Published on Nov 08, 2017 Updated 0 Hours ago

अधिकांश एफडीआई दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र के खाते में चला गया है। वहीं, उत्तर भारत में एफडीआई दिल्ली एवं इसके आसपास, हरियाणा और पंजाब में केंद्रित है।

भारत में एफडीआई पर भी धुंध का साया

वक्‍त बदलने के साथ ही आज ज्यादातर लोगों के लिए यह बात काफी मायने रखने लगी है कि उसके ‘जीवन की गुणवत्ता’ क्‍या है या उसे किस माहौल में रोजमर्रा का जीवन गुजारना पड़ रहा है। इसमें पर्यावरण की दृष्टि से हवा एवं पानी की शुद्धता और शहर की स्वच्छता या साफ-सफाई भी शामिल है। यदि किसी देश में हवा की गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि वहां के लोग मास्क पहनने पर विवश हो जाते हैं और बच्चों को घर से बाहर खेलने की अनुमति नहीं दी जाती है, तो वैसे में वह देश चाहे कितना भी अमीर क्‍यों न हो, लोग विशेषकर विदेशी निवेशक उसे अलविदा कह देंगे। कुछ साल पहले द न्यूयॉर्क टाइम्स के एक संवाददाता ने दिल्ली में प्रदूषण के हालात पर एक लेख लिखा था और उसमें इस बात का जिक्र किया था कि वह दिल्ली शहर को अलविदा कहते वक्‍त अत्‍यंत प्रसन्‍न क्‍यों था। उस दौरान उनके पुत्र को सांस लेने में काफी परेशानी होती थी। ऐसे में उनका पुत्र ठीक उस तरह से जीवन नहीं जी पा रहा था जैसा वह वाकई चाहता था। उनकी यह मनोदशा ऐसे समय में थी जब दिल्ली में प्रदूषण का स्तर उतना भयावह भी नहीं था जितना कि आज है।

पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में आबोहवा ‘बेहद खराब’ हो गई है। पुलिसकर्मियों को फेफड़ों के रोग से बचाने के लिए मास्क दिए गए हैं। वहीं, ज्‍यादातर बुजुर्ग लोग सांस की पुरानी बीमारी से पीड़ित हैं। भारत में हृदय-संक्रमणीय रोगों के बाद सबसे ज्‍यादा मौतें क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) यानी फेफड़ों की बीमारी के कारण ही होती हैं। वायु प्रदूषण अत्‍यंत खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। वहीं, सरकार जितनी मंद गति से जरूरी कदम उठा रही है उससे प्रदूषण को नियंत्रण में रखना कतई संभव नहीं हो पाएगा। इस दीवाली पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण में कुछ भी मदद नहीं मिली क्‍योंकि लोग राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आसपास के इलाकों से पटाखे खरीद सकते थे। यहां तक कि जेनरेटर सेटों पर भी काफी देरी से प्रतिबंध लगाया गया है। उधर, हरियाणा में फसल अवशेषों यानी पराली का जलाया जाना बदस्‍तूर एवं बेरोकटोक जारी है। इसी तरह वाहनों का आवागमन हर दिन खतरनाक तरीके से बढ़ता ही जा रहा है। पुराने वाहनों से निकलने वाले डीजल धुएं को घातक माना जाता है, लेकिन ऐसे वाहन सड़कों पर अब भी चलाए जा रहे हैं। ऐसे में बहस का विषय यह है कि आखिरकार ऐसी कौन सी चीज है जो हमें चौबीसों घंटे (24×7) प्रदूषित हवा में सांस लेने से बचा सकती है। इसका कारण यह है कि वायु प्रदूषण हमें डॉक्टरों और अस्पतालों के चक्‍कर लगाने पर विवश कर रहा है।


ऐसे में बहस का विषय यह है कि आखिरकार ऐसी कौन सी चीज है जो हमें चौबीसों घंटे (24×7) प्रदूषित हवा में सांस लेने से बचा सकती है। कारण यह है कि वायु प्रदूषण हमें डॉक्टरों और अस्पतालों के चक्‍कर लगाने पर विवश कर रहा है।


वहीं, दूसरी ओर मोदी सरकार का पूरा ध्‍यान जीडीपी वृद्धि दर पर केंद्रित है क्योंकि वह इसे ही सफलता का मुख्य संकेतक मानती है। नीति आयोग चाहता है कि जीडीपी वृद्धि दर बढ़कर 10 प्रतिशत के उच्‍च स्‍तर पर पहुंच जाए। सरकार संभवत: इसके लिए प्रयासरत है कि जितनी जल्दी हो सके, जीडीपी वृद्धि दर को 5.7 प्रतिशत के निम्‍न स्‍तर से बढ़ाकर उच्‍च स्‍तर पर ले जाया जाए। इससे ज्‍यादा तकलीफदेह बात नहीं हो सकती है कि मंत्रीगण निरंतर विदेश जाते रहते हैं और भारी-भरकम रिटर्न देने का वादा करके प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने में लगे रहते हैं। पहले यूपीए सरकार के मंत्रियों ने ऐसा किया था और अब एनडीए सरकार के मंत्री भी ऐसा ही कर रहे हैं। इस साल भारत में एफडीआई का प्रवाह वर्ष 2000 के बाद पहली बार 100 अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर गया है। हालांकि, अब से इच्‍छुक निवेशक जब सौदों पर बातचीत करने के लिए भारत आएंगे तो वे जहरीली हवा में सांस लेने पर विवश रहेंगे और लक्जरी पांच सितारा होटलों में ठहरने पर भी उन्‍हें बोतलों से ही पानी पीना होगा। यही नहीं, ऐसी स्थिति में वे भारत में निवेश करने के बारे में बार-बार सोचने पर विवश हो जाएंगे। एक और बात। भारतीय शहरों के तमाम बड़े हवाई अड्डों से महज कुछ ही मील आगे बढ़ने पर विदेशी निवेशकों का सामना यातायात जाम और खुले में यहां से वहां तक फैले कूड़े के ढेर से होगा। यहां तक कि अगर वे इन समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं और उन्हें अपने अल्‍प प्रवास के दौरान यह सब कुछ नजर नहीं आता है तो भी संयंत्रों की स्थापना के लिए भारत आने वाले उनके कर्मियों को तो जहरीली हवा में सांस लेनी ही पड़ेगी, उनके बच्‍चों को निरंतर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना ही पड़ेगा और उन्‍हें वायु शोधकों (प्‍यूरीफायर) के साथ अलग-थलग बने अंतःक्षेत्रों (एन्क्लेव) में अपना जीवन गुजारना होगा।

हमें देश की विकास क्षमता या संभावनाएं बढ़ाने के लिए नि:संदेह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की आवश्यकता है। इसी तरह हमें बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का उन्नयन करने और नौकरियों का सृजन करने के लिए भी एफडीआई की आवश्यकता है। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि विदेशी निवेशक अपने कारखानों में अधिक श्रम बल का इस्तेमाल करेंगे। इस मोर्चे पर उनका ट्रैक रिकॉर्ड (पिछली उपलब्धियां) खराब है क्‍योंकि ज्‍यादातर विदेशी निवेशक अतीत में अधिक श्रम बल के बजाय अधिक पूंजी लगाकर उत्पादन करने पर विशेष जोर देते रहे हैं। एफडीआई आकर्षित करने के लिए सरकार मुख्य रूप से ‘कारोबार में सुगमता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस)’ वाली सूची में भारत की रैंकिंग बेहतर करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है, जो अब 189 देशों में 130वें स्‍थान से सुधर कर 100वें स्थान पर आ तो गई है, लेकिन इस दिशा में अब भी बहुत कुछ करना होगा। अत: ऐसे में भारत को उन कारकों (फैक्‍टर) के बारे में भी सोचना चाहिए, जिन्‍हें सूचकांक में शामिल तो नहीं किया जाता है, लेकिन आज वे बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पर्यावरण प्रदूषण भी इन कारकों में शामिल है। यह एफडीआई को भारत आने से रोकने का मुख्य कारक बन सकता है।


भारत में हर दिन 1,00,000 मीट्रिक टन कचरा सृजित हो रहा है, जो ठोस कचरे का विशाल अंबार है।


अधिकांश एफडीआई दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र के खाते में चला गया है। वहीं, उत्तर भारत में एफडीआई दिल्ली एवं इसके आसपास, हरियाणा और पंजाब में केंद्रित है। कोरिया के निवेशकों को तमिलनाडु भा रहा है। वे कारें, घरेलू उपकरण और फोन बनाने वाले बड़े निवेशकों में से एक हैं। उन्हें तमिलनाडु के रूप में कुछ हद तक एक आदर्श स्थान मिल गया है। हालांकि, सच्‍चाई यही है कि उत्तर भारत, विशेष रूप से गरीब राज्यों में विदेशी निवेशकों की कहीं अधिक आवश्यकता है। तमिलनाडु में बेहतर बुनियादी ढांचा और श्रम बल तो है, लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से वहां भी हालात अन्य राज्यों की ही भांति बेहद खराब हैं। दरअसल, पूरे भारत में ही पर्यावरण क्षरण और कचरा निपटान से जुड़ी समस्याओं ने विकराल रूप धारण कर लिया है।

भारत में हर दिन 1,00,000 मीट्रिक टन कचरा सृजित हो रहा है, जो ठोस कचरे का विशाल अंबार है। दिल्ली के गाजीपुर में कचरे का इसी तरह का विशाल पहाड़ देखा जा सकता है, जो हाल ही में आतंरिक गैस विस्‍फोट के कारण ढह गया था और जिसमें कुछ लोगों की मौत भी हुई थी। ठोस कचरे का प्रबंधन भविष्य में एक बड़ी समस्या होगी। सड़ते कचरे से आने वाली बदबू पर्यटकों और संभावित विदेशी निवेशकों का मूड खराब कर सकती है। राजधानी में हर दिन सड़कों पर यहां-वहां फैले कचरे के अंबार दिखाने वाली कई फोटो अखबारों में छपती हैं। ठोस कचरे के ये अंबार तरह-तरह की बीमारियों को जन्‍म देते हैं जिनकी चपेट में हम सभी आ सकते हैं। हमें हर दिन डेंगू, वायरल बुखार और पेट की बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। इस तरह की अनचाही स्थितियों का सामना अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लोगों को नहीं करना पड़ता है, अत: इन देशों के लोग अपनी-अपनी धारणाओं के मुताबिक ही लंबा स्वस्थ जीवन जीते हैं। विकसित देशों की ही भांति भारत में रहने वाले हम देशवासी भी अपनी तंद्रा में भारी तनाव का सामना कर रहे हैं।

एक सवाल जेहन में यह भी उठता है कि समस्‍त ठोस कचरे को आखिरकार कहां डंप किया जा रहा है। इसे अक्‍सर जल क्षेत्रों में डंप किया जाता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे समुद्र, झील एवं नदियां इस हद तक प्रदूषित हो गई हैं कि अब इनमें प्रदूषण खतरे का स्तर भी पार कर गया है और इस वजह से इनमें रहने वाली मछली और अन्य जलजीव प्राणियों की आए दिन मौत हो जाती है। जल प्रदूषण वास्तव में अत्‍यंत गंभीर मसला है। विकसित देशों में ठीक इसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती है जहां आप चारों ओर स्वच्छ नदियां और झील देख सकते हैं। यही नहीं, इन देशों में नल से पानी पीने में भी आपको कोई संकोच नहीं होगा। इसके लिए मुख्‍य रूप से दोषी नकदी का भारी संकट झेल रहे शहरी स्थानीय निकाय हैं जो नदियों में कच्चे मलजल (सीवेज) को डंप कर देते हैं। इसी तरह विभिन्‍न फैक्‍टरियां (कारखाना) औद्योगिक कचरे को नदियों में डंप कर रही हैं। यमुना को नाली में तब्‍दील होते देखना बड़ा ही भयावह प्रतीत होता है जिससे आने वाली बदबू गर्मियों में बड़ी ही कष्‍टदायक हो जाती है। ठीक यही हालत गंगा की भी है। गंगा की सफाई में भारी-भरकम राशि लगाने के बावजूद जल की गुणवत्ता बेहतर करने में अब तक अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। अतीत में तेज रफ्तार के साथ आर्थिक विकास करने वाले चीन को भी कमोबेश समान समस्या का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि, चीन अपने यहां युद्ध स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में जुट गया है। चीन ने अपने यहां आर्थिक विकास की गति धीमी करके भी पर्यावरण को बेहतर करने का रास्‍ता चुना है। क्‍या भारत को भी ऐसा नहीं करना चाहिए?

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