Published on Jan 20, 2017 Updated 0 Hours ago
ट्रंप की रूस से ‘यारी’ और भारत

पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की हैरानी भरी जीत के बाद से ही उनकी विदेश नीति को ले कर अटकलबाजी का दौर जारी है। व्हाइट हाउस पर सत्तारुढ़ होने की तैयारियों के बीच उनकी रूस के साथ रिश्तों को दोबारा ठीक करने की इच्छा को देखते हुए लोग यह अंदाजा लगाने में व्यस्त हैं कि ऐसी नीति के क्या नतीजे होंगे।

रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की तारीफ में ट्रंप खुल कर बोलते रहे हैं और उन्हें ओबामा से बेहतर और ज्यादा स्मार्ट नेता मानते रहे हैं। बदले में रूस ने भी उनकी तारीफ में कोई कमी नहीं छोड़ी है। ट्रंप को जीत की बधाई देने वालों में पुतिन सबसे आगे रहने वालों में थे। अपने बधाई संदेश में उन्होंने विश्वास जताया था कि, “मास्को और वाशिंगटन समानता के सिद्धांत, आपसी आदर और एक-दूसरे की स्थिति को ले कर गंभीर समझ के सिद्धांतों पर आधारित रचनात्मक बातचीत स्थापित कर सकेंगे।” यह दोनों देशों की चिंता के अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ट्रंप प्रशासन के साथ मिल कर काम करने की पुतिन की इच्छा को दिखाता है। इसमें आईएसआईएस के खिलाफ लड़ाई अहम रहने वाला है क्योंकि दोनों ही उसे मध्य-पूर्व में गंभीर खतरा मानते हैं।

अमेरिका और रूस के बीच के रिश्तों के नवीकरण का भारत पर प्रभाव लाजमी है क्योंकि एक इसका ‘बेहद पुराना मित्र’ है तो दूसरा ‘तेजी से उभरता सामरिक सहयोगी’।

राष्ट्रपति-निर्वाचित ने पहले ही कई ऐसे कदम उठाए हैं, जिन्हें अमेरिका की काफी लंबे समय से चली आ रही नीतियों से अलग माना जा रहा है। उन्होंने वादा किया है कि अमेरिका ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से बाहर हो जाएगा और उन्होंने नार्थ अटलांटिक ट्रीटी अलायंस की आलोचना की है, जिससे यूरोप की सुरक्षा को 1941 से चली आ रही अमेरिकी गारंटी की आधारशिला हिल गई है। एक्सॉन मोबाइल कॉर्प के सीईओ रेक्स टिलरसन को विदेश मंत्री और रॉबर्ट लाइत्जर को मुख्य व्यापार वार्ताकार के रूप में पसंद कर के भी उन्होंने इसी तरह के संकेत दिए हैं। जहां टिलरसन के बारे में माना जाता है कि उनकी रूसी राष्ट्रपति से बेहद करीबी है, लाइत्जर चीन की व्यापार नीतियों के कटु आलोचक रहे हैं।

जहां भारत और रूस के बीच आर्थिक रिश्तों का पूरा दोहन अब तक नहीं हो सका है, वहीं भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते पिछले कुछ वर्षों के दौरान अभूतपूर्व तेजी से मजबूत हुए हैं। हालांकि अब भी भारत के लिए सैन्य उपकरणों का रूस सबसे बड़ा स्रोत बना हुआ है, लेकिन हाल में भारत इस लिहाज से भी अमेरिका के ज्यादा करीब हुआ है। 2016 का वर्ष इस लिहाज से खास तौर पर अहम रहा जब अमेरिका ने भारत को अपने ‘प्रमुख रक्षा साझेदार’ का दर्जा दिया। रक्षा कारोबार बढ़ कर 15 बिलियन डॉलर पहुंच गया और एम 777 एडवांस होवित्जर सौदा आखिरकार तय हो गया। भले ही अभी यह वास्तविक रूप से शुरू नहीं हुआ है, लेकिन दोनों पक्षों ने एक्सेस एंड क्रॉस शेयरिंग एग्रीमेंट (एसीएसए) के संशोधित रूप लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) पर दस्तखत कर दिए हैं। भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते सामरिक रिश्ते रूस के लिए चिंता का विषय रहे हैं, क्योंकि यह भारत में अपने हथियार बाजार को बनाए रखना चाहता है।

इसी तरह की चिंता भारत को रूस के चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ती करीबी और सहयोग को ले कर है। युक्रेन गतिरोध के बाद पश्चिम की ओर से अलग-थलग कर दिए जाने की वजह से रूस ने चीन से करीबी और बढ़ाई। इसके अलावा रूस ने जब से इस्लामाबाद से हथियारों का प्रतिबंध हटाया है, दोनों के बीच नजदीकी बढ़ी है। 2015 में मास्को इस्लामाबाद को चार एमआई-35 एम हेलीकॉप्टर बेचने को सहमत हुआ और शंघाई कॉपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) में भी रूस ने उसका स्वागत किया। 2016 में दोनों ने पहली बार चेरात के पहाड़ी इलाके में ‘विशेष साझा अभ्यास’ भी किए जबकि भारत ने ऊरी हमले के बाद इस पर चिंता जताई थी (हालांकि बताया जाता है कि बाद में गिलगिट-बाल्टिस्तान के रातू इलाके में अभ्यास को रद्द कर दिया गया)। खास बात रही रूस के विशेष अफगानिस्तान दूत जमीर काबुलोव ने पिछले महीने अमृतसर में हर्ट ऑफ एशिया सम्मेलन के दौरान पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास को सामान्य बात बताने की कोशिश की। उन्होंने संकेत में ही यह भी कह दिया कि भारत और अमेरिका के रिश्ते जितने गहरे हैं, उस लिहाज से रूस और पाकिस्तान के बीच ‘सहयोग का स्तर बहुत कम’ है। इस सिलसिले में सबसे ताजा कड़ी है रूस का चीन पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) में दिलचस्पी लेना और अफगानिस्तान के हालात पर चर्चा के लिए हाल में मास्को में संपन्न हुई तितरफा बैठक जिसमें तालीबान के कुछ ‘लोगों’ पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध को हटा कर ‘नरम रवैया’ अपनाने की अपील की गई ताकि काबुल और तालिबान आंदोलन के बीच शांतिपूर्ण बातचीत को शुरू किया जा सके।

अमेरिका और रूस के बीच तनाव कम होने से भारत की स्थिति भी बेहतर होगी। भारत के अमेरिका से और रूस के चीन व पाकिस्तान से बढ़ते रिश्तों के बाद भारत-रूस के आपसी रिश्तों में जिस तरह के संदेह पैदा हुए थे, वे दूर करने में मदद मिलेगी।

भारत ने अब तक रक्षा उपकरणों के आयात के लिहाज से अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाए रखा है। इसने हाल में अमेरिका के साथ एम 777 अल्ट्रा लाइट होवित्जर के आयात के लिए समझौते पर दस्तखत किए हैं। इससे ठीक पहले रूस के साथ तीन 11356 फ्रिगेट और एस-400 मिसाइलों का सौदा भी किया है। भारत को इस समय अपने आयात और पारंपरिक संबंधों के बीच संतुलन साधने में जो मशक्कत करनी पड़ रही है, रिश्तों के नरम होने के बाद इसमें आसानी हो सकेगी।

इसके अतिरिक्त पश्चिम और रूस के बीच रिश्तों में आई खटास के बहुत व्यापक भौगोलिक राजनीतिक प्रभाव रहे हैं। यूक्रेन गतिरोध की वजह से पश्चिम ने जिस तरह रूस को अलग-थलग किया था, उसके बाद मास्को का झुकाव चीन की ओर हो रहा था, जहां शक्ति समीकरण बीजिंग के पक्ष में जा रहा था। अमेरिका और रूस के बीच बेहतर रिश्ते होने का फायदा यह होगा कि चीन जिस तरह अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है, रूस उस पर नजर रख सकेगा। चीन-रूस की संधि के जारी रहने से रूस की भारत के संबंध में नीति पर भी असर पड़ सकता है जबकि अमेरिका और रूस के बीच संबंधों के बेहतर होने का लाभ भारत के पक्ष में जा सकता है। जैसे कि ऊपर भी चर्चा की गई है कि भारत रूस और चीन की बढ़ती नजदीकियों से चिंतित रहा है।

उम्मीदें तो काफी हैं, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि परिस्थितियां किस और ले जाती हैं। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति ने रूस के 35 दूतावास कर्मियों को डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी (डीएनसी) की हैकिंग के आरोपों में निर्वासित दिया है और रूस पर नए प्रतिबंध लगा दिए हैं। हालांकि क्रेमलिन ने इसके जवाब में बदले की कार्रवाई नहीं की है क्योंकि उसे ट्रंप प्रशासन के दौरान बेहतर रिश्तों की उम्मीद है। खास बात है कि रूस के साथ रिश्तों को ‘फिर से बेहतर करना’ ओबामा प्रशासन के शुरुआती दौर की नीतियों का भी अहम लक्ष्य था। हालांकि 2014 की शुरुआत में युक्रेन में बढ़ते तनाव के बाद यह पूरी तरह चूर-चूर हो चुका था। अब इसका मुमकिन हो पाना इस पर निर्भर करता है कि ट्रंप अपने बयानों को हकीकत में कितना बदल पाते हैं।

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