Author : Lydia Powell

Published on Dec 27, 2020 Updated 0 Hours ago

इससे पहले कि सोने के ये अंडे मुर्गियों की जान ले लें, सरकार को इन अंडों पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए या ऐसे ही सोने के अंडे देने वाली दूसरी चिड़िया ढूंढ लेनी चाहिए.  

पेट्रोल-डीज़ल भारत सरकार के लिए सोने की अंडे देने वाली मुर्गी

अक्टूबर 2020 के अंतिम सप्ताह में केंद्र सरकार ने कहा था कि कोविड-19 से जुड़े राहत कार्यों के लिए अतिरिक्त राजस्व जुटाने के मकसद से पेट्रोल और डीज़ल पर करों में बढ़ोतरी की जाएगी. वैसे तो तेल कंपनियों ने स्पष्ट किया है कि तेल के ख़ुदरा भाव में तत्काल कोई बदलाव नहीं होने वाला लेकिन त्योहारी मौसम के बाद टैक्स में बढ़ोतरी की प्रबल संभावना है. यूरोपीय देशों में जारी लॉकडाउन की वजह से अभी हाल फिलहाल तेल की मांग में फिर से उछाल आने को लेकर असमंजस का माहौल बना हुआ है. आईएईए (अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी) की मानें कोरोना की कामयाब वैक्सीन आने के बावजूद 2021 के अंत तक तेल की मांग में बढ़ोतरी के आसार नहीं हैं.के बाद से ही भारत सरकार ने कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट के समय टैक्स में बढ़ोतरी की नीति अपनाते हुए पेट्रोल और डीज़ल के ख़ुदरा भाव को एक तय सीमा में बांधकर रखने का प्रयास किया है. अगर पिछले 5 सालों में विश्व बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट का लाभ पूरी तरह से उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता तो कच्चे तेल की कीमतों में प्रति बैरल 1 डॉलर की कमी आने की स्थिति में संशोधित तेल की ख़ुदरा कीमतें 50 पैसे प्रति लीटर तक कम हो सकती थीं. दूसरे शब्दों में कच्चे तेल की कीमतों में प्रति बैरल एक डॉलर की कमी सरकार को 50 पैसे प्रति लीटर टैक्स बढ़ाने का अवसर मुहैया कराती है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि टैक्स में इस बढ़ोतरी का बोझ अब तक पेट्रोल के मुकाबले डीज़ल पर ज़्यादा पड़ा है. मार्च 2014 में लगभग पूरे देश में पेट्रोल के मुकाबले डीज़ल प्रति लीटर 15 रु सस्ता था. पेट्रोल के ख़ुदरा भाव का 31 प्रतिशत टैक्स के रूप में वसूला जाता है जबकि डीज़ल के ख़ुदरा भाव में क़रीब 19 फ़ीसदी हिस्सा टैक्स के रूप में जाता है.

अगर पिछले 5 सालों में विश्व बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट का लाभ पूरी तरह से उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता तो कच्चे तेल की कीमतों में प्रति बैरल 1 डॉलर की कमी आने की स्थिति में संशोधित तेल की ख़ुदरा कीमतें 50 पैसे प्रति लीटर तक कम हो सकती थीं.

जून 2020 में पेट्रोल और डीज़ल के भाव में करों का हिस्सा क्रमश: 69 प्रतिशत और 58 प्रतिशत था. दिल्ली में डीज़ल की ख़ुदरा कीमतें पेट्रोल की ख़ुदरा कीमतों से ज़्यादा थीं और पूरे देश में डीज़ल की कीमतों पेट्रोल की ख़ुदरा कीमतों के मुकाबले बस एक-दो रुपए ही कम थीं. पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क जो मार्च 2014 में प्रति लीटर 10.38 रु था वह सितंबर 2020 में 200 फ़ीसदी से भी ज़्यादा बढ़कर 32.98 रु प्रति लीटर तक पहुंच गया. डीज़ल पर तो केंद्रीय उत्पाद शुल्क में और भी नाटकीय बढ़ोतरी हुई. जो इसी अवधि में प्रति लीटर 4.58 रु से बढ़कर प्रति लीटर 31.83 रु (चार्ट 1) हो गया. ये क़रीब 600 प्रतिशत की बढ़ोतरी है.

राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले वैल्यू एडेड टैक्स यानी वैट की बात करें तो कमोबेश सभी राज्यों में इसमें बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी रही. दिल्ली में पेट्रोल में वैट में क़रीब 60 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई और प्रति लीटर पेट्रोल पर वैट का बोझ 11.9 रु से बढ़कर 18.94 रु तक पहुंच गया जबकि इसी अवधि में डीज़ल पर वैट में क़रीब 68 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी गई और वैट का बोझ प्रति लीटर डीज़ल पर 6.41 रु से बढ़कर 10.8 रु हो गया. भारत द्वारा आयातित कच्चे तेल के भाव में 2014-15 के मुकाबले 2019-20 में 28 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई. 2014-15 में जहां कच्चे तेल का भाव प्रति बैरल 84.16 डॉलर था वहीं 2019-20 में यह घटकर प्रति बैरल 60.47 डॉलर पर आ गया (चार्ट 2).पदार्थों पर टैक्स लगाने वाला भारत कोई इकलौता देश नहीं है. पेट्रोलियम निर्यात करने वाले देशों के संगठन ओपेक का कहना है कि ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) के सदस्य देशों ने 2018 में प्रति लीटर तेल की बिक्री पर क़रीब 49 फ़ीसदी का राजस्व कमाया है जबकि ओपेक के सदस्य देशों ने कच्चे तेल के विक्रय पर सिर्फ 31 फ़ीसदी का कर राजस्व कमाया. ओईसीडी के सदस्य देशों में पेट्रोलियम पर सबसे ज़्यादा 61 फ़ीसदी टैक्स ब्रिटेन ने लगाया और सबसे ज़्यादा कर संग्रहण किया जबकि अमेरिका ने सबसे कम सिर्फ 20 फ़ीसदी कर राजस्व अर्जित किया. 

कर राजस्व में बढ़ोतरी

वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के बाद से ही भारत में पेट्रोलियम सेक्टर से हासिल कर राजस्व का महत्व काफी बढ़ गया है. पिछले दशक की बात करें तो पेट्रोलियम पर लगे टैक्स से हासिल राजस्व का योगदान जीडीपी के क़रीब 2 फ़ीसदी तक रहा है. पेट्रोलियम पर वसूले जाने वाले उत्पाद शुल्क की बात करें तो सभी प्रकार के उत्पाद शुल्कों में इसका हिस्सा 85-90 फ़ीसदी रहा है जो कि 2018-19 में संग्रहित अप्रत्यक्ष करों का क़रीब 24 फ़ीसदी हिस्सा है. भारत सरकार के आंकड़ों पर गौर करें तो 2014-15 में पेट्रोल और डीज़ल से अर्जित उत्पाद शुल्क 1720 अरब रु था जो कि 2019-20 में बढ़कर 3343 अरब रु हो गई. यह बढ़ोतरी क़रीब 94 फ़ीसदी की है. राज्य सरकारों के वैट में हुई बढ़ोतरी इसी अवधि में क़रीब 37 फ़ीसदी रही जो 1607 अरब रु से बढ़कर 2210 अरब रु हो गई.अर्थशास्त्री और पर्यावरणविद लंबे समय से डीज़ल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क को तार्किक बनाए जाने की मांग करते रहे हैं, उन्हें मौजूदा नीति ज़रूर रास आ रही होगी. उनका तर्क ये है कि डीज़ल सस्ता होने की वजह से महंगी गाड़ियों में डीज़ल का बेरोकटोक प्रयोग होता है जिसका सीधा बुरा असर पर्यावरण पर पड़ता है. लेकिन यहां हमें सावधानी से काम लेना होगा क्योंकि मौजूदा समय अप्रत्याशित आर्थिक मंदी वाला है ऐसे में डीज़ल-पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी के कई अवांछित परिणाम भी सामने आ सकते हैं.

आर्थिक प्रभाव

भारत में डीज़ल की मांग में होने वाली वृद्धि का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) से क़रीब का नाता रहा है. 2008-09 में आर्थिक संकट से निपटने के लिए घोषित पैकेज में जब संशोधित पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुक्ल में कमी की गई थी तो आईआईपी के साथ आर्थिक विकास में तेज़ी आई थी और डीज़ल की मांग में बढ़ोतरी दर्ज की गई थी. 2014-15 से 2016-17 के बीच जब डीज़ल की ख़ुदरा कीमतें औसतन 54 रु प्रति लीटर थीं तब डीज़ल की मांग में क़रीब 9 फ़ीसदी सालाना की बढ़ोतरी हुई थी और आईआईपी में भी उछाल देखा गया था. इसी अवधि में पेट्रोल की मांग में 3.5 फ़ीसदी की बढ़त दर्ज की गई थी.

ज़ाहिर तौर पर मौजूदा वित्त वर्ष (2020-21) में देशव्यापी लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था की सुस्त चाल की वजह से डीज़ल की मांग में कमी के आसार हैं. सच्चाई तो ये है कि ख़ुदरा कीमतों में तेज़ी की वजह से लॉकडाउन के पहले से ही डीज़ल की मांग लड़खड़ाने लगी थी. 2019-20 में उसके पिछले साल के मुकाबले डीज़ल की मांग में 1 फ़ीसदी की कमी दर्ज की गई थी जबकि पेट्रोल की मांग में पहले की ही तरह 5 फ़ीसदी से ज़्यादा की बढ़ोतरी देखी गई (चार्ट 5). जैसा कि पहले भी देखा गया है, 2019-20 में डीज़ल की मांग में कमी का आईआईपी पर भी सीधा असर रहा और इसमें 0.7 फ़ीसदी की कमी दर्ज की गई. आईआईपी और डीज़ल की मांग में सीधे संबंध को देखते हुए ज़ाहिर है कि महंगी कीमतों का डीज़ल की मांग पर बुरा असर पड़ेगा. उद्योग-प्रधान राज्यों में डीज़ल की मांग में अपेक्षाकृत कम औद्योगिक राज्यों के मुकाबले में ज़्यादा कमी देखे जाने के आसार हैं. जैसा कि गाहे-बगाहे बिजली के क्षेत्र में भी देखा जाता है और समय-समय पर विभिन्न अध्ययनों में भी उभर कर सामने आया है. कम लोगों को ये मालूम होगा लेकिन सच्चाई ये है कि तेल पर भारी भरकम सब्सिडी के दावों के बावजूद पेट्रोल की कीमतों का भार उठाने की क्षमता के मामले में भारत का स्थान काफी नीचे हैं. 2017-18 में एक लीटर पेट्रोल की कीमत भारत की औसत प्रति व्यक्ति जीडीपी के क़रीब 25 प्रतिशत के बराबर था. भारत के भीतर भी पेट्रोल की कीमतों का भार उठा सकने की क्षमता के मामले में भारी विविधता है. बिहार में एक औसत व्यक्ति को एक लीटर पेट्रोल खरीदने के लिए अपने दैनिक राज्य घरेलू उत्पाद का 94 फ़ीसदी व्यय करना पड़ा जबकि यूपी में यह हिस्सा 50 फ़ीसदी था. चीन में ये क़रीब 4 फ़ीसदी बैठता है जबकि वियतनाम में 8 और पाकिस्तान में 17 फ़ीसदी.

उद्योग-प्रधान राज्यों में डीज़ल की मांग में अपेक्षाकृत कम औद्योगिक राज्यों के मुकाबले में ज़्यादा कमी देखे जाने के आसार हैं. जैसा कि गाहे-बगाहे बिजली के क्षेत्र में भी देखा जाता है और समय-समय पर विभिन्न अध्ययनों में भी उभर कर सामने आया है.

आर्थिक उत्पादन में मज़बूत बढ़ोतरी के अभाव में अगर पेट्रोल की ख़ुदरा कीमतें बढ़ती हैं तो इन कीमतों को अदा कर पाने की क्षमता में ऐसे ही कमी देखी जाती रहेगी. इस संदर्भ में पेट्रोल पर चलने वाले दोपहिया वाहनों का उदाहरण महत्वपूर्ण है. 2019-20 में भारतीय बाज़ार में दोपहिया वाहनों का 81 फ़ीसदी बाज़ार-हिस्सा था. यही दोपहिया वाहन लाखों मज़दूरों और स्वरोजगार से जुड़े लोगों के आवागमन का सहारा हैं. पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी सीधे-सीधे इन लोगों को प्रभावित करेगी और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के रास्ते में बड़ी बाधा बनेगी.

पर्यावरण पर प्रभाव

अक्सर अनुभवों के आधार पर ये कहा जाता है कि बाज़ार के हिसाब से दाम बढ़ने के मुकाबले टैक्स लगाकर पेट्रोलियम पदार्थों को महंगा किया जाना उल्टी चाल चलने जैसा है. हालांकि पेट्रोलियम पदार्थों के उपभोग से पैदा होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए इनकी कीमतें बढ़ाना एक कारगर तरीका होता है. 2018 में भारत में सड़क यातायात के क्षेत्र में ईंधन के इस्तेमाल से पैदा होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड पर अप्रत्यक्ष तौर पर औसत ईंधन उत्पाद शुल्क क़रीब 79.6 यूरो प्रति टन रहने का अनुमान था. जबकि अमेरिका में यह 43.6 यूरो और चीन में 67.4 यूरो प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड है. से यह साफ हुआ है कि पेट्रोलियम पदार्थं पर लगने वाले टैक्स में हल्की बढ़ोतरी से पर्यावरण के क्षेत्र में भारी सुधार देखा गया है लेकिन दूसरे राजकीय उपायों की ही तरह ही ईंधन के दामों में होने वाली बढ़ोतरी आर्थिक विषमता कम करने के लक्ष्य़ के प्रति बाधा उत्पन्न करती है. आर्थिक समानता और कार्यदक्षता के बीच के इस द्वंद से अर्थशास्त्री भली भांति वाक़िफ़ हैं. हालांकि ईंधन की कीमतों में वृद्धि का आर्थिक समानता या वितरण पर जो प्रभाव पड़ता है वो किसी देश के अंदर और विभिन्न देशों में मौजूद कई कारकों पर निर्भर करता है. इन कारकों में सामाजिक, भौगोलिक, जलवायु संबंधी, आर्थिक हालात के साथ-साथ घरेलू स्तर पर ईंधन के इस्तेमाल आदि तथ्य शामिल है. हालांकि इस बात पर सबकी सहमति है कि गरीब परिवारों पर ईंधन की कीमतों में होने वाली वृद्धि का सबसे बुरा असर होता है क्योंकि वो अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ईंधन और ईंधन से जुड़ी सेवाओं पर ख़र्च करते हैं.

विशेषज्ञ इस द्वंद से निजात पाने के लिए ईंधन पर प्रतिगामी कार्बन टैक्स लगाकर उससे होने वाली आमदनी को ग़रीबों में वितरित करने की नीति की सिफारिश करते हैं. भारतीय संदर्भ में पेट्रोलियम पदार्थों पर लागू अप्रत्यक्ष कार्बन टैक्स से हासिल राजस्व का इस्तेमाल कोविड-19 के चलते अपना रोज़गार गंवा चुकी निम्न-आय वाली आबादी को सीधे आर्थिक सहायता पहुंचाने के लिए किया जा सकता है. तेल पर लागू करों से हासिल राजस्व का यह सबसे बेहतर इस्तेमाल साबित हो सकता है. वहीं दूसरी ओर अगर मकसद बाज़ार को खुश करना है तो तेल से हासिल करों का इस्तेमाल वित्तीय घाटे को पाटने के लिए किया जा सकता है.

भारतीय संदर्भ में पेट्रोलियम पदार्थों पर लागू अप्रत्यक्ष कार्बन टैक्स से हासिल राजस्व का इस्तेमाल कोविड-19 के चलते अपना रोज़गार गंवा चुकी निम्न-आय वाली आबादी को सीधे आर्थिक सहायता पहुंचाने के लिए किया जा सकता है.

तेल पर करों की मार

पेट्रोल और डीज़ल के दामों में बढ़ोतरी से न केवल इनके इस्तेमाल में गिरावट आती है बल्कि इससे वैकल्पिक ईंधन के इस्तेमाल की ओर भी ध्यान जाता है. डीज़ल पर करों में दी जाने वाली रियायत वापस लिए जाने से डीज़ल गाड़ियों की बजाए पेट्रोल गाड़ियों के इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ गई है. कराधान में इन परिवर्तनों के बिना यातायात के लिए इस्तेमाल होने वाले वैकल्पिक ईंधनों जैसे प्राकृतिक गैस, यहां तक कि बिजली के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाना संभव नहीं हो सकेगा. संशोधित पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स में लगातार बढ़ोतरी के साथ-साथ वैकल्पिक ईंधनों के लिए मज़बूत नीतिगत समर्थन से पेट्रोलियम की मांग आगे चलकर बेहद कम हो जाएगी. फिलहाल पेट्रोलियम वो मुर्गी है जो सरकार को राजस्व के रूप में सोने के अंडे दे रही है. इससे पहले कि सोने के ये अंडे मुर्गियों की जान ले लें, सरकार को इन अंडों पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए या ऐसे ही सोने के अंडे देने वाली दूसरी चिड़िया ढूंढ लेनी चाहिए.

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