईरान, कज़ाकिस्तान, ताज़िकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और तुर्कमेनिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान के बदलते घटनाक्रम को लेकर साझा चिंताओं पर प्रकाश डाला, ख़ास तौर पर जब बात आतंकवाद की आती है और अफ़ग़ानिस्तान के भौगोलिक क्षेत्र के चरमपंथ, ड्रग तस्करी, आतंकवाद की फंडिंग और दूसरे ख़तरों का केंद्र बनने की होती है. 

वैसे तो मध्य एशियाई देशों के साथ भारत का संबंध भविष्य में तालिबान के नेतृत्व वाले अफ़ग़ानिस्तान से भारत के सरोकार की राह के लिए महत्वपूर्ण है, कम-से-कम निकट भविष्य के संदर्भ में, लेकिन ये ईरान तक भारत की पहुंच है जो शायद इस मुद्दे पर दूसरे क्षेत्रीय देशों के साथ भारत के संभावित सहयोग को लेकर विचार बनाते वक़्त काफ़ी महत्व रखता है. भारत के विदेश मामलों के मंत्री डॉ. एस. जयशंकर शायद अकेले विदेशी प्रतिनिधि थे जिन्होंने ईरान के तत्कालीन निर्वाचित राष्ट्रपति और मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के आधिकारिक रूप से सत्ता संभालने से पहले तेहरान में मुलाक़ात की थी. कहा जाता है कि इस बातचीत के दौरान अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा सबसे पहले रखा गया. ईरान के आठवें राष्ट्रपति के रूप में रईसी के शपथ लेने के महज़ 10 दिन के बाद तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा किया था.

वैसे तो मध्य एशियाई देशों के साथ भारत का संबंध भविष्य में तालिबान के नेतृत्व वाले अफ़ग़ानिस्तान से भारत के सरोकार की राह के लिए महत्वपूर्ण है, कम-से-कम निकट भविष्य के संदर्भ में, लेकिन ये ईरान तक भारत की पहुंच है जो शायद इस मुद्दे पर दूसरे क्षेत्रीय देशों के साथ भारत के संभावित सहयोग को लेकर विचार बनाते वक़्त काफ़ी महत्व रखता है.

दिल्ली में सात देशों का कॉन्क्लेव अक्टूबर में ईरान के द्वारा बुलाए गए सम्मेलन का विस्तार था जिसमें भारत ने भागीदारी नहीं की थी. भारत के शामिल नहीं होने की वजह शायद पाकिस्तान की मौजूदगी थी. कूटनीति में पारस्परिक आदान-प्रदान के तहत भारत ने पाकिस्तान को भी कॉन्क्लेव में बुलाया था लेकिन पाकिस्तान इसमें शामिल नहीं हुआ (चीन भी नहीं). भारत में ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव रियर एडमिरल अली शामख़ानी ने तेहरान जैसी बैठक के दिल्ली में होने के सकारात्मक चलन और क्षेत्रीय देशों के इस संकट को लेकर मिलने की कोशिश पर प्रकाश डाला और अफ़ग़ानिस्तान में ‘समावेशी’ राजनीतिक परितंत्र की अपील की. 

इन कूटनीतिक चालबाज़ियों के पहले भारत और ईरान को नियमित तौर पर उन दो देशों में जोड़ा जाता था जिनमें काबुल के हालात को लेकर सहयोग की संभावना थी. ये दृष्टिकोण निस्संदेह उस इतिहास पर आधारित है जिसके तहत दोनों देश 90 के दशक में इसी तालिबान के ख़िलाफ़ अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाले उत्तरी गठबंधन के पलटवार के समर्थक थे. लेकिन जैसा कि कहा जाता है राजनीति में 24 घंटे भी लंबा वक़्त होता है और 20 साल तो निश्चित रूप से भू-राजनीति में लंबा वक़्त है. वैसे तो अफ़ग़ानिस्तान संकट के कई बिंदुओं पर भारत और ईरान के विचार मिलते हैं लेकिन ये सिर्फ़ कहने में आसान है. कई ऐसे कारण हैं जो दोनों देशों के बीच इस संकट को लेकर बुनियादी और संस्थागत द्विपक्षीय कोशिशों के लिए रुकावट बने हुए हैं. 

ईरान के लिए अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी दोधारी तलवार की तरह थी. 9/11 के बाद अमेरिका के लिए ईरान के मौन समर्थन के बावजूद पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश का 2002 का ‘बुराई की धुरी’ वाला भाषण, जिसने उस वक़्त इराक़, ईरान और उत्तर कोरिया को एक साथ जोड़ा था, एक ग़लत क़दम था. निस्संदेह अमेरिका और ईरान के बीच के मुद्दे बेहद गहरे हैं जो ईरान की 1979 की क्रांति के दिनों तक जाते हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोस में मौजूद कई क्षेत्रीय देशों की तरह ईरान के लिए भी इन बीते वर्षों में अमेरिका का सुरक्षा आवरण फ़ायदेमंद रहा. अब दूसरे देशों की तरह ईरान भी लंबी ईरान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर नये सुरक्षा परिप्रेक्ष्य को लेकर चिंतित है. 

निस्संदेह अमेरिका और ईरान के बीच के मुद्दे बेहद गहरे हैं जो ईरान की 1979 की क्रांति के दिनों तक जाते हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोस में मौजूद कई क्षेत्रीय देशों की तरह ईरान के लिए भी इन बीते वर्षों में अमेरिका का सुरक्षा आवरण फ़ायदेमंद रहा.

हालांकि अफ़ग़ान संकट को लेकर ईरान का दृष्टिकोण काफ़ी हद तक भारत के दृष्टिकोण से अलग हो सकता है. वैसे तो दोनों देशों के हित मिलते हैं और सहयोग का एक स्तर हासिल किया जा सकता है, जैसा कि कंधार में भारतीय वाणिज्य दूतावास को खाली करते वक़्त देखा गया था जब ईरान के क्षेत्र का इस्तेमाल इस मिशन की योजना बनाने और उसे अंजाम देने में किया गया था, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान संकट को सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान की ‘नज़र’ से नहीं देखा जाता है बल्कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भूराजनीतिक फ़ैसलों के हिसाब से देखा जाता है, ख़ास तौर पर ईरान के लिए. 

ईरान का दृष्टिकोण

ईरान के दृष्टिकोण से याद रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ शायद ये है कि ईरान ने पिछले कई वर्षों से तालिबान के एक हिस्से और अफ़ग़ान सरकार और उसकी क़ानूनी कार्रवाई को एक साथ समर्थन दिया है. स्कॉलर विनय कौरा इसे स्पष्ट रूप से एक ही समय ‘दुविधा’ और ‘समझौता’, ‘प्रकट’ और ‘गुप्त’ नीति के रूप में परिभाषित करते हैं. ईरान की सरकार तालिबान के साथ लंबे समय से बातचीत में लगी हुई है, वो भी तब जब इस तरह की व्यापक ख़बरें आती रहती हैं कि पिछले कई वर्षों से ईरान ने अमेरिका की सैन्य कार्रवाई तेज़ होने के बाद अफ़ग़ानिस्तान से भागने वाले अल-क़ायदा नेताओं को भी पनाह दी है. स्कॉलर असफ़ मोग़ादम अल क़ायदा के साथ ईरान के संबंधों को 9/11 के हमले से कम-से-कम एक दशक पुराना बताते हैं. उन्होंने मिस्र के इस्लामिक जिहाद (ईआईजे) के तत्कालीन अमीर और अब अल क़ायदा के नेता आयमान अल-ज़वाहिरी के 1991 में ईरान के गुप्त दौरे को निर्णायक क्षण के तौर पर रेखांकित किया है. 

लेकिन ईरान और तालिबान के बीच संबंधों का इतिहास होने के बावजूद अगस्त में काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बाद एक अंतरिम कैबिनेट के एलान को ईरान ने पूरी तरह ठीक ढंग से नहीं लिया. ईरान के नये विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दोल्लाहियान ने अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व नेताओं हामिद करज़ई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला से बातचीत की. इसकी वजह ये थी कि तालिबान की अंतरिम कैबिनेट में ज़्यादातर पश्तूनों को जगह मिली और हक़्क़ानी नेटवर्क से जुड़े लोगों को कई अहम पद दिए गए. ईरान ने अतीत में हक़्क़ानी नेटवर्क के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी जैसे लोगों के ज़िम्मे तालिबान का आंतरिक मंत्रालय जाना अफ़ग़ानिस्तान में ईरान के ‘समावेशी’ परितंत्र के दृष्टिकोण को चुनौती देता है. तालिबान के द्वारा गवर्नर के काम-काज पर नज़र रखने वाले के रूप में शिया हज़ारा नेता मौलवी महदी की नियुक्ति तालिबान और हज़ारा समुदाय के बीच एक पुल के रूप में दिखी. इसे ईरान के साथ तालिबान के द्वारा संबंध दुरुस्त करने की कोशिश के रूप में भी देखा गया. इस फ़ैसले के साथ कई और गतिविधियों जैसे आशुरा मनाने के दौरान तालिबान से जुड़े सोशल मीडिया अकाउंट के द्वारा सुरक्षा मुहैया कराने को दिखाने से बहुत कुछ नहीं हुआ. हालांकि ईरान के सुरक्षा तंत्र ने एक हद तक तालिबान के इन क़दमों को स्वीकार किया है. 

ईरान ने अतीत में हक़्क़ानी नेटवर्क के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी जैसे लोगों के ज़िम्मे तालिबान का आंतरिक मंत्रालय जाना अफ़ग़ानिस्तान में ईरान के ‘समावेशी’ परितंत्र के दृष्टिकोण को चुनौती देता है.

ईरान की विदेश नीति इन दिनों काफ़ी हद तक अमेरिका के ज़ोरदार विरोध के इर्द-गिर्द टिकी हुई है. 

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर लंबे समय तक चलने वाली पी5+1 बातचीत का अंत 2015 में ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) पर हस्ताक्षर के रूप में हुआ. उम्मीद की गई कि ये समझौता एक निर्णायक क्षण बनेगा. इसका उद्देश्य ईरान को दशकों पुराने आर्थिक और राजनीतिक अलगाव से बाहर लाना था. लेकिन 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा अचानक इस समझौते से अलग होने और एक साथ अमेरिका और इज़रायल के द्वारा सैन्य धमकी की वजह से ईरान के रूढ़िवादी मज़बूत हुए. इन रूढ़िवादियों में से ज़्यादातर ईरान के नरम नेताओं के नेतृत्व में जेसीपीओए बातचीत के ख़िलाफ़ थे. अब पी5+1 और ईरान एक बार फिर बातचीत की मेज पर लौट रहे हैं. इस बीच ईरान ने चीन और रूस– दोनों देशों के साथ व्यापक सामरिक समझौतों की तरफ़ क़दम बढ़ाए हैं. ऐसा करके ईरान अमेरिका के साथ मोल-भाव करने की अपनी क्षमता बढ़ा रहा है. 

ईरान की भूराजनीतिक सोच में अमेरिका सबसे बड़ा मुद्दा है और अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भी ऐसा ही है. जैसा कि पहले बताया जा चुका है, अफ़ग़ानिस्तान को लेकर ईरान के दोहरे रवैये ने उसे फ़ातेमियून ब्रिगेड खड़ा करने की मंज़ूरी दी. फ़ातेमियून ब्रिगेड एक नागरिक सेना है जिसमें वो अफ़ग़ानी शिया शामिल हैं जिन्हें सीरिया में तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए तैनात किया गया था. साथ ही फ़ातेमियून ब्रिगेड का उद्देश्य सीरिया की असद हुकूमत को पश्चिमी दबाव के ख़िलाफ़ सहारा देना था और सऊदी अरब और इज़रायल जैसे देशों के ख़तरे के ख़िलाफ़ जवाब देना था. फ़ातेमियून ब्रिगेड के कई अफ़ग़ानी शिया ने सीरिया में लड़ाई लड़ी और वापस अफ़ग़ानिस्तान लौट आए. उन्होंने फिर से ‘घुलने-मिलने’ की मुश्किलों के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान की नागरिक सेना के परिदृश्य के भीतर युद्ध के लिए तैयार परितंत्र तक ईरान को पहुंच दिलाई. दूर से देखें तो शिया इस्लाम मानने वाली धार्मिक सरकार के देश ईरान की सीमा पर अब सुन्नी इस्लाम मानने वाली धार्मिक सरकार का देश अफ़ग़ानिस्तान है और ऐतिहासिक रूप से इस भारी वैचारिक दरार का सामरिक प्रबंधन सीमा पर शांति बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा.

दूर से देखें तो शिया इस्लाम मानने वाली धार्मिक सरकार के देश ईरान की सीमा पर अब सुन्नी इस्लाम मानने वाली धार्मिक सरकार का देश अफ़ग़ानिस्तान है और ऐतिहासिक रूप से इस भारी वैचारिक दरार का सामरिक प्रबंधन सीमा पर शांति बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा.

ऊपर बताई गई सभी चीज़ें आज ईरान के दृष्टिकोण से अफ़ग़ानिस्तान में एक साथ काम करती हुई देखी जा सकती हैं. ये एक ‘नरम’ और ‘गरम’ दृष्टिकोण है जो एक साथ हस्तक्षेप और पीछे हटने की स्थिति के लिए है. अफ़ग़ानिस्तान के लिए ईरान के विशेष दूत हसन काज़मी क़ोमी ने अपने काबुल दौरे में अमेरिका पर इस्लामिक स्टेट खोरासान (आईएसकेपी) का समर्थन करने का आरोप लगाया. ये ऐसी दलील है जिसे सीरिया के युद्धक्षेत्र से आयात किया गया है. क़ोमी ने अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों की आर्थिक पाबंदी की तुलना ईरान के ख़िलाफ़ इसी तरह की रणनीति से करते हुए कहा कि इससे लोगों को काफ़ी दिक़्क़त हो रही है. 

भारतीय दृष्टिकोण 

भारत और ईरान के बीच नियमित तौर पर उच्चस्तरीय बातचीत के बावजूद दोनों देशों के संबंध में उतनी गर्मजोशी नहीं है. इसकी वजह काफ़ी हद तक ईरान पर अमेरिका की आर्थिक पाबंदी है जिसकी वजह से ईरान का तेल व्यापार ख़त्म हो गया है. भारतीय दृष्टिकोण से ईरान की रणनीतिक और विदेशी नीति की पसंद की व्याख्या में ईरान की स्थिति को मान्यता मिलनी चाहिए जो ख़ुद को बचाने वाला देश है, जिसका स्वभाव लेन-देन का है और आर्थिक पाबंदी हो या नहीं हो उससे निपटना चुनौती से भी ज़्यादा है. 

ईरान के पास अफ़ग़ानिस्तान के नतीजे और ऊपर बताए गए कारणों के लिए तालिबान के उदय का प्रबंधन करने की क्षमता है. भारत और ईरान- दोनों देशों ने बार-बार अफ़ग़ानिस्तान में एक समावेशी और प्रतिनिधित्व पर आधारित राजनीतिक सरकार की मांग की है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से सीधी निकटता के बावजूद ईरान का हित पूरी तरह से धार्मिक होने से काफ़ी ज़्यादा सामरिक है. हालांकि अगर भारत सिर्फ़ बुनियादी बातों से आगे अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर काम करने का इरादा रखता है तो अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों की वजह से पिछले कुछ वर्षों में भारत और ईरान के बीच संबंधों में झटका लगने का ईरान फ़ायदा उठाएगा. भारत में ईरान के दूत अली चेगेनी ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि भारत को ईरान के साथ तेल का व्यापार फिर से शुरू करना चाहिए और इसके बिना दोनों देशों के बीच व्यापार सिर्फ़ नाममात्र का ही है. इस बीच चाबाहार बंदरगाह जैसी भारत की इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना और फ़रज़ाद बी हाइड्रोकार्बन फील्ड का विकास कई वर्षों से धीमी रफ़्तार से चल रहा है बल्कि ये कहें कि कुछ मामलों में तो दशकों से चल रहा है जिसकी गति कछुए से भी कम है. हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच शायद ही किसी बड़ी परियोजना का ऐलान किया गया है. 

चाबाहार बंदरगाह जैसी भारत की इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना और फ़रज़ाद बी हाइड्रोकार्बन फील्ड का विकास कई वर्षों से धीमी रफ़्तार से चल रहा है बल्कि ये कहें कि कुछ मामलों में तो दशकों से चल रहा है जिसकी गति कछुए से भी कम है. 

पश्चिमी देशों के प्रतिबंध की छतरी के तहत सहयोग की कोशिशों के कुछ और उदाहरणों में शामिल है भारत के द्वारा ईरान के तेल का बकाया कई वर्षों में भुगतान करने की कोशिश करना. साथ ही तुर्की के बैंक हाल्कबैंक को मध्यस्थ की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करना. हाल्कबैंक ख़ुद ही ‘ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध से बच निकलने के लिए कई अरब डॉलर की योजना में शामिल होने’ की वजह से जांच के दायरे में आया. इसकी वजह से हाल्कबैंक के रास्ते बंद हुए. हालांकि भारत ने अक्सर अमेरिकी दबावों का विरोध भी किया है. उदाहरण के लिए, अपनी सामरिक स्वायत्तता को दिखाने के लिए भारत ने ईरान के बैंकों को मुंबई में शाखा खोलने की इजाज़त दी ताकि अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद वित्तीय प्रवाह आसान हो सके. भारत ने काफ़ी हद तक अमेरिकी दबाव की वजह से ईरान की तरफ़ से बैंक की शाखा खोलने के अनुरोध को लंबे वक़्त तक ठुकरा दिया था. दूसरी तरफ़ भारत ने पश्चिमी देशों की मदद करते हुए ईरान से बातचीत के दौरान परमाणु समझौते से होने वाले फ़ायदे के बारे में भी बताया. पिछले एक दशक के दौरान ईरान के साथ जुड़ाव के लिए बीच का रास्ता जैसे-जैसे मुश्किल होता गया, वैसे-वैसे भारत, ईरान और अमेरिका के बीच ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं. 

एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण से भारत-ईरान द्विपक्षीय संबंध चुनौतीपूर्ण रहे हैं वहीं विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर के हालिया इज़रायल दौरे में अमेरिका-यूएई-भारत-इज़रायल ‘क्वाड’ बैठक भी ईरान के लिए चिंता की नई परत डालता है. इज़रायल के लिए इस बैठक के साथ-साथ उसकी मेज़बानी में ब्लू फ्लैग 2021 सैन्य अभ्यास, जहां भारत ने भागीदारी की थी, कुछ हद तक इज़रायल के हितों में ‘दोस्तों’ का मिलन था जो अपने-आप में ईरान के ख़िलाफ़ है. इज़रायल-ईरान के बीच क्षेत्रीय तनाव ने भारत का रुख़ भी किया है क्योंकि 2012 और 2021 में इज़रायल के दूतावास पर हमले का आरोप ईरान पर लगा है. कुल मिलाकर यूएई, सऊदी अरब और खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के साथ तेज़ आर्थिक और सुरक्षा संबंध को ईरान ऐसे रुझान के रूप में देखेगा जिसे भारत ईरान के साथ भी संतुलित करे. 

आख़िर में, शायद अफ़ग़ानिस्तान के परिप्रेक्ष्य में ईरान में भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण हित ये तथ्य है कि ईरान और पाकिस्तान के संबंध असहज हैं और जब अफ़ग़ानिस्तान जैसे मुद्दे आते हैं तो दोनों देशों के बीच छिपे हुए संघर्ष का गंभीर रूप अख्तियार कर लेता है. ये संघर्ष बढ़कर अशांत बलूचिस्तान क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सीमा के मुद्दे पर चला जाता है. सितंबर में काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बीच ईरान की तरफ़ से फायरिंग में एक पाकिस्तानी सैनिक की मौत हो गई. ऐसी ही कुछ और घटनाएं नियमित तौर पर पाकिस्तान की तरफ़ से भी होती रहती हैं. हालांकि दोनों देश इस तरह की घटनाओं के लिए अज्ञात छोटी-छोटी क्षेत्रीय नागरिक सेना और गैंग को ज़िम्मेदार ठहराते हैं लेकिन असली बात दोनों पड़ोसियों के बीच बुनियादी मुद्दों को लेकर टकराव है. पाकिस्तान की मध्यस्था में बनी तालिबान की अंतरिम कैबिनेट, जिसमें हक़्क़ानी नेटवर्क को काफ़ी तरजीह मिली है, के ख़िलाफ़ ईरान की तीखी प्रतिक्रिया इन क्षेत्रीय तनावों के और भी ज़्यादा अध्ययन के लिए अच्छा मामला पेश करती है. ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव रियर एडमिरल अली शामख़ानी ने ट्विटर के ज़रिए तालिबान की कैबिनेट में ‘सभी समुदायों की नुमाइंदगी’ की कमी को लेकर असंतोष जताया. वहीं अली फतोल्ला-नेजाद और हामिदरज़ा अज़ीज़ी जैसे विद्वानों ने अफ़ग़ानिस्तान में प्रभुता का युद्ध पाकिस्तान से ‘हारने’ के ईरान के पहलू पर प्रकाश डाला. ये स्थिति तब है जब दूसरे सक्रिय क्षेत्रीय देशों जैसे क़तर और तुर्की के साथ ईरान के अपेक्षाकृत सौहार्दपूर्ण संबंध हैं. 

अफ़ग़ानिस्तान के परिप्रेक्ष्य में ईरान में भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण हित ये तथ्य है कि ईरान और पाकिस्तान के संबंध असहज हैं और जब अफ़ग़ानिस्तान जैसे मुद्दे आते हैं तो दोनों देशों के बीच छिपे हुए संघर्ष का गंभीर रूप अख्तियार कर लेता है.

निष्कर्ष 

ईरान और भारत अफ़ग़ानिस्तान के कई बदलते मुद्दों पर एक-दूसरे से आंख मिलाना चाहेंगे जिनमें पाकिस्तान का ज़रूरत से ज़्यादा असर शामिल है. लेकिन भारत के साथ सहयोग में किसी भी तरह की बढ़ोतरी सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान की नज़र से देखना असंभव है. ईरान के लोग सामंजस्य बैठाने में माहिर हैं, उन्होंने मुश्किल हालात में भी अपना वजूद बचाए रखा. पश्चिम के देश पसंद करें या नहीं लेकिन वो टिके रहे और कई क्षेत्रों में कामयाब भी हुए. वो भी तब जब अंतर्राष्ट्रीय तौर पर वो अलग रहे, उनके सामने महत्वपूर्ण घरेलू चुनौतियां थीं और विदेश नीति संचालन का विस्तृत क्षेत्र उनके सामने था. ये स्थितियां क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए नुक़सानदेह हैं या फ़ायदेमंद, इस पर एक और चर्चा हो सकती है. 

भारत की पश्चिम एशिया में संतुलन की नीति में सऊदी अरब, इज़रायल और ईरान के बीच ‘शक्ति के तीन ध्रुवों’ का दृष्टिकोण है और अरब के देशों और इज़रायल के बीच संबंध सामान्य होने के साथ अरब और इज़रायल के मोर्चे पर जहां आसानी आई है वहीं ईरान के मोर्चे पर टकराव बढ़ा है.

अफ़ग़ानिस्तान और वहां के घटनाक्रम से बनने वाले सुरक्षा हालात पर चर्चा करने के लिए ईरान भारत का स्वाभाविक साझेदार है. लेकिन ईरान को हर मौक़े के लिए सही साझेदार के तौर पर देखने की अपनी अलग चुनौती है और इसमें एक निश्चिम सीमा से आगे किसी वादे पर उतरने के कई अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दे आएंगे. इसमें ईरान की वर्षों पुरानी ‘दोहरी’ नीति भी लागू होगी जहां उसका एक पैर तालिबान के साथ था, वहीं दूसरा पैर काबुल की सत्ता पर काबिज लोगों के साथ. जैसा कि इस लेखक ने पहले भी दलील दी थी, भारत की पश्चिम एशिया में संतुलन की नीति में सऊदी अरब, इज़रायल और ईरान के बीच ‘शक्ति के तीन ध्रुवों’ का दृष्टिकोण है और अरब के देशों और इज़रायल के बीच संबंध सामान्य होने के साथ अरब और इज़रायल के मोर्चे पर जहां आसानी आई है वहीं ईरान के मोर्चे पर टकराव बढ़ा है. भारत के लिए अच्छी ख़बर है कि ये मुश्किलें नई नहीं हैं और भारत अपने सामरिक लक्ष्यों को सबसे आगे रखते हुए इस उलझाव से निपटने में अच्छी तरह सक्षम है. लेकिन ऐसा हो सकता है कि सामरिक लक्ष्य को अपने आप में अफ़ग़ानिस्तान पर वास्तविकता के ख़ुराक की ज़रूरत हो. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.