Author : Vinitha Revi

Published on Jun 22, 2020 Updated 0 Hours ago

आज ये सोच राजनीतिक बन गई है. जिस परियोजना का मक़सद दोनों देशों के हित और फ़ायदे में साझा ऑपरेशन था वो संप्रभुता पर बहस बन गई है और आईलैंड में भारत की मौजूदगी को ख़तरे की तरह देखा जा रहा है.

सेशेल्स और ‘एज़म्पशन आईलैंड प्रोजेक्ट’ यानी भारत के लिए एक नई परीक्षा!

2015 में भारत और सेशेल्स ने एज़म्पशन आईलैंड में संयुक्त रूप से सुविधाओं का विकास करने का एक समझौता किया जिसका इस्तेमाल दोनों देशों को करना था. एज़म्पशन आईलैंड सेशेल्श के मुख्य द्वीप माहे से क़रीब 1,100 किमी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. प्रस्तावित विकास का मक़सद सेशेल्स के कोस्ट गार्ड को दूसरी बातों के अलावा देश के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन (SEZ) में समुद्री डकैती, अवैध रूप से मछली पकड़ने और नशीले पदार्थों की तस्करी के ख़िलाफ़ गश्त करने में मदद करना था.

जून 2018 में घरेलू राजनीतिक विरोध के बीच सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉरे ने कथित रूप से एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि (भारत दौरे से पहले) ये परियोजना आगे नहीं बढ़ेगी और उनके दौरे में इस पर चर्चा नहीं होगी. लेकिन उनके भारत आने के बाद ऐसी रिपोर्ट आई कि इस परियोजना को लेकर चर्चा हुई और दोनों देश इस बात पर सहमत हुए कि एक-दूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए दोनों देश काम करेंगे. लेकिन इस बयान के बाद बात आगे नहीं बढ़ी और इससे सेशेल्स के विपक्ष के नेता वेवल रामकलावन के बयान को बल मिला कि ‘एज़म्पशन को लेकर समझौता ख़त्म हो चुका है.‘

एज़म्पशन आईलैंड प्रोजेक्ट को लेकर सेशेल्स में शोर-शराबा क्यों मचा? सेशेल्स की सरकार, विपक्ष और सेशेल्स के लोगों की मुख्य चिंताएं क्या हैं? इससे भी महत्वपूर्ण भारत के लिए असली सबक़ क्या है जिनका इस्तेमाल छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों (SIDS) के साथ संबंधों को समझने में किया जा सकता है?

घरेलू राजनीति

विपक्षी लिन्योन डेमोक्रेटिक सेसेल्वा (LDS) के नेता के तौर पर रामकलावन संसद में समझौते को अपनी मंज़ूरी की अनिच्छा साफ़ कर चुके हैं. कथित तौर पर उन्होंने कहा कि, “LDS का एज़म्प्शन समझौते से कुछ और लेना-देना नहीं है.“ 2016 चुनाव के बाद, 33 सदस्यों वाली संसद में 19 सीटों के साथ चार दलों का LDS गठबंधन भारत के साथ समझौते को मंज़ूरी देने से इनकार कर सकता है. ये तब जब राष्ट्रपति फॉरे ने साथ मिलकर काम करने का वादा किया है.

सेशेल्स की घरेलू राजनीति के संदर्भ में नये घटनाक्रम को देखते हुए रामकलावन का बयान महत्वपूर्ण है. 2016 में LDS की जीत ऐतिहासिक थी क्योंकि ये पहला मौक़ा था जब क़रीब 4 दशकों में विपक्ष ने संसदीय चुनाव जीता था. कुछ मायनों में ये सेशेल्स के बदलते राजनीतिक माहौल के बारे में भी बता रहा था. ऐसी दलील दी गई कि गठबंधन की बढ़ती लोकप्रियता, गैर-बराबरी के उच्च स्तर को लेकर लोगों की बढ़ती हताशा से आपस में जुड़ी हुई है.

भारत को इन घरेलू घटनाक्रमों और भविष्य के लिए इसके संभावित असर पर ध्यान देने की ज़रूरत है. ये देखते हुए कि 2020 सेशेल्स में चुनावी साल है, न तो सरकार, न ही विपक्ष ऐसा कोई जोखिम भरा क़दम उठाएगा जो राजनीतिक तौर पर उन्हें महंगा पड़ेगा. घरेलू ढांचा और घरेलू राजनीति बेहद महत्वपूर्ण हैं. भारत को इन पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है, न सिर्फ़ सेशेल्स में बल्कि सभी पड़ोसी छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों में.

जनता का विरोध

प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ जनता के विरोध पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए. 2015 में शुरुआती मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर दस्तख़त के बाद जनवरी 2018 में एक संशोधित समझौते पर दस्तख़त हुआ. उसके बाद से ‘सेव द अलडाबरा ग्रुप’ नाम के एक NGO ने पर्यावरण पर प्रोजेक्ट के असर की चिंताओं को जताने के लिए साप्ताहिक रैलियां की. इसका संबंध मुख्य रूप से अलडाबरा से एज़म्पशन की नज़दीकी को लेकर है. अलडाबरा प्रवाल द्वीप एक यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट है और दुनिया में विशाल कछुओं की सबसे बड़ी आबादी का घर है. हालांकि, NGO से कम ही लोग जुड़े हैं लेकिन न तो सरकार, न ही विपक्ष उसे नज़रअंदाज़ कर सकता है.

राष्ट्रपति फॉरे ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि पर्यावरण संबंधी चिंताएं सही हैं. विरोध प्रदर्शनों के जवाब में सरकार ने जन सुनवाई का आयोजन किया. सेशेल्स न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस जन सुनवाई में सैकड़ों लोग शामिल हुए और प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लोगों का विरोध ज़बरदस्त था. हालांकि, इस तरह की टाउन हॉल मीटिंग 95,000 लोगों की आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करती है लेकिन सेशेल्स के लोगों की तरफ़ से कुछ आपत्तियां बेहद महत्वपूर्ण हैं.

टिकाऊ विकास

2018 में सरकार ने ‘सेशेल्स ब्लू इकोनॉमी स्ट्रैटजिक फ्रेमवर्क एण्ड रोडमैप’ को अपनाया. ये विकास की तरफ़ एकीकृत रास्ता है जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट एजेंडा और पेरिस समझौते के अनुरूप अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और समाज को एक साथ लाएगा. जिस वक़्त भारत अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में बड़ी भूमिका और क्षेत्रीय संगठनों में अग्रणी भूमिका की होड़ में लगा हुआ है, ऐसे में उसके लिए ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि वो सेशेल्स और दूसरे छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (SDG) को हासिल करने में समर्थन देता हुआ दिखाई दे. सेशेल्स के मामले में ये ख़ासतौर पर महत्वपूर्ण है जिसने पर्यावरण संरक्षण के मामले में कई पहल की है.

छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों के लिए पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं बेहद महत्वपूर्ण और अत्यावश्यक हैं. इन देशों में लोग पर्यावरण के ख़तरे को समुद्री सुरक्षा के ख़तरे के समान देखते हैं. गैर-टिकाऊ पद्धति और परियोजनाओं का गंभीर और दीर्घकालीक नतीजा होता है और कई बार ये अस्तित्व के लिए ख़तरा बन जाता है. जिन मामलों में लोगों का विरोध ज़ोरदार है, भारत को उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए. जहां सही चिंताएं हैं वहां भारत को वैकल्पिक समाधान मुहैया कराने की तत्परता दिखानी चाहिए.

विदेशी कामगारों की भीड़

प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लोगों की राय भारतीय कामगारों की संभावित भीड़ के डर को भी उजागर करती है. ये डर सिर्फ़ छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों में ही नहीं है. आधारभूत ढांचे वाली परियोजना जो अक्सर स्थानीय समुदाय से हटकर बाहर के कामगारों के भरोसे होती हैं, उनका इस वजह से ज़ोरदार विरोध होता है. चीन की परियोजनाओं को इसी तरह की समस्याओं की वजह से नुक़सान हुआ है ख़ासतौर पर अफ्रीका में जहां वो लोगों की इस नकारात्मक धारण को नहीं तोड़ पाई हैं कि चीन की कंपनियां स्थानीय लोगों के मुक़ाबले चीन के लोगों पर अत्यंत निर्भर रहती हैं.

भारत को इस तरह की सोच को लेकर सावधान रहने की ज़रूरत है. भारत को ऐसी व्यवस्था पर विचार करने की ज़रूरत है जो स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल करे. हालांकि, चीन से हटकर भारत की नीति है कि वो ‘श्रम का निर्यात’ नहीं करेगा लेकिन तब भी इस मामले में अतिरिक्त ध्यान देने की ज़रूरत है. भारत को आधारभूत ढांचे की परियोजना को लेकर पड़ोस के देशों में स्थानीय लोगों की चिंताओं पर और ध्यान देने की ज़रूरत है चाहे वो श्रीलंका का हम्बनटोटा पोर्ट हो, म्यांमार में मिटसोन डैम हो, चीन से म्यांमार तक कुन्मिंग-क्याप्कू रेलवे हो, BBIN को लेकर भूटान की चिंता या सेशेल्स में एज़म्पशन आईलैंड प्रोजेक्ट.

हालांकि, भारत ने कभी भी एज़म्पशन आईलैंड प्रोजेक्ट को सैन्य अड्डे के रूप में उल्लिखित नहीं किया है लेकिन जब एक बार विरोध बढ़ने लगा तो नई कहानी शुरू होने लगी. प्रोजेक्ट से जुड़े दस्तावेज़ ऑनलाइन लीक होने के बाद संप्रभुता और विदेशी मौजूदगी को लेकर चिंताएं मुखर होने लगीं. राष्ट्रपति फॉरे और भारत सरकार की तरफ़ से सफ़ाई शुरुआती नुक़सान को पलट नहीं सकी. राष्ट्रपति फॉरे ने स्पष्ट किया कि भारत के सैन्य अड्डा स्थापित करने का ख्याल ‘ग़लत सूचना’ है.

तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त औसाफ़ सईद ने ध्यान दिलाया कि एज़म्पशन प्रोजेक्ट सबसे पहले चर्चा के लिए 10 साल पूर्व उस वक़्त आया जब समुद्री डकैती चरम पर थी. सेशेल्स दूसरे देशों से साझेदारी की कोशिश कर रहा था और उसी ने साझा तटीय सुविधा का प्रस्ताव आगे किया था. 2015 में अंतत: जब प्रोजेक्ट का एलान किया गया तो विपक्ष पूरी तरह इसके समर्थन में था.

आज ये सोच राजनीतिक बन गई है. जिस परियोजना का मक़सद दोनों देशों के हित और फ़ायदे में साझा ऑपरेशन था वो संप्रभुता पर बहस बन गई है और आईलैंड में भारत की मौजूदगी को ख़तरे की तरह देखा जा रहा है. विपक्ष के लिए समझौते का समर्थन करना राजनीतिक रूप से उपयुक्त नहीं रहा. संसद में विपक्ष के बहुमत को देखते हुए राष्ट्रपति फॉरे के लिए ये प्रोजेक्ट राजनीतिक रूप से फ़ायदे का सौदा नहीं रहा.

छल की सोच

भारत को ये मानना होगा कि छल की धारणा महत्वपूर्ण है. एक बार उसके प्रमाणित हो जाने के बाद उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. भारत के लिए ज़रूरी है कि वो पड़ोस में अपनी कोशिशों को लेकर नकारात्मक सोच पर नज़दीकी नज़र रखे और सीधे तौर पर और कम समय में उनका निदान करे.

2015 में समझौते पर दस्तख़त के एक हफ़्ते के भीतर सेशेल्स पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज़ (SPDF) के चीफ ऑफ द स्टाफ लेफ्टिनेंट कर्नल माइकल रोसेट्टे ने साफ़ किया कि, ‘कोई लीज़ समझौता नहीं हुआ है’ और भारत सरकार SPDF के ज़रिए सेशेल्स की सरकार की मदद करेगी. लीज़ समझौते और बड़ी शक्तियों के आगे संप्रभुता का नुक़सान छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों के लिए असली डर बन गए हैं. इस बात को देखते हुए कि भारत खुद भी अपने पड़ोस में इस तरह के समझौतों को लेकर चिंतित है, उसे इस चिंता पर सीधे और साफ़ तौर पर शुरुआत में ही ध्यान देना चाहिए था. सोच के नकारात्मक रूप में तब्दील होने के बाद इस शोर-शराबे में जो चीज़ लापता हो गई वो है भारत की इच्छा कि वो संप्रभुता के नुक़सान को लेकर चिंताओं पर ध्यान देने के लिए तैयार है और जिसका नतीजा संशोधित समझौते के रूप में आया. लेकिन इसके बावजूद संप्रभुता को लेकर बहस केंद्र में रही. इसकी वजह से भारत-सेशेल्स संबंधों की बहुआयामी प्रकृति को भुला दिया गया.

रक्षा सहयोग और आधारभूत ढांचे का विकास साझेदारी का सिर्फ़ एक पहलू है. कई और क्षेत्रों की खोज की जा रही है जैसे सिविलियन इन्फ्रास्ट्रक्चर हाइड्रोग्राफी और शहरों का जोड़ा बनाना. सामुदायिक असर वाले प्रोजेक्ट जो तात्कालिक ज़रूरत पर ध्यान देते हैं, बेहद महत्वपूर्ण हैं. ये प्रोजेक्ट भले ही आकार में छोटे हैं लेकिन सेशेल्स के लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाएंगे. सामाजिक आवासीय परियोजना जिनका लक्ष्य 3,000 घर बनाना है, बस और एंबुलेंस को तोहफ़े के रूप में देना कुछ ऐसे प्रोजेक्ट हैं जिन पर काम जारी है.

कोई समझौता पूरी तरह ख़त्म नहीं है लेकिन घरेलू राजनीति और लोगों की चिंताएं उस वक़्त तक इस प्रोजेक्ट को रोक सकती हैं जब तक कि ये राजनीति और पर्यावरण के हिसाब से बेहतर न हो जाए. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में हर जगह मौजूद बड़ी शक्तियों के बीच मुक़ाबला इसकी चुनौती को और बढ़ाता है. प्रोजेक्ट का भविष्य काफ़ी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत समझौते को और संशोधित करने के लिए इच्छुक है या नहीं. साथ ही विकल्प तलाशने का धैर्य और ज़्यादा पारदर्शिता की इच्छा पर भी प्रोजेक्ट का भविष्य निर्भर है. अब जब चीन को अपनी आधारभूत परियोजनाओं को लेकर कुछ विरोध का सामना करना पड़ रहा है, भारत को चाहिए कि वो पड़ोस में मौजूद छोटे द्वीपों वाले विकासशील देशों की चिंताओं पर ज़्यादा ध्यान दे.

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