Author : Khalid Shah

Published on Jan 30, 2019 Updated 0 Hours ago

कश्मीर में मौत राजनीति की शुरुआत का प्रतीक है। हर एक मौत अपने साथ कुछ राजनीतिक पूंजी लाती है।

शाह फ़ैसल और कश्मीर का विरोधाभास

कश्मीर में मौत महज़ एक आंकड़ा मात्र है। मौतों की तादाद जितनी ज़्यादा होती है, राजनीतिक शोक और विलाप के मौक़े उतने ही ज़्यादा होते हैं। साल के अंत में जब इनका विश्लेषणात्मक अध्ययन होता है तब मृतकों के नाम, उनकी कहानियां अप्रासंगिक होती हैं। सिर्फ आंकड़े मायने रखते हैं। आंकड़े झूठ नहीं बोलते हैं, लेकिन वो एक संघर्ष क्षेत्र की बासी बदबू, घिनौनी गंदगी और निश्चित रूप से विरोधाभास जैसी सच्चाइयों पर परदा डालते हैं।

शायद कश्मीर संघर्ष का सबसे दुखद विरोधाभास यह है कि जिसकी हत्या होती है वो भी और जो हत्या करता है वो भी, दोनों ही शहीद होते हैं। मरनेवाला और मारनेवाला दोनों का ही नाम होता है और दोनों ही श्रद्धेय होते हैं। कश्मीर में मौत राजनीति की शुरुआत का प्रतीक है। हर एक मौत अपने साथ कुछ राजनीतिक पूंजी लाती है। राजनीतिक दोष के बावजूद, प्रत्येक पक्ष एक साधारण कश्मीरी की मौत में अपने निहित राजनीतिक हित को ढूंढता है। लेकिन यह लेख राजनेताओं के बारे में नहीं है। यह विरोधाभासों के विरोधाभास के बारे में है।

राजनीतिक दोष के बावजूद, प्रत्येक पक्ष एक साधारण कश्मीरी की मौत में अपने निहित राजनीतिक हित को ढूंढता है।

आज़ादी की भावना का पीड़ित शख़्स अगर बंदूक, आतंकवाद और हिंसा को बढ़ावा देने वाले ‘प्रतिरोध’ के चैंपियनों का हमदर्द बन जाता है तो निश्चित तौर पर इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कश्मीर में मारे गए लोगों के बेटे अपने पिता के हत्यारों द्वारा स्थापित विचारों के बारे में एक संक्षिप्त राय रखते हैं। शाह फ़ैसल उसी ‘सेंटीमेंट’ के पीड़ित हैं। आतंकियों ने काफ़ी बेरहमी से उनके पिता की हत्या कर दी थी। यह एक वास्तविकता है। लेकिन एक दूसरी हक़ीक़त भी है। चाहे वो शाह फ़ैसल हों या मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूक़ या सज्जाद लोन, कश्मीर में आतंकवाद के शिकार लोगों ने अपने परिजनों और रिश्तेदारों के हत्यारों की भावना के साथ होने की प्रवृति दिखाई है।

यही वजह है कि मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूक़ और उनका मारा गया हत्यारा दोनों कश्मीर में महान शहीद माने जाते हैं। यही कारण है कि कश्मीरियों के दिल तब बेहद नरम पड़ गए और कोई विरोध नहीं उबला जब तमहीद बुख़ारी को उनके पिता शुजात बुख़ारी के हत्यारों के विशाल अंतिम जनाज़े का वीडियो देखना पड़ा और चुपचाप कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों के आक्रोश का सामना करना पड़ा, जो पत्रकार शुजात बुख़ारी की हत्या का विरोध करने के बजाय उनके हत्यारों की हत्या का विरोध कर रहे थे। नैतिकता की ताक़त, भावना और इसके विरोधाभास नवीद जट्ट के साथ हों!

हाल के एक भाषण में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि, ‘हम जानते हैं कि किसने’ नेशनल कॉन्फ़्रेंस के हज़ारों कार्यकर्ताओं (कश्मीर में लोकतंत्र के असली सिपाही) को नरसंहार के घाट उतारा। सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री को अपने कार्यकर्ताओं की हत्या की बात स्वीकारने का साहस जुटाने में शायद दो दशक लग गए। लेकिन अब भी उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वो हत्यारों का नाम बता सकें। यहां तक कि मृतकों के नाम भी नहीं या न ही उस ‘सेंटीमेंट’ का ज़िक़्र, जिसकी वजह से मुख्यधारा के कई कार्यकर्ताओं का नरसंहार हुआ। क्यों? शायद, उमर अब्दुल्ला कश्मीर की सामूहिक नैतिकता अपने पक्ष में होने का इंतज़ार कर रहे हैं। निश्चित तौर पर विरोधाभास बिल्कुल भी नैतिक नहीं है!

डिप्टी एसपी अयूब पंडित कश्मीर के इतिहास में एक फ़ुट नोट हैं। उनकी मौत की पहली वर्षगांठ पर उनका अपना ही विभाग उनकी याद में एक सभा तक करना भूल गया। मीर इम्तियाज की होनेवाली दुल्हन तो एक फ़ुट नोट भी नहीं है, वो ‘सेंटीमेंट’ की एक बेनाम पीड़िता है — जो अपने घर के एक गुमनाम कोने में विलाप कर रही है और बिलख रही है। 2018 में मारे गए दर्जनों स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर (SPO) और आम नागरिकों के अंतिम संस्कार को रोक दिया गया था क्योंकि नैतिकता की ताक़त कश्मीरियों की इस नस्ल के ख़िलाफ़ थी, जिन्हें अक्सर ‘तस्कीज’ और दुश्मनों का साथ देनेवाला कहा जाता है। वैसे, शाह फ़ैसल पर उनके विशुद्ध कठिन मेहनत और प्रतिभा की वजह से देशद्रोही का ठप्पा भी लगा। लेकिन, अब ये कहानी बताना अनैतिक होगा — क्योंकि अब वो देशद्रोह का ठप्पा लगे लोगों के होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर्स से सहयोग की आस में हैं। क्या ये विरोधाभास है या नहीं?

मौतों को महज़ आंकड़े तक सीमित कर देना एक बार फिर कश्मीर में आम बात हो गई है। मौतों, हत्याओं और हिंसा का महिमामंडन और उसका बखान करना ‘सेंटीमेंट’ के ठेकेदारों की एकमात्र विरासत है। इसलिए, जब ‘सेंटीमेंट’ का पीड़ित एक प्रतिभावान नौजवान सभी बाधाओं को तोड़ कर देश की सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षा में टॉप करता है तब वो ‘सेंटीमेंट’ के चीयरलीडर्स के विचार में ‘देशद्रोही,’ ‘भारत का एजेंट’ और ‘ऑपरेशन सद्भावना का परिणाम’ होता है। ‘सेंटीमेंट’ के चीयरलीडर्स ने उनके ख़िलाफ़ ‘सेंटीमेंट’ की लहर पैदा करने के लिए उन्हें कश्मीरियों के ख़ून के ग़द्दार के रूप में प्रचारित किया ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि वो भी ‘सेंटीमेंट’ के विशाल डेटाबेस (1990 तक कुल हताहतों की संख्या) में एक और संख्या के रूप में ख़त्म हो जाएं। शुजात बुख़ारी, अब्दुल ग़नी लोन, मीरवाइज़ फ़ारूक़, अयूब पंडित, सैकड़ों कश्मीरी पुलिसकर्मी और लोकतंत्र के हज़ारों कार्यकर्ताओं की तरह, जिनका नाम उमर अब्दुल्ला को भी याद नहीं है।

मौतों को महज़ आंकड़े तक सीमित कर देना एक बार फिर कश्मीर में आम बात हो गई है। मौतों, हत्याओं और हिंसा का महिमामंडन और उसका बखान करना ‘सेंटीमेंट’ के ठेकेदारों की एकमात्र विरासत है।

शाह फ़ैसल की आकांक्षा शहादत या मौत की नहीं थी। क्योंकि वह मरनेवालों के डेटाबेस में डेटा एंट्री की तरह ख़ुद को ख़त्म नहीं करना चाहते थे। क्योंकि वह जीना चाहते थे। यह दिखाने के लिए कि एक ऐसे समाज में जहां कुलीन वर्ग मौत की दावत में गिद्धों की तरह टूट पड़ता है, वहां जीने की कला अपने आप में एक बदला है। कश्मीर में जीना और महत्वाकांक्षा का प्रतीक बनना, पूरी तरह से वहां की “सेंटीमेंट” से अलग होने का मतलब मौत के भय की ताक़त के ख़िलाफ़ ज़िंदा रहना है।

इसलिए, अंतरात्मा की एक इत्तफ़ाक़न पुकार पर अपने परिजनों और रिश्तेदारों के हत्यारों को भूलकर, कोई एक पीड़ित ‘सेंटीमेंट’ के नायकों और स्वयंभू नैतिकतावादियों के सहयोगी के रूप में बदल सकता है। उदाहरण के लिए 2010 और 2016 के हत्यारे चुनावी मौसम में कश्मीरियों के रक्षक होने का ढोंग कर रहे हैं; ‘सेंटीमेंट’ के अस्सी बरस बूढ़े विचारक के पोते को छह अंकों के वेतन के साथ नौकरी मिल गई, जबकि 2016 का ‘कैलेंडर’ मौत के आंकड़ों के लिए लाशों के ढेर को जोड़ रहा था। लेकिन, वह भी कश्मीर का असली विरोधाभास नहीं है।

हर मारे गए आतंकी के पीछे एक मुखबिर होता है जो उसकी हर गतिविधि पर नज़र बनाए रखता है; एक कश्मीरी पुलिसवाला उसका शिकार करता है और एक कश्मीरी राजनेता ज़्यादा फ़ंड के लिए उसकी मौत का सौदा करने का इंतज़ार कर रहा होता है; एक महलनुमा घर, चुनावी जीत; और सबसे महत्वपूर्ण, एक साहित्यकार जो एक हृदय विदारक लेख लिखने के इंतज़ार में होता है, प्रति शब्द एक डॉलर के हिसाब से। हर दो-तीन वर्षों में कश्मीर में अंतरात्मा की सामूहिक पुकार होती है, कभी-कभी मतदान केंद्रों पर लोगों की लंबी कतार के रूप में और कभी मारे गए आतंकियों के अंतिम जनाज़े के रूप में। सबसे मज़ेदार अंतरात्मा की पुकार होती है संघर्ष के ठेकेदारों जैसा बनने की चाह (जिसका तात्पर्य यहाँ नेता से है ) जो दूसरों के सपनों को बेचते हैं: यह कश्मीर का असली विरोधभास है।

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