Author : Sunjoy Joshi

Published on Jun 15, 2018 Updated 0 Hours ago

हम अपनेको एक ऐसी मौक़ा परस्त दुनिया में पाते हैं जहाँ देश एक दुसरे से टकराव या सहयोग को मुद्देदर मुद्दे तौलने में लगे हैं, यानी à la carte सहयोग या टकराव की नीति, अपनी अपनी पसंद के मुताबिक मेन्यू चुनना।

दुनिया एक, खेमे अनेक

आज चारों तरफ़ लोगों के विचारों को सुनकर तो लगता है कि हमारी दुनिया अब दो खेमों में बंटी हुई नहीं रही — निश्चित तौर पर बाईपोलारिटी का अंत हो गया है, लेकिन फिर भी शोर वही है.. बाईपोलारिटी की जय, बाईपोलारिटी अमर रहे।

हम जानते हैं कि हम सब एक बेहद उलझी हुई दुनिया का हिस्सा हैं फिर भी इस कम्प्यूटर युग में शून्य और एक, हाँ या ना का खेल हमें लुभाता है, हमारे दिल और दिमाग पर ताक़त और सत्ता के दो ध्रुवों की सोच ही हावी हैं — मजबूरी है क्योंकि यही वह पटरी है जिस पर विचारों की बुलेट ट्रेन सबसे तेज़ी से भागती है। एक ऐसी दुनिया जो हमारे नेताओं और हमारे नज़रिए से गढ़ी जाती है — एक ऐसी दुनिया जो ट्विटर पर सियासी खींचतान और पाँच सेकंड की साउंड-बाइट से परिभाषित होती है। शून्य और एक, दोस्त या दुश्मन, देव और दानव की सीधी सरल कथाएँ हमें लुभाती हैं और उनके बीच पलीं पनपी साजिशें हमारी हकीकत बन जाती है।

एक पक्ष को अच्छा और दुसरे को बुरा बनाने , एक को खुश रखने और दुसरे को नीचा दिखा उस पर प्रतिबन्ध लगाने से सत्ता का प्रवाह आसान हो जता है।

लेकिन कथा मात्र में सिमटी सच्चाई ही इस द्वन्द को काल्पनिक और मनगढ़ंत भी बना देती है — कथाएँ जो एक मुल्क दूसरे पर नियंत्रण करने और उस पर अपनी ताकत का इस्तेमाल करने के मकसद से गढ़ते हैं।

एक ऐसी दुनिया जो हमारे नेताओं और हमारे नज़रिए से गढ़ी जाती है — एक ऐसी दुनिया जो ट्विटर पर सियासी खींचतान और पाँच सेकंड की साउंड-बाइट से परिभाषित होती है। शून्य और एक, दोस्त या दुश्मन, देव और दानव की सीधी सरल कथाएँ हमें लुभाती हैं और उनके बीच पलीं पनपी साजिशें हमारी हकीकत बन जाती है।

इसलिए शक्ति के दो ध्रुवों की अहमियत को समझना ज़रूरी है।

आज के दौर में बाइपोलर दुनिया की हमारी जो कल्पना है वो शीत युद्ध से प्रभावित है। शीत युद्ध के बाद जिस दो ध्रुवीय दुनिया की परिभाषा दी गई वो दुसरे विश्व युद्ध के बाद रूस और अमेरिका के बीच में बंटी दुनिया थी।

ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं की इस दो गुटीय संघर्ष के बीच, एक ज्यादा स्थाई और शायद ज्यादा खुशहाल और संतुष्ट दुनिया बन पाई थी। यही नहीं, कुछ को तो इसके फायदे पर इतना भरोसा है कि वो इसी पुराने टकराव में नई जान फूंकने के लिए हमेशा तत्पर दिखते हैं।

लेकिन दुनिया के विषय में हरेक का परिपेक्ष्य अथवा उसका सत्य, दोनों इस बात पर निर्भर करते है कि वह किसी चीज़ को कहाँ से निहार रहा है।

जो दुनिया को सीरिया या फिर यूक्रेन में हो रहे टकराव के नज़रिए से देख रहे हैं उनके लिए तो पिछली सदी वाले साठ सत्तर के दशकों के शीत युद्ध की यादें ताज़ा हो जाती हैं।

लेकिन अगर यहीं से दक्षिण, यमन की तरफ बढ़ते हैं तो इसी बाइपोलर दुनिया का मतलब और रंग दोनों बदल जाते हैं। शक्ति के ये दो केंद्र अब ईरान और सऊदी अरब नज़र आने लगते हैं जो इस क्षेत्र पर वर्चस्व के लिए आपस में टकरा रहे हैं।

थोडा पूरब की तरफ बढें तो शक्ति के दो ध्रुवीय केंद्र फिर खिसक जाते है। हिन्द–प्रशांत महासागर क्षेत्र में ताक़त कि जो होड़ है वहां चीन अपने में एक सशक्त पावर सेंटर बन अमरीका के वर्चस्व को चुनौती देता नज़र आता है।

ग्लोबल वार्मिंग पुरानी बात हो गयी है, अब तो दुनिया हमाम में स्नान कर रही जिसकी गरमी में ध्रुव पिघल कर बह चले हैं। ना सिर्फ़ उनके आकर का पता लगाना मुश्किल है, यह तक पहचान पाना मुश्किल है कि वो कौन हैं और क्या थे।

ट्रम्प प्रशासन भी चीन को एक ऐसी शक्ति मानता है जो अपनी यथास्थिति से संतुष्ट नहीं और वैश्विक शक्ति संतुलन में अपनी नई जगह बनाने के लगातार प्रयास में है। आज अमेरिका और चीन के बीच कोई भी समझौता या टकराव सम्पूर्ण दुनिया पर प्रभाव डालने की क्षमता रखता है। सीमा शुल्कों पर विवाद की तनिक आशंका उठी और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों के सर व्यापार युद्ध का बुखार चढ़ जाता है।

लेकिन सही मानें तो सच्चाई तो यह है कि भले ही दोनों देश दुनिया के दो सबसे ताक़तवर और आर्थिक शक्ति संपन्न राष्ट्र हैं, फिर भी किसी में भी विश्व व्यवस्था को अपने दम पर हिलाने की क्षमता नहीं है।

राष्ट्रों की बात से आगे बढ़ कर युग के प्रवाह पर ध्यान दें तो हम पाते हैं की विश्व में एक नई किस्म की पोलारिटी उभरती दिख रही है — एक तरफ़ एकीकरण का बोलबाला है तो दूसरी और चारों ओर पनपता नया राष्ट्रवाद है जो समाज में गहरी फूट पैदा कर रहा है। एक नया राष्ट्रवाद जैसे सभी देशों के ऊपर हावी हो गया है जिसके चलते समाज तो छोड़िए संगीसाथियों तक में बंटवारे हो जाते हैं।

वैश्वीकरण, फ्री ट्रेड के दिन लद गये, अब झगड़ा इस बात पर है की कौन देश किस देश का रोज़गार चुरा रहा है। देशों के अंदर विभाजन इतने हैं कि घरेलु राजनीती विदेश नीति को लेकर कोई आम सहमति बनने ही नहीं देती है। जो देश पहले सहयोगी थे वो अब एक दुसरे के आमने सामने खड़े हैं, उनके रिश्तों में तनाव है। जिन लोगों को शक्ति के दो ध्रुव पसंद है उनके लिए संभवत यही नई दो ताक़ती दुनिया है।

सह तो यह है कि दुसरे विश्व युद्ध के बाद जब साम्राज्य इतिहास हो गए तो एक दुसरे किस्म के साम्राज्य को खड़ा करने की कोशिश शुरू हो गई। ये साम्राज्य नियमों का साम्राज्य था जिसे चलाने के लिए अलग अलग राजनीतिक और आर्थिक संस्थाएं का निर्माण किया गया। और इस पूरे प्रयास पर हावी थी अटलांटिक देशों की मर्ज़ी। एक चाह जो उनके साझा हितों और उनके मूल्यों पर आधारित आम सहमती के रूप में उभर सामने आई और और नई विश्व व्यवस्था का ढांचा बनी। ये आम सहमती ही आगे चल कर वैश्वीकरण और फ्री ट्रेड के मूल्यों को अर्पित हो उसका पूजन करने लगी।

इस सदी के ख़त्म होने तक यही भरोसा परवान चढ़ रहा था कि वैश्वीकरण और फ्री ट्रेड को बढ़ावा देने वाले नियम तथा उनसे जुड़ी संस्थाएं सभी के लिए फायदे का सौदा हैं। इस के साथ ही ये भरोसा भी बढ़ा कि यदि इसी तरह दुनिया के बड़े देश एक दुसरे पर आश्रित होते चले जायेंगे तो इसका ज़ाहिर नतीजा होगा दुनिया भर में शान्ति और खुशहाली।

इस व्यवस्था में शिखर पर वे देश थे जिनका स्थान अर्थ और सत्ता में सबसे ऊपर था, कुछ और थे जो उस जगह पहुंचना चाहते थे, और कुछ वो थे जिन्हें अछूत मान कर बाहर रखा गया था।

इसी व्यवस्था के चलते विश्व की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ने लगा संसार भर में फैली तमाम ग्लोबल वैल्यू चेनों का। चीन बन गया संसार का कारख़ाना। और उसके साथ ही अब तक अछूत माना जा रहा देश अब व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बनने लगा। इसमें चीन का भी फायदा था। इसलिए इस नए वैश्वीकरण के तर्क को मानने में उसे कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन साथ ही अटलांटिक देशों द्वारा निर्मित संस्थानों के तहत रह कर भी चीन अपने लिए बेहतर सौदे की मांग कर ऐसे वैकल्पिक संस्थानों के जुगाड़ में लग गया जो स्थपित संस्थाओं के मुकाबले में खड़े हो सकें।

लेकिन परियों की कहानी जैसी लगने वाली इस सुन्दर दुनिया का एक बदसूरत पहलू भी था , एक कड़वा सच जो सामने आया दो घटनाओं से। पहली घटना थी ९/११, अमेरिका पर हुआ आतंकी हमला — जिससे शुरू हुई आतंक के खिलाफ जंग। ये युद्ध एक ऐसे गठबंधन ने मिल कर दुनिया पर थोपा जो मात्र एक दुसरे के साथ अपनी सुविधा के लिए सहयोग कर रहे थे। इस वॉर ऑन टेरर के लिए यूनाइटेड नेशन को दरकीनार कर दुनिया के अन्य देशों की स्वीकृति तक नहीं ली गयी.. और वो उदारवादी राष्ट्र, जो कायदे और मूल्यों के आधार पर विश्व संचालन कर रहे थे, उन्होंने इस युद्ध को न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि उसे बढ़ावा भी दिया – यूनाइटेड नेशन के बुनियादी बहुपक्षीय सिद्धांतों को मानो ट्विन टावर की राख में दबा कर उनकी अंत्येष्टि कर, अमेरिका और उसके कुछ सहयोगियों की सहूलियत के मुताबिक छेड़ा गया ये युद्ध जारी रहा।

दूसरी घटना थी 2008 की, जब उदारवादी देशों के सेंट्रल बैंकों ने ग्रीनस्पेन के इस मिथक पर यकीन कर लिया कि “जटिल आर्थिक तंत्र एक ज्यादा खुले, कारगर और लचीले अर्थव्यवस्था के विकास में मदद करेगा।”

किन्तु 2008 की आर्थिक सुनामी ने इस धारणा को पूरी तरह धराशाई कर दिया कि बाज़ार तब सबसे बेहतर काम करते हैं जब उन्हें स्वतः नियंत्रण के लिए स्वच्छन्द छोड़ दिया जाये। इसके साथ ही विश्व अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। अटलांटिक देश अपनी अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के चक्कर में ऐसी ऐसी नीतियां लागू करने लगे जो बाज़ारू अर्थव्यव्स्था पर आधरित देशों की कल्पना के बाहर होनी चाहिए थीं।

दूसरी घटना थी 2008 की, जब उदारवादी देशों के सेंट्रल बैंकों ने ग्रीनस्पेन के इस मिथक पर यकीन कर लिया कि “जटिल आर्थिक तंत्र एक ज्यादा खुले, कारगर और लचीले अर्थव्यवस्था के विकास में मदद करेगा।”

दरअसल जो खुली अर्थव्यवस्था वैश्विक एकीकरण को बढ़ावा दे रही थी उस पर सवाल उठाना सही मायने में तभी शुरू हुआ। ये सब डॉनल्ड ट्रम्प के आने से बहुत पहले की बात है। ग़ौर तलब बात तो सिर्फ़ यह थी की प्रश्न उन्ही देशों में उठ रहे थे जिन्होंने इन सिद्धांतों की बुनियाद रखी थी।

यही कारण कई मायनो में आज उत्पन्न स्थिति की वजह ट्रम्प नहीं हैं। वह तो मात्र इसका नतीजा हैं। हाँ ट्रम्प ने इस पूछ ताछ में अपने ख़ास अंदाज़ में कुछ थर्ड डिग्री वाली स्टाइल ज़रूर ला दी है, और हाँ इसमें अमेरिकी स्टाइल वाटर बोर्डिंग की झलक भी आने लगी है। नतीजन आज G7 और G20 जैसी संस्थाएँ, जो व्यापार और इकॉनमी को जोड़ने भर के लिए ही खड़ी की गयीं थीं उनमें अपने ही अजेंडे को बढ़ावा देने या लागू करने के लिए रजामंदी नहीं दीखती।

अटलांटिक देशों के बीच आम सहमती ख़त्म होने के साथ ही मानो अंत हो गया हो सिद्धांतों के साम्राज्य का। और इस टूट के साथ ही कई पेचीदा मुद्दे जैसे की विश्व पर्यावरण में बदलाव, साइबर गवर्नेंस, व्यापर, ईरान, उत्तर कोरिया और परमाणु अप्रसारिकरण सभी पर टकराव बढ़ने लगे हैं।

नतीजन हम अपनेको एक ऐसी मौक़ा परस्त दुनिया में पाते हैं जहाँ देश एक दुसरे से टकराव या सहयोग को मुद्देदर मुद्दे तौलने में लगे हैं, यानी à la carte सहयोग या टकराव की नीति, अपनी अपनी पसंद के मुताबिक मेन्यू चुनना।

और मुद्दों पर आधारित सहयोग और टकराव ऐसे कई गठजोड़ों कोजन्मा रहा है जहाँ अलग अलग समूह देश अपनी सहूलियत के मुताबिक सहयोग अथवा विरोध पर आमादा हैं।

अमेरिका भारत को इंडो पसिफ़िक (Indo-Pacific) क्षेत्र में एक अहम् पार्टनर के रूप में देखता है लेकिन भारत फिर भी रूस से अपने रिश्ते बनाये रखेगा। वह BRICS में चीन से भी बातचीत करेगा और ऐसे संस्थाओं का हिस्सा भी होगा जो शायद अमेरिका के हितों के खिलाफ हों, जैसे की शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाईजेशन (SCO)।

WTO में चल रही बातचीत की रिपोर्ट्स पर नज़र डालिए तो स्पष्ट भारत अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के सामने डट कर खड़ा है, उन्हें ललकार रहा है।

इस नयी दुनिया में, मध्यम स्तर की शक्तियां जैसे जापान ऑस्ट्रेलिया भारत तो छोडिये, छोटे देश भी ऐसा कोई कानून या सिद्धांत मानने को तैयार नहीं जो उनकी हिस्स्देदारी के बिना बना हो। वो भी मुकाबले के लिए तैयार हैं, सभी अपने अंदाज़ में नए कायदे बनाना चाहते है अथवा उनके निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं।

दोसरी ओर टेक्नोलोजी में होने वाले निरंतर बदलाव एक ऐसी दुनिया खड़ी करने पर आमादा हैं जहां सब एक दुसरे से 24×7 जुड़े हो। निरंतर एक ग्लोबल प्रशासन की मांग उठ रही है, जिसके तहत देशों के बीच और ज्यादा राजनीतिक सहयोग की ज़रूरत है।

टेक्नोलोजी की राह चलते राजनीतिक, आर्थिक और सामजिक बदलाव की गति निरंतर बढ़ रही है। इसके प्रभाव के चलते कारोबार, समाज और इंसान का एक दुसरे से संपर्क का तरीका सब कुछ फिर से परिभाषित हो रहा है।

नयी तकनीक की वजह से दुनिया भर में इंसान की चुनौतियाँ और उनको मिलने वाले मौके एक से हो रहे हैं। टेक्नोलोजी में होने वाली तरक्की एक ऐसी दुनिया बनाना चाहती है जो एक दुसरे से जुडी हो, पहले से ज्यादा एक ग्लोबल प्रशासन की मांग उठ रही है, यानी देशों के बीच और ज्यादा राजनीतिक सहयोग की ज़रूरत है। पर देश हैं जो अलग अलग रास्तों पर चलने पर आमादा हैं।

टेक्नोलोजी की राह चलते राजनीतिक, आर्थिक और सामजिक बदलाव की गति निरंतर बढ़ रही है। इसके प्रभाव के चलते कारोबार, समाज और इंसान का एक दुसरे से संपर्क का तरीका सब कुछ फिर से परिभाषित हो रहा है।

हर तरह की सूचना हमारी मुट्ठी में है जिस के चलते राजनीती और राजनीतिक संवाद तक भ्रमित हो तारतार हो रहे हैं। बाज़ार और अर्थव्यवस्था के उतार चढ़ाव, सामाजिक एकता, मानवीय सम्बन्ध, सभी इसके आहोश में क़ैद हैं। राष्ट्रों की संप्रभुता और उनकी सरहदें, समाज और व्यक्तिगत पहचान, सभी को चुनौती है।

इसका दबदबा तो देखिए — किसी यूरोपीय देश में पढ़ाबढ़ा एक मिडिल क्लास इंजीनियरिंग छात्र अपनी आस्था और पहचान पश्चिमी एशिया के किसी कट्टरपंथी संगठन के हवाले समर्पित कर धन्य हो जाता है — वो ही उसकी प्रेरणा और पहचान बन जाती है।

दूसरी ओर ग़रीबी में जीवन यापन कर रहीं ऐसी महिलाएं भी हैं जिन्हें बिजली की सुविधा तक हासिल नहीं। किन्तु वे भी सामने खड़े हो एकविश्व स्तरीय परमाणु विरोधी प्रदर्शन के साथ साझा मकसद कर रही हैं।

सत्ता व शक्ति अब यकीनन एक छोरपर केंद्रीयकृत नहीं रहे हैं। लेकिन फिर भी, सत्ता ना तो दो ताक़तों के बीच बँटी है ना ही शक्ति कई बलशाली ध्रुवों के क़ब्ज़े में है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक बड़े बदलाव से गुज़र रही है। अंततः इसका आकार कैसा होगा ये अभी साफ़ नहीं है। एक ओर नई व्यवस्था को बनाने की कोशिश है दूसरी ओर ये भी निश्चित नहीं कि ये बदलाव कामयाब होगा या नहीं।

ग्लोबल वार्मिंग पुरानी बात हो गयी है, अब तो दुनिया हमाम में स्नान कर रही जिसकी गरमी में ध्रुव पिघल कर बह चले हैं। ना सिर्फ़ उनके आकर का पता लगाना मुश्किल है, यह तक पहचान पाना मुश्किल है कि वो कौन हैं और क्या थे। ये नयी दुनिया न तो दो ताकती रह गयी है ना ही यहाँ शक्ति के स्थिर और स्थापित केंद्र हैं।

अंततः जिस बात से यह आलेख शुरू हुआ उसी पर लौट कर यह मानना बेहतर होगा कि चूँकि हमें खेमे पसंद हैं, चूँकि दो शक्तियों पर केन्द्रित दुनिया हमारी मानसिकता का हिस्सा बन चुकी है, हम खुद को शून्य या एक के मायाजाल में बँटी बिखरी अनेकानेक ध्रुवों के बीच झूलती इस दुनिया में पाते हैं।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.