Author : Angad Singh

Published on Sep 23, 2020 Updated 0 Hours ago

आसमान में दो विमानों के बीच ज़बरदस्त मुक़ाबले में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जीत हासिल चकित करने वाली है. लेकिन इससे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस भविष्य के युद्ध की तस्वीर स्पष्ट नहीं होती.

आसमान में हिस्सेदारी: आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस योद्धाओं का जंग के मैदान में आगमन

20 अगस्त को बहुत प्रचारित किए गए एक मुक़ाबले में एक आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) से लैस एल्गोरिदम ने अनुभवी फाइटयर पायलट को कंप्यूटर पर सिमुलेटेड डॉगफाइट में शिकस्त दे दी. ये आसमानी जंग पूरी तरह से सॉफ्टवेयर के मैदान में हुई. जहां पर अमेरिका की वायुसेना (USAF) के F-16 फाइटर प्लेन के पायलट (जिसे कॉल साइन बैंगर के नाम से जाना जाता है) ने वर्चुअल रियलिटी सेटअप की मदद से कंप्यूटर स्क्रीन पर लड़ाकू विमान उड़ाया. और उसके मुक़ाबले जो वायु योद्धा था, वो कोई इंसान नहीं था. बल्कि, वो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस एल्गोरिदम था जिसे अमेरिका के रक्षा क्षेत्र के ठेके लेने वाली एक छोटी सी कंपनी हेरोन सिस्टम ने तैयार किया था. इस सिमुलेटेड डॉगफाइट के नियम ये थे कि दोनों ही पायलट यानी बैंगर और हेरोन सिस्टम का एल्गोरिदम, विज़ुअल रेंज के पांच राउंड में एक दूसरे का मुक़ाबला कर सकते थे. और उनके पास हथियारों के रूप में केवल बंदूकें थीं. बैंगर अमेरिका की वायुसेना के मशहूर वेपन्स स्कूल से प्रशिक्षण प्राप्त फाइटर पायलट है. लेकिन, मशीन से मुक़ाबले में उसे पांचों राउंड में शिकस्त ही मिली. इस सिमुलेशन को ‘अल्फा डॉगफाइट’ का नाम दिया गया था. ये सिमुलेशन उस स्वायत्त तकनीकी विकास कार्यक्रम का आख़िरी चरण है, जिसे अमेरिका के डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी (DARPA) ने एयर कॉम्बैट इवोल्यूशन (ACE) का नाम दिया है. इस कार्यक्रम का मक़सद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीनी मस्तिष्क को भविष्य के आसमानी मुक़ाबलों के लिए तैयार करना है.

इंसान और मशीन के बीच हुए इस मुक़ाबले को पूरी दुनिया में लाइव स्ट्रीमिंग के ज़रिए दिखाया गया था. इस दौरान DARPA के उद्घोषकों ने इंसान और मशीन के बीच के इस मुक़ाबले की संदर्भ समेत व्याख्या करने की कोशिश की. उनका कहना था कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को इस सिम्युलेशन की अच्छे से समझ थी. जबकि वास्तविक दुनिया में ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है. और इस वर्चुअल डॉगफाइट के बहुत से दांव पेंचों को वास्तविक दुनिया में संचालित कर पाना संभव नहीं था. जैसे कि आमने सामने के मुक़ाबले या बेहद क़रीब से गोली चलाना. और हेरोन सिस्टम की इंसानी फाइटर पर जीत की ये बड़ी वजह रही. एक उद्घोषक ने इस सिम्युलेटेड मुक़ाबले को भविष्य के लिए तैयार की जाने वाली स्वायत्त हवाई युद्ध की तकनीक की दिशा में लंबी छलांग बताया. लेकिन, कमेंटेटर्स में से एक जो ख़ुद भी फाइटर पायलट रह चुके हैं, ने कहा कि, ‘भले ही ये मशीनी फाइटर पायलट तैयार करने की दिशा में बड़ा क़दम कहा जा रहा हो. लेकिन, अभी भी किसी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस विमान को हवाई युद्ध के लिए जंग के आसमान में भेजना बहुत दूर की कौड़ी है.’ ये रिसर्च करने वाली संस्था DARPA के उद्घोषकों ने ये भी कहा कि इस सिम्युलेटेड हवाई मुक़ाबले को बेहद कम समय में तैयार किया गया और ये महत्वपूर्ण उपलब्धि है. लेकिन, ACE कार्यक्रम के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में ये बहुत छोटा सा क़दम है. अपने बल बूते पर ऐसे मशीनी योद्धाओं को मैदान में उतारने से पहले इन्हें तकनीकी महारत के कई पड़ाव पार करने होंगे. उन्हें तमाम वास्तविक हालात के हिसाब से फौरी निर्णय लेने की क्षमता का प्रदर्शन करना होगा. तभी जाकर इन्हें वास्तविक दुनिया में प्रदर्शन के लिए उतारा जा सकेगा. और वास्तविक युद्ध क्षेत्र में इन मशीनी योद्धाओं के कौशल का प्रदर्शन आंकना तो अभी बहुत दूर की कौड़ी है.

इंसान और मशीन के बीच हुए इस मुक़ाबले को पूरी दुनिया में लाइव स्ट्रीमिंग के ज़रिए दिखाया गया था. इस दौरान DARPA के उद्घोषकों ने इंसान और मशीन के बीच के इस मुक़ाबले की संदर्भ समेत व्याख्या करने की कोशिश की. उनका कहना था कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को इस सिम्युलेशन की अच्छे से समझ थी.

तकनीकी उठा-पटक और नियम व शर्तें एक तरफ, लेकिन जिस तरह से इस वर्चुअल मुक़ाबले में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस मशीनी फाइटर पायलट ने एक तजुर्बेकार फाइटर पायलट को शिकस्त दी, उससे भविष्य की युद्ध कला में आने वाले बदलावो के संकेत साफ़ दिखने लगे हैं. और ये बदलाव केवल हवाई युद्ध के क्षेत्र में नहीं आने वाले हैं. ये मशीनी योद्धा किसी भी युद्ध क्षेत्र में इंसान की उपस्थिति के ख़तरे और किसी भी इंसान की शारीरिक क्षमताओं की सीमाओं को कम या दूर करने वाले हैं. युद्ध क्षेत्र में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल फिर चाहे वो टैक्टिकल स्तर पर ही क्यों न हो, उसके कई विशिष्ट लाभ होंगे. कोई भी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस एल्गोरिदम इंसान के मुक़ाबले तेज़ी से नए हुनर सीखेंगे. आंकड़ों का विश्लेषण करने से उन्हें थकान नहीं होगी. वो इंसानी पूर्वाग्रहों के शिकार नहीं होगे. वो बस अपने अंदर मशीनी प्रोग्रामिंग के हिसाब से सोचेंगे और क़दम उठाएंगे. हालांकि इस बात की समीक्षा अभी और की जानी चाहिए. युद्ध क्षेत्र में तय किए गए लक्ष्य हासिल करने की उनकी उपलब्धियां इंसानों से निश्चित रूप से बेहतर होंगी. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का युद्ध क्षेत्र में पहले से ही काफ़ी इस्तेमाल हो रहा है. जैसे कि तमाम सेंसर्स में सेंसर फ्यूज़न या अलग अलग प्लेटफॉर्म और अलग अलग सेंसर से हासिल डेटा का विश्लेषण करके युद्ध क्षेत्र के प्रति जानकारी को बढ़ाया जा रहा है. फिर चाहे वो फाइटर विमानों के पायलट हो, समुद्र में लड़ाकू जहाज़ चलाने वाले सेलर हों या फिर हवाई सुरक्षा की निगरानी करने वाले विशेषज्ञ ही क्यों न हों. DARPA के ACE जैसे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके भविष्य के मशीनी योद्धा तैयार करने वाले कार्यक्रम, मशीन लर्निंग के युद्ध क्षेत्र में प्रयोग को नए स्तर पर ले जा रहे हैं. अब ये केवल इंसानों को फ़ैसले लेने में मदद ही नहीं कर रहे. नई तकनीक से लैस आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस स्वायत्त रूप से स्वयं भी युद्ध क्षेत्र संबंधी निर्णय लेने के लिए तैयार किए जा रहे हैं.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और स्वतंत्र रूप से निर्णय कर सकने वाली तकनीकों ने लंबा सफर तय कर लिया है. दूर स्थित लक्ष्य का पता लगाने जैसे काम करने से आगे आज हवाई युद्ध क्षेत्र और ज़मीनी स्तर पर इनका इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया है. आज ड्रोन बिना एयरक्राफ्ट कैरियर से उड़ान भर कर इंसान के दखल दिए हुए ही स्वयं कार्य संपादित कर रहे हैं. इसी तरह टैंकर, फाइटर विमानों को ईंधन की आपूर्ति हवा में कर रहे हैं. इसी तरह बड़े बड़े जहाज़ लंबे सफर को बिना इंसान की मदद के तय कर रहे हैं. वास्तविकता ये है कि जिस तरह से अल्फा डॉगफाइट ने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस योद्धा की फुर्ती का प्रदर्शन किया है उससे ज़ाहिर है कि युद्ध क्षेत्र में मशीनी योद्धा कितने कुशल होते जा रहे हैं. केवल 12 महीनों में के अंदर आठ कंपनियों ने विश्वसीनय स्वायत्त तकनीक से लैस मशीनें तैयार की हैं. और मज़े की बात ये है कि इनमें से एक मशीनी योद्धा ने एक ऐसे इंसान को पराजित करने में सफलता प्राप्त की, जो तजुर्बेकार फाइटर पायलट है.

ये मशीनी योद्धा किसी भी युद्ध क्षेत्र में इंसान की उपस्थिति के ख़तरे और किसी भी इंसान की शारीरिक क्षमताओं की सीमाओं को कम या दूर करने वाले हैं. युद्ध क्षेत्र में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल फिर चाहे वो टैक्टिकल स्तर पर ही क्यों न हो, उसके कई विशिष्ट लाभ होंगे.

अमेरिका का ACE कार्यक्रम हवाई युद्ध पर केंद्रित है. इस तकनीक की मदद से फाइटर प्लेन उड़ाने वाले पायलटों को बहुत अधिक क्षमता वाले और स्वतंत्र रूप से संचालित होने वाले ड्रोन से लैस किया जाएगा. जिसकी मदद से हवा में दुश्मन से डॉगफाइट, हमला करने, दुश्मन के नेटवर्क को जाम करने या फिर उस पर केवल निगरानी रखने जैसे काम किए जा सकेंगे. यानी इस कार्यक्रम की जो मूल परिकल्पना है, उसके अनुसार एक फाइटर विमान उड़ाने वाले पायलट को सिस्टम ऑपरेटर बनाना है. जो किसी भी हालात से निपटने के लिए मशीनों का ‘सिचुएशन मैनेजर’ बन जाएगा. जिसका काम अपनी ज़िम्मेदारियों को युद्ध क्षेत्र में जाने पर मशीनी योद्धाओं के हवाले कर देना होगा. और ऐसा सिर्फ़ हवाई युद्ध क्षेत्र में नहीं होगा. समुद्र और थल युद्ध के दौरान भी आने वाले समय में ऐसे मशीनी योद्धा ही सेनाओं के पहले मोर्चे को संभालेंगे. ऐसे में ये जानकारी चौंकाने वाली नहीं लगेगी कि चीन समेत दुनिया की तमाम बड़ी सैन्य ताक़तें सामरिक क्षेत्र के आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में काफ़ी निवेश कर रही हैं.

इस बीच स्वतंत्र रूप से युद्ध लड़ने में सक्षम हथियारों को युद्ध क्षेत्र में इस्तेमाल करने की नैतिकता को लेकर सवाल और गहरे व तीखे होते जा रहे हैं. ख़ासतौर से जैसे जैसे इस दिशा में रिसर्च और बढ़ रहा है या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वाले नए हथियार विकसित हो रहे हैं, तो युद्ध में नैतिकता का सवाल बड़ा होता जा रहा है. चीन ने ऐसे हथियारों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करके इस दिशा में पहल की है. हालांकि, चीन ऐसे हथियारों के विकास पर रोक लगाने की बात नहीं करता. जबकि, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों के बीच इस मसले पर आम सहमति नहीं बन पा रही है. जैसा कि मिसाइल या एटमी तकनीक को लेकर हमने अतीत में देखा था, ख़तरा इस बात का है भारत, युद्ध के मैदान में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग के क्षेत्र में कोई पहल करने से पहले ही काफ़ी पीछे छूट जाएगा.

भारत की रक्षा मशीनरी, जो अपने अनिर्णय के लिए बदनाम है. और, भारत की रक्षा मशीनरी को चलाने वाले लोग अपनी संकीर्ण सोच के लिए कुख्यात हैं. इन दोनों को ये समझना होगा कि भारत की सेना का आधुनिकीकरण करने में पहले ही बहुत देर हो चुकी है.

आज भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी भारी-भरकम सेना में काट-छांट करने की है. क्योंकि यहां पर इंसानी योद्धाओं की संख्या निश्चित रूप से काफ़ी अधिक है. और इससे भारत का सैन्य खर्च काफ़ी बढ़ गया है. अगर, भारत अपनी सेना में सैनिकों की संख्या में भविष्य में कटौती करता है, तो ज़ाहिर है उसे अपनी सैन्य ताक़त को बढ़ाने के लिए ऐसे स्वतंत्र रूप से युद्ध करने में सक्षम मशीनी योद्धाओं को अपनी तीनों सेनाओं में शामिल करना ही होगा. भारत की रक्षा मशीनरी, जो अपने अनिर्णय के लिए बदनाम है. और, भारत की रक्षा मशीनरी को चलाने वाले लोग अपनी संकीर्ण सोच के लिए कुख्यात हैं. इन दोनों को ये समझना होगा कि भारत की सेना का आधुनिकीकरण करने में पहले ही बहुत देर हो चुकी है. ऐसे में अगर भारत की तीनों सेनाएं शुरुआती प्रयोग करने के बजाय सीधे स्वतंत्र रूप से संचालित हो सकने वाले हथियारों और मशीनी योद्धाओं की दिशा में क़दम बढ़ाती हैं. उनका व्यापक इस्तेमाल शुरू करती हैं. फिर चाहे उनका इंसान और मशीनों की टीम के रूप में संचालन करना हो या पूरी तरह से स्वायत्त मशीनी योद्धाओं का इस्तेमाल करना हो. तो, इससे भारत की सेनाओं को बहुत लाभ होगा. उदाहरण के लिए भारत की नौसेना के पास समुद्र में बारूदी सुरंगों का पता लगाने वाले जहाज़ों की भारी कमी है. इस कमी को दूर करने के लिए बारूदी सुरंगों से अपने आप निपटने वाले जहाज़ों को नौसेना में शामिल किया जा सकता है. न कि बड़े और महंगे मानव संचालित जहाज़ों को ख़रीद कर ये चुनौती दूर की जाए. नियमित रूप से सीमाओं की निगरानी करना जिसकी कमी हम भारत की तीनों सेनाओं में व्यापक तौर पर देखते हैं. हाल के दिनों में लद्दाख में ये कमी और भी उजागर हो गई है. इस कमी को आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल करके बहुत आसानी से दूर किया जा सकता है. इसी तरह, भारतीय वायुसेना में फाइटर विमानों की कमी की बहुत चर्चा होती है. इस कमी को दूर करने के लिए फाइटर पायलटों द्वारा संचालित लड़ाकू विमान ख़रीदने पर पूरा ज़ोर देने के बजाय, छोटे-छोटे आधुनिक मशीन से संचालित लड़ाकू विमानों को भी साथ साथ ख़रीदकर आसानी से पूरा किया जा सकता है. क्योंकि इंसानों द्वारा उड़ाए जाने वाले फाइटर प्लेन महंगे भी होते हैं और इनकी डिलीवरी में भी काफ़ी समय लग जाता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.