Author : Khalid Shah

Published on Aug 01, 2018 Updated 0 Hours ago

पीडीपी में विभाजन अवश्यंभावी है। अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है जिससे ये लगे कि नयी दिल्ली से पीडीपी में विभाजन की साजिश रची जा रही है।

पीडीपी को परेशान कर रहे हैं कुशासन के चिन्ह और आंतरिक बगावत

जम्मू कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन खत्म होने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती द्वारा हाल में दिये गये बयानों से कई तरह के विवाद पैदा हो गये हैं। प्रतीकों का इस्तेमाल कर दिये गये उनके बयानों में निराशा की अभिव्यक्ति और पीडीपी को नया स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की झलक दिखती है।

महबूबा ने इंडिया टीवी को दिये एक साक्षात्कार में अलगाववादी नेता आसिया अंद्राबी के बारे में एक टिप्पणी की: “अब कश्मीरी महिलाओं को दिल्ली ले जाया जा रहा है।” मुफ्ती कश्मीर घाटी में हिंसा भड़काने और “भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों से मदद मांगने” जैसे आरोपों में नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) के हाथों अंद्राबी की गिरफ्तारी का जिक्र कर रही थीं। पूर्व मुख्यमंत्री ने कुछ लब्जों में अलगाववादी नेता के प्रति अपनी सहानुभूति का इजहार कर दिया और ये भी साफ कर दिया कि वे एनआईए द्वारा दर्ज मामलों के खिलाफ हैं। उन्होंने 13 जुलाई को दिये इसी तरह के बयान में कहा: “अगर (दिल्ली) (पीडीपी में) विभाजन करने की कोशिश करता है और इस तरह से दखलंदाजी करता है तब मेरा मानना है कि सलाहुद्दीन और यासिन मलिक पैदा होंगे जैसा 1987 में हुआ था। अगर ये पीडीपी को तोड़ने की कोशिश करते हैं तो इसके नतीजे खतरनाक होंगे।” इन बयानों के गंभीर निहितार्थ उनके अंतर्मन में व्याप्त बेचैनी का खुलासा करते हैं।

पहली और सबसे प्रमुख बात ये कि पीडीपी में विभाजन अवश्यंभावी है। अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे ये लगे कि नयी दिल्ली से पीडीपी में विभाजन की साजिश रची जा रही है। महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जिस तरह से पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में लिया वो विभाजन की एक बड़ी वजह है।

पीडीपी में बगावत की पहली झलक उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के तुरंत बाद ही दिखी थी जब महबूबा बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर दुविधा में थीं लेकिन पीडीपी विधायकों का एक अलग गुट महबूबा मुफ्ती के बगैर बीजेपी के साथ सरकार बनाने के लिए तत्पर था। ऐसे में महबूबा को लगने लगा कि पार्टी उनके हाथ से निकल सकती है और उन्हें गहरी असुरक्षा का अहसास होने लगा। महबूबा ने इस बगावत के प्रयास से निपटने के लिए बीजेपी से गठबंधन जारी रखने का फैसला किया। उसी दौरान उन्होंने अपनी पार्टी की पूरी कमान विस्तारित मुफ्ती परिवार और उनके पिता के नजदीकी सहयोगियों और मुजफ्फर बेग, तारीक हामिद कर्रा और अन्य के हाथों में सौंप दी।

अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे ये लगे कि नयी दिल्ली से पीडीपी में विभाजन की साजिश रची जा रही है। महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जिस तरह से पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में लिया वो विभाजन की एक बड़ी वजह है।

दूसरा, उनकी सरकार प्रतिक्रियावादी शासन के रूप में काम करने लगी। ऐसा लगने लगा कि मुख्यमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्य सुसंगत नीति के तहत सरकार का नेतृत्व करने की बजाय जमीनी स्थितियों से उलझने लगे और अपने फैसले भावी घटनाओं की प्रतिक्रिया में लेने लगे। कई बार जनाक्रोश को शांत करने के लिए जनता को खुश करने वाले उपाय किये गये और कई मामलों में करीबियों पर कृपा करने के लिए सरकारी फैसले लिये गये।

वास्तव में गठबंधन सरकार ने भाई भतीजावाद और पक्षपात को शासन का एकमात्र मापदंड बनाया। चाहे वो विभिन्न सरकारी निकायों में उपाध्यक्ष के रूप में गठबंधन दल के नेताओं की नियुक्ति का मामला हो, सरकारी नौकरियों में पार्टी कार्यकर्ताओं की पिछले दरवाजे से नियुक्ति हो या पार्टी समर्थकों को सरकारी ठेकों के आबंटन का मामला हो — जो कुछ भी किया गया मुख्यमंत्री की सुरक्षित रखने के उद्येश्य से किया गया। संभावित आलोचकों को खैरात बांटी गयी ताकि पार्टी एकजुट रहे।

गठबंधन खत्म होने के बाद महबूबा की सबसे बड़ी चिंता ये है कि सरकार ने राज्य की जनता को न्यूनतम आधारभूत शासन मुहैया कराने के लिए कुछ भी नहीं किया। मुख्यमंत्री के रूप में उनका ट्रैक रिकॉर्ड इतना खराब रहा कि उन्होंने शासन, विकास और जन कल्याण के बारे में एक भी शब्द नहीं बोला। ये साफ है कि अगामी चुनावों में उनकी पार्टी इस आधार पर मतदाताओं को रिझाने में कामयाब नहीं हो पायेगी।

सुरक्षा और कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर उनका रवैया समान रूप से घातक था। जुलाई 2016 की मुठभेड़ में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद व्यापक आक्रोश फैल गया और सड़कों पर हिंसा हुई जिसने उनकी सरकार को हिला दिया था। सरकार ने जानमाल हानि को न्यूनतम करने के ख्याल से कानून व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के क्रम में सुरक्षा बलों को खुद पर अधिकतम अंकुश रखने का आदेश दिया था। अधिकतम अंकुश की नीति कोई नतीजा देने में नाकाम रही और राज्य एक बार फिर से अव्यवस्था और अराजकता का शिकार हो गया। दक्षिण कश्मीर के कई इलाके ‘मुक्त इलाके’ में तब्दील हो गये जहां सुरक्षा बलों ने अपना नियंत्रण खो दिया था। पुलिस, सेना और अन्य अर्द्धसैनिक बल इन ‘मुक्त इलाकों’ में सड़कों पर हिंसा और आतंकवादियों की स्वतंत्र आवाजाही की वजह से प्रवेश नहीं कर सकते थे।

सुरक्षा और कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर उनका रवैया समान रूप से घातक था। जुलाई 2016 की मुठभेड़ में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद व्यापक आक्रोश फैल गया और सड़कों पर हिंसा हुई जिसने उनकी सरकार को हिला दिया था। सरकार ने जान और माल हानि को न्यूनतम करने के ख्याल से कानून व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के क्रम में सुरक्षा बलों को खुद पर अधिकतम अंकुश रखने का आदेश दिया था। अधिकतम अंकुश की नीति कोई नतीजा देने में नाकाम रही और राज्य एक बार फिर से अव्यवस्था और अराजकता का शिकार हो गया।

श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र के लिए हुए उपचुनाव में सात फीसदी मतदान और अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र में अप्रैल 2017 में लोकसभा चुनाव कराने में नाकामी ने नयी दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठान और राज्य सरकार के लिए खतरे की घंटी बजा दी। केन्द्र सरकार की ओर से मुख्यमंत्री को चेतावनी जारी की गयी। महबूबा ने भरोसा दिलाया कि जम्मू कश्मीर में हालत दो-तीन महीनों में सुधर जायेंगे। जम्मू कश्मीर पुलिस औऱ भारतीय सेना ने ऑपरेशन ऑल आउट शुरू कर दिया — अधिकतम अंकुश की नरम नीति के स्थान में नयी “सख्त नीति” लागू कर दी गयी।

ऑपरेशन ऑल आउट के तहत पांच महीनों के अंदर हिजबुल मुजाहिदीन और लश्करे तैयबा के नेतृत्व के ढांचे को ध्वस्त करते हुए 200 आतंकवादियों को मार गिराया गया। अलगाववादियों को पीछे धकेलते हुए सुरक्षा बलों ने दक्षिण कश्मीर के उन तथाकथित ‘मुक्त क्षेत्रों’ को अपने कब्जे में ले लिया। राज्य में सुरक्षा की स्थिति 2016 की तुलना में कम अराजक थी। लेकिन स्थिति से निपटने के लिए उठाये गये सख्त कदमों की वजह से पीडीपी को सख्त प्रतिरोध झेलना पड़ा।

इससे एक बार फिर महबूबा सरकार के खिलाफ माहौल बनने लगा। राज्य सरकार ने एक और “नरम उपाय” के तहत 9730 पत्थरबाजों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने का फैसला लिया। विडंबना ये कि इस फैसले के एक महीने बाद ऑपरेशन ऑल आउट-2 शुरू हुआ जो रमजान के मौके पर घोषित युद्ध विराम तक जारी रहा। रमजान युद्धविराम की विफलता ने आखिरकार सरकार के पतन में भूमिका निभाई।

पीडीपी-बीजेपी में विभाजन के बाद बीजेपी ने विमर्श को अपने पक्ष में कर लिया है जबकि पीडीपी नये विमर्श की तलाश में संघर्ष कर रही है।

कुशासन और कभी हां कभी ना वाली नीतियों से पीडीपी-बीजेपी गठबंधन ग्रस्त था और सख्त नीति और नरम नीति के बीच उलझा हुआ था। सख्त नीति बीजेपी को पसंद थी तो पीडीपी नरम नीति का पक्ष लेती थी। पीडीपी-बीजेपी गठबंधन के अस्थिर स्वरूप ने दोनों दलों की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाई। पीडीपी-बीजेपी में विभाजन के बाद बीजेपी ने विमर्श को अपने पक्ष में कर लिया है जबकि पीडीपी नये विमर्श की तलाश में संघर्ष कर रही है क्योंकि इसने नरम अलगाववादी समर्थकों को गंवा दिया है जिसे ये बड़े मेहनत से अपने पक्ष में कर रही थी।

इस पृष्ठभूमि में महबूबा की पीडीपी में विभाजन पर “खतरनाक परिणाम” वाली चेतावनी खोखली नजर आती है। बुरहान वानी, जाकिर मूसा, जीनत उल इस्लाम नये आतंकवाद के सलाहुद्दीन और यासिन मलिक ही हैं। दूसरी ओर पीडीपी की स्थिति आंतरिक बगावत और पार्टी के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश की वजह से काफी कमजोर हो चुकी है।

महबूबा के बयान पार्टी को बगावत से बचाने के लिए नहीं बल्कि नुकसान को नियंत्रित करने के लिए हैं। पीडीपी जमात ए इस्लामी के अपने मूल वोट बैंक को दोबारा अपने पक्ष में करने की आखिरी कोशिश कर रही है जो बीजेपी के साथ गठबंधन करते ही पार्टी से दूर चला गया था। राज्य में जब भी चुनाव होंगे, सुरक्षा की स्थिति को देखते हुए उसके व्यापक बहिष्कार की संभावना निश्चित दिखती है। विभाजन की स्थिति में पीडीपी अपनी चुनावी संभावनाओं को नरम अलगाववादी जमात ए इस्लामी की मदद से ही बचा सकती है।

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