Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

ये बहस तीन साल के लिए सेना में अस्थायी नौकरी (ToD) के प्रस्ताव के साथ शुरू हुई है. क्या टूर ऑफ़ ड्यूटी का प्रस्ताव, भारतीय सेना में सुधार की दिशा में पहला क़दम साबित होगा?

भारतीय सेना का आकार कम करने का प्रस्ताव: विचार तो अच्छा है, मगर इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है!
भारतीय सेना का आकार कम करने का प्रस्ताव: विचार तो अच्छा है, मगर इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है!

सैन्य मामलों का विभाग (DMA) सेना में तीन साल के लिए अस्थायी तौर पर गैर कमीशन प्राप्त कर्मचारियों या जवानों की भर्ती करने (ToD) के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है. ये प्रस्ताव पहले पहल दिवंगत चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ (CDS) जनरल बिपिन रावत के कार्यकाल में सामने आया था. सेना में तीन साल के लिए जवानों की बहाली करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि सेना के बजट का एक बड़ा हिस्सा तनख़्वाह और पेंशन देने में ही ख़र्च हो जाता है. इस प्रस्ताव के मुताबिक़, तीन साल तक सेना में काम करने के बाद हटाए गए ये जवान अपनी उम्र के तीसरे दशक में ही रहेंगे, तो इन्हें राज्य की पुलिस सेवा या फिर कॉरपोरेट जगत की सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा. भारतीय सेना अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा ख़ुद को वेतन और पेंशन देने पर ख़र्च कर देती है. इससे उसके पास पूंजीगत व्यय या फिर उसके आधुनिकीकरण के लिए ज़रूरी नए हथियारों और प्लेटफॉर्म पर ख़र्च करने के लिए पैसे ही नहीं बचते. सेना में अस्थायी ग़ैर कमीशन प्राप्त जवान नियुक्त करने के प्रस्ताव के विरोध में कई तर्क दिए जा रहे हैं.

कहा जा रहा है कि ये बुद्धिमानी भरा क़दम नहीं होगा. वहीं दूसरी तरफ़, इस प्रस्ताव के समर्थक कहते हैं कि इससे सेना को अपना आकार कम करने में काफ़ी मदद मिलेगी और तब सेना अपने छोटे आकार के चलते अपनी फ़ुर्ती बढ़ाकर, आधुनिक हथियारों से तालमेल बिठाकर तेज़ रफ़्तार वाले अभियान चलाने लायक़ हो सकेगी

कहा जा रहा है कि ये बुद्धिमानी भरा क़दम नहीं होगा. वहीं दूसरी तरफ़, इस प्रस्ताव के समर्थक कहते हैं कि इससे सेना को अपना आकार कम करने में काफ़ी मदद मिलेगी और तब सेना अपने छोटे आकार के चलते अपनी फ़ुर्ती बढ़ाकर, आधुनिक हथियारों से तालमेल बिठाकर तेज़ रफ़्तार वाले अभियान चलाने लायक़ हो सकेगी. सेना को उसके मौजूदा हाल पर छोड़ना भी अस्वीकार्य होगा, क्योंकि अपने वेतन और पेंशन के बढ़ते ख़र्च के चलते उसके आधुनिक तकनीक और नए हथियार अपनाने और अपने कर्मचारियों को जटिल काम और मिशन को अंजाम देने लायक़ प्रशिक्षण देने के पैसे ही नहीं बच पा रहे हैं. किसी भी सूरत में ये प्रस्ताव प्रयोगात्मक है और इसकी संभावनाएं तलाशी जानी चाहिए. आगे चलकर इस प्रस्ताव की दोबारा समीक्षा हो सकती है. इसमें सुधार किया जा सकता है. हालांकि, इस प्रस्ताव से ज़बरदस्त बहस छिड़ गई है. टूर ऑफ़ ड्यूटी के प्रस्ताव पर बहस के दो ध्रुव हैं: एक तरफ़ यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर हैं, जो सेना में भर्ती में किस्तों पर मामूली बदलाव लाने की वकालत करते हैं. इसके कई कारण हैं, जिन पर हम आगे चलकर नज़र डालेंगे. वहीं दूसरी तरफ़ सेना में सुधारों के पक्षधर हैं, जो संस्थागत रूप से रूढ़िवादी सेना में बदलाव चाहते हैं, जिससे वो तकनीक, कमान, संगठन और सिद्धांत के स्तर पर अपनी सैन्य क्षमता में बदला लाए. ये बदलाव ख़ास तौर से चीन और पाकिस्तान की तेज़ी से उभरती क्षमताओं का मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी हैं.

जातियों पर आधारित भर्ती व्यवस्था से आगे बढ़ने की ज़रूरत

शुरुआत यथास्थिति बनाने वालों से करते हैं. उसके बाद हम बदलाव की वकालत करने वालों का कुछ ख़ास शर्तों के साथ, और बारीक़ी से विश्लेषण करेंगे. टूर ऑफ़ ड्यूटी के प्रस्ताव के विरोध में एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने जो तर्क दिए थे, उनमें पहला तो ये था कि सेना में तीन साल की नौकरी (ToD) करने के बाद ये जवान हथियार उठा सकते हैं, क्योंकि नौकरी जाने के बाद उनके पास रोज़गार नहीं होगा और वो पुलिस बलों या फिर कॉरपोरेट सुरक्षा कंपनी में जा सकते हैं. उन्होंने कहा था कि, ‘क्या आप वाकई इतने सारे लोगों की फौज तैयार करना चाहते हैं, जिन्हें सेना के आला दर्ज़े के प्रशिक्षण के चलते हथियार चलाने में महारत होगी और जहां कामयाबी का पैमाना इतना अधिक है? इन पूर्व सैनिकों को आप क्या पुलिस सेवा में लेना चाहते हैं या फिर सुरक्षा गार्ड बनाएंगे? मेरी आशंका ये है कि आप हथियार चलाने में महारत रखने वाले बेरोज़गारों की एक फ़ौज खड़ी कर लेंगे’. इस दावे को शॉर्ट सर्विस कमीशन के कम से कम एक अधिकारी और इन्फैंट्री के एक अन्य अधिकारी का समर्थन मिला था, जिन्होंने पहले सेना में छह साल गुज़ारे थे. इस वक़्त शॉर्ट सर्विस कमीशन की न्यूनतम अवधि दस साल की है. टूर ऑफ़ ड्यूटी का हालिया प्रस्ताव केवल ग़ैर कमीशन प्राप्त अधिकारियों और जवानों के लिए है, अधिकारियों के लिए नहीं. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए यथास्थितिवादी कहते हैं कि भारत सरकार के टूर ऑफ़ ड्यूटी (ToD) प्रस्ताव का सबसे क्रांतिकारी पहलू तो ये है कि वो इसके लिए पूरे देश से भरती करेगी, जो भारतीय सेना की ‘नाम, नमक और निशान’ वाली कॉरपोरेट या सामूहिक पहचान के लिए नुक़सानदेह होगा.

यथास्थितिवादी कहते हैं कि भारत सरकार के टूर ऑफ़ ड्यूटी (ToD) प्रस्ताव का सबसे क्रांतिकारी पहलू तो ये है कि वो इसके लिए पूरे देश से भरती करेगी, जो भारतीय सेना की ‘नाम, नमक और निशान’ वाली कॉरपोरेट या सामूहिक पहचान के लिए नुक़सानदेह होगा.

अगर ये भर्ती प्रक्रिया शौर्य का इतिहास रखने वाली कुछ ख़ास समुदायों या उपजातियों जैसे कि राजपूतों, सिखों (जाट, मज़ही और रामदासी), गोरखा (जो नेपाली हैं), डोगरा, अहीर, कुमाउंनी, गढ़वाली और मराठों से नहीं होगी, तो सेना के जज़्बे पर बुरा असर पड़ेगा और ये कमज़ोर होगा. ये तर्क तो अजीब और विडंबना से भरा है. क्योंकि ये यथास्थितिवादी जो आम तौर पर भारत की विविधता को बहुत अहमियत देते हैं, वो सेना में भर्ती के मामले में चाहते हैं कि कुछ ख़ास जातियों से ही भर्तियां की जाएं, यानी ‘जाति पर आधारित भर्ती’ का ये सिलसिला तब तक चलता रहे, जब तक भारतीय सेना की भर्ती प्रक्रिया में बहुत बड़ा बदलाव न आ जाए. सेना में लड़ने में माहिर जातियों से ही भर्ती की वजह, अंग्रेज़ों का इस महाद्वीप को अपना उपनिवेश बनाना था. आज़ादी के बाद भी ये ये सिलसिला जारी रहा, जबकि नेहरू का तर्क ये था कि भारत की सेना में भी देश की विविधता की झलक मिलनी चाहिए. इसकी मुख्य वजह 1962 के युद्ध में चीन से मिली हार थी. इस युद्ध में हार से जो हालात पैदा हुए उसके चलते सेना में भर्ती करने वाले दोबारा उसी स्रोत से सेना में भर्ती के लिए मजबूर हुए, जहां से ब्रिटिश हुकूमत सेना में जवानों की कमी की भरपाई किया करती थी. जाति पर आधारित भर्ती प्रक्रिया से सेना की इकाइयों में एकजुटता, हौसला और लड़ने में असरदार क्षमता बनाए रखने में मदद मिली. आज के दौर की हक़ीक़त 1962 की लड़ाई में हार के बाद से बेहद अलग है. आज भारतीय सेना को अब तक न इस्तेमाल किए गए विशाल स्रोत से अपने लिए मानवीय संसाधन जुटाने चाहिए. ज़ाहिर है, यथास्थितिवादी भी ये मानते हैं कि अब नैतिकता के आधार पर भी जातियों पर आधारित भर्ती व्यवस्था से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. क्योंकि, एक समाज के तौर पर भारत, अपनी सुरक्षा का बोझ उन्हीं जातियों पर नहीं डाले रख सकता, जिन्होंने इतिहास में शौर्य की बड़ी बड़ी गाथाएं लिखी हैं, या जिन जातियों में लड़ाकू क्षमता है. इसीलिए, भारत सरकार को चाहिए कि वो सेना में भर्ती के स्रोत का विस्तार करे.

इस प्रक्रिया को शुरू करने का सही समय कब 

इसके अलावा, यथास्थितिवादी सरकार के संभावनाएं तलाशने वाले इस प्रस्ताव की आलोचना तो करते हैं. मगर वो इस बात के सबूत पेश नहीं करते कि सेना से रिटायर होने वाले SSC के अधिकारियों या जवानों ने पहले कभी हिंसा की हो, ख़ास तौर से आज़ादी के बाद या फिर पिछले तीन दशकों के दौरान ऐसा किया हो. क्योंकि, सैन्य बलों में शामिल रहे पूर्व सैनिकों द्वारा की गई ऐसी हिंसा की मिसालों के आधार पर ही इस बात का आकलन किया जा सकता है कि क्या पूर्व सैनिकों और हिंसा में कोई संबंध है. मिसाल के तौर पर क्या पहले के छह साल वाले शॉर्ट सर्विस कमीशन में समय बिताने वाले पूर्व सैन्य अधिकारियों ने सेना छोड़ने के बाद हिंसा की है? सेना से निकलकर पुलिस में भर्ती होने वाले कितने ग़ैर कमीशन प्राप्त जवानों ने हिंसा को बढ़ावा दिया है. सामाजिक उथल-पुथल मचाई है या फिर अपने हथियारबंद गिरोह बनाए हैं? इस बात को साबित कर पाना नामुमकिन है. क्योंकि न तो गृह मंत्रालय, न ही रक्षा मंत्रालय और न सेना मुख्यालय ने हाल के वर्षों में या फिर पहले इस बात के सुबूत मुहैया कराए हैं कि सेना से रिटायर हो चुके जवानों ने कब-कब हिंसा की. पहले की मिसालों का इस्तेमाल करना भी ग़लत रास्ते पर ले जा सकता है. मिसाल के तौर पर यथास्थितिवादियों का कहना है कि टूर ऑफ ड्यूटी (ToD) से देश भर में बहुसंख्यक समुदाय की हिंसा का दौर शुरू हो जाएगा. क्योंकि आज़ादी के वक़्त कई ज़िलों में भयंकर सांप्रदायिक हिंसा हुई थी और इनमें से कई घटनाओं के पीछे सेना में शामिल रहे जवान थे, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था. हालांकि हमें ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि ये हिंसा दूसरे विश्व युद्ध के बाद सैनिकों को सेना से हटाने की वजह से भी हुई थी. यथास्थिति बनाए रखने के समर्थकों का 75 साल पहले आज़ादी के वक़्त की हिंसा की मिसाल देकर टूर ऑफ़ ड्यूटी के बाद जवानों द्वारा हिंसा भड़काने की आशंका जताना बुनियादी तौर पर अतार्किक है, क्योंकि उस वक़्त की तुलना में आज दौर बहुत बदल चुका है. दशकों पहले हुई अपने तरह की अनूठी घटनाओं के आधार पर, सरकार के टूर ऑफ़ ड्यूटी के प्रस्ताव को ख़ारिज करना, न केवल अनुचित है, बल्कि ये इस बात का भी सबूत है कि एक संभावनाएं तलाशने वाले प्रस्ताव को ख़ारिज करने के लिए यथास्थितिवादी किस हद तक जा सकते हैं. अगर यथास्थितिवादियों के तर्क में कोई दम है, तो सिर्फ़ ये है कि सेना द्वारा इस तरह से देश भर से जवान भर्ती करने से जाति और बहादुरी की मिसालें देने वाले समुदायों से आगे बढ़कर भर्ती की एक नई मिसाल बनेगी. हालांकि, इस प्रक्रिया को शुरू करने का अगर कोई सही समय है, तो वो अभी है.

अब नैतिकता के आधार पर भी जातियों पर आधारित भर्ती व्यवस्था से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. क्योंकि, एक समाज के तौर पर भारत, अपनी सुरक्षा का बोझ उन्हीं जातियों पर नहीं डाले रख सकता, जिन्होंने इतिहास में शौर्य की बड़ी बड़ी गाथाएं लिखी हैं, या जिन जातियों में लड़ाकू क्षमता है. इसीलिए, भारत सरकार को चाहिए कि वो सेना में भर्ती के स्रोत का विस्तार करे.

टूर ऑफ़ ड्यूटी से लाभ  

वहीं, दूसरी तरफ़ अगर चिंता इस बात की है कि पूर्व सैनिकों की ज़्यादा भर्ती करने से भारत के पुलिस बलों का अधिक सैन्यीकरण हो जाएगा, तो फिर ये तर्क देने वालों को पहले के वो उदाहरण पेश करने होंगे, जब पूर्व सैनिकों ने क़ानून व्यवस्था लागू करने के दौरान बार-बार हथियारों का इस्तेमाल करने में जल्दबाज़ी दिखाई. सच तो ये है कि जब ए के एंटनी रक्षा मंत्री थे, तब यूपीए सरकार ने पूर्व सैनिकों को केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में भर्ती करने के प्रस्ताव पर विचार किया था. लेकिन, तब भी पूर्व सैनिकों को केंद्रीय अर्धसैनिक बलों (CAPFs) में भर्ती करने का इसी आधार पर विरोध किया गया था. यूपीए के गृह मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक़, भारतीय सेना की दस फ़ीसद भर्तियों को केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के ‘ग्रुप बी’ की लड़ाकू शाखा में शामिल किया जाना था. इसमें केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल, केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल, सीमा सुरक्षा संगठन और सशस्त्र सीमा बल शामिल हैं. अन्यथा बिना आंकड़ों के इस बात को स्वीकार करना मुश्किल है कि तीन साल की टूर ऑफ़ ड्यूटी करने के बाद पूर्व सैनिकों को अगर केंद्रीय और राज्य पुलिस बलों में शामिल किया गया तो उनके हिंसा करने की संभावना अधिक है. पांच साल पहले विद्वान देवेश कपूर ने तो ये कहा था कि केंद्रीय अर्धसैनिक बलों और राज्यों की पुलिस को सेना के नुक़सान की क़ीमत पर भारी फ़ायदा हो रहा है. हालांकि, देवेश कपूर ने ये माना था कि भारतीय सेना को वैसा ही हल्का और फ़ुर्तीला बनाने की ज़रूरत है, जो आज के दौर में दुनिया भर की सेनाएं कर रही हैं. लेकिन, उनका कहना था कि इसके चलते केंद्रीय अर्धसैनिक बल और राज्यों की पुलिस का ज़रूरत से ज़्यादा सैन्यीकरण हो रहा है. हालांकि, देवेश कपूर ने इसके लिए पूर्व सैनिकों के केंद्रीय अर्धनैकि बलों में शामिल होने को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया था. बल्कि उनके मुताबिक़ ये समस्या घटिया प्रशिक्षण और उपकरण, कम मनोबल और अधिकारियों द्वारा कमज़ोर नेतृत्व प्रदान करना है. क्योंकि, कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अर्धसैनिक बलों के अधिकारी भारतीय पुलिस सेवा (IPS) से ही होते हैं. इन्हीं सब कारणों से केंद्रीय अर्धसैनिक बलों (CAPFs) का प्रदर्शन ख़राब हो रहा है. इसके अलावा राज्यों ने अपने पुलिस बलों में पर्याप्त निवेश नहीं किया है और उनका ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिकरण किया है, जो एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में टूर ऑफ़ ड्यूटी से केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के साथ साथ राज्यों के पुलिस बलों को भी बहुत लाभ हो सकता है. निश्चित रूप से सेना में तीन साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद ग़ैर कमीशन प्राप्त जवानों को ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों के पुलिस बलों में भर्ती करना होगा. सिविल पुलिस, जिला सशस्त्र बल और राज्य के सशस्त्र पुलिस बल, राज्यों की पुलिस के दायरे में आते हैं. जैसा कि टेबल 1 के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर पांच सौ लोगों पर एक पुलिस कर्मचारी है. ये अनुपात और घटना चाहिए और इसमें टूर ऑफ़ ड्यूटी के प्रस्ताव को लागू करने से मदद मिल सकती है. यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि 2020 और 2021 के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिसकी वजह शायद महामारी के चलते लगाई गई पाबंदियां हैं.

कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अर्धसैनिक बलों के अधिकारी भारतीय पुलिस सेवा (IPS) से ही होते हैं. इन्हीं सब कारणों से केंद्रीय अर्धसैनिक बलों (CAPFs) का प्रदर्शन ख़राब हो रहा है. इसके अलावा राज्यों ने अपने पुलिस बलों में पर्याप्त निवेश नहीं किया है और उनका ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिकरण किया है, जो एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में टूर ऑफ़ ड्यूटी से केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के साथ साथ राज्यों के पुलिस बलों को भी बहुत लाभ हो सकता है. 

 

Table-1

राज्यों के पुलिस बल 2015-19

वर्ष प्रति व्यक्ति पुलिस कर्मचारी
2015 554
2016 518
2017 518.27
2018 503.40
2019 511.81

स्रोत: ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च ऐंड डेवेलपमेंट    

निष्कर्ष 

हालांकि, अगर तीन साल के लिए सेना में टूर ऑफ़ ड्यूटी से जुड़ी कोई दो वास्तविक चिंताएं हैं- तो उनमें से पहली है सेना में कार्यकाल की, जो बहुत कम है और दूसरा है, सेना से निकलने के बाद दूसरे बल में जाने के बीच की समयसीमा. सेना में भर्ती होने के बाद महज़ तीन साल का समय जवानों का हौसला बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. इन बातों से इतर, ये उन लोगों की ज़िम्मेदारी है, जो टूर ऑफ़ ड्यूटी के प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं और ये मानते हैं कि इससे ‘अस्थायी सैनिक’ तैयार होंगे, कि वो बताएं कि टूर ऑफ़ ड्यूटी और बहादुरी के बीच क्या रिश्ता है. तीन साल की टूर ऑफ़ ड्यूटी के विरोधियों के तर्क में जो आख़िरी तार्किक बात दिखती है, वो ये है कि टूर ऑफ़ ड्यूटी करने के बाद जवानों के दूसरे पुलिस बल में शामिल होने के बीच की समय सीमा क्या होगी. हालांकि, इस बात का ज़िक्र न तो यथास्थिति बनाए रखने के समर्थकों ने किया है और न ही सुधारों की वकालत करने वालों ने. जबकि सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. सैनिकों को पुलिसकर्मी बनने में मदद करने के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों को मिलकर काम करना होगा और इसमें बराबर का निवेश करना होगा. इसी और अन्य कारणों से टूर ऑफ़ ड्यूटी की एक क़ीमत तो चुकानी पड़ेगी. टूर ऑफ़ ड्यूटी एक अच्छी शुरुआत है, क्योंकि इससे सेना में सुधार का लक्ष्य हासिल होने की काफ़ी संभावना है.

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Kartik Bommakanti

Kartik Bommakanti

Kartik Bommakanti is a Senior Fellow with the Strategic Studies Programme. Kartik specialises in space military issues and his research is primarily centred on the ...

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