Author : Rakesh Sood

Published on Oct 31, 2017 Updated 0 Hours ago

क्या पाकिस्तान में तख्ता पलट के लिए फौजी बगावत के अलावा और भी तरीके हैं?

पाकिस्तान: सेना, सत्ता और तख्तापलट की राजनीति

पाकिस्तान में काफी लम्बे अर्से तक रहे सैनिक शासन ने सेना को सरकार के समूचे तंत्र में पैंठ बनाने का मौका दिया है। राजनीतिक दलों, न्यायपालिका, नौकरशाही और मीडिया  आज सभी वर्गों में सेना के समर्थक मौजूद हैं। इसलिए सेना के साथ मतभेद रखने वाले लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए राजनीतिक नेता को सत्ता से बेदखल करने के लिए अब किसी तरह की फौजी बगावत की जरूरत नहीं रह गई है। दरअसल, अगर पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया होता, तो वह ऐसा करने वाले प्रथम निर्वाचित प्रधानमंत्री होते। वह लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचित होने की स्थिति में भी थे। अयोग्य ठहराए जाने के साथ शरीफ का राजनीतिक करियर भले ही समाप्त हो गया हो, लेकिन पाकिस्तान में असली हार लोकतंत्र की हुई है।

परिचय

2013 में, जब पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास में पहली बार पांच साल के नागरिक शासन के बाद पाकिस्तान में तय समय पर चुनाव हुए — तो बहुत से टीकाकारों को लगा कि आखिरकार पाकिस्तान में लोकतंत्र आ गया है। लेकिन 28 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अयोग्य ठहराया जाना, सीधे तौर पर इस बात की याद दिलाता है कि पाकिस्तान को आज भी ‘आभासी सरकार’ (यानी डीप स्टेट) ही चला रही है और सरकार को अपदस्थ करने के लिए फौजी बगावत के अलावा और भी तरीके हो सकते हैं। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया था कि 2018 में होने वाले चुनाव में नवाज शरीफ लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचित हो सकते हैं और इस तरह वह पाकिस्तान में इतिहास रच सकते हैं। इससे निर्वाचित नागरिक शासन और नवाज शरीफ को काफी प्रोत्साहन मिल सकता था। लेकिन यह तीसरा मौका था, जब निर्वाचित होने के बावजूद उनका कार्यकाल बीच में ही समाप्त कर दिया गया। इतिहास तो अब भी रचा गया, हालांकि यह इतिहास दूसरे किस्म का है।


28 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अयोग्य ठहराया जाना, सीधे तौर पर इस बात की याद दिलाता है कि पाकिस्तान को आज भी ‘आभासी सरकार’ (यानी डीप स्टेट) ही चला रही है और सरकार को अपदस्थ करने के लिए फौजी बगावत के अलावा और भी तरीके हो सकते हैं।


नवाज शरीफ की राजनीति

राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान द्वारा बेनजीर भुट्टो को दो साल से भी कम अर्से में प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किए जाने के बाद हुए मध्यावधि चुनावों में 1990 में नवाज शरीफ ने बतौर प्रधानमंत्री पहली बार पाकिस्तान की बागडोर संभाली थी। बेनजीर को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 58-2बी का सहारा लिया गया। संविधान में यह प्रावधान जनरल जिया उल हक ने शामिल किया था इसके तहत यदि राष्ट्रपति को ऐसा लगे कि निर्वाचित सरकार संविधान के अनुरूप कार्य नहीं कर रही है, तो उसे उक्त निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने, सदन को भंग करने और नए सिरे से चुनाव कराने का अधिकार है। राष्ट्रपति, पूर्व नौकरशाह से सीनेटर और उसके बाद निर्वाचित राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने वाले शख्स को मोटे तौर पर सत्ता का प्रतिनिधि या दूसरे शब्दों में कहें तो सेना का करीबी माना गया।

नवाज शरीफ के राजनीतिक करियर को 1980 के दशक में जनरल जिया के कार्यकाल के दौरान सेना की कृपा दृष्टि से प्रोत्साहन मिला। उनके परिवार के कारोबार (इत्तेफाक फाउन्ड्रीज)को प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के राष्ट्रीयकरण के अभियान के कारण नुकसान उठाना पड़ा था और वह उन युवा नेताओं में से शुमार थे,जिन्हें राजनीति के मैदान में उतारने के लिए चुन लिया गया था। वह पंजाब सूबे के गवर्नर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाम खान की सरपस्ती में पहले पहल 1982 में पंजाब सूबे के वित्त मंत्री और उसके बाद 1985 में मुख्यमंत्री बने।

बेनजीर भट्टो की बर्खास्तगी के बाद 1990 में हुए चुनाव में नवाज शरीफ का पीपीपी-विरोधी गठबंधन (आईजेआई) आईएसआई की सहायता से एकजुट हुआ। तीन साल से भी कम समय बाद सेना प्रमुख अब्दुल वहीद काकर (जिनको उन्होंने 1993 में जनरल आसिफ नवाज जंजुआ की अचानक मौत हो जाने पर नियुक्त किया था) के साथ उनके रिश्ते कमजोर पड़ने लगे। ‘डीप स्टेट’ के अंग राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान एक बार फिर बाध्य हो गए और उन्होंने मई 1993 में संविधान के उन्हीं प्रावधानों (अनुच्छेद 58-2बी) के अंतर्गत नवाज शरीफ को बर्खास्त दिया। शरीफ ने इसका विरोध किया और उस समय सुप्रीम कोर्ट ने एक अप्रत्याशित फैसला सुनाते हुए उनकी सरकार को बहाल कर दिया। सेना के लिए इसे बर्दाश्त करना मुश्किल था और इसलिए जनरल काकर ने एक समझौता किया, जिसके तहत प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार की बहाली हो गई तथा जुलाई 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान को पद छोड़ना पड़ा ।


बेनजीर भट्टो की बर्खास्तगी के बाद 1990 में हुए चुनाव में नवाज शरीफ का पीपीपी-विरोधी गठबंधन (आईजेआई) आईएसआई की सहायता से एकजुट हुआ ।


फरवरी 1997 में शरीफ दूसरी बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए। साल खत्म होने से पहले ही उन्होंने सेना प्रमुख (सीओएएस) जनरल जहांगीर करामात के कार्यकाल की अवधि घटाते हुए उन्हें हटा दिया और उनके स्थान पर जनरल परवेज मुशर्रफ को सेना प्रमुख बना दिया। 1998 के परमाणु परीक्षणों से उनकी लोकप्रियता बढ़ी। इससे उत्साहित होकर, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से की जा रही शांति पहल के लिए सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की, जो सेना के साथ उनके मतभेदों का कारण बनी। फरवरी, 1999 में की गई लाहौर शांति पहल को करगिल युद्ध से नाकाम कर दिया गया। अमेरिका के दबाव और चीन की सलाह पर पाकिस्तान की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। तब तक, जनरल मुशर्रफ और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के रिश्ते बुरी तरह बिगड़ चुके थे। शरीफ को इसका अहसास हो गया था और जनरल परवेज मुशर्रफ को बदलने का विफल प्रयास अक्टूबर 1999 के तख्तापलट के साथ उनकी बर्खास्तगी का कारण बना। नवाज शरीफ को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें ‘अपहरण, हत्या के प्रयास, विमान अपहरण, आतंकवाद और भ्रष्टाचार करने का दोषी ठहराया गया।’ सेना की अदालत द्वारा उनकी उम्रकैद को फांसी में बदले जाने की अफवाहों के बीच अमेरिका और सऊदी सरकारों ने हस्तक्षेप किया और शरीफ को कड़े वित्तीय जुर्माने और 20 साल तक राजनीति में भाग न लेने की शपथ ग्रहण करने के बाद निर्वासित होने की अनुमति मिल गई।

जनरल मुशर्रफ के पतन के बाद ही लोकतंत्र की बहाली संभव हो सकी तथा शरीफ और बेनजीर 2007 में निर्वासन समाप्त कर स्वदेश लौट सके। सऊदी सरकार ने यह राय प्रकट की कि यदि राष्ट्रपति मुशर्रफ चुनाव कराने की इजाजत दे रहे हैं, जिनमें बेनजीर भुट्टो भाग ले सकती हैं, तो यह अवसर नवाज शरीफ को भी दिया जाना चाहिए। 2008 में बेनजीर की हत्या के बाद पीपीपी राष्ट्रीय चुनाव जीत गई और शरीफ की पार्टी लोकतंत्र बहाली और राष्ट्रपति मुशर्रफ पर महाभियोग चलाने के प्रयासों के तहत कुछ अर्से के लिए पीपीपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो गई। आखिरकार, जून 2013 में, शरीफ तीसरी बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए।

जैसा कि अतीत में उन्होंने जनरल काकर और मुशर्रफ को चुना था, उसी तरह इस बार भी उन्होंने नवम्बर 2013 में जनरल रहील शरीफ को सेना प्रमुख नियुक्त किया। हालांकि उनके बीच मतभेद जल्दी ही उभर आए। वह मुशर्रफ पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाना चाहते थे, लेकिन सेना ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। बाद में उन्होंने सेना पर आरोप लगाया कि वह पंजाब में पीएमएल (एन) को कमजोर करने के उद्देश्य से इमरान की आंदोलनकारी राजनीति को बढ़ावा दे रही है। (पंजाब सबसे बड़ा सूबा है। 342 सदस्यों वाली नेशनल असेम्बली में 183 सीटे पंजाब सूबे में हैं)

तथाकथित ‘पनामागेट’ [i]’ का उस समय पर्दाफाश हो रहा था, जब अक्टूबर, 2006 में डॉनलीक्स [ii] घटना की वजह से सेना के साथ उनके रिश्ते बिगड़ गए। सेना ने इसके लिए नवाज शरीफ के कार्यालय को जिम्मेदार ठहराया (पनामागेट और डॉनलीक्स के बारे में इस लेख के आगे के खंडों में विस्तार से बताया गया है)शरीफ के विश्वासपात्र सूचना मंत्री परवेज राशिद ने इसका जिम्मा लेते हुए इस्तीफा दे दिया। लम्बी जांच के बाद, उनके सलाहकार तारिक फातिमी को भी जाना पड़ा। 2015 में, भारत और अफगानिस्तान के संबंधित नीति के बारे में मतभेद गहरा गए। नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से अचानक की गई 25 दिसम्बर, 2015 की लाहौर यात्रा की भी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई। पठानकोट हमले की जांच में सहयोग करने की उनकी इच्छा का सेना ने सफलतापूर्वक विरोध किया। सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल जांजुआ को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाए जाने पर, अजीज का ओहदा कम करते हुए उन्हें विदेश नीति सलाहकार बना दिया गया। हर हालत में, अफगानिस्तान और भारत से संबंधित नीतियां परम्परागत तौर पर सेना का अधिकारक्षेत्र रही हैं।

नवाज शरीफ 2018 के चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के अंतर्गत आने वाली योजनाओं का श्रेय भी लेना चाहते थे। नवम्बर 2016 में, उन्होंने जनरल शरीफ के सेवानिवृत्त होने के बाद जनरल कमर जावेद बाजवा को सीओएएस नियुक्त किया। लेकिन इससे भी कुछ मदद नहीं मिल सकी और सेना के साथ उनके मतभेद बढ़ते चले गए। 2018 में लगातार दूसरी बार निर्वाचित होने से नवाज शरीफ काफी मजबूत स्थिति में पहुंच जाते। वह ऐसी नीतियां बना सकते थे, जो सेना के लिए सहज नहीं होतीं। इसी पृष्ठभूमि में पनामागेट मुकद्दमे शुरू हुए।

पनामागेट

खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईसीआईजे) ने 3 अप्रैल 2016 को पनामा की कानूनी कम्पनी मोसेक फोन्सेका की ओर से मिले 11.5 मिलियन दस्तावेज जारी किए। इन दस्तावेजों में शामिल सूचना अधिवक्ता-मुवक्किल गोपनीयता के अधिकार के दायरे में आती है। यह सूचना करीब 214,488 विदेशी कम्पनियों और दुनिया भर के बैंक खातों से संबंधित है। इनमें से आठ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, उनके पुत्रों हसन और हुसैन तथा उनकी पुत्री और राजनीतिक उत्तराधिकारी मरियम से संबंधित हैं। इन फाइलों में शरीफ परिवार द्वारा 1990 के दशक में लंदन के नाइट्सब्रिज क्षेत्र में खरीदी गई चार सम्पत्तियों की जानकारी दी गई है — यह बात पाकिस्तान में शायद ही किसी से छुपी हो। इस बात के सामने आने के फौरन बाद विपक्षी नेता इमरान खान (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) ने इसे ‘पनामागेट’ का नाम देते हुए प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की। उन्होंने इसकी जांच के लिए एक अधिकारप्राप्त जांच आयोग के गठन की भी मांग की।


इन फाइलों [‘पनामागेट’] में शरीफ परिवार द्वारा 1990 के दशक में लंदन के नाइट्सब्रिज क्षेत्र में खरीदी गई चार सम्पत्तियों की जानकारी दी गई है — यह बात पाकिस्तान में शायद ही किसी से छुपी हो।


प्रधानमंत्री नवाज शरीफ एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग का गठन करने पर सहमत हो गए। उसके बाद यह मांग रखी गई कि विचारणीय विषयों का प्रारूप विपक्ष से परामर्श करके तय किया जाए। 10 मई को सीओएएस जनरल रहील शेख ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात कर इस मामले को सुलझाने का अनुरोध किया। उनके हस्तक्षेप से इसे विश्वसनीयता मिली, क्योंकि सेना ने यह बात लीक कर दी कि छह से ज्यादा अधिकारियों (लेफ्टीनेंट जनरल, मेजर जनरल और तीन ब्रिगेडियर)को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया ​है। बाद में बर्खास्त किए गए दो लेफ्टिनेंट जनरलों की पहचान लेफ्टिनेंट जनरल ओबेदुल्लाह और मेजर जनरल एजाज शाहिद के रूप में की गई, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप फ्रंटियर कोर में उनके कार्यकाल से संबंधित थे। इसके अलावा छह जेसीओ भी बर्खास्त कर दिए गए। इस खबर की किसी ने आधिकारिक पुष्टि तो नहीं की, यह बड़े पैमाने पर प्रसारित की गई। यह खबर सीओएएस के इस वक्तव्य के साथ आई, “पाकिस्तान की एकजुटता, अखंडता और खुशहाली के लिए सभी जगह जवाबदेही आवश्यक है,” साथ ही उन्होंने चेतावनी भी दी कि “जब तक भ्रष्टाचार को जड़ से नहीं उखाड़ फेंका जाता” तब तक आतंकवाद के खिलाफ जंग तब तक जीती नहीं जा सकती। मीडिया ने सेना की ओर से उठाए गए इस कदम की सराहना की और यह सुझाव भी दिया कि न्यायपालिका राजनीतिक नेताओं की जवाबदेही इसी तरह सुनिश्चित करे।

बढ़ते विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए सरकार 18 मई 2016 को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले न्यायिक आयोग के विचारणीय विषयों को अंतिम रूप देने के लिए संयुक्त समिति का समिति का गठन करने पर राजी हो गई। इसबीच, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ दिल का ऑपरेशन कराने के लिए छह हफ्तों के लिए लंदन चले गए। शरीफ के 9 जुलाई को पाकिस्तान लौटने पर विचारणीय विषयों के बारे में संयुक्त समिति में चर्चा जारी होने के बावजूद इमरान खान ने इसमें निहित जोखिमों का मामला उठाया। सितम्बर में, शरीफ ने देशव्यापी प्रदर्शनों का आह्वान किया, जिन्हें 30 अक्टूबर से इस्लामाबाद में जमा होकर राजधानी में अनिश्चितकालीन बंद कराना था। इसके जवाब में सरकार ने धारा 144 लगाकर टकराव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। [iii]

ये विरोध प्रदर्शन 2014 के विरोध प्रदर्शनों के ही समान थे, जब इमरान खान ने 2013 के आम चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगाते हुए और नवाज शरीफ से गद्दी छोड़ने की मांग करते हुए 14 अगस्त को लाहौर से आजादी मार्च निकाला था। इसमें इमरान को खान को मौलवी से राजनीतिज्ञ बने डॉ. ताहिरुल कादरी (पाकिस्तान आवामी तहरीक) का साथ मिला था, जो उस समय कनाडा से लौटे ही थे। उन दोनों ने इस्लामाबाद में संसद और सरकारी परिसर के निकट तब तक धरना देने की योजना बनाई थी, जब तक सरकार झुक न जाए। हफ्ते भर के भीतर, प्रदर्शनकारी इस्लामाबाद के ब्ल्यू जोन में जमा होने लगे। हालांकि जल्द ही यह साफ हो गया कि प्रदर्शनों के प्रति जनता की हमदर्दी घट रही है। पीटीआई के वरिष्ठ नेता जावेद हाशमी, इमरान खान पर सेना के इशारों पर काम करने का आरोप लगाते हुए उनसे अलग हो गए। मीडिया ने इसे “सॉफ्ट कू” का नाम दिया, जबकि सेना पीछे हट गई और उनसे ‘संयम’ और ‘संवाद’ का अनुरोध करने लगी। 2014 का धरना 120 दिन तक चला और 14 दिसम्बर को पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए आतंकवादी हमले के बाद इमरान खान ने आखिरकार इसे वापस ले लिया। इस हमले में 150 से ज्यादा बच्चे मारे गए थे। यह बाजी संभवत: प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने जीती।


ये विरोध प्रदर्शन 2014 के विरोध प्रदर्शनों के ही समान थे, जब इमरान खान ने 2013 के आम चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगाते हुए और नवाज शरीफ से गद्दी छोड़ने की मांग करते हुए 14 अगस्त को लाहौर से आजादी मार्च निकाला था।


शरीफ की सफलता का कुल मिलाकर यही कारण था कि असैन्य गुप्तचर एजेंसी (एफआईए) को इस बात के सबूत मिल गए थे कि आईएसआई के डीजी लेफ्टिनेंट जनरल जहीर-उल-इस्लाम ने सरकार को बदनाम करने के लिए पीटीआई प्रदर्शनकारियों के साथ साठगांठ की थी। सीओएएस जनरल रहील शरीफ की स्थिति अलग थी। उन्हें सेना को डीजी (आईएसआई) के कार्यों से अलग करना पड़ा,लेकिन इस बीच उन्होंने यह भी सुनिश्चित कर लिया कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ जनरल मुशर्रफ को अपमानित न कर पाएं और उन्हें अपनी मर्जी से निर्वासन पर जाने दें। डीजी आईएसआई को हटा दिया गया। सऊदी सरकार ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया, इस बार उसने सेना का समर्थन किया और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को 1999 के उनके आईओयू की याद दिलायी।

इस बार 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान के आह्वान के कारण उत्पन्न स्थिति को सामान्य बनाने के लिए हस्तक्षेप किया और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार के आधार पर अयोग्य करार देने की मांग से संबंधित विपक्षी राजनीतिज्ञों की याचिकाओं की सुनवाई के लिए 28 अक्टूबर को पांच सदस्यीय बेंच के गठन की घोषणा की। इससे इमरान खान को प्रतिष्ठा बचाने का मौका मिल गया और उन्होंने विरोध प्रदर्शन वापस ले लिया। 1 नवम्बर को, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और विपक्ष दोनों से बेंच को विचारणीय विषयों के दो सेट उपलब्ध कराने को कहा। जनवरी 2017 में मुख्य न्यायाधीश जहीर जमाली के सेवानिवृत्त होने पर पांच सदस्यीय बेंच का पुनर्गठन किया गया और इसकी सुनवाई 23 फरवरी को पूरी हुई।

इस साल 20 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने 540 पृष्ठों का बंटा हुआ फैसला सुनाया। पीठ के दो न्यायाधीशों का मानना था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अयोग्य ठहराया जाना चाहिए। जस्टिस आसिफ सईद खान खोसा ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए फिल्म ‘द गॉडफादर’ को उद्धृत करते हुए कहा — “प्रत्येक अथाह संपत्ति के पीछे कोई अपराध होता है” जस्टिस खोसा पूर्व चीफ जस्टिस नसीम हसन शाह (जिन्होंने मई 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान द्वारा बर्खास्त की गई नवाज शरीफ सरकार को बहाल किया था और उससे पहले बेंच के नव निर्वाचित सदस्य होने के नाते जस्टिस शाह ने बहुमत से लिए गए जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के फैसले को सही ठहराया था) के दामाद हैं और वह 2018 के आरंभ में चीफ जस्टिस बन सकते हैं। उनका समर्थन जस्टिस गुलजार अहमद ने किया। इसके विपरीत जस्टिस एजाज अफजल, शेख अजमत सईद और इजाज-उल-अहसान ने प्रस्तुत किए गए सबूतों को नाकाफी पाया और इस मामले की पड़ताल के लिए छह सदस्यीय संयुक्त जांच दल (जेआईटी) की स्थापना करने और 60 दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट दाखिल करने का सिफारिश की।

जेआईटी की स्थापना पाकिस्तान के न्यायिक इतिहास का अभूतपूर्व कदम था। इस बंटे हुए फैसले के परिणाम की कुछ लोगों ने सराहना की, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वंतत्रता प्रदर्शित हुई थी। आखिरकार ऐसा पहली बार हो रहा था, जब जांच प्रधानमंत्री के पद पर आसीन व्यक्ति के खिलाफ की जा रही थी। पीटीआई और पीएमएल (एन) दोनों ने ही बंटे हुए फैसले को अपनी जीत घोषित किया और जेआईटी का स्वागत किया, हालांकि कुछ लोगों ने आगाह किया कि अंतत: इसका विश्लेषण प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को कमजोर करेगा, क्योंकि उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को बार-बार जेआईटी के समक्ष पेश होना पड़ेगा। सुनियोजित रूप से लीक की गई बातों के परिणामस्वरूप मीडिया ट्रायल शुरू हो गया। छह सदस्यों वाली जेआईटी में संघीय जांच एजेंसी, राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो, स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान, सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमिशन ऑफ पाकिस्तान और दिलचस्प रूप से आईएसआई और सैन्य गुप्तचर सेवा का एक-एक अधिकारी शामिल था। जेआईटी की अध्यक्षता एफआईए के एडिशनल डायरेक्टर जनरल वाजिद जिया ने की। ब्रिगेडियर नौमान सईद (आईएसआई) और ब्रिगेडियर कामरान खुर्शीद(एमआई) दो सैन्य अधिकारी थे। यही दोनों अधिकारी कुछ महीने पहले के डॉनलीक्स मामले से संबंधित जांच दल का भी हिस्सा थे, इस टीम ने इन लीक्स के लिए प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के कार्यालय को जिम्मेदार ठहराया था।


जेआईटी की स्थापना पाकिस्तान के न्यायिक इतिहास का अभूतपूर्व कदम था। इस बंटे हुए फैसले के परिणाम की कुछ लोगों ने सराहना की, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वंतत्रता प्रदर्शित हुई थी।


दस — संस्करणों वाली यह रिपोर्ट 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई। इस रिपोर्ट में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और यूके में विदेशी कम्पनियों के साथ कर्ज और उपहारों के रूप में बड़ी मात्रा में धन के अनियमित लेन-देन की बात को रेखांकित किया गया था। इसमें पहले के अनेक मामलों को दोबारा खोलने की सिफारिश की गई थी और नए सिरे से जांच पड़ताल शुरू की गई थी, क्योंकि भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में किसी निर्णायक फैसले तक नहीं पहुंचा जा सका था। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फिर से कार्रवाई शुरू की और इस बार वह प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और वित्त मंत्री इस्हाक डार (जिनके पुत्र ने नवाज शरीफ की दूसरी बेटी के साथ निकाह किया है) को अयोग्य ठहराने के सर्वसम्मत फैसले पर पहुंची। इस बेंच ने राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) को दोनों के खिलाफ तथा हसन, हुसैन, मरियम और उनके ​पति कैप्टेन सफदर के खिलाफ मामले शुरू करने का निर्देश दिया। इसके अलावा, एनएबी को अगले साल के चुनावों से पहले-पहले छह महीने के भीतर अपना काम पूरा करना है।

न्यायिक तख्ता पलट

विडम्बना तो यह है कि सभी तरह की जांच के बाद, अयोग्य ठहराए जाने का फैसला दरअसल तकनीकी आधार पर लिया गया था। पांच सदस्यों वाली बेंच ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को संविधान के अनुच्छेद 62 का उल्लंघन करने के लिए अयोग्य ठहराया। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि “पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली का प्रत्येक सदस्य बुद्धिमान, सदाचारी और चरित्रवान, ईमानदार (सादिक) और खरा (अमीन) होना चाहिए।” नवाज शरीफ आखिरी दो मापदंडों पर नाकाम रहे । उन्हें जन प्रतिनिधित्व कानून के उल्लंघन करने वाला भी माना गया, जो निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता का प्रावधान करता है। अन्य बातों के अलावा, इस कानून के अंतर्गत यह अपेक्षा की जाती है कि उम्मीदवार का “चरित्र अच्छा हो और उसे आमतौर पर शरिया आदेशों का उल्लंघन करने वाला न माना जाए। उसे इस्लामिक शिक्षाओं का ज्ञान हो और वह इस्लाम द्वारा निर्धारित बाध्यकारी कर्तव्यों का पालन करने वाला हो।” संयोग से अनुच्छेद 62 और 63 जनरल जिया ने 1985 में शमिल किए थे।

यह फैसला जेआईटी की इस खोज पर आधारित था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ शारजाह की एक कम्पनी एफजेडई के 7 अगस्त 2006 से लेकर 20 अप्रैल 2014 तक अध्यक्ष रहे हैं और 10000 दिरहम मासिक मेहनताना लेते रहे हैं। शरीफ ने 2013 के चुनावों के लिए अपनी सम्पत्ति की घोषणा करते समय इसकी जानकारी नहीं दी थी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने नवाज शरीफ को “ईमानदार और खरा” नहीं माना और इसलिए उन्हें नेशनल असेम्बली का सदस्य होने के लिए “अयोग्य” करार दे दिया। बचाव पक्ष के वकीलों ने कहा कि यह कम्पनी उनके पुत्र हसन की है और नवाज शरीफ ने कभी भी उस कम्पनी से मेहनताना नहीं लिया और वह मेहनताना “काल्पनिक” था और वास्तव में वीजा के लिए ​था, जब नवाज शरीफ 1999 और 2008 के बीच संयुक्त अरब अमीरात में​ राजनीतिक तौर पर निर्वासित जीवन बिता रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या अलग ढंग से की, वह राशि तकनीकी रूप से “प्राप्त किए जाने योग्य” थी और इसलिए वह “सम्पत्ति” थी औैर उसकी घोषणा की जानी चाहिए थी। स्पष्ट तौर पर, यह फैसला पहले ही लिया जा चुका था और मुकद्दमा खत्म होने पर केवल सजा ही सुनाई गई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि एनएबी मनी लॉन्ड्रिग और भ्रष्टाचार से संबंधित बहुत से खुलासे कर सकता है जिनके लिए जेल और जुर्माना लगाया जा सकता है। फिलहाल शरीफ को एक्जिट कंट्रोल लिस्ट में रखा गया है, जिसके तहत एनएबी की कार्यवाही पूरी होने तक उनके देश से बाहर जाने पर रोक है। सुप्रीम कोर्ट ने एनएबी को लंदन की सम्पत्तियों, अजीजिया स्टील्स, हिल मेट एस्टेब्लिशमेंट्स और 16 अन्य विदेशी कम्पनियों के बारे में संदर्भ दाखिल करने का निर्देश दिया है। पूर्व वित्त मंत्री के खिलाफ आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक सम्पत्ति का मामला है। पांच सदस्यीय बेंच के सदस्य जस्टिस इजाज-उल-अहसान को एनएबी की प्रक्रिया पर निगरानी रखने का जिम्मा सौंपा गया है। एनएबी ने गोपनीय संस्करण 10 सहित जेआईटी रिपोर्ट मांगी है, जिसमें यूएई, यूके, सऊदी अरब, स्विट्जरलैंड, लक्जमबर्ग और ब्रिटिश वर्जिनिया द्वीप प्रशासन से जेआईटी द्वारा मांगी गई परस्पर कानूनी सहायता का ब्यौरा शामिल है।

हालांकि यह स्पष्ट हो चुका है कि नवाज शरीफ इसका मुकाबला करेंगे और उनकी विरासत दांव पर है। यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी अयोग्यता स्थायी है या सीमित अवधि के लिए है, इसलिए पूरी तरह अनिश्चितता बनी हुई है। जनरल जिया द्वारा शामिल किया गया अनुच्छेद 63, निर्वाचित सदस्य को “न्यायालय की अवमानना” (2012 में प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को बर्खास्त करने के लिए इसी धारा का इस्तेमाल किया गया था।) के लिए पांच साल के लिए अयोग्य ठहराने का प्रावधान करता है, लेकिन अनुच्छेद 62 किसी तरह की समय-सीमा नहीं निर्धारित करता। नवाज शरीफ को वर्तमान में पाकिस्तान के सबसे धनी लोगों में से एक माना जाता है। उनकी निजी सम्पत्ति 1.4 बिलियन डॉलर होने का अनुमान है। परिवार में किसी भी तरह की फूट से असहज खुलासे हो सकते हैं, जो सम्पत्ति को खतरे में डाल सकते हैं, इसलिए उन्हें पूरे परिवार को एकजुट रखने की जरूरत है।

पूर्व पेट्रोलियम मंत्री शाहिद खाकान अब्बासी को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के अंदाज से शरीफ की राजनीतिक सूझबूझ का प्रमाण मिलता है। शुरूआत में सुझाव दिया गया था कि अब्बास केवल 45 दिनों के प्रधामंत्री रहेंगे, जबकि नवाज शरीफ के छोटे भाई शाहबाज शरीफ पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देंगे, नेशनल असेम्बली के लिए निर्वाचित होंगे और प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। इस तरह अब्बासी की तरक्की को स्वीकार कर लिया, क्योंकि इसे अल्प अवधि की नियुक्ति माना गया।


पूर्व पेट्रोलियम मंत्री शाहिद खाकान अब्बासी को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के अंदाज से शरीफ की राजनीतिक सूझबूझ का प्रमाण मिलता है।


अब्बासी भी उद्यमी हैं, जो उस समय अमेरिका में काम कर रहे थे, जब उनके पिता एयर कोमोडोर (सेवानिवृत्त) खाकान अब्बासी — जो जनरल जिया की कैबिनेट में मंत्री थे, अप्रैल 1988 में रावलपिंडी और इस्लामाबाद के बीच अपनी कार से रॉकेट टकराने से मारे गए थे, ओझरी आयुध डिपो को जला दिया गया था, जिसके कारण छह घंटे तक विनाशकारी विस्फोट होते रहे थे। बाद में अब्बासी पीआईए के अध्यक्ष बन गए और 2003 में उन्होंने पाकिस्तान की सबसे बड़ी निजी एयरलाइन्स एयर ब्ल्यू की स्थापना की। उन्हें नवाज का वफादार माना जाता है।

शहबाज शरीफ का पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री के रूप में यह तीसरा कार्यकाल है। उनका पहला कार्यकाल 1997-1999 के दौरान था, उस समय उनके बड़े भाई नवाज शरीफ का बतौर प्रधानमंत्री दूसरा कार्यकाल था। वह भी 1999 में पाकिस्तान से निर्वासित हो गए थे और 2007 में वापस लौटे। बतौर मुख्यमंत्री उनका दूसरा कार्यकाल 2008 से 2013 तक रहा, जब पीपीपी ने राष्ट्रीय चुनावों में जीत हासिल की थी। वह 2013 में पुनर्निर्वाचित हुए और उन्हें कुल मिलाकर सक्षम प्रशासक के रूप में देखा जाता है, जिनके सेना के साथ अच्छे तालुकात हैं। हालांकि वे पनामागेट घोटोले से दूर रहे हैं, लेकिन हुदायबिया पेपर मिल्स मामले को लेकर वह सवालों के घेरे में हैं। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया है कि पंजाब शरीफ का गढ़ बना रहे। उनके इस्लामाबाद का रुख करने की खबरों के बीच, इस बारे में भी अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि लाहौर की जिम्मेदारी कौन संभालेगा। ऐसी चर्चाएं भी थीं कि शहबाज के पुत्र हमजा, जो प्रांतीय असेम्बली के सदस्य भी हैं, सूबे के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो सकते हैं। नवाज इसे लेकर चिंतित थे, क्योंकि इसका मतलब सत्ता की कमान निर्णायक तौर पर शरीफ परिवार की दूसरी शाखा के पास चले जाना होगा। जल्द ही ऐसी अफवाहें फैलने लगीं कि पंजाब के वरिष्ठ मंत्री हमजा को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर नाखुश हैं, साथ ही ऐसी खबरें भी आने लगीं कि पीएमएल (एन) के सदस्य चाहते हैं कि शहबाज लाहौर में ही रहें और 2018 के चुनावों के लिए शरीफ के गढ़ को संभाल कर रखें। यह चिंता वाजिब थी। इसके अलावा, शहबाज सेना के साथ संपर्क बनाए रखने की दृष्टि से एक भरोसेमंद वार्ताकार हैं, यह बेहद महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन यदि वह इस्लामाबाद चले गए, तो वह ऐसा नहीं कर पाएंगे। 342 सदस्यों वाली नेशनल असेम्बली में 209 सीटे जीतने वाली पीएमएल (एन)जब तक परिवार के पीछे एकजुट है, तब तक नवाज शरीफ इस्लामाबाद में अहम पहल कर सकते हैं। शहबाज को केंद्र में लाना अब टल चुका है और चुनाव होने तक अब्बासी के ही प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की संभावना है। नवाज शरीफ के चुतर दावपेंचों ने अब्बासी का विरोध मंद पड़ना सुनिश्चित कर दिया है। अब्बासी के इस पद पर बने रहने का एक अन्य संकेत कैबिनेट का विस्तार है, ताकि सभी गुटों को हितधारक बनाना सुनिश्चित किया जा सके।


नवाज शरीफ के चुतर दावपेंचों ने अब्बासी का विरोध मंद पड़ना सुनिश्चित कर दिया है।


पूर्व गृह मंत्री चौधरी निसार अली ने फैसला आने से एक दिन पहले ही हटने की ​घोषणा कर दी थी। गृहमंत्री के तौर पर वह नवाज शरीफ के करीबी ही नहीं थे, बल्कि अक्सर वह सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ उनके प्रतिनिधि के तौर पर भी होते थे । हाल के महीनों में वह इस बात से बेहद खफा थे कि उन्हें पनामागेट मामले में बचाव की योजना बना रहे सलाहकारों के समूह से अलग रखा गया। मरियम शरीफ के साथ उनके मतभेद की खबरें भी सामने आईं। उन्होंने अपने भविष्य के योजनाओं के बारे में मुंह नहीं खोला है। अगर शहबाज शरीफ की पत्नी तहमिना दुर्रानी के ट्वीट्स को संकेत माना जाए, तो शरीफ के घर में नाराजगी होने की अफवाहे हैं। नवाज की पत्नी कुलसूम शरीफ ने लाहौर में खानदान की सीट-एनए-120 के उपचुनाव में नामांकन दाखिल किया था। [iv] फिलहाल नवाज शरीफ लाहौर और इस्लामाबाद को अपने नियंत्रण में रखने में कामयाब रहे, लेकिन अगले साल होने वाले चुनावों से पहले आने वाले महीनों में सत्ता यकीनन उनकी पकड़ को कमजोर बनाने की कोशिश करेगी।

बुनियादी मतभेद

‘डीप स्टेट’ हमेशा किंग्स पार्टी के साथ काम करती है और पाकिस्तान में हमेशा ऐसे राजनीतिज्ञ रहे हैं, जो होने के इच्छुक रहे हैं। यह परम्परा 1950 से चली आ रही है, जब जनरल अयूब खान ने रिपलब्किल पार्टी की स्थापना के लिए प्रोत्साहन दिया था, जो कुछ साल बाद मुकाबले के लिए तैयार हो गयी। जनरल मुशर्रफ ने शरीफ के निर्वासन के समय, पंजाब को उनसे अलग करने के लिए चौधरी शुजात हुसैन को पीएमएल (क्यू) बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। 1980 के दशक में जनरल जिया ने पीर पगारा की अगुवाई में पीएमएल (एफ) के गठन में सहायता की और बाद में नवाज शरीफ ने खुद भी सत्ता से लाभ उठाया। शरीफ के निर्वासन से लौटने पर पीएमएल (एन) की स्थिति पंजाब में इस समझ के साथ मजबूत हो सकी कि शहबाज सूबे को संभालेंगे, जबकि बड़े भाई नवाज का लक्ष्य इस्लामाबाद होगा। इसीलिए 2008 में जब पीपीपी ने कुछ हद तक चुनावों से चंद हफ्ते पहले हुई बेनजीर भुट्टो की निर्मम हत्या के कारण उपजी सहानुभूति की वजह से राष्ट्रीय चुनावों में जीत हासिल की, तो शहबाज पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री बन गए, जबकि नवाज शरीफ कुछ समय तक गठबंधन में रहने के बाद नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गए। इस रणनीति का लाभ 2013 में मिला, नवाज शरीफ ने जबरदस्त जीत हासिल करते हुए तीसरी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का पद संभाला।जैसे-जैसे सेना के साथ उनके रिश्ते खराब होते गए, इमरान खान की पीटीआई किंग्स पार्टी की भूमिका में आती गई। वैसे इमरान खान भी सुप्रीम कोर्ट की जांच के घेरे में हैं और हाल ही में उनका नाम एक विवाद में घसीटा गया है। इमरान की पार्टी की ही सांसद आयशा गुलाली खान ने उन पर अश्लील मैसेज भेजकर उन्हें प्रताड़ित करने का आरोप लगाया है । आयशा इस्तीफा दे चुकी हैं, हालांकि अब तक आरोप निर्धारित नहीं किए गए हैं। संसद में इस मामले में जांच समिति गठित किए जाने की मांग उठाई गई है।


‘डीप स्टेट’ हमेशा किंग्स पार्टी के साथ काम करती है और पाकिस्तान में हमेशा ऐसे राजनीतिज्ञ रहे हैं, जो होने के इच्छुक रहे हैं। यह परम्परा 1950 से चली आ रही है, जब जनरल अयूब खान ने रिपलब्किल पार्टी की स्थापना के लिए प्रोत्साहन दिया था, जो कुछ साल बाद मुकाबले के लिए तैयार हो गयी। 


पाकिस्तान में न्यायपालिका ने भी कुछ उल्लेखनीय अपवादों के अलावा सेना के अधिपत्य को स्वीकार किया है। सुप्रीम कोर्ट ने जनरल अयूब खान की बगावत को ‘क्रांति’ का कानूनी जामा पहनाया और बाद में जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ की बगावत को उचित ठहराने के लिए ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ का उपयोग किया गया। भुट्टो की फांसी के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दी थी, हालांकि बेंच का यह फैसला 4/3 में बंटा हुआ था। 1980 के दशक के दौरान जुनेजो सरकार की बर्खास्तगी को सफलतापूर्वक चुनौती दी गई और इस फैसले को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद उनकी सरकार बहाल नहीं की गई। यह फैसला जनरल जिया की मौत के बाद आया। इस रिकॉर्ड को देखते हुए यह स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का नवाज शरीफ की सरकार को बहाल करने का 1993 का फैसला स्थापित पद्धति से हटने जैसा था।

इस बार, आईएसआई और मिलिट्री इंटेलिजेंस के प्रतिनिधियों, जिनमें से किसी को भी वित्तीय मामलों के बारे में कोई विशेषज्ञता प्राप्त नहीं थी, को शामिल करके किए गए जेआईटी के गठन से स्पष्ट हो गया था कि इसका फैसला क्या आने वाला है। इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादा प्रभावशाली और तर्कसंगत बचाव से नवाज शरीफ को मदद मिल सकती थी, लेकिन इससे परिणाम में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था।

विडम्बना तो यह है कि संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 को हटाने का अवसर 2010 में आया भी था, लेकिन नवाज शरीफ अपने इस्लामी साझेदारों के विरोध के कारण ऐसा नहीं करना चाहते थे। उस समय, दोनों पक्षों की इच्छा पाकिस्तान के फौजी तानाशाहों द्वारा शुरू किए गए कुछ प्रावधानों को समाप्त करने की थी। 2010 में किये गए 18वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद 58(2) को समाप्त कर दिया गया, जिसे जनरल जिया ने 1973 में आठवें संशोधन के रूप में शामिल किया था। इस अनुच्छेद का इस्तेमाल 1990 में बेनजीर सरकार और 1993 में नवाज शरीफ सरकार की बर्खास्तगी सहित अनेक सरकारों का तख्ता पलट करने की कोशिशों में किया गया था। इत्तेफाक से 1997 में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान इसे (13वां संविधान संशोधन) रद्द कर दिया था, लेकिन जनरल मुशर्रफ ने 1999 में तख्ता पलट के बाद इसे दोबारा शामिल (17वां संविधान संशोधन) कर लिया था।

अयोग्य ठहराए जाने के बाद, नवाज शरीफ ने अगस्त में सड़क मार्ग से लाहौर तक जीटी रोड के साथ-साथ 280 किलोमीटर की यात्रा शुरू की। बीच-बीच में पीएमएल (एन) की राजनीतिक रैलियां की गईं। यह इलाका उनका राजनीतिक गढ़ है और उन्होंने इसका इस्तेमाल धीमी रफ्तार से घर लौटते हुए अपने लिए समर्थन जुटाने में किया। वे अपने भाषणों में खुले आम न्यायपालिका और सेना की आलोचना करते रहे हैं, गंभीर मुकाबले की तैयारी हो चुकी है। उनके प्रचार का उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि उन्हें अयोग्य ठहराया जाना “उनके मत का अपमान करने” जैसा है। ऐसी संभावना है कि वह फैसलाबाद, मुल्तान जैसे शहरों में जुलूस निकालते हुए अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखेंगे। कुछ लोग इस कार्य को जान-बूझकर उकसाने का नाम दे रहे हैं।

नवाज शरीफ सहित, अन्य पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ भी अतीत में यह तकनीक अपना चुके हैं। उन्होंने 2009 में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की बहाली की मांग को लेकर लाहौर से इस्लामाबाद तक जुलूस निकाला था। जस्टिस चौधरी को जनरल मुर्शरफ ने बर्खास्त किया था। राष्ट्रपति जरदरी ने उन्हें उनकी बहाली का वादा किया था, लेकिन वह ढुलमुल रवैया अपना रहे थे। तभी नवाज शरीफ ने अपनी मांग को पुख्ता तौर पर उठाते हुए वकीलों के जुलूस का नेतृत्व किया था। इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए यात्रा के आधे मार्ग तक जनरल अशफाक कयानी ने भूमिका निभाई और नवाज शरीफ को इसमें कामयाबी मिली जब राष्ट्रपति जरदारी की स्थिति कमजोर हुई।

1990 के दशक के दौरान, बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ दोनों ने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए ऐसी ही तरकीबें आजमाईं और सत्ता ने तत्कालीन सरकार को अपदस्थ करने के लिए हमेशा इसमें दखल दिया। इतना ही नहीं नये प्रधानमंत्री का निर्वाचन “लोकतंत्र फल-फूल रहा है” जैसी खबरों के बीच हुआ। कई बार सेना को स्थिति के संभलने तक किसी बाहरी व्यक्ति को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाना भी सहज लगा (उदाहरण के लिए, विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष मोइन कुरैशी जुलाई-अक्टूबर 1993 तक, सिटी बैंक के पूर्व एक्जीक्यूटिव शौकत अजीज को जनरल मुशर्रफ 1999 में वित्त मंत्री के तौर पर लेकर आए और बाद में उनके पीएमएल (क्यू)में शामिल होने पर उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया 2004-2007 तक, सेवानिवृत्त शरिया जज मीर हजार खान खोसो को मार्च से जून 2013 तक)। इमरान खान ने भी नवाज शरीफ को कमजोर करने के लिए 2014 में यही जांची-परखी तकनीक अपनाई और 2016 में दोबारा ऐसा किया जिसका निर्णायक नतीजा सामने आया।

सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने का उपाय भले ही लोकतंत्र और जनता की आवाज को मजबूती देने के नाम पर किया गया हो, लेकिन आखिरकार इससे सत्ता, सत्ता के गैर निर्वाचित केंद्र, सेना और अब न्यायपालिका ही मजबूत हुई। नवाज शरीफ के नए आंदोलन के साथ नई समस्या यह है कि हर कोई इस बात से वाकिफ है कि वह अपनी स्पष्ट तौर पर अपनी विरासत बचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं, खासतौर पर तब, जबकि उनकी बेटी और राजनीतिक उत्तराधिकारी मरियम को निशाना बनाया जा रहा है। यदि परिवार में मनमुटाव या पार्टी में दरार है, तो उनका खेल खत्म हो जाएगा। नवाज शरीफ के लिए यह उनके पिछले राजनीतिक कदमों जैसा नहीं है, इस बार की लड़ाई वजूद बचाने के लिए लड़ी जा रही है।

पाकिस्तान में भले ही फौजी बगावत केवल तीन बार ही हुई हो, लेकिन वहां हर बार लम्बे अरसे तक सैनिक शासन रहने के कारण ‘डीप स्टेट’ का उदय हुआ। इसीलिए जरूरी नहीं है कि पाकिस्तान में तख्ता पलट केवल सेना ही करे, अन्य तंत्र भी कर सकते हैं। इस बार न्यायिक तख्ता पलट किया गया, मुकद्दमे से पहले ही फैसला हो चुका था। संविधान में कई ऐसे प्रावधान होते हैं जो सुविधाजनक होते हैं और लचीली न्यायपालिका ज्यादातर सहयोग की इच्छुक होती है। निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने की हर एक कार्रवाई को भले ही ‘जनता की इच्छा’ या ‘न्यायपालिका की आजादी’ के तौर पर दिखाया जाए, लेकिन आखिरकार इससे सेना ही मजबूत होती है। यह प्रबल सुरक्षा तंत्र को अपने लिए निर्णायक भूमिका प्राप्त करने के लिए सुविधाजनक तरीके से जोड़-तोड़ का अवसर देती है, ताकि दूसरों को भ्रष्टाचार या इस्लाम-विरोधी होने के आरोप से मुक्त किया जा सके। इसलिए सेना ने सिर्फ पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता ही नहीं, बल्कि उसकी वैचारिक सीमाओं की भी हिफाजत करने का ही लबादा ओढ़ा है।

इस्लाम एक धर्म है और राजनीतिक धर्म केवल धर्म-आधारित राष्ट्र की रचना करता है। पाकिस्तान के मामले में, इस धर्म आधारित राष्ट्र की रचना करने के लिए, उसे अपनी सभ्यता और संस्कृति से संबंधित जड़ों को लगातार नकारना होगा। यह जड़विहीनता कट्टरपंथ के उदय के लिए उचित आधार तैयार करती है। यही बुनियादी मतभेद पाकिस्तान की पूरी राज्यव्यवस्था में मौजूद हैं। यह अपनी ‘डीप स्टेट’ को भी कायम और सुरक्षित रखता है। इसीलिए 70 साल बाद भी पाकिस्तान आंतरिक तौर पर संघर्षों से जूझता रहा है और अपने दोनों पड़ोसी देशों भारत या अफगानिस्तान के साथ सामान्य रिश्ते बनाने में नाकाम रहा है, जिनके साथ वह अपनी सबसे लम्बी सीमाएं साझा करता है।

हाल की रैलियों में, प्रशासन ने देखा है कि पंजाब पर अब तक नवाज शरीफ की राजनीतिक पकड़ मौजूद है। उसे जवाब देने की कोई जल्दी नहीं है, क्योंकि समय उसके हक में है। एनएबी की प्रक्रिया धीरे-धीरे आगे बढ़ेगी और उसकी प्रगति को क्रमबद्ध किया जा सकता है। इस बीच, शरीफ के परिवार और पीएमएल (एन) की अंदरूनी कमजोरियों की जांच की जाएगी और अफवाहें फैलाई जाएंगी। हालात नवाज शरीफ के खिलाफ दिखाई दे रहे हैं।


Endnotes

[i] ‘Panamagate’ refers to the legal case filed by political leader Imran Khan against PM Sharif in the Supreme Court following the disclosures in the Panama papers about linkages between certain offshore entities and the Sharif family members.

[ii] ‘Dawnleaks’ refers to a news report in the Dawn dated 6 October 2016 regarding a high-level meeting in which the civilian leadership warned the military that Pakistan would face international isolation unless the military acted against the militants. https://www.dawn.com/news/1288350

[iii] Section 144 refers to the legal provision under which the assembly of more than five persons is declared illegal if in the opinion of the magistrate, such an assembly will be a ‘disturbance of peace’ and create a ‘danger to human health, life and security’.

[iv] On 18 September, Begum Kulsoom Sharif was declared elected in the bye-election.

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