Published on May 01, 2017 Updated 0 Hours ago

ट्रंप के अस्थिर रवैये का दोहरा असर अब दिखने लगा है। अब सिर्फ़ अमेरिका के साथी ही इसे लेकर संशय में नहीं हैं कि वे वॉशिंगटन पर भरोसा कर सकते हैं या नहीं, बल्कि अब उनके विरोधी भी ये भरोसा नहीं कर सकते कि ट्रंप दख़ल नहीं देंगे।

ट्रंप का अस्थिर रवैया बनाम ओबामा की लापरवाही

सीरिया पर क्रूज़ मिसाइल से हमला करने के अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फ़ैसले ने कुछ अप्रत्याशित तारीफ़ बटोरी तो इसकी ख़ासी आलोचना भी हुई। हालांकि ट्रंप प्रशासन के अफ़सरों ने कहा है कि असद की हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए एकतरफ़ा कार्रवाई की उनकी कोई योजना नहीं है लेकिन अगर असद हुकूमत रासायनिक हथियार इस्तेमाल कर दोबारा लक्ष्मण रेखा पार करती है तो भविष्य में फ़ौजी कार्रवाई के विकल्प को ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता। बेशक मिसाइल हमला छोटी कार्रवाई थी लेकिन इसके दूरगामी असर हैं। सबसे अहम बात ये है कि दूसरी प्रमुख शक्तियां ख़ासतौर से रूस और चीन अब ये मान कर नहीं चल सकते कि ट्रंप का “अमेरिका फ़र्स्ट (अमेरिका की चिंता पहले)” नारा उनके दबदबे के लिए मैदान खाली छोड़ देगा।

इससे अमेरिका के साझेदारों के लिए खासकर एशिया और मध्य-पूर्व में लड़ाई बराबरी की हो गई है। वज़ह ये है कि अगर इस हमले ने साझेदारों को मिलने वाले अमेरिकी समर्थन को लेकर ज़्यादा भरोसा न भी पैदा किया हो तो भी इससे अपने इलाके में दबदबा कायम करने की कोशिश में जुटी महत्वाकांक्षी शक्तियों का ये भरोसा हिल गया कि अमेरिका अब इस खेल से बाहर है।

सीरिया पर क्रूज़ मिसाइल से हमला करने के अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फ़ैसले ने कुछ अप्रत्याशित तारीफ़ बटोरी तो इसकी ख़ासी आलोचना भी हुई। हालांकि ट्रंप प्रशासन के अफ़सरों ने कहा है कि असद की हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए एकतरफ़ा कार्रवाई की उनकी कोई योजना नहीं है लेकिन अगर असद हुकूमत रासायनिक हथियार इस्तेमाल कर दोबारा लक्ष्मण रेखा पार करती है तो भविष्य में फ़ौजी कार्रवाई के विकल्प को ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता। बेशक मिसाइल हमला छोटी कार्रवाई थी लेकिन इसके दूरगामी असर हैं। सबसे अहम बात ये है कि दूसरी प्रमुख शक्तियां ख़ासतौर से रूस और चीन अब ये मान कर नहीं चल सकते कि ट्रंप का “अमेरिका फ़र्स्ट (अमेरिका की चिंता पहले)” नारा उनके दबदबे के लिए मैदान खाली छोड़ देगा।

इससे अमेरिका के साझेदारों के लिए खासकर एशिया और मध्य-पूर्व में लड़ाई बराबरी की हो गई है। वज़ह ये है कि अगर इस हमले ने साझेदारों को मिलने वाले अमेरिकी समर्थन को लेकर ज़्यादा भरोसा न भी पैदा किया हो तो भी इससे अपने इलाके में दबदबा कायम करने की कोशिश में जुटी महत्वाकांक्षी शक्तियों का ये भरोसा हिल गया कि अमेरिका अब इस खेल से बाहर है।

हालांकि सीरिया पर क्रूज़ मिसाइलों का हमला सीमित उद्देश्यों वाला था लेकिन इसके दूरगामी असर भी हैं

हमले के बाद ट्रंप को रिपब्लिकन पार्टी में आलोचकों से भी कुछ अप्रत्याशित समर्थन मिला है जैसे सीनेटर जॉन मैक्केन और मार्को रुबियो। इसमें भी शक नहीं है कि ये समर्थन अमेरिकी सीनेट में भी था। यहां तक कि ओबामा काल के अधिकारी भी उनकी प्रशंसा करने के लिए सामने आए जिनमें खबरों के मुताबिक जॉन कैरी भी थे जो ओबामा प्रशासन में विदेश मंत्री थे।

इसमें कोई शक नहीं है कि हमले के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी हैं, खास कर इस बारे में कि इससे क्या हासिल हुआ। आलोचना का एक बिंदु ये भी है कि हमले ने जमीनी स्तर पर बहुत कम नुकसान किया। फिर चाहे वो सीरिया की युद्ध क्षमता हो या अल शायरत एयरबेस हो, जहां से बहुत तेजी के साथ दोबारा बमबारी अभियान शुरू कर दिया गया। हालांकि इससे ये बात नजरअंदाज हो जाती है कि हमले का मक़सद हद में रहने का पैग़ाम देना था न कि सीरिया की फ़ौजी ताक़त को ख़त्म करना। यहां तक कि उसके रासायनिक हथियारों के भंडार को भी ख़त्म करना इसका मक़सद नहीं था। कुछ लोगों का सवाल है कि जब तक अमेरिका सीरिया पर लगातार हमला नहीं करता या वहां अपनी फ़ौज नहीं उतारता तब तक चेतावनी के लिहाज से भी ऐसे हमलों की कोई कीमत है भी या नहीं। वहीं कुछ लोगों ने ये भी ध्यान दिलाया है कि इससे संघर्ष और तीखा हो सकता है जिससे ऐसी स्थिति भी बन सकती है जो अमेरिका और रूस को आमने-सामने ला खड़ा करे। तार्किक रूप से ये सभी चिंताएं सही हैं लेकिन ये सभी हमले के असली मक़सद को नज़रअंदाज कर देती हैं: यानी अगर असद हुकूमत फिर से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करने की सोच रही हो तो उसे अमेरिका के संभावित पलटवार पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।

इस हमले का इससे कहीं ज़्यादा बड़ा संदेश भी है। वो अमेरिका के साथियों और शत्रुओं दोनों को ये पैग़ाम भी देते हैं कि कुछ भी नज़रअंदाज नहीं किया जाएगा। अमेरिका के साथी अमेरिका की प्रतिबद्धता में लापरवाही देख कर इस चिंता में उससे दूर जाने लगे थे कि अमेरिकी प्रतिबद्धता का चुक जाना लगभग तय है। खासकर एशिया में और कुछ हद तक मध्य एशिया में। यहां उभरते हुए वर्चस्ववादियों को संतुलित रखने में ओबामा काल की अमेरिकी अनिच्छा को साथियों के प्रति राष्ट्रपति ट्रंप के ज़ाहिराना विद्वेषपूर्ण रवैए ने और बढ़ा दिया। ट्रंप उन्हें मुफ़्तखोर समझते थे और दुनिया के प्रति उनकी सोच ये थी कि अमेरिका साझा हितों के बजाए, अपने हितों के हिसाब से अपनी समझ से अकेले दम पर उठाए गए क़दमों से ज़्यादा मज़बूत होगा।

इसके नतीजे ये हुए कि एशिया में छोटी “द्वितीय स्तर की” क्षेत्रीय ताक़तें विकल्पों की तलाश करने लगीं। कुछ के लिए, मसलन फ़िलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतर्ते के लिए इसका मतलब ये था कि वो चीन के साथ तालमेल की संभावना तलाशें, हालांकि इस कोशिश को खासा विरोध सहना पड़ा यहां तक कि उनके अपने रक्षा अधिकारियों ने भी विरोध किया। वहीं ज़्यादातर के लिए, इसका मतलब अपनी रक्षा तैयारियों को सुदृढ़ करना और अपने इलाके में दूसरी ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाना और साझी सोच का निर्माण है, जो उनकी ही तरह अपने इलाके में बढ़ते असंतुलन से चिंता में हैं। जापान, आस्ट्रेलिया, भारत, वियतनाम, सिंगापुर और कई और मुल्कों के बीच कई तरह की साझेदारियां पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ीं। हालांकि चीन के साथ औरों की ताक़त का असंतुलन,जो लगातार बढ़ता जा रहा है, वैसे ही इतना बड़ा है कि वो किसी एक मुल्क की कोशिश से या साझा कोशिश से भी संतुलित नहीं होने वाला। बावजूद इसके वे इस रास्ते पर बढ़ रहे हैं तो वज़ह ये है कि उनके पास बहुत कम विकल्प हैं। ओबामा और उनके बाद ट्रंप, यही सुझाते दिखाई दिए कि उन्हें अपने दम पर ही सबकुछ करना है।

एक मिसाइल हमले से ये सब नहीं बदलने वाला है, लेकिन ओबामा काल में आठ साल की बेपरवाह विदेश नीति, जिसमें अमेरिका साथियों से मुंह मोड़ने को तैयार था, जहां अमेरिका और प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के प्रतिद्वंदियों को लगातार भरोसा होता जा रहा था कि वे जो चाहें वह कर सकते हैं, उन सबके लिए ये एक जरूरी पैग़ाम था। इसने इस सीधे से सच को सामने रखा कि अमेरिका की क्षमता में कहीं कोई कमी नहीं थी बल्कि ये कमी उसे इस्तेमाल करने के वॉशिंगटन के इरादे में थी।

लेकिन इसके साथ एक और पैग़ाम भी है। इस हमले ने एक बार फिर ट्रंप की अस्थिरता का प्रदर्शन किया। ये हमले ट्रंप की विदेश नीति के सिद्धांतों में किसी बड़े बदलाव के उद्देश्य के बिना किए गए, अगर ये माना जाए कि ऐसी कोई नीति उनके पास है तो भी। “अमेरिका फ़र्स्ट (अमेरिका के हित पहले)” की बुनियादी सोच भी अब दरकिनार होती दिख रही है। दरअसल ट्रंप ने इसे भी छोड़ दिया है क्योंकि समर्थकों के ख़ासे गुस्से के बावजूद उन्होंनें ऐसा एक भी काम नहीं किया जिसे उनके समर्थक उनका वादा मानते थे।

इस हमले ने एक बार फिर ट्रंप की अस्थिरता का प्रदर्शन किया और इन्हें ट्रंप की विदेश नीति के सिद्धांतों में किसी बड़े बदलाव के उद्देश्य के बिना किया गया

हालांकि ये इस बात को भी दिखाता है कि ट्रंप की अस्थिरता दो तरफ़ा है। सिर्फ़ यही नहीं कि अब अमेरिका के साथियों को भी पता नहीं है कि वो वॉशिंगटन पर भरोसा कर सकते हैं या नहीं बल्कि उनके शत्रु भी यकीन नहीं कर सकते कि ट्रंप दख़ल नहीं देंगे। जैसा कि एक विश्लेषक कहते हैं, ट्रंप का “हालात के मुताबिक फ़ौरी काम करने का तरीका” संभावित शत्रुओं से रिश्तों में जोखिम भरी अनिश्चितता पैदा करता है तो “साथियों की आशंकाओं को भी कम करता है।” एशिया में अमेरिका के क्षेत्रीय साझेदारों में बढ़ता ये डर कि अमेरिका चीन को संतुलित करने के लिए मौजूद नहीं होगा, कुछ हद तक बराबर हो गया है क्योंकि अब चीन भी ये भरोसा नहीं कर सकता है कि अमेरिका उसे हद में रखने की कोशिश नहीं करेगा। हालांकि अगर आप अमेरिका के साथी हैं तो ये बहुत ज़्यादा नहीं है और डूबते को तिनके के सहारे जैसा ही है लेकिन ये तब से तो बेहतर ही है जब लगता था कि अमेरिका इस खेल को खेलेगा ही नहीं।

हालांकि सीरिया पर क्रूज़ मिसाइलों का हमला सीमित उद्देश्यों वाला था लेकिन इसके दूरगामी असर भी हैं

हमले के बाद ट्रंप को रिपब्लिकन पार्टी में आलोचकों से भी कुछ अप्रत्याशित समर्थन मिला है जैसे सीनेटर जॉन मैक्केन और मार्को रुबियो। इसमें भी शक नहीं है कि ये समर्थन अमेरिकी सीनेट में भी था। यहां तक कि ओबामा काल के अधिकारी भी उनकी प्रशंसा करने के लिए सामने आए जिनमें खबरों के मुताबिक जॉन कैरी भी थे जो ओबामा प्रशासन में विदेश मंत्री थे।

इसमें कोई शक नहीं है कि हमले के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी हैं, खास कर इस बारे में कि इससे क्या हासिल हुआ। आलोचना का एक बिंदु ये भी है कि हमले ने जमीनी स्तर पर बहुत कम नुकसान किया। फिर चाहे वो सीरिया की युद्ध क्षमता हो या अल शायरत एयरबेस हो, जहां से बहुत तेजी के साथ दोबारा बमबारी अभियान शुरू कर दिया गया। हालांकि इससे ये बात नजरअंदाज हो जाती है कि हमले का मक़सद हद में रहने का पैग़ाम देना था न कि सीरिया की फ़ौजी ताक़त को ख़त्म करना। यहां तक कि उसके रासायनिक हथियारों के भंडार को भी ख़त्म करना इसका मक़सद नहीं था। कुछ लोगों का सवाल है कि जब तक अमेरिका सीरिया पर लगातार हमला नहीं करता या वहां अपनी फ़ौज नहीं उतारता तब तक चेतावनी के लिहाज से भी ऐसे हमलों की कोई कीमत है भी या नहीं। वहीं कुछ लोगों ने ये भी ध्यान दिलाया है कि इससे संघर्ष और तीखा हो सकता है जिससे ऐसी स्थिति भी बन सकती है जो अमेरिका और रूस को आमने-सामने ला खड़ा करे। तार्किक रूप से ये सभी चिंताएं सही हैं लेकिन ये सभी हमले के असली मक़सद को नज़रअंदाज कर देती हैं: यानी अगर असद हुकूमत फिर से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करने की सोच रही हो तो उसे अमेरिका के संभावित पलटवार पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।

इस हमले का इससे कहीं ज़्यादा बड़ा संदेश भी है। वो अमेरिका के साथियों और शत्रुओं दोनों को ये पैग़ाम भी देते हैं कि कुछ भी नज़रअंदाज नहीं किया जाएगा। अमेरिका के साथी अमेरिका की प्रतिबद्धता में लापरवाही देख कर इस चिंता में उससे दूर जाने लगे थे कि अमेरिकी प्रतिबद्धता का चुक जाना लगभग तय है। खासकर एशिया में और कुछ हद तक मध्य एशिया में। यहां उभरते हुए वर्चस्ववादियों को संतुलित रखने में ओबामा काल की अमेरिकी अनिच्छा को साथियों के प्रति राष्ट्रपति ट्रंप के ज़ाहिराना विद्वेषपूर्ण रवैए ने और बढ़ा दिया। ट्रंप उन्हें मुफ़्तखोर समझते थे और दुनिया के प्रति उनकी सोच ये थी कि अमेरिका साझा हितों के बजाए, अपने हितों के हिसाब से अपनी समझ से अकेले दम पर उठाए गए क़दमों से ज़्यादा मज़बूत होगा।

इसके नतीजे ये हुए कि एशिया में छोटी “द्वितीय स्तर की” क्षेत्रीय ताक़तें विकल्पों की तलाश करने लगीं। कुछ के लिए, मसलन फ़िलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतर्ते के लिए इसका मतलब ये था कि वो चीन के साथ तालमेल की संभावना तलाशें, हालांकि इस कोशिश को खासा विरोध सहना पड़ा यहां तक कि उनके अपने रक्षा अधिकारियों ने भी विरोध किया। वहीं ज़्यादातर के लिए, इसका मतलब अपनी रक्षा तैयारियों को सुदृढ़ करना और अपने इलाके में दूसरी ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाना और साझी सोच का निर्माण है, जो उनकी ही तरह अपने इलाके में बढ़ते असंतुलन से चिंता में हैं। जापान, आस्ट्रेलिया, भारत, वियतनाम, सिंगापुर और कई और मुल्कों के बीच कई तरह की साझेदारियां पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ीं। हालांकि चीन के साथ औरों की ताक़त का असंतुलन,जो लगातार बढ़ता जा रहा है, वैसे ही इतना बड़ा है कि वो किसी एक मुल्क की कोशिश से या साझा कोशिश से भी संतुलित नहीं होने वाला। बावजूद इसके वे इस रास्ते पर बढ़ रहे हैं तो वज़ह ये है कि उनके पास बहुत कम विकल्प हैं। ओबामा और उनके बाद ट्रंप, यही सुझाते दिखाई दिए कि उन्हें अपने दम पर ही सबकुछ करना है।

एक मिसाइल हमले से ये सब नहीं बदलने वाला है, लेकिन ओबामा काल में आठ साल की बेपरवाह विदेश नीति, जिसमें अमेरिका साथियों से मुंह मोड़ने को तैयार था, जहां अमेरिका और प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के प्रतिद्वंदियों को लगातार भरोसा होता जा रहा था कि वे जो चाहें वह कर सकते हैं, उन सबके लिए ये एक जरूरी पैग़ाम था। इसने इस सीधे से सच को सामने रखा कि अमेरिका की क्षमता में कहीं कोई कमी नहीं थी बल्कि ये कमी उसे इस्तेमाल करने के वॉशिंगटन के इरादे में थी।

लेकिन इसके साथ एक और पैग़ाम भी है। इस हमले ने एक बार फिर ट्रंप की अस्थिरता का प्रदर्शन किया। ये हमले ट्रंप की विदेश नीति के सिद्धांतों में किसी बड़े बदलाव के उद्देश्य के बिना किए गए, अगर ये माना जाए कि ऐसी कोई नीति उनके पास है तो भी। “अमेरिका फ़र्स्ट (अमेरिका के हित पहले)” की बुनियादी सोच भी अब दरकिनार होती दिख रही है। दरअसल ट्रंप ने इसे भी छोड़ दिया है क्योंकि समर्थकों के ख़ासे गुस्से के बावजूद उन्होंनें ऐसा एक भी काम नहीं किया जिसे उनके समर्थक उनका वादा मानते थे।

इस हमले ने एक बार फिर ट्रंप की अस्थिरता का प्रदर्शन किया और इन्हें ट्रंप की विदेश नीति के सिद्धांतों में किसी बड़े बदलाव के उद्देश्य के बिना किया गया

हालांकि ये इस बात को भी दिखाता है कि ट्रंप की अस्थिरता दो तरफ़ा है। सिर्फ़ यही नहीं कि अब अमेरिका के साथियों को भी पता नहीं है कि वो वॉशिंगटन पर भरोसा कर सकते हैं या नहीं बल्कि उनके शत्रु भी यकीन नहीं कर सकते कि ट्रंप दख़ल नहीं देंगे। जैसा कि एक विश्लेषक कहते हैं, ट्रंप का “हालात के मुताबिक फ़ौरी काम करने का तरीका” संभावित शत्रुओं से रिश्तों में जोखिम भरी अनिश्चितता पैदा करता है तो “साथियों की आशंकाओं को भी कम करता है।” एशिया में अमेरिका के क्षेत्रीय साझेदारों में बढ़ता ये डर कि अमेरिका चीन को संतुलित करने के लिए मौजूद नहीं होगा, कुछ हद तक बराबर हो गया है क्योंकि अब चीन भी ये भरोसा नहीं कर सकता है कि अमेरिका उसे हद में रखने की कोशिश नहीं करेगा। हालांकि अगर आप अमेरिका के साथी हैं तो ये बहुत ज़्यादा नहीं है और डूबते को तिनके के सहारे जैसा ही है लेकिन ये तब से तो बेहतर ही है जब लगता था कि अमेरिका इस खेल को खेलेगा ही नहीं।

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