Author : Sunjoy Joshi

Published on Mar 16, 2022 Updated 0 Hours ago

वास्तव में इस युद्ध के पात्र सब पक्ष - रूस, यूक्रेन और अमेरिका की अगुवाई में नेटो, सभी खेमे, अपनी-अपनी सुरक्षा की चिंता में इतने फँसते चले गए कि आज अपनी-अपनी विषमतम असुरक्षाओं के घेरे में क़ैद हो चुके हैं.

रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं!

Source Image: Alisdare Hickson — Flickr/CC BY-SA 2.0

(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड –‘रूस और यूक्रेन, इस युद्ध का कोई विजेता नहीं’, में चेयरमैन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है).


रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध ने दुनिया के सामने यकायक एक ऐसा नया संकट पैदा कर दिया जो कई मायनों में अप्रत्याशित और असंभावित था. किसी को अपेक्षा नहीं थी की यह आपसी खींच-तान इतनी जल्दी, इतनी तेज़ी इतने पायदान चढ़ती चली जाएगी. जिस गति से मामले ने तूल पकड़ा और गीदड़ भभकियों सी लगने वाली चेतावनियां परमाणु हत्यारों के इस्तेमाल की, धमकियों में बदल गयीं, कि युद्ध ने सभी को झकझोर कर रख दिया. कहीं ऐसा न हो कि ये सिलसिला एक ऐसे पायदान पर पहुँच जाये जहां से उतरना असंभव हो जाये, बस हाथ छोड़कर गिरने की कसर ही बाकी रहे. आज निरीह जनता यूक्रेन मे बमबारी के बीच अपने अपने घरों और शहरों में कैद है. असहाय महिलायें, बुज़ुर्ग और बच्चे शरणार्थी बन पलायन कर रहे हैं और भारत समेत कई देशों के नागरिक अपने को ऐसे युद्ध में फंसा पा रहे हैं जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.

बाइडेन प्रशासन जरूर “भेड़िया आया भेड़िया आया” का शोर उसी दिन से मचा रहा था जिस दिन से रूस ने यूक्रेन की सीमा पर अपने लाखों सैनिकों का जमावड़ा तैनात करने का सिलसिला शुरू कर दिया था. लेकिन वास्तव में भेड़िया आने की तैयारी तो किसी ने की ही नहीं. 

हाँ, बाइडेन प्रशासन जरूर “भेड़िया आया भेड़िया आया” का शोर उसी दिन से मचा रहा था जिस दिन से रूस ने यूक्रेन की सीमा पर अपने लाखों सैनिकों का जमावड़ा तैनात करने का सिलसिला शुरू कर दिया था. लेकिन वास्तव में भेड़िया आने की तैयारी तो किसी ने की ही नहीं. मानो “भेड़िया! भेड़िया!” शोर करने के पीछे आशा थी, कि कोहराम सुनकर भेड़िया स्वयं ही डर कर भाग लेगा. पर ऐसा नहीं हुआ. भेड़िया आ ही गया और पुतिन ने पूरे लाव-लश्कर के साथ यूक्रेन पर हमला बोला जिसके लिये कोई भी तैयार नहीं था. न यूक्रेन इसके लिये तैयार था, और न ही अमेरिका या यूरोप. प्रतिक्रिया आई ज़रूर पर ट्विटर पर ज्य़ादा. लगा की सोशल मीडिया पर प्रोपेगेंडा करना, बेगुनाह लोगों की हिफ़ाजत से ज्य़ादा ज़रूरी है. जो ताक़तें यूक्रेन को नेटो में सम्मिलित करने के सब्ज़बाग दिखा उसे चने के झाड़ पर चढ़ाये बैठी थीं वे अब ट्विटर पर जंग लड़ने और ऑनलाइन पाबंदियां लगाने में मशगूल थीं. NATO और रूस का युद्ध हुआ पर वो सोशल मीडिया प्रोपेगेंडा और एक दूसरे की मीडिया साईट बंद करने तक सीमित था. और अंत में तरह-तरह के प्रतिबंधों के बीच फिर से दागा गया अमेरिका का चिर-परिचित सैंक्शंस का हथियार. ब्रिटेन और फिर कई अन्य देशों ने रूस पर नए-नए आर्थिक प्रतिबंध ठोंकने शुरू किये.

अब तक क्या-क्या हुआ?

अब दो सप्ताह से ज्य़ादा समय के बाद युद्ध अत्यंत ही अनिश्चित-असुंतलन के बीच फंसा है. रूस आगे बढ़ भी रहा है और नहीं भी बढ़ रहा है- कुछ लोगों के अनुसार जितनी तेज़ी से वो आगे बढ़ सकता था, उतनी तेज़ी से बढ़ नहीं रहा है या फिर बढ़ना नहीं चाहता. या फिर रूस को उम्मीद नहीं थी कि यूक्रेन की जनता ऐसे एकजुट हो, इतना सशक्त जवाब उसे देगी कि रूसी सैनिक आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे. सभवतः दोनों बातें सत्य हैं. पर यह अनिश्चित-असुंतलन ज़्यादा दिन चल नहीं पायेगी. यूक्रेन अकेला रूस की सेना का सामना ज़्यादा समय तक नहीं कर सकता और हालात कभी भी बेक़ाबू हो सकते हैं. यह सिलसिला कहां रुकेगा यह चिंता पूरे विश्व को है.

वास्तव में इस युद्ध के पात्र सब पक्ष – रूस, यूक्रेन और अमेरिका की अगुवाई में NATO, सभी खेमे, अपनी-अपनी सुरक्षा की चिंता में इतने फँसते चले गए कि आज अपनी-अपनी विषमतम असुरक्षाओं के घेरे में क़ैद हो चुके हैं. जितने जिसके भय थे, चाहे वो अमेरिका का रूस और चीन को लेकर हो, या रूस का NATO के लगातार बढ़ते घेरे को लेकर, दोनों के सारे भय आज उनके ही सामने मुंह खोले खड़े हैं. रूस को डर था की वे हिस्से जो रूस के कभी अभिन्न अंग थे, जिनमें यूक्रेन, जॉर्जिया और बेलारूस शामिल हैं, वे उसके हाथ से निकल दुश्मन से हाथ मिला रहे हैं. इन्हीं असुरक्षाओं के चलते सभी पक्षों के बीच संवाद पूरी तरह से ख़त्म हो गया – रूस के टैंक यूक्रेन की सरहद में दाख़िल हो गए. फ्रांस और जर्मनी जरूर प्रयास करते रहे की रूस की असुरक्षा और उसके हितों को नजरअंदाज न किया जाए पर अंततः युद्ध रोका न जा सका और यूक्रेन पर हमले के साथ जब पुतिन ने भाषण दिया तो वे पूर्वी यूक्रेन के डोनेत्स्क (DPR) और लुहांस्क (LPR) क्षेत्रों की स्वायत्तता या आज़ादी के मुद्दे से आगे निकल, यूक्रेन के अस्तित्व पर ही सवाल उठा बैठे.

आक्रमण को लेकर साधारण यूक्रेनी नागरिक के दिलों में रूस के प्रति जो नफ़रत और घृणा बलवती हो रही है उसे दूर करने में पुश्तें लग जायेंगी. अगर रूस यूक्रेन पर सैन्य जीत हासिल कर भी ले तो बगावत के सिलसिला पर पार पाना आसान नहीं– रूस वहां ऐसा फंसेगा की उसके लिये बाहर आना मुश्किल होगा.

अब जो हालात पैदा हुए हैं उनमें कोई भी विजेता नहीं उभर सकता – सभी पक्षों की हार है – रूस की हार, यूक्रेन की हार और पश्चिमी खेमे की हार. अगर रूस सोचता है कि वो यूक्रेन पर कब्ज़ा जमाकर, ज्य़ादा दिनों तक अपना शासन चला सकता है तो वह संभव नहीं. रूस के अंदर भी युद्ध के प्रति विद्रोह के स्वर उठ रहे हैं. जहां तक यूक्रेन का प्रश्न है, रूस के आक्रमण के बाद वहां की जनता के भीतर राष्ट्रवाद की भावना को ही बल मिला है, जिससे आज वो रूस जैसे शक्तिशाली देश का मज़बूती से सामना कर रहा है. आक्रमण को लेकर साधारण यूक्रेनी नागरिक के दिलों में रूस के प्रति जो नफ़रत और घृणा बलवती हो रही है उसे दूर करने में पुश्तें लग जायेंगी. अगर रूस यूक्रेन पर सैन्य जीत हासिल कर भी ले तो बगावत के सिलसिला पर पार पाना आसान नहीं– रूस वहां ऐसा फंसेगा की उसके लिये बाहर आना मुश्किल होगा.

आर्थिक नाकेबंदी की रणनीति

रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंध और जवाबी आर्थिक युद्ध की धमकियों के चलते विश्व अर्थव्यवस्था पर कहीं बड़े संकट के बादल मंडरा रहे हैं. रूस ने कच्चे तेल और गैस की सप्लाई रोकने तक की धमकी दे दी है. जहां तक पश्चिमी ताकतों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का सवाल है, रूस के लिए ये कोई नयी बात नहीं है – रूस तो 2014 के क्राइमिया के संघर्ष के बाद से ही पश्चिमी देशों के निशाने पर रहा है और कुछ हद तक आदि भी हो चुका है. नए प्रतिबंध वास्तव में उतने नए भी नहीं हैं. कई और देशों, जैसे ईरान पर ऐसे हो प्रतिबंध कब से चले आ रहे हैं. इसलिए आक्रमण के पहले रूस ने इनसे जूझने के तैयारी भी कर ली होगी. रूस के लिए अमेरिका का यह कदम अपेक्षित था, इसलिए हमले के बाद लगे प्रतिबंध रूस की सैन्य योजना को प्रभावित नहीं कर सकते.

बड़ा प्रश्न है की प्रतिबंधों का युद्ध में हथियार के रूप में लगातार इस्तेमाल – इनके माध्यम से दुश्मन की जो आर्थिक नाकेबंदी की जाने लगी है वह economic siege से कम नहीं है. और इसका उद्देश्य विरोधी देश में आर्थिक किल्लत के माध्यम से आर्थिक आपदा पैदा करना होता है ताकि देश की आम जनता की परेशानियों से त्रस्त हो शासक हथियार डाल दें – यह एक प्रकार का आर्थिक ब्लैकमेल ही है. इससे जनता तो ज़रूर परेशान होती है, पर आज तक बहुत ज़्यादा सफलता नहीं मिली है. अमेरिका द्वारा ऐसे प्रतिबंधों का इस्तेमाल छोटे अलग-थलग पड़े देशों, जैसे, ईरान, इराक, उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ कई बार किया जा चुका है पर वास्तव में उसके हाथ इनके फलस्वरूप कुछ खास नहीं आया. किन्तु इस बार तो इस हथियार का इस्तेमाल ईरान या उत्तर कोरिया जैसे कई वर्षों से अंतरराष्ट्रीय समुदाय से निष्कासित देश के खिलाफ़ नहीं किया गया है. रूस दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जो कि तेल और गैस का विश्व में दूसरी बड़ी निर्यातक शक्ति है. और भले किसी का हो न हो, रूस आज यूरोप की ऊर्जा ज़रूरतों की ‘जीवन रेखा’ हैं जिसके बग़ैर यूरोप में ताला लग जाएगा. ऐसे में प्रतिबंध वो हथियार है जो दोतरफ़ा वार करता है, लगाने वाले पर भी उसका असर उतना ही घातक होता है जितना की लगने वाले पर.

अब तनिक इन प्रतिबंधों के स्वरूप पर गौर फरमाएँ . SWIFT जो कि बैंकों के बीच आदान प्रदान की सुरक्षित प्रणाली है उससे रूस को अलग करने की घोषणा की गयी है. नतीजन रूसी लोग व वहाँ की सरकार और कंपनियाँ अपने डॉलर में रखे पैसे का उपयोग नहीं कर पाये. लेकिन इस प्रतिबंध से रूस के दो प्रमुख बैंक – ग़ैज़प्रोम बैंक और स्बेरबैंक – को इसलिये बाहर रखना पड़ा क्योंकि उनको प्रतिबंधित करने का मतलब होता यूरोप के रूस से ऊर्जा प्लाई पर प्रतिबंध – दुधारी तलवार यूरोप की ही गैस सप्लाई काट देती. हाँ, अमेरिका ने रूस से तेल और गैस के आयात पर प्रतिबंध लगाने का ज़ोर-शोर से प्रचार ज़रूर किया. मगर वह इसलिये क्योंकि अमेरिका अपने तेल के कुल आयात का महज़ पांच फ़ीसद ही रूस से लेता है, जो उसकी कुल तेल की खपत का बहुत ही मामूली सा हिस्सा है. यूरोप की स्थिति भिन्न है – जर्मनी के चांसलर ने इतना भर कहा है की जर्मनी रूस से आने वाली नयी-नवेली नॉर्डस्ट्रीम नंबर 2 पाइपलाइन की सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया रोक रहे हैं. वास्तव में नॉर्डस्ट्रीम नंबर 2 पाइपलाइन से गैस आना तो अभी शुरू भी नहीं हुआ था – जर्मनी तो आज भी गैस रूस से नॉर्डस्ट्रीम नंबर 1 पाइपलाइन से ले ही रहा है. और सोचिए, नॉर्डस्ट्रीम नंबर 1 पाइपलाइन आती कहाँ से है? ये पाइपलाइन और कहीं नहीं, युद्ध ग्रसित यूक्रेन से होकर सीधे रूस से ही आ रही है. भयंकर जंग जारी है, अफ़रा-तफ़री है, लोग मर रहे हैं, अस्पतालों पर बम बरस रहे हैं लाखों संख्या में शरणार्थी दूसरे देशो में पलायन कर रहे है, पर गैस की सप्लाई अनवरत रूस से जारी है. रूस के उप-प्रधानमंत्री ने धमकी ज़रूर दी की वे गैस सप्लाई बंद कर सकते हैं पर साथ हो यह भी जोड़ा की वे ऐसा नहीं करेंगे.

रूस दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जो कि तेल और गैस का विश्व में दूसरी बड़ी निर्यातक शक्ति है. और भले किसी का हो न हो, रूस आज यूरोप की ऊर्जा ज़रूरतों की ‘जीवन रेखा’ हैं जिसके बग़ैर यूरोप में ताला लग जाएगा. ऐसे में प्रतिबंध वो हथियार है जो दोतरफ़ा वार करता है

सच पूछें तो आर्थिक युद्ध के नतीजे बहुत कष्ट-दायक होते हैं और इनका सर्वाधिक प्रभाव बेगुनाह आम नागरिकों पर पड़ता है जो कि रोज़ी-रोटी, ज़िंदगी बचाने वाली अत्यावश्यक दवाओं, भोजन जैसी ज़रूरी चीज़ों से महरूम हो जाते हैं. इन परिणामों के कारण वास्तव में ऐसे आर्थिक प्रतिबंधों को तो युद्ध अपराध के दर्ज़े में डाला जाना चाहिए. इनका इस्तेमाल भले ही किसी देश के शासकों को ब्लैकमेल करने के लिये किया जाता हो लेकिन असर होता है निरीह जनता पर.

यही कारण है की प्रतिबंधों और बैंकिंग की डॉलर पर आधारित वैश्विक व्यवस्था को युद्ध के हथियार की तरह इस्तेमाल करने से आज दुनिया के कई देश चिंतित हैं. आज स्विफ्ट को रूस में रोका गया है, हो सकता है कल चीन पर, परसों भारत का नंबर आ जाए – जिसके घातक परिणाम होंगे. किसी देश को SWIFT के इस्तेमाल से वंचित करना और उसके नागरिकों को अपने ही धन को हासिल करने से रोकना बेहद गैर ज़िम्मेदाराना क़दम है. ऐसे क़दमों से वैश्विक वित्तीय व्यवस्था पर लोगों की आस्था टूटती है, और अंततः डॉलर का रिज़र्व करेंसी के रूप में भरोसा कमज़ोर पड़ता है. वैश्विक वित्तीय व्यवस्था विश्वास पर आधारित है, और यदि पैसे के आदान-प्रदान पर ही विश्वनीयता कमज़ोर हो जाए तो सबसे कमज़ोर पड़ेगा इस व्यवस्था का आधार स्तंभ – अमेरिका. इस भरोसे के टूटने से लोगों का डॉलर निवेश पर से भरोसा उठ जाएगा और डॉलर-वर्चस्व को चुनौती देती प्रणालियाँ अधिक सशक्त होंगी. धीरे-धीरे देश आपस में वैकल्पिक प्रणालियाँ स्थापित करने लगेंगे.

सच पूछें तो आर्थिक युद्ध के नतीजे बहुत कष्ट-दायक होते हैं और इनका सर्वाधिक प्रभाव बेगुनाह आम नागरिकों पर पड़ता है जो कि रोज़ी-रोटी, ज़िंदगी बचाने वाली अत्यावश्यक दवाओं, भोजन जैसी ज़रूरी चीज़ों से महरूम हो जाते हैं. इन परिणामों के कारण वास्तव में ऐसे आर्थिक प्रतिबंधों को तो युद्ध अपराध के दर्ज़े में डाला जाना चाहिए.

क्या वैश्विक तेल और गैस बाज़ार में रूस के विकल्प हैं?

अगर रूस को ऊर्जा व्यवस्था से अलग थलग करने की धमकियों को वाक़ई में अमली जामा पहनाया जाता है, और इनके चलते तमाम देश रूस से किए जाने वाले आयात को बंद कर दें तो कीमतों में भारी उछाल पर काबू पाने के विकल्प यही हैं कि अमेरिका ही अपने कुछ अन्य स्व-जनित प्रतिबंधों में ढील देकर ईरान से दोस्ती कर ले, या फिर वेनेज़ुएला से हाथ मिला ले. ध्यान दें की अमेरिका ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से तेल का उत्पादन बढ़ाने को कहा ज़रूर पर किसी ने भी इस पर कोई तवज्जो नहीं दी. कारण स्पष्ट है – रूस (OPEC) ओपेक का सदस्य है और ये देश एक बड़े साझेदार देश के ख़िलाफ़ ख़ुद को मोहरा बनाने के इच्छुक बिलकुल नहीं. तेल उत्पादक देशों के बीच दरार डालने की कोशिशों के कामयाब होने की उम्मीद कम ही है और इन्हें एक दूसरे के खिलाफ़ इस्तेमाल करने या फिर ईरान से हाथ मिलाने से अमेरिका का संघर्ष का दायरा बढ़ने वाला ही है न की कम होने वाला.

इसलिए ये सब धमकियाँ का प्रयोग यदि यूक्रेन में संतुलन बनाने, या युद्ध को शांति की ओर मोड़ने के काम आती है तो उचित है पर अंततः धमकियों के आगे आपसी बातचीत से किसी ऐसे समझौते पर पहुंचना होगा जो सभी पक्षों को मंज़ूर हो. समाधान हासिल करने में जितनी ही देर की जाएगी, इस जंग के तबाही व असर अधिक व्यापक होते जाएंगे. आशा की एक किरण यही है कि रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत जारी है. इज़रायल के प्रधानमंत्री बेनेट भी काफ़ी सक्रिय नजर आए हैं. वो पुतिन से मिल आये हैं और जेलेंस्की से भी बात कर रहे हैं. रूस पर लगे प्रतिबंधों से इज़राइल का फ़िक्रमंद होना वाजिब है, क्योंकि उसे भय है की इनके चलते विश्व में पैदा होने वाले ऊर्जा संकट और मुद्रास्फीति के चलते ईरान के हाथ मज़बूत हो सकते हैं. वो यूरोप को तेल और फिर गैस निर्यात करने वाला प्रमुख राष्ट्र बन सकता है. ईरान के विश्व व्यवस्था का हिस्सा फिर से बनने से इज़रायल के हित कमज़ोर पड़ेंगे, सऊदी अरब कमज़ोर होगा और पश्चिमी एशिया की जियोपॉलिटिक्स पूरी तरह से बदल सकती है. इसलिये – यूरोप में पैदा इस संकट का कोई वैकल्पिक समाधान निकाला जाना इज़रायल और अन्य क्षेत्रीय ताकतों के लिए बहुत आवश्यक हो जाता है .

धमकियाँ का प्रयोग यदि यूक्रेन में संतुलन बनाने, या युद्ध को शांति की ओर मोड़ने के काम आती है तो उचित है पर अंततः धमकियों के आगे आपसी बातचीत से किसी ऐसे समझौते पर पहुंचना होगा जो सभी पक्षों को मंज़ूर हो. समाधान हासिल करने में जितनी ही देर की जाएगी, इस जंग के तबाही व असर अधिक व्यापक होते जाएंगे.

ज़ेलेंस्की ने इशारा दिया है कि वे नेटो का सदस्य बनने के मुद्दे पर नए सिरे से विचार करने को राज़ी हो सकते हैं. शायद उन्हें यथार्थ का भान हो रहा है कि यूक्रेन इतनी जल्दी नेटो का हिस्सा नहीं बन सकता है. साथ ही अमेरिका ने पोलैंड से आए यूक्रेन को जंगी जहाज़ देने के प्रस्ताव को भी ख़ारिज कर दिया है. पोलैंड बार-बार कह रहा था कि जो उसके पास रूस के मिग-जेट विमान हैं, उसे वह यूरोप में अमेरिका एयर बेस में भेज देते हैं ताकि उन्हें यूक्रेन को उपलब्ध कराया जा सके. लेकिन, अमेरिका ने साफ-साफ इंकार कर दिया कि नेटो इस हद तक इस युद्ध में शामिल होने का कतई इच्छुक नहीं है. अब यही आशा की जा सकती है की सब पक्षों को सदबुद्धि आये और कोई समझौता हो. डोनेत्सक और लुहांस्क के अपने को गणतन्त्र मानने वाले स्वायत्त प्रदेश, जिन्हें रूस ने स्वतंत्र घोषित कर दिया है, वहाँ पहले ही विद्रोहियों का शासन है. इन क्षेत्रों की स्वायत्तता को लेकर मिंस्क समझौते का अमल हो. उनकी स्वायत्तता या फिर स्वतन्त्रता का हल निकालने की ज़रूरत है. और यदि हल निकाल भी जाता है तो उनके सीमाओं का नया विवाद खड़ा है, क्योंकि रूस ने उनकी घोषित सीमायें यूक्रेन के अंदर बहुत आगे तक बढ़ा दी हैं. संभवतः रूस को यहां समझौता करना होगा. इन सवालों के जवाब निकालने होंगे जिनके जीवित रहते कभी भी फिर से कड़वाहट आ सकती है. रूस को भी समझदारी से काम लेना होगा और ज़िद पर नहीं अड़ना चाहिये ये समझते हुए की जो रास्ता उसने अपनाया है वो उसे ज़्यादा दूर तक नहीं ले जा पायेगा और ऐसा करने से नुकसान रूस को ही पहुंचेगा.

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