Author : Abhay Pethe

Published on Jun 15, 2018 Updated 0 Hours ago

बेहतर शहरी प्रबंधन के लिए भारत में वित्तीय संसाधनों का हस्तांतरण क्यों जरूरी है?

वित्तीय संसाधनों का हस्तांतरण बेहतर शहर प्रबंधन के लिए जरूरी

भारत में दिल्ली स्थित चांदनी चौक

छवि: जुआन एंटोनियो सेगल

भारत के विभिन्‍न शहरों और कस्बों के मौजूदा हालात पर गौर करने पर कमोबेश चारों ओर अव्यवस्था या अस्तव्यस्त माहौल नजर आता है जो खराब प्रशासन एवं कुप्रबंधन का नतीजा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण स्पष्ट रूप से गवर्नेंस के विकेन्द्रीकरण का सख्‍त अभाव है। वैसे तो इस बारे में 74वें संविधान संशोधन के जरिए संवैधानिक रूप से वादा किया गया था, लेकिन सच्‍चाई यही है कि ज्यादातर राज्यों में इसकी स्थिति अत्‍यंत हास्यास्पद रही है।

विकेंद्रीकरण में अनिवार्य रूप से तीन अवयव शामिल होते हैं:

  • अधिकारों या संसाधनों को सौंपना,
  • विसंकुलन, और
  • हस्तांतरण।

शहरों के समक्ष मौजूद बड़ी चुनौतियों या समस्याओं के जटिल और उलझे स्‍वरूप को देखते हुए प्रथम दो अवयव दरअसल एक तरह से चालाकीपूर्ण प्रबंधकीय रणनीति को दर्शाते हैं जिसके तहत निचले स्‍तर की सरकार को संसाधन या अधिकार सौंपे तो जाते हैं, लेकिन इनकी समग्र देख-रेख की कमान उच्‍च स्‍तर पर ही बरकरार रखी जाती है। हालांकि, तीसरा पहलू गुणात्मक रूप से बिल्‍कुल अलग है क्योंकि इसमें कोई शर्त थोपे या कोई सवाल किए बिना ही संसाधनों को निचले स्‍तर पर हस्‍तांतरित कर दिया जाता है। इसमें उच्च स्तर पर विराजमान सरकारों द्वारा इस अंतर्निहित अनुमान के साथ व्यय करने की स्वायत्तता निचले स्‍तर की सरकार को दी जाती है कि शहर वास्तव में अपनी उन आवश्‍यकताओं को पूरा करने में सक्षम हैं जो उनके सर्वश्रेष्‍ठ हित में हैं।

 महात्मा गांधी के जमाने से ही भारत लोगों के हाथों में सत्‍ता सौंपने और स्वतंत्र समुदायों के रूप में गांवों के बारे में सोचने के अंतर्निहित सिद्धांत के साथ पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) का एक मजबूत समर्थक रहा है। ऐतिहासिक रूप से भारत का दिल उसके गांवों में ही बसता रहा है और इसी का यह नतीजा है कि भारत के शहरों को कुछ हद तक नजरअंदाज कर दिया गया है।

फिर भी, कुछ भारतीय राज्य लंबे समय से अपने शहरों और कस्बों का प्रबंधन करने के लिए अलग-अलग विधायी व्यवस्था करते रहे थे। वैसे तो उन्होंने इस तरह के स्थानीय निकायों के लिए संगठनात्मक स्‍वरूप को कुछ हद तक अलग रखा था, लेकिन उनमें से सभी में समानता यह थी कि वे सभी राज्य के ही सृजन नजर आते थे क्‍योंकि संबंधित निकायों के फैसलों में उन्‍हीं की मनमानी चलती थी। लंबे समय से अपनाए जा रहे इस नुकसानदेह नजरिए ने भारतीय शहरी परिदृश्‍य में एकसमान एवं सार्थक विकेन्द्रीकरण लाने के लिए 74वें संविधान संशोधन के जरिए किए गए प्रयासों को बेअसर कर दिया है।


विकेन्द्रीकरण की कल्पना तीन ‘एफ’ जैसे कि फंक्‍शन (कार्य), फाइनेंस (वित्त) और फंक्‍शनरी (पदाधिकारी) के साथ की जानी चाहिए थी। जहां तक कार्यों का संबंध था, उनकी रूपरेखा स्पष्ट रूप से पेश कर दी गई थी। जहां तक पदाधिकारियों का संबंध था – उनके बारे में भी चित्रण ठीक था। हालांकि, कुछ राज्य सरकारों ने शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के पदाधिकारियों के रूप में कार्य करने के लिए अपने ही कर्मचारियों को प्रतिनियुक्त कर दिया था। अत: उन्‍होंने इससे जुड़ी व्‍यवस्‍था को थोड़ा-सा बिगाड़ दिया था। वास्तविक समस्या वित्त को लेकर थी।


भारतीय शहरी क्षेत्र आर्थिक विकास और इस तरह से प्रगति के इंजन हैं। वे ऐसे क्षेत्र (शहरों या कस्बों के रूप में) हैं जो संबंधित नागरिकों को रहने लायक स्थितियों के साथ-साथ निवेश को आकर्षित और विकास व रोजगार सृजित करने वाले अनुकूल बुनियादी ढांचागत परिवेश भी सुलभ कराते हुए आजीविका प्रदान करते हैं। हालांकि, इस राह में एक बड़ी बाधा है। भारत में न केवल निवेश को आकर्षित करने, बल्कि नागरिकों को बुनियादी स्थानीय सामान एवं सेवाएं मुहैया कराने के लिए भी शहरों और कस्बों के पास संसाधनों का भारी टोटा रहता है। ऐसी स्थिति में शहरों की स्‍थानीय सरकारें उन कार्यों को पूरा करने में असमर्थ होती हैं जिन्‍हें पूरा करने की अपेक्षा उनसे की जाती है। ऐसे में वित्‍त के अभाव में कई अहम स्‍थानीय कार्य पूरे नहीं हो पाते हैं।

महज दो ही तरीके ऐसे हैं जिनके जरिए यह स्थिति बेहतर की जा सकती है। एक, उच्च स्तरों पर विराजमान सरकारों द्वारा संसाधनों का हस्तांतरण कर देना और दूसरा, राजस्व संचालन या प्रबंधन का कार्य सौंप देना। जहां तक इनमें से पहले तरीके का सवाल है, राज्य वित्त आयोग (एसएफसी) देश भर में कार्यरत हैं, जिनसे यह उम्‍मीद की जाती है कि वे अन्य बातों के साथ-साथ संबंधित राज्‍य के भीतर यूएलबी और पीआरआई के बीच क्षैतिज असंतुलन (केंद्र की विभिन्न घटक इकाइयों की व्यय आवश्यकताओं और उनके अपने राजस्व में असंतुलन) और ऊर्ध्वाधर असंतुलन (विभिन्‍न कार्यों की व्यय आवश्यकताओं और राष्ट्रीय सरकार की तुलना में यूनिट सरकारों को सौंपे गए स्रोतों से प्राप्‍त राजस्व में अंसतुलन) को दूर करने के लिए पर्याप्त संसाधनों के हस्‍तांतरण की भी सिफारिश करेंगे। यह काफी हद तक वैसा ही काम है जो केंद्रीय वित्त आयोग भारत के राज्यों के लिए और उनके बीच पूरा करता है। दुर्भाग्यवश, लगभग सभी राज्य नजरअंदाज करने के साथ-साथ अपने एसएफसी के निर्णय अथवा पंचाट को स्वीकार नहीं करते हैं। अत: राज्यों की ओर से स्थानीय निकायों को संसाधनों का कोई फार्मूलाबद्ध हस्तांतरण नहीं होता है। ऐसा नहीं है कि राज्यों से फंड का कुछ भी प्रवाह नीचे की ओर नहीं होता है, लेकिन यह काफी हद तक गैर-लचीले ‘एजेंसी हस्तांतरण’ जैसा है, जिससे स्थानीय निकायों की आवश्‍यकताओं का पूरा होना तय नहीं है अथवा वास्‍तव में यह सियासी पक्षपात करने वाली सोच का नतीजा होता है। इस संबंध में यह मानक दलील दी जाती रही है, जो पूरी तरह से निराधार भी नहीं है, कि भारत में जैसी कर संरचना है उसके कारण राज्यों को बेहद कम विवेकाधीन वित्तीय अधिकार प्राप्‍त है, अत: वे पहले से ही सीमित संसाधनों को हस्‍तांतरित नहीं कर सकते हैं।

जब भी राजस्व संचालन या प्रबंधन की चर्चा हो, तो इस संदर्भ में यह ध्यान देने की जरूरत है कि ज्यादातर राज्यों में तथाकथित स्थानीय करों को राज्यों द्वारा पूरी तरह से या काफी हद तक हड़प लिया जाता है। अब जीएसटी (वस्‍तु एवं सेवा कर) के लागू हो जाने के बाद इन्‍हें किसी भी दर पर जीएसटी में समाहित कर ही दिया जाएगा। हालांकि, एक अपवाद के रूप में इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि कम से कम कुछ शहरों को तो उपयोगकर्ता शुल्क (यूजर चार्ज) और अन्य दरों का मुनासिब स्‍तर तय करने के प्रयास अवश्‍य ही करने चाहिए क्योंकि इससे न केवल संसाधनों की किल्‍लत की उनकी समस्या हल हो जाएगी, बल्कि अपनी माली हालत दुरुस्‍त हो जाने के बाद वे वित्तीय बाजारों में अपनी पहुंच सुनिश्चित करने और इससे जुड़ा जोखिम मोल लेने के मामले में भी बेहतर स्थिति में आ जाएंगे।


हालांकि, गैर-कर राजस्व के संबंध में केंद्रीय और राज्य सरकारों के प्रदर्शन को देखते हुए इस बात की कतई उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि यूएलबी अपनी अंतर्निहित अनौपचारिकता और असमानता के कारण उच्च स्तरों पर विराजमान सरकारों से बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम हो पाएंगे।


अत: ऐसे में जो एकमात्र वास्तविक कर राजस्व प्रबंधन संभव है वह संपत्ति कर है। विश्‍व भर में सबसे सुधरी हुई स्थिति वाले राज्‍य में संपत्ति कर किसी भी शहर के कुल व्यय में लगभग 30 प्रतिशत का योगदान देता है। हमारी तरह की कर प्रणाली अपनाने वाला कोई भी शहर कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाएगा। यह स्पष्ट है कि अक्षरश: 74वें संविधान संशोधन के अनुरूप वास्तविक विकेन्द्रीकरण सुनिश्चित करना और उसके साथ फार्मूलाबद्ध हस्तांतरण का समुचित सामंजस्‍य स्‍थापित करना ही भारत में शहरों एवं कस्बों के साथ-साथ समूचे भारत के लिए भी आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है।

यहां तक कि यदि आवश्‍यक हो तो उच्च स्तरों पर विराजमान सरकारों को संभवत: यह एहसास होना चाहिए कि यह उनके लिए फायदे का सौदा है। आखिरकार, भारत के विकास इंजनों के रूप में शहरी क्षेत्र उच्च स्तरों पर विराजमान समस्‍त सरकारों को अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण कर लाभांश प्रदान करते हैं। ये शहरी क्षेत्र उनके लिए वास्‍तव में ‘सोने के अंडे देने वाली मुर्गी’ जैसे हैं, अत: उनमें निवेश करके उन्हें पोषित करना तर्कसंगत रूप से स्‍वयं उनके ही हित में है।

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