Published on Feb 17, 2020 Updated 0 Hours ago

लैंगिक भेदभाव का समाज के हर हिस्से पर व्यापक और गहरा असल पड़ता है. इसके कई घातक परिणाम आर्थिक मोर्चे पर भी दिखते हैं.

अपनी वाजिब जगह पर दावेदारी: समृद्धि की तलाश करती महिलाएं

जब हम महिलाओं और लड़कियों में निवेश करते हैं, तो असल में हम उन लोगों में निवेश कर रहे होते हैं, जो बाक़ी सभी क्षेत्रों में निवेश करते हैं— मेलिंडा गेट्स

विश्व आर्थिक मंच की 2020 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार, पूरी दुनिया में लैंगिक समानता कुल मिलाकर 68.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई है. आज की तारीख़ में कोई भी ऐसा देश नहीं है, जिसने पुरुषों और महिलाओं के बीच का फ़र्क़ मिटाने में पूरी तरह से सफलता प्राप्त कर ली हो. हालांकि, वैश्विक स्तर पर अभी पुरुषों और महिलाओं के बीच बराबरी का जो फ़ासला है, वो 31.4 प्रतिशत बाक़ी है. लेकिन, ये आंकड़ा ये दिखाता है कि आज स्त्री और पुरुषों के बीच भेदभाव का दायरा सिकुड़ता जा रहा है. लेकिन, विश्व आर्थिक मंच के इस अध्ययन से इस हक़ीक़त से भी पर्दा उठा है कि कि जिन 107 देशों में ये अध्ययन किया गया है, वहां औरतों और मर्दों के बीच के इस फ़ासले को भरने में 99.5 वर्ष तक का समय लग सकता है. हालांकि, विश्व आर्थिक मंच की ये रिपोर्ट ये भी कहती है कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच के इस भेदभाव को पूरी दुनिया से पूरी तरह मिटाने में 257 बरस भी लग सकते हैं. इसकी वजह ये है कि 2006 से 2020 के दौरान, स्त्री-पुरुष के बीच के फ़र्क़ को मिटाने की गति बहुत धीमी हो गई है. ये बात ख़ास तौर से आर्थिक भागीदारी और अवसरों के बारे में कही जा रही है. इसके अतिरिक्त, लैंगिक समानता के स्तर को प्राप्त करने में जितने वर्ष लगने का अनुमान और संभावना जताई गई है, उसके कई कारण हैं. पहली बात तो ये है कि लैंगिक समानता दिखाने वाले कुछ कारकों, जैसे कि राजनीतिक मंचों पर निर्वाचन या नामांकित महिला सदस्यों की संख्या और अलग-अलग क्षेत्रों में पुरुषों और महिलाओं के वेतन के आंकड़े तों उपलब्ध हैं. लेकिन, यौन विभेद, और महिलाओं के प्रति विचारों में परिवर्तन को मापना बहुत कठिन है. और इस मामले में दुनिया में बदलाव की रफ़्तार तकलीफ़देह रूप से मंद है.

जहां तक शैक्षणिक उपलब्धि की बात है, तो इस मोर्चे पर पुरुषों और स्त्रियों के बीच का फ़र्क़ तेज़ी से मिट रहा है. आज इस विभेद का स्तर घटकर महज़ 4.4 प्रतिशत रह गया है. लेकिन, विश्व आर्थिक मंच के इस अध्ययन से एक परेशान करने वाली बात भी सामने आई है. वो ये है कि आज महिलाएं, चौथी औद्योगिक क्रांति की वजह से मिल रहे अवसरों को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रही हैं

2020 के इंडेक्स में विश्व आर्थिक मंच ने जिन 153 देशों को शामिल किया गया है, उसमें महिलाएं चार प्रमुख क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं. जैसे कि राजनीतिक सशक्तिकरण, आर्थिक भागीदारी और अवसरों की प्राप्ति, शैक्षिक उपलब्धियां और स्वास्थ्य व बेहतर ज़िंदगी. महिलाओं और पुरुषों के बीच सबसे ज़्यादा फ़र्क़ राजनीतिक सशक्तिकरण के मोर्चे पर पाया गया है, जो क़रीब 75 प्रतिशत है. पुरुषों और स्त्रियों के बीच जिस दूसरे मोर्चे पर सबसे ज़्यादा विभेद देखा गया है, वो है आर्थिक भागीदारी और अवसर मिलने के मामले में है. ये आंकड़े ये बताते हैं कि भले ही आज पुरुषों और स्त्रियों के बीच दुनिया भर में फ़र्क़ कम हो रहा है. लेकिन, कुछ विशेष क्षेत्रों में महिलाओं को अब भी अपने देश के विकास की मुख्यधारा और और इस तरह विश्व की समृद्धि में योगदान देने से वंचित रखा जा रहा है.

जहां तक शैक्षणिक उपलब्धि की बात है, तो इस मोर्चे पर पुरुषों और स्त्रियों के बीच का फ़र्क़ तेज़ी से मिट रहा है. आज इस विभेद का स्तर घटकर महज़ 4.4 प्रतिशत रह गया है. लेकिन, विश्व आर्थिक मंच के इस अध्ययन से एक परेशान करने वाली बात भी सामने आई है. वो ये है कि आज महिलाएं, चौथी औद्योगिक क्रांति की वजह से मिल रहे अवसरों को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रही हैं. उदारण के तौर पर देखें, तो, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जैसी उन्नत तकनीक के मामले में लैंगिक असमानता बहुत भयानक रूप से उच्च स्तर पर है. इस उद्योग में केवल 22 प्रतिशत पेशेवर महिलाएं हैं.

लैंगिक असमानता का अर्थशास्त्र

महिलाएं दुनिया की कुल आबादी का क़रीब-क़रीब आधा हिस्सा हैं. और इसी कारण से लैंगिक विभेद के व्यापक और दूरगामी असर होते हैं, जिनका समाज के हर स्तंभ पर असर दिखता है. इस का आर्थिक मोर्चे पर भी बहुत गहरा असर होता है. विश्व बैंक समूह की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पुरुषों और महिलाओं के वेतन में असमानता की वजह से विश्व अर्थव्यवस्था को क़रीब 160 ख़रब डॉलर की क्षति उठानी पड़ी. ये बहुत बड़ा नुक़सान है, जिसकी व्यापकता का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है. ख़ास तौर से तब और जब हमें ये पता चलता है कि अगर पुरुष और महिला कामगारों की सैलरी समान कर दी जाए, तो इससे विश्व की संपत्ति में हर वयक्ति की ज़िंदगी में क़रीब 23 हज़ार 620 डॉलर की वृद्धि हो जाएगी. और इस संपत्ति निर्माण का असर हमें 141 देशों में देखने को मिलेगा. दुनिया के विकास में इस वृद्धि का असर कितना व्यापक होगा, ये आसानी से समझा जा सकता है. क्योंकि आज महिलाएं दुनिया की कुल मानवीय संपत्ति में मात्र 38 प्रतिशत की हिस्सेदार हैं. और विकासशील देशों में तो उनका हिस्सा महज़ एक तिहाई है. वेतन में समानता से इन महिलाओं को बहुत लाभ होगा.

महिलाओं की अहमियत क्यों है?

इंसान की प्रगति पर लैंगिक विभेद का क्या असर होता है, ये समझना बहुत आवश्यक है. हमारी अर्थव्यवस्थाओं को प्रगति के पथ पर बढ़ाने और हमारे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए, पुरुषों और महिलाओं का संतुलित योगदान बेहद महत्वपूर्ण है. अब जबकि हम भविष्य की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं, तो विश्व की कुल आबादी के आधे कामगारों को हाशिए पर धकेलने से कई नुक़सान होते हैं. इससे हुनर, विचारों और नज़रियों का दायरा सीमित होता है, जिनकी हमारे समाज के विकास में बहुत ज़रूरत है. साथ ही साथ ये पुरुषों और स्त्रियों के बीच आर्थिक भिन्नता की खाई को भी और गहरा करता है. अगर करियर और वेतन के मामले में पुरुष, स्त्रियों को पीछे धकेलते रहेंगे. तो वित्तीय संपत्तियों पर पुरुषों का ही नियंत्रण बना रहेगा. और इस तरह आगे चल कर स्त्रियों की स्वतंत्रता की डोर भी पुरुषों के ही हाथों में होगी.

इससे भी ज़्यादा ख़तरनाक है, पुरुषों और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में 75 प्रतिशत का फ़ासला. संयुक्त राष्ट्र महिला के मुताबिक़, फ़रवरी 2019 तक दुनिया के तमाम देशों की राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं की भागीदारी मात्र 24.3 प्रतिशत है. वहीं, जून 2019 तक केवल 11 महिलाएं किसी देश की राष्ट्राध्यक्ष हैं. तो महज़ 12 महिलाएं किसी देश में शासनाध्यक्ष हैं. हालांकि, फिनलैंड में दिसंबर 2019 में सना मैरिन की जीत के बाद महिला शासनाध्यक्षों की संख्या अब 13 हो गई है. फ़रवरी 2019 तक दुनिया में केवल तीन देश (रवांडा, क्यूबा और बोलिविया)ही ऐसे हैं, जहां महिला सांसद पचास प्रतिशत या इससे ज़्यादा हैं. अब ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि अगर महिलाएं उन पदों तक पहुंचने में नाकाम होती हैं, जो शासन करते हैं. ऐसे में हमारे समाज के सबसे कमज़ोर तबक़ों यानी महिलाओं और बच्चों के हितों का संरक्षण करने और उन्हें सशक्त बनाने वाली नीतियों की अनदेखी होती है. अगर ऐसा लंबे समय तक होता रहता है, तो परिवार समुदाय और अर्थव्यवस्थाएं अपनी पूरी संभावनाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल होती रहती हैं

एक अन्य क्षेत्र जहां पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व नाम मात्र को है, वो हैं कामकाजी जगहें. 2019 में फॉर्चून 500 की लिस्ट में शामिल केवल 6.6 प्रतिशत कंपनियों की कमान किसी महिला सीईओ के हाथ में थी. फिर कहना होगा कि ये इस तथ्य के बावजूद है कि जिन कंपनियों की स्थापना महिलाएं करती हैं या उनकी अगुवाई करती हैं, उनके निवेश पर 35 प्रतिशत ज़्यादा रिटर्न मिलता देखा गया है. हालांकि, ये कहना सही नहीं होगा कि किसी महिला को सीईओ या ऊंचे राजनीतिक पद पर बैठा देने भर से सकारात्मक वित्तीय नतीजे निकलने लगेंगे या नीतियों में सुधार देखने को मिलेगा. फिर भी तमाम अध्ययनों से ये बात सामने आई है कि लीडरशिप की बात करें, तो महिलाओं को आम तौर पर पुरुषों से बेहतर नतीजे लाते देखा गया है. हाल ही में हारवर्ड बिज़नेस रिव्यू के एक अध्ययन में नया क़दम उठाने, विपरीत परिस्थितियों का सामना करने, ख़ुद का विकास करने, ईमानदारी और निष्ठा के मामले में और बदलाव को तार्किक रूप से पेश करने में, सहयोग करने, टीमवर्क और नए रिश्ते बनाने के पैमानों पर महिलाओं ने पुरुषों से बेहतर अंक हासिल किए थे.

आगे का रास्ता

हालांकि, लैंगिक समानता के स्तर को प्राप्त करने का समय बहुत लंबा और थकाऊ है. लेकिन अगर तमाम देश पक्के इरादे के साथ लगातार प्रयास करें, तो महत्वपूर्ण प्रगति को हासिल किया जा सकता है. इससे पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता को ख़त्म करने में लगने वाला समय कम होगा. इसकी एक असाधारण मिसाल अफ्रीकी देश रवांडा है. 1990 के दशक में रवांडा की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 18 प्रतिशत था. लेकिन, रवांडा में हुए नरसंहार के क़रीब एक दशक बाद, वर्ष 2003 में रवांडा के संविधान में संशोधन के माध्यम से संसद में 30 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गईं. आज रवांडा की संसद में महिलाओं की भागीदारी 62 प्रतिशत है. जो पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है.

इसी तरह, वर्ष 2018 में अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य ने एक क़ानून पास किया. जिसके तहत, शेयर बाज़ार में कारोबार करने वाली सभी सार्वजनिक कंपनियों के लिए अपने बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में 2019 के अंत तक, कम से कम एक महिला प्रतिनिधि नियुक्त करना अनिवार्य कर दिया गया. इस क़ानून में ये प्रावधान भी रखा गया है कि, अगर किसी कंपनी में पांच बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर हैं, तो कम से कम दो सदस्य महिलाएं होनी चाहिए. और जिन कंपनियों में छह या इससे ज़्यादा बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर हैं, उनमें कम से कम तीन महिलाएं होनी चाहिए. कैलिफ़ोर्निया में रजिस्टर्ड कंपनियों को ये क़ानूनी शर्त पूरी करने के लिए 2021 के अंत तक का समय दिया गया है. हालांकि, कई यूरोपीय देशों में इससे भी ज़्यादा सख़्त क़ानून हैं (जैसे कि नॉर्वे में नियम है कि बड़ी कंपनियों के बोर्ड में कम से कम 40 प्रतिशत महिलाएं होनी चाहिए). फिर भी अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य ने जो क़ानून बनाया है, वो पूरे देश में अपने आप में ऐसा पहला क़ानून है. और उम्मीद ये की जाती है कि ये ऐसे ही अन्य सकारात्मक बदलावों का संकेत है.

अगर हम महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और समान अवसरों की बात करें, तो सरकारें और ग़ैर सरकारी संगठन ऐसे बदलावों को प्रेरित कर सकते हैं. इसके लिए उन्हें ऐसे सुधारों पर ज़ोर देना होगा जो ग़रीबी उन्मूलन के बजाय संपत्ति निर्माण की दिशा में प्रयास करें. अगर ऐसी नीतियां, कार्यक्रम और तरीक़े अपनाएं जाए, जो महिलाओं की वित्तीय भागीदारी को बढ़ावा दें. और उन्हें पूंजी हासिल करने में सहूलतें प्रदान करें. तो इससे पुरुषों और महिलाओं के बीच जो 42 प्रतिशत का फ़र्क़ है, वो काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है.

अब जब हम दुनिया के विकास से जुड़ी चुनौतियों से निपटने का लगातार प्रयास कर रहे हैं. तो, हमें ये भी मानना पड़ेगा कि लैंगिक असमानता एक बड़ा मुद्दा है. और बड़ी ज़िम्मेदारी से इसे दूर करने के सघन प्रयास करने होंगे.

इसके अतिरिक्त, विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित की शिक्षा (STEM)में युवा लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में सघन प्रयास किए जाने की आवश्कयता है. अमेरिका में नेशनल गर्ल्स कोलैबोरेटिव प्रोजेक्ट के एक अध्ययन में पता चला था कि वहां कंप्यूटर साइंस की शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी केवल 18 प्रतिशत है. जबकि अमेरिका इस क्षेत्र का दुनिया में सबसे बड़ा खिलाड़ी है. आज चौथी औद्योगिक क्रांति के इस दौर में स्थायित्वपूर्ण विकास के लिए ये बहुत आवश्यक है कि सरकारों को ऐसे शिक्षण संस्थान स्थापित करने चाहिए और उनकी स्थापना में सहयोग करना चाहिए, जो तकनीकी हुनर पढ़ाते हैं और उन्हें बढ़ावा देते हैं. साथ ही साथ ये शिक्षण संस्थान युवा लड़कियों और महिलाओं पर विशेष ध्यान देते हैं. ताकि, हुनरमंद कामगारों का एक मज़बूत और विविधतापूर्ण वर्ग भविष्य के लिए तैयार हो सके.

और अंत में, हम सबको व्यक्तिगत स्तर पर पुरुषों और स्त्रियों के बीच का ये फ़र्क़ मिटाने की ज़िम्मेदारी को गंभीरता से निभाना होगा. इसका मतलब ये है कि हमें उन पूर्वाग्रहों से परिचित रहना होगा, जो हमारे आस-पास की महिलाओं की प्रगति की राह में बाधक बन सकें. इसका एक उदाहरण ये है कि हो सकता है अनजाने में हम किसी महिला की तकनीकी रोल के लिए अनदेखी कर रहे हों. उसकी तरक़्क़ी के अधिकार की अनदेखी कर रहे हों. या फिर उससे कम क्षमतावान पुरुष को प्रमोशन दे रहे हों. उदाहरण के लिए किसी स्टार्ट अप व्यवस्था में ये बात सबको पता है कि महिलाओं की अगुवाई वाली कंपनियों को दुनिया की केवल दो प्रतिशत वेंचर कैपिटल पूंजी हासिल होती है. जबकि महिलाओं की अगुवाई वाली स्टार्ट अप कंपनियां, पुरुषों द्वारा स्थापित की गई स्टार्ट अप कंपनियों के मुक़ाबले प्रति डॉलर दोगुना का रिटर्न देती हैं. 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, महिलाओं की स्टार्ट अप कंपनियों के लिए पूंजी की इस कमी की प्रमुख वजह प्रेज़ेंटेशन देते वक़्त, पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा दबाव झेलना है. ख़ास तौर से अपनी कंपनी के तकनीकी पहलुओं को लेकर. इसके अलावा उन्हें अपने कारोबार से जुड़े वास्तविक और कम अनुमान लगाने का दंड भी भुगतना पड़ता है. अगर महिलाएं, अपनी स्टार्ट अप कंपनी के संभावित ग्राहकों को महिलाओं में देखती हैं, तो भी पूंजी निवेश करने वाले उनकी संवेदनाओं से ख़ुद को जोड़ नहीं पाते हैं.

अब जब हम दुनिया के विकास से जुड़ी चुनौतियों से निपटने का लगातार प्रयास कर रहे हैं. तो, हमें ये भी मानना पड़ेगा कि लैंगिक असमानता एक बड़ा मुद्दा है. और बड़ी ज़िम्मेदारी से इसे दूर करने के सघन प्रयास करने होंगे. अगर हम ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो मौजूदा और आने वाले समय की जिन चुनौतियों का समाधान करने के लिए हम परिश्रमरत हैं. उसमें एक महत्वपूर्ण समाधान को जोड़ने में नाकाम रहेंगे. हम आज जो कर रहे हैं, उसे करते हुए हमें ये भी याद रखना होगा कि लैंगिक समानता का अर्थ केवल महिलाओं और लड़कियों का सशक्तिकरण नहीं है. बल्कि, इसका अर्थ ये है कि हम स्थायित्व वाले विकास और विश्व की ऐसी प्रगति के लिए प्रयासरत हैं, जो विश्व के सभी नागरिकों की भलाई का काम करेगा.

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