पाकिस्तान के सियासी हालात में एक किस्म का असमंजस अब भी बना हुआ है। असमंजस इसलिए, क्योंकि कुछ लोग जुलाई में संभावित आम चुनाव को लेकर सशंकित हैं। एक तबका यह भी मानता है कि अगर चुनाव टल गए, तो उसका बड़ा असर सिस्टम पर पड़ेगा। मगर ये सब अटकलें हैं। फिलहाल तो यही लग रहा है कि चुनाव तय समय पर ही होंगे। हालांकि निष्पक्ष व पारदर्शी चुनाव का सवाल अपनी जगह कायम है। असल में, वहां की चुनाव प्रणाली में इतनी खामियां हैं कि उनका लाभ ‘डीप स्टेट’ अपने मुफीद उम्मीदवारों को जिताने के लिए उठाता रहा है। ‘डीप स्टेट’ असल में आईएसआई और फौज के बड़े अधिकारियों का एक अनधिकृत ढांचा है, जो सियासत और रियासत में दखल रखता है।
अगर चुनावी जंग में सबको बराबर मौका मिले, तो अंदाज यही है कि नवाज शरीफ की ‘पाकिस्तान मुस्लिम लीग’ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, हालांकि बहुमत वह शायद ही पा सके। मगर चूंकि ‘डीप स्टेट’ का चुनाव में खासा दखल होगा, इसलिए इमरान खान और उनकी पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ’ की राह कहीं ज्यादा आसान लग रही है। इमरान खान अपने भाषणों में क्रिकेट की शब्दावलियों का खूब इस्तेमाल करते रहे हैं। अगर उन्हीं की भाषा में बात की जाए, तो वह एक ‘फिक्स मैच’ जीतते हुए दिख रहे हैं। हालांकि हकीकत में उनके लिए अपनी लोकप्रियता को वोट में बदलना मुश्किल होगा।
‘डीप स्टेट’ असल में आईएसआई और फौज के बड़े अधिकारियों का एक अनधिकृत ढांचा है, जो सियासत और रियासत में दखल रखता है।
पाकिस्तान के चुनाव को यूं ही ‘फिक्स मैच’ नहीं कहा जा रहा है। लोकप्रियता के शिखर पर बैठे नवाज शरीफ को तो कानूनी तरीके से बड़े करीने से सियासत से बाहर कर दिया गया। वह अब अपनी पार्टी की अगुवाई भी नहीं कर सकते। जेल जाने की तलवार भी उन पर लटक ही रही है। ठीक यही हाल उनके भाई शाहबाज शरीफ का है। उन पर भी तमाम तरह के मुकदमे लाद दिए गए हैं, और संभव है कि आने वाले दिनों में वह भी सजायाफ्ता बन जाएं। चुनावी बिसात समझने वाले पार्टी के अन्य प्रमुख नेताओं को भी निशाना बनाया जा रहा है। जैसे, विदेश मंत्री का पद संभाल रहे ख्वाजा आसिफ को अदालत से अयोग्य ठहरा दिया गया है। रही-सही कसर आतंकी तंजीमों द्वारा नेताओं पर जानलेवा हमले करके पूरी की जा रही है, ताकि उनमें खौफ पैदा हो। गृह मंत्री अहसन इकबाल इसके ताजा उदाहरण हैं। इन सबसे देश में कुछ ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि ‘पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज’ के कद्दावर नेताओं की अब खैर नहीं। जबकि चुनावों में ऐसी ‘हवा’ काफी मायने रखती है। परंपरागत वोटर तो पार्टी को ही वोट करेंगे, पर एक बड़ा तबका ऐसे मतदाताओं का भी होता है, जो जीत के आसार देखकर अपना मत जाहिर करता है। आमतौर पर ऐसे वोट जीतने वाले उम्मीदवार को जाते हैं। अब चूंकि माहौल नवाज शरीफ के खिलाफ बनाया जा रहा है और जनता में संदेश दिया जा रहा है कि उन्हें जीतने नहीं दिया जाएगा, तो गैर-परंपरागत वोटर पार्टी से छिटक सकते हैं।
पाकिस्तान के चुनाव को यूं ही ‘फिक्स मैच’ नहीं कहा जा रहा है। लोकप्रियता के शिखर पर बैठे नवाज शरीफ को तो कानूनी तरीके से बड़े करीने से सियासत से बाहर कर दिया गया। वह अब अपनी पार्टी की अगुवाई भी नहीं कर सकते।
इसके अलावा, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज पर खुद को टूटने से बचाने का भी दबाव है। यह दबाव पंजाब में कहीं ज्यादा है, जो जंग का असली मैदान है। 272 सीटों वाली नेशनल असेंबली (संसद) में 141 सांसद यहीं से चुने जाते हैं। मान्यता यह भी है कि जिसने पंजाब जीत लिया, उसने मुल्क फतह कर लिया। पंजाब नवाज शरीफ का गढ़ रहा है। मगर अब इसमें सेंध लगाई जा रही है, खासतौर से दक्षिण पंजाब में। यहां से लगभग 46 सांसद चुने जाते हैं। मौजूदा संसद में नवाज शरीफ ने यहां से अच्छी-खासी सीटें जीती हैं। मगर अभी यहां ‘अलग दक्षिण पंजाब सूबा’ बनाने का आंदोलन शुरू हो गया है और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज के कई विधायक व सांसद पार्टी छोड़ रहे हैं। चुनाव के समय पार्टी में टूट-फूट सामान्य मानी जाती है, पर जब यह एक ट्रेंड बनता दिखाई दे, तो शक बढ़ता है। यह नया धड़ा किसके साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा, साफ नहीं है, मगर इनका यह कहना है कि जो उनकी मांग पर गौर करेगा, वे उन्हीं का साथ देंगे। सियासी पंडित इस सब में फौज का हाथ देख रहे हैं, जो गलत भी नहीं। इस आंदोलन के नेताओं का मानना है कि आगामी चुनाव में 25-30 सीटें भी जीत ले गए, तो वे बड़े दबाव समूह का काम करेंगे।
यही सूरते-हाल रहा, तो पाकिस्तान में त्रिशंकु संसद तय है। हालांकि फौज कभी भी किसी एक दल का शासन नहीं चाहती। फिर चाहे वह इमरान खान ही क्यों न हों। ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलने की सूरत में ही छोटे-छोटे गुट, जिसमें दक्षिण पंजाब के क्षत्रप भी हैं, महत्वपूर्ण हो सकते हैं। चूंकि ये गुट फौज के प्यादे हैं, इसलिए नई सरकार में फौज का पर्याप्त दखल होगा। रही बात ‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’ की, तो वह सिर्फ सिंध प्रांत तक सीमित दिख रही है। आसिफ अली जरदारी, उनकी बहन फरयाल तालपुर और बेटे बिलावल भुट्टो-जरदारी के संदर्भ में इस पार्टी को अब व्यंग्य के रूप में ‘पापा-फूफी-पप्पू’ पार्टी भी कहा जाने लगा है।
सियासी पंडित इस सब में फौज का हाथ देख रहे हैं, जो गलत भी नहीं। इस आंदोलन के नेताओं का मानना है कि आगामी चुनाव में 25-30 सीटें भी जीत ले गए, तो वे बड़े दबाव समूह का काम करेंगे।
मौजूदा सियासी तस्वीर देखकर इमरान खान ने अब फौज का गुणगान शुरू कर दिया है। वह सत्ता संभालने के बाद फौज से अच्छे ढंग से साथ निभा पाने का ख्वाब तक देख रहे हैं। मगर उन्हें इतिहास से सबक सीखना चाहिए। ठीक ऐसा ही सपना कभी ‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’ की सरकार में प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी देखा करते थे। मगर फौज ने उन्हें टिकने नहीं दिया और मोहरा बनाया नवाज शरीफ को। नवाज शरीफ भी फौज के साथ चलने में यकीन रखते थे, मगर आज उनकी दशा जगजाहिर है। इमरान खान की भी यही हालत हो सकती है। ‘डीप स्टेट’ कभी नहीं चाहेगा कि बहुमत पाने वाली कोई पार्टी मुल्क की विदेश व सुरक्षा नीति तय करे।
कुल मिलाकर, वहां चुनाव तो होंगे, पर इससे व्यापक राजनीतिक परिदृश्य बदलता नहीं दिख रहा। जम्हूरी हुकूमत और फौज का टकराव बना रहेगा। सत्ता में ‘डीप स्टेट’ अपना दखल छोड़ेगा नहीं, और जम्हूरी हुकूमत उसे बेदखल करने का प्रयास करती रहेगी। इमरान खान यह ‘फिक्स मैच’ बेशक जीत जाएं, पर इससे वहां की हुकूमत का बुनियादी चरित्र नहीं बदलने वाला।
यह लेख मूल रूप से Live हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी।
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