Published on Oct 09, 2018 Updated 0 Hours ago

अगर एक साथ चुनाव कराए गये, तो भारत सरकार और सम्बन्धित राज्य सरकारें खर्च आपस में बांट सकती हैं। लेकिन क्या इतना भर काफी है एक साथ चुनाव करवाने के लिए?

समूचे देश में एक साथ चुनाव महज़ लालसा है, जरूरत नहीं

देश में एक साथ चुनाव कराने की मौजूदा सरकार की इच्छा और निर्वाचन आयोग की उसे कार्यान्वित करने की तत्परता के बीच यह मामला गरमाने लगा है। चुनावों में एकरूपता को “एक देश, एक चुनाव” नीति के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, कुछ भी इसकी आत्मा और इसमें प्रतिष्ठापित लोकतांत्रिक सिद्धान्तों से परे नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था के मूलभूत सिद्धान्तों के अनुसार, संविधान राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से एकल अंतरणीय वोट के जरिये चुनाव कराने की इजाजत देता है। इस संदर्भ में संसद सदस्य (लोकसभा) और विधानसभा के सदस्य फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (एफपीटीपी) प्रणाली द्वारा निर्वाचित होते हैं। नीति आयोग का परिचर्चा पत्र एक साथ चुनावों का विश्लेषण: “क्या”, “क्यों” और ”कैसे” इस नीति के कार्यान्वयन के लिए संविधान की समीक्षा को उचित ठहराता है। हालांकि जरूरत इस बात की है कि इस नीति के विपक्ष में चर्चा और बहस की जाए कि भारतीय सन्दर्भ में यह नीति क्यों और कैसे चुनौतीपूर्ण हो सकती है। इस नीति के लिए भारतीय चुनाव प्रणाली और संविधान में संरचनात्मक बदलाव करने की जरूरत होगी।

भारत में सुधारों के बारे में विमर्श मुख्य मुद्दे से भटक सकते हैं और ऐसे समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं, जो पहले से मौजूद चुनौतियों में इजाफा कर दें। एक साथ चुनाव कराना आकर्षक है, क्योंकि भारतीय राज्यव्यवस्था में आये दिन चुनाव होते रहते हैं, जिनके कारण सरकार और अन्य हितधारकों को भारी खर्च वहन करना पड़ता है। इसके विपरीत अगर एक साथ चुनाव कराए गये, तो भारत सरकार और सम्बन्धित राज्य सरकारें खर्च आपस में बांट सकती हैं। हम इस बात से बखूबी वाकिफ़ हैं कि लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है और सत्ता का आधार बनती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठापित है। इस इच्छा की अभिव्यक्ति चुनाव के दौरान अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर के की जाती है। चुनाव जनता के सन्तोष और वर्तमान सरकार के प्रति दृष्टिकोण को मापने का पैमाना होते हैं और जब उनका आयोजन अक्सर होने लगता है तो उसके परिणामस्वरूप नागरिक खुद को सशक्त समझते हैं।

इस नीति के कुछ पक्षधर दलील देते हैं कि एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था 1950-51 के आम चुनावों में शुरु हुई थी और उसके बाद के तीन चुनावों (1957, 1962 और 1967) तक जारी रही। 1969 में कार्यकाल समाप्त होने से पहले राज्य विधानसभा को भंग करने से यह चक्र बाधित हो गया। हालांकि यह पद्धति संवैधानिक आवश्यकता नहीं, बल्कि महज ऐतिहासिक इत्तेफाक था। उसकी वजह आज़ादी के बाद व्याप्त राजनीतिक अनिश्चितता हो सकती है।

कार्यपालिका अपनी शक्तियां विधायिका से लेती है और ये शक्तियां तब तक बरकरार रहती हैं, जब तक उसे लोकसभा में विश्वास प्राप्त रहता है। अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर सरकार गिर जाती है। इसलिए, सरकार के गिरने के बारे में हमारे संविधान के निरूपण की प्रक्रिया के दौरान ही गम्भीरता से सोच विचार कर लिया गया था, लेकिन वास्तविकता यह है कि गठबंधन के दौर में इसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता, इसको ध्यान में रखा जाना चाहिए। कार्मिक, जन शिकायत, कानून एवं न्याय से संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने ”लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक साथ चुनाव कराने की संभावना” के बारे में अपनी 79वीं रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि किसी व्यक्ति की अगुवाई वाली सरकार के पक्ष में विश्वास मत को अनिवार्य बनाकर समय से पहले सदन को भंग किया जाना टाला जा सकता है। ऐसी पद्धति से संभवत यह सुनिश्चित कर सकती है कि सरकार नहीं गिरेगी, इस प्रकार संसदीय प्रणाली का परीक्षण विफल हो जाएगा। कार्यकाल पूरा करने से पहले सदन को भंग करने से बचने के लिए पूरे सदन को आवश्यक तौर पर सदन के नेता को चुनने के लिए मत देना होगा। यह प्रक्रिया स्पीकर के चुनाव के अनुरूप है। इस पद्धति से सरकार और साथ ही लोकसभा को स्थिरता मिल सकती है। ऐसी व्यवस्था के लिए दो संभावित चुनौतियां हैं। पहली, सदन के नेता के नाम पर सर्वसम्मति बनाना। दूसरी, यदि विधानसभा सरकार को गिरा देती है और नयी सरकार बनाने में विफल रहती है, तो चुनाव कराना अनिवार्य हो जाता है। नेता के नाम पर सर्वसहमति पर बनने पर काफी समय बर्बाद होगा, इसका असर शासन पर होगा जो जनता का कुछ भला नहीं कर रहा होगा। गोवा, नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्यों में चुनाव के संदर्भ में, ऐसी पद्धति से व्यक्तियों और राजनीतिक दलों में दरार पड़ेगी और इस​ तरह देश का लोकतांत्रिक ढांचा ही बदल जाएगा।

क्या केंद्र में सरकार के गिरने से राज्यों में पुन: चुनाव कराना आवश्यक होगा और क्या राज्य चुनाव कराने के इच्छुक होंगे? इस बारे में गंभीर संदेह है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य चुनाव कराना पसंद करेंगे। अगर वे ऐसा करेंगे, तो इससे संसदीय प्रणाली का मूलभूत सिद्धांत (यानी 5 साल का कार्यकाल)प्रभावित होगा। भारतीय संविधान की संरचना अर्ध-संघात्मक है, जिसका स्वरूप तो संघीय है, लेकिन उसकी आत्मा एकात्मक है, जिसमें केंद्र को ज्यादा शक्तियां दी गई हैं। बहुसंख्य राज्यों को इन संवैधानिक संशोधनों का अनुमोदन करना चाहिए। ऐसी व्यवस्था और मध्यकालीन युग के बीच समानता स्थापित की जा सकती है, जहां शासकों का लक्ष्य अखिल भारतीय दर्जा हासिल करना था, जो आजादी हासिल करने के तत्काल बाद कांग्रेस को प्राप्त भी हुआ था। ऐसी नीति केंद्र में सरकार को ज्यादा अधिनायकवादी बनाती है।

नीति आयोग ने एक अन्य सलाह यह दी है कि जब विधानसभा को कार्यकाल समाप्त होने से पहले भंग किया गया हो और अवधि कम बची हो,तो शासन की बागडोर केंद्र में राष्ट्रपति और राज्य में राज्यपाल को संभालनी चाहिए। इस सुझाव में भी समस्याएं हैं, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से जाहिर है कि केंद्र में सरकार हमेशा संवैधानिक पदों पर अपने नामजद लोग चाहती है और ऐसी परिस्थितियों में हमें आपातकाल की घोषणा जैसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

स्थायी समिति की रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने वाले देशों का उल्लेख करते हुए दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों का उदाहरण दिया गया है। स्वीडन में एक निर्धारित तिथि को (अमेरिका के समान)चुनाव कराए जाते हैं। दिलचस्प यह है कि एक साथ चुनाव कराने की पद्धति को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की चुनाव व्यवस्था पूर्णता प्रदान करती है। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीका में पार्टी लिस्ट समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली है और स्वीडन में भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली है, जहां पार्टियों को उन्हें प्राप्त मतों के अंश के आधार पर प्रतिनिधि मिलते हैं। समानुपातिक प्रतिनिधित्व एफपीटीपी और अन्य बहुसंख्यक मतदान प्रणालियों का विकल्प है, जो असंग​त निष्कर्ष भी प्रदान कर सकती हैं और उनमें विशाल राजनीतिक समूहों के पक्ष में पूर्वाग्रह भी हो सकता है। इतना ही नहीं, एफपीटीपी प्रणाली के जरिए कोई प्रत्याशी मामूली अंतर से चुनाव जीत सकता है, और इसलिए अल्पसंख्यकों के असहमति के स्वर, जो महत्वपूर्ण ढंग से बड़ा समूह हो, खामोश रहता है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को शामिल करने के विचार का अनेक विरोध किया जाएगा, क्योंकि भारत में चुनाव प्रचार का लक्ष्य स्विंग वोटर्स (यानि जो किसी दल विशेष के प्रति आस्था न रखते हो) को समझाना होता है और जाति इनमें अहम भूमिका निभाती है।

समर्थकों की शिकायत है कि आदर्श आचार संहिता सरकार को कल्याणकारी योजनाएं चलाने से रोकती है। यह दलील आपत्तिजनक है। इसका कारण वह परिपाटी है, जहां सरकार चुनावों से ऐन पहले किसी विशिष्ट वर्ग के लिए, खासतौर पर स्विंग वोटों के लिए लोकलुभावन योजनाएं लाती है। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब भारतीय निर्वाचन आयोग ने केंद्र को बिना किसी तरह की परेशानी के उसकी योजनाओं को कार्यान्वित करने (उन योजनाओं का प्रचार न करने की शर्त पर)की इजाजत दी है।उदाहरण के लिए, निर्वाचन आयोग द्वारा हिमाचल प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में, जहां चुनाव होने वाले थे, इस शर्त के साथ मनरेगा के अंतर्गत निधियों की दूसरी किश्त जारी करने की इजाजत दी, कि इसका प्रचार नहीं किया जाएगा। इसलिए आदर्श आचार संहिता पर शासन के कामकाज में रुकावट उत्पन्न करने का दोष मढ़ना उचित नहीं है। सरकार का दायित्व है कि भारतीय संविधान साथ ही भारतीय राज्यव्यवस्था में संशोधन करने से पहले भारतीय निर्वाचन आयोग को सशक्त बनाए। सरकार को चुनाव सुधार करने के बारे में उत्साही होना चाहिए। सार्वजनिक वित्त पोषण में वृद्धि और व्यक्तियों के धन की मात्रा को सीमित किए जाने (अमेरिका की तरह) से जवाबदेही बढ़ेगी।

चुनाव सुधारों का जिम्मा राजनीतिज्ञों को सौंपना लोमड़ी को मुर्गीबाड़े की रखवाली का जिम्मा देने जैसा है। राजनीतिक दल अक्सर अनेक नीतियों पर असहमत होते हैं, फिर भी वे विरोध का महत्वपूर्ण स्वर हैं। ये मसले, संकट उत्पन्न कर रहे मुद्दों पर बहस करने से बचने के लिए उठाए जाते हैं। एकरूपता(योजनाओं के कार्यान्वयन में) हासिल करने के प्रयास में एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को तहस-नहस कर सकता है।


लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।

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