Published on Jun 12, 2018 Updated 0 Hours ago

देश भर में कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना एक महत्वाकांक्षी और व्यापक पहल है। इसे राजनीतिक वर्ग की अज्ञानता, प्रशासनिक लाल फीताशाही या मंत्रालयों के बीच अधिकारों की लड़ाई की भेंट नहीं चढ़ने दिया जा सकता।

कौशल विश्वविद्यालयों की योजना एक महत्वाकांक्षी और व्यापक पहल

बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसरों का सृजन और रोजगार की विभिन्न भूमिकाओं के लिए कुशल मानव संसाधन उपलब्ध कराने की भारत सरकार की पहल सुस्थापित हो चुकी है। 2022 तक, भारत के कार्यबल की ताकत बढ़कर 600 मिलियन हो जाने की संभावना है। लिहाजा, बहुत जरूरी है कि इस कार्यबल को विकसित हो रही नौकरियों और कौशलों के बाजार के लिहाज़ से पर्याप्त और उपयुक्त प्रशिक्षण मिले। देश के भीतर नौकरियों के अवसरों के अलावा, विकसित अर्थव्यवस्थाओं की उम्रदराज हो रही आबादी को देखते हुए भारत अपनी बहुसंख्य कुशल मानवशक्ति का इस्तेमाल दुनिया भर में कामगारों की कमी को मिटाने में कर सकता है, जो वर्ष 2020 तक बढ़कर 50 मिलियन से ज्यादा हो सकती है।

इस अवसर का संज्ञान लेते हुए, बेहद नेकनीयत के साथ, लेकिन अक्सर खराब तरह से नियोजित कौशल विकास कार्यक्रम देश में केंद्रीय और साथ ही साथ राज्य स्तर पर शुरु किए गए। योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए अनेक संस्थागत व्यवस्थाओं का सहारा लिया गया, हालांकि अक्सर इनमें सामंजस्‍य का अभाव रहा। वैसे तो, भारत में ‘कौशल’ और ‘शिक्षा’ का दायित्व दो अलग-अलग मंत्रालयों के पास है, लेकिन कौशल संबंधी पहल को भारत की मौजूदा औपचारिक शिक्षा प्रणाली से अलग-थलग नहीं किया जा सकता। इस सिलसिले में, कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (एमएसडीई) द्वारा देश भर में कौशल विश्वविद्यालय खोलने पर बल दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है। इन विश्वविद्यालयों की योजना बहुत अच्छे से तैयार की जानी चाहिए, क्योंकि इनकी प्रशासनिक, वित्तीय और संचालन संबंधी संरचना पर ही यह निर्भर करेगा कि ये विश्वविद्यालय कौशल का केंद्र बनेंगे और/या भारत के विविध भौगोलिक क्षेत्रों में समन्वयक होंगे या बेतहाशा खर्च वाले सफेद हा​थी साबित होंगे।

वैसे तो, भारत में ‘कौशल’ और ‘शिक्षा’ का दायित्व दो अलग-अलग मंत्रालयों के पास है, लेकिन कौशल संबंधी पहल को भारत की मौजूदा औपचारिक शिक्षा प्रणाली से अलग-थलग नहीं किया जा सकता।

कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना की योजना पिछले तीन साल से जारी है। मार्च 2015 में, कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना से संंबंधित योजना का मसौदा तैयार करने के लिए एक संसदीय कार्यसमूह की स्थापना की गई थी। इस समूह की सबसे प्रमुख सिफारिश थी कि इस तरह के विश्वविद्यालयों की ​स्थापना का दायित्व राज्य सरकारों को सौंपा जाए। इसके अनुसार, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और ओडिशा जैसे विभिन्न राज्यों में अनेक कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना की जा चुकी है। राजस्थान इंस्टीट्यूट आॅफ लीडरशिप डेवेलपमेंट, जयपुर अपने किस्म का पहला कौशल विश्वविद्यालय था, जिसे विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय, हरियाणा के साथ स्थापित किया जाना था। संसदीय समूह ने कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए अनेक चुनौतियों की भी पहचान की है,जिनमें अलग-अलग संचालन मॉडल, स्वायत्तता का महत्व साथ ही साथ ऐसे विश्वविद्यालयों के लिए ब्रांड तैयार करने की जरूरत शामिल है।

क्षेत्रवार कौशल परिषदों के कामकाज की समीक्षा करने के लिए 2016 में गठित की गई शारदा प्रसाद समिति ने भी ”देश की उच्च व्यवसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रणाली के लिए अनुसंधान कराने, ट्रेनरों/प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण दिलाने तथा समस्त व्यवसायिक शिक्षा प्रशिक्षण केंद्रों के लिए सम्बद्ध विश्वविद्यालय बनने” के लिए राष्ट्रीय व्यवसायिक विश्वविद्यालय की स्थापना की सिफारिश की।

इन दोनों विशेषज्ञ समूहों ने कौशल विश्वविद्यालयों की जरूरत की पहचान की, जो अच्छी और उपयुक्त कौशल शिक्षा प्रदान करने के प्रमुख उद्देश्य को पूरा करने के लिए परम्परागत विश्वविद्यालयों से अलग तरीके से काम करेंगी।

कौशल विश्वविद्यालय, अपने-अपने राज्य के कौशल विकास मंत्रालयों के दायरे में आएंगे, ऐसे में यूजीसी को उनकी स्थापना साथ ही साथ कामकाज के लिए विशेष प्रावधान करने होंगे। अगर यह कार्य विचार-विमर्श की कतई गुंजाइश न होने की पूर्व शर्त के साथ ना किया गया, तो प्रस्तावित कौशल विश्वविद्यालयों के संचालन, के प्रशासनिक और राजनीतिक लालफीताशाही में उलझने का खतरा होगा, जिससे देश के राज्यों में बड़ी तादाद में सार्वजनिक विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं।

कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना के उद्देश्यों में सबसे महत्वपूर्ण छात्रों को जुटाने की चुनौती से निपटना है। अनेक अध्ययनों में इस ओर ​इशारा किया गया है कि कौशल विश्वविद्यालयों को आमतौर पर परम्परागत शिक्षा प्रणाली से कमतर माना जाता है और अक्सर छात्र व्यवसायिक शिक्षा का विकल्प चुनने के इच्छुक नहीं होते।​व्यवसायिक संस्थान के साथ ​’विश्वविद्यालय’ का तमगा जोड़ने से इस समस्या का समाधान हो सकता है। हालांकि भारत की मौजूदा व्यवस्था में ‘विश्वविद्यालय’ शब्द का इस्तेमाल करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मंजूरी लेना आवश्यक है, जो भारत सरकार द्वारा मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के तहत स्थापित संवैधानिक निकाय है। कौशल विश्वविद्यालय, अपने-अपने राज्य के कौशल विकास मंत्रालयों के दायरे में आएंगे, ऐसे में यूजीसी को उनकी स्थापना साथ ही साथ कामकाज के लिए विशेष प्रावधान करने होंगे। अगर यह कार्य विचार-विमर्श की कतई गुंजाइश न होने की पूर्व शर्त के साथ ना किया गया, तो प्रस्तावित कौशल विश्वविद्यालयों के संचालन, के प्रशासनिक और राजनीतिक लालफीताशाही में उलझने का खतरा होगा, जिससे देश के राज्यों में बड़ी तादाद में सार्वजनिक विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं।

ऐसे समय में जबकि विश्‍व आने वाली चौथी औद्योगिक क्रांति (4आईआर) के पूरे प्रभाव से निपटने के लिए खुद को तैयार कर रहा है, मौजूदा अ​र्थव्यस्थाओं को तेजी बदल रही नौकरियों की प्रकृति समाधान करना होगा। भारतीय संदर्भ में, वैश्वीकरण, उसके जनसांख्यकीय लाभांश साथ ही साथ चौथी औद्योगिक क्रांति के प्रभाव के परिणामस्वरूप नई और विकसित हो रही नौकरियों की भूमिकाएं धीरे-धीरे उभरेंगी।इसके परिणामस्वरूप, कौशल विश्वविद्यालय को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर नियमित रूप से (अच्छा हो कि हर पांच साल पर)मांग का आकलन करने वाले अध्ययन कराने होंगे और/या आउटसोर्स करने होंगे, साथ ही साथ देश के अन्य हिस्सों में हुए समान तरह के अध्ययनों को भी देखना होगा। इसलिए, बाजार की मांग के अनुसार विभिन्न कोर्स आवश्यक तौर पर शुरू करने चाहिए, उनमें बदलाव किया जाना चाहिए या ​फिर उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। इन प्रयासों में राज्य साथ ही साथ केंद्र सरकार को विभिन्न क्षेत्रों में कौशल की कमी, भविष्य के अनुमान आदि के बारे में समय-समय पर अध्ययन कराने आदि के जरिए सहयोग करना चाहिए। कौशल विश्वविद्यालयों में इस प्रकार के मांग आधारित मॉडल का अनुसरण करने की गतिशीलता होनी चाहिए या फिर ऐसी अप्रसांगिक संस्थाएं बनने का जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिए, जो प्रमाणित लेकिन बेरोजगार छात्र तैयार कर रही हों।

ऐसे समय में जबकि विश्‍व आने वाली चौथी औद्योगिक क्रांति (4आईआर) के पूरे प्रभाव से निपटने के लिए खुद को तैयार कर रहा है, मौजूदा अ​र्थव्यस्थाओं को तेजी बदल रही नौकरियों की प्रकृति समाधान करना होगा। भारतीय संदर्भ में, वैश्वीकरण, उसके जनसांख्यकीय लाभांश साथ ही साथ चौथी औद्योगिक क्रांति के प्रभाव के परिणामस्वरूप नई और विकसित हो रही नौकरियों की भूमिकाएं धीरे-धीरे उभरेंगी।

राज्‍य या प्रांत और तो और राष्ट्रीय स्तर पर मांगों को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए कौशल विश्वविद्यालय का अधिकार क्षेत्र परम्परागत विश्वविद्यालयों की तुलना में ज्यादा व्यापक होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, नागपुर कौशल विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र को महाराष्ट्र के अधिकार क्षेत्र के मुताबिक कोर्स संचालित करने की इजाजत होनी चाहिए। इसके अलावा, ये विश्वविद्यालय, कॉलेज सम्बद्धता से संबंधित परम्परागत प्रणाली का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं होने चाहिए। इसके बजाए, उन्हें कोर्स संचालित करने और/या मौजूदा उद्योगों की प्रशिक्षण सुविधाओं और कौशल प्रदाताओं के साथ क्षेत्र विशेष के सहयोग करने की स्वायत्तता होनी चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि कौशल विश्वविद्यालयों को क्षेत्र-विशेष से संबंधित कोर्स नहीं कराने चाहिए। ​हालांकि कौशलों के विकसित हो रहे परिदृश्य को देखते हुए, उनके अधिदेश को अनिश्चित काल के लिए कुछ खास तरह के कोर्स संचालित करने तक सीमित नहीं किया जा सकता।

विभिन्न कोर्सों के पाठ्यक्रम की संरचना के संदर्भ में, कौशल विश्वविद्यालय को सामान्य शिक्षा, कार्य समेकन या वर्क इंटीग्रेशन, साथ ही साथ आजीवन प्रशिक्षण पर अवश्य केंद्रित करना चाहिए। जहां एक ओर न्यूनतम 12वीं कक्षा के स्तर (या उसके समकक्ष) का प्रस्ताव रखा जा सकता है, वहीं छात्रों की जरूरत के अनुसार आगे चलकर उसमें एप्टीट्यूट टेस्ट जोड़े जा सकते हैं। नेशनल स्किल क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (एनएसक्यूएफ) के अनुसार, कोर्स के संदर्भ में, व्यवसायिक शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और रोजगार बाजारों में मल्‍टीपल एंंट्री और एक्जिट होना चाहिए। मिसाल के लिए, तीन साल के डिग्री कोर्स का पहला वर्ष समाप्त करने वाले छात्र को डिप्लोमा दिया जाना चाहिए और अंतराल के बाद दूसरे साल में दाखिला लेने की इजाजत देनी चाहिए। आदर्श रूप से, सारी विषयवस्तु एनएसक्यूएफ के अनुरूप होनी चाहिए। हालांकि उसकी मौजूदा स्थि​ति को देखते हुए, विश्वविद्यालयों को अपने नियम खुद निर्धारित करने की इजाजत देनी चाहिए। परम्परागत विश्वविद्यालयों के विपरीत, कौशल विश्वविद्यालयों में क्लासरूम ट्रेनिंग को ज्यादा तरजीह नहीं देनी चाहिए। उसे विविध हितधारकों वाले कार्य-आधारित प्रशिक्षण के व्यापक कथानक को बढ़ावा देना चाहिए।

औद्योगिक विशेषज्ञता और साझेदारियां किसी भी कौशल विकास/शिक्षा परियोजना का आधार हैं। कौशल विश्वविद्यालय को सुनिश्चित करना चाहिए कि संबंधित साझेदार महत्वपूर्ण हितधारक बन जाएं। इसे संभव बनाने के लिए विभिन्न ऑपरेशनल मॉडलों की संभावनाओं को तलाशा जा सकता है। मिसाल के तौर पर, मांग का आकलन, कोर्स डिजाइन, ट्रेनिंग, कार्य समेकन या वर्क इंटीग्रेशन और साथ ही उसके बाद रोजगार ऐसे अन्य क्षेत्र हैं, जिन पर उद्योग के साथ साझेदरियाँ की जा सकती है। कौशल विश्वविद्यालय को जहां मंजूरी और प्रमाण पत्र देने का अधिकार अपने पास रखना चाहिए, वहीं ये जरूरी नहीं कि वह खुद को ट्रेनिंग के हर पहलू के साथ जोड़े, जबकि यह कार्य उसके औद्योगिक साझेदारों द्वारा किया जा सकता है। उसके पास नियंत्रण और सन्तुलन की एक मजबूत व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें प्रत्येक साझेदार सीधे तौर पर, विशेषकर वित्तीय रूप से शामिल हो। जिसके परिणामस्वरूप वे दायित्व निभाने को बाध्य हो जायें।

औद्योगिक विशेषज्ञता और साझेदारियां किसी भी कौशल विकास/शिक्षा परियोजना का आधार हैं। कौशल विश्वविद्यालय को सुनिश्चित करना चाहिए कि संबंधित साझेदार महत्वपूर्ण हितधारक बन जाएं।

ऐसा मुमकिन बनाने के लिए, यूजीसी को इन विश्वविद्यालयों को विशेष तरह के संगठनात्मक और प्रशासनिक ढांचे का अनुसरण करने की इजाजत देनी होगी। कौशल विश्वविद्यालय को परम्परागत वरीयता संरचना के अनुसार निर्धारित योग्यता वाले प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर नियुक्त करने से बचना चाहिए। क्षेत्र विशेष से संबंधित नियम की बजाए, इंस्ट्रक्टरों को स्थायी या अनुबंध के आधार पर चुनने का पैमाना अकादमिक योग्यता के स्थान पर विषय के ज्ञान पर केंद्रित होना चाहिए। कौशल विश्वविद्यालय वर्क इंटीग्रेटिड ट्रेनिंग मॉडल या संस्थागत मॉडल या दोनों के मिश्रण का अनुसरण परियोजना शुरु करने के लिए आवंटित धन — यानी सीड कैपिटल, उपलब्ध भूमि, विश्वविद्यालय के उद्देश्यों आदि जैसे कारकों पर गौर करते हुए कर सकता है। संस्थागत मॉडल जहां कई मायनों में परम्परागत विश्वविद्यालय के अनुरूप होगा, वहीं वर्क इंटीग्रेटित ट्रेनिंग मॉडल में विश्वविद्यालय के कामकाज में मोटे तौर पर सहायक, आकलनकर्ता और प्रमाणनकर्ता का कार्य शामिल होगा। अनुसंधान के संदर्भ में, कौशल विश्वविद्यालयों के पास स्कॉलर्स को साथ जोड़ने के लिए आवश्यक तौर पर ऐसे साधन होने चाहिए, जो अध्यापन के नए तरीकों, मौजूदा कार्यक्रमों का आकलन, नीतिगत सम्पर्कों आदि का अध्ययन कर सकें। किफायती और टिकाऊ तरीके का विस्तार करने के लिए सबसे पहले व्यवसायिक शिक्षा के लिए छोटे केंद्र के विकास को बढ़ावा देने और धीरे-धीरे उसका विस्तार कर विश्वविद्यालय की स्थापना करने के एक वैकल्पिक मॉडल की संभावनाओं का भी पता लगाया जा सकता है।

कौशल विकास मंत्रालय के अंतर्गत और शिक्षा मंत्रालयों के दायरे से बाहर विश्वविद्यालयों की स्थापना से अधिकारों की जंग छिड़ने का खतरा उत्पन्न हो सकता है, जो शायद इस पहल को विफल कर दे। इसी तरह के हालात 2014 में उत्पन्न हुए थे, जब एमएसडीई की स्थापना की गई थी। उसके अधिदेश का श्रम और रोजगार मंत्रालय के अधिदेश (नवम्बर 2014 तक कौशल से संबंधित पहल वही करता था) के साथ टकराव हुआ था। कई स्तरों पर शोरगुल हुआ और इसके परिणामस्वरूप, समूचे ‘कौशल भारत’ की महान रचना लगभग एक साल सही मायनों में प्रारंभ नहीं हो सकी। इस तरह, प्रस्तावित कौशल विश्वविद्यालयों के अधिदेश बिल्कुल स्पष्ट रूप से निर्धारित होने चाहिए, ताकि उनहें यूजीसी के व्यापक दायरे में आने वाले अन्य विश्वविद्यालयों से अलग किया जा सके।

मौजूदा दौर में, देश भर में राज्यों के सार्वजनिक विश्वविद्यालय कुप्रबंधन और धन के अभाव से जूझ रहे हैं। प्रशासनिक विकार इतने गहरे हो चुके हैं कि साल दर साल धन लगाए जाने के बावजूद, बहुत से विश्वविद्यालय अपने कार्यों को पूरा करने की जद्दोजहद कर रहे हैं। ऐसी अस्त-व्यस्तता के बीच, हर साल लाखों छात्रों का बड़े पैमाने पर नुकसान हो रहा है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि कौशल विश्वविद्यालयों में ऐसे हालात उत्पन्न न होने दिए जाएं।

उद्योगों के साथ साझेदारी की व्यापक संभावनाएं होने के कारण निश्चित उत्पादन पूर्व अवधि के बाद कौशल विश्वविद्यालयों का वित्त पोषण उनकी राज्य सरकारों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। वित्तीय स्वायत्तता और वित्तीय उत्तरदायित्व साथ-साथ कार्य करते हैं। संबंधित सरकारों साथ ही साथ उद्योग जगत के प्रतिनिधियों सहित शासक मंडल को प्रत्येक विश्वविद्यालय के कामकाज पर नजर रखनी चाहिए। देश भर में कौशल विश्वविद्यालयों की स्थापना एक महत्वाकांक्षी और व्यापक पहल है। इसे राजनीतिक वर्ग की अज्ञानता, प्रशासनिक लाल फीताशाही या मंत्रालयों के बीच अधिकारों की लड़ाई की भेंट नहीं चढ़ने दिया जा सकता। नहीं तो, भारत द्वारा एक ऐसे किस्म की दूसरी विश्वविद्यालय प्रणाली का सृजन करने का खतरा होगा, जिसमें पहली प्रणाली की सभी खामियां मौजूद होंगी।

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