लेबनान रसातल में गिरता जा रहा है. यहां की जनता नाउम्मीद हो चुकी है, क्योंकि अर्थव्यवस्था की सेहत बिगड़ती जा रही है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन मदद की उम्मीद दूर दूर तक दिखाई नहीं देती.
बिगड़ते हालात
कोरोना वायरस के लगातार फैलते संक्रमण के कारण, लेबनान के लोगों की मुश्किलें कई गुना बढ़ गई हैं. तीन महीने पहले लेबनान की राजधानी बेरूत में हुए बड़े धमाके ने शहर के बहुत बड़े इलाक़े को तबाह कर दिया था. इस धमाके के बाद लेबनान में ज़बरदस्त विरोध-प्रदर्शन हुए थे. लेकिन, राजनीतिक रसूख वाले वो लोग, जिन्हें प्रदर्शनकारी कुर्सी से हटाना चाहते थे, वो आज भी सत्ता से चिपके बैठे हैं.
लेबनान की सरकार को चेतावनी भी दी गई थी कि इतनी बड़ी तादाद में अमोनियम नाइट्रेट रखने से कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है.
बेरूत में हुए धमाके के लिए, लेबनान की तमाम सरकारी एजेंसियों की लापरवाही और सत्ताधारी वर्ग की बेरुख़ी को ज़िम्मेदार ठहराया गया था. इल्ज़ाम लगा था कि उन्होंने बेरूत बंदरगाह पर हज़ारों टन अमोनियम नाइट्रेट के भंडारण की ओर से आंखें मूंद ली थीं, जबकि ये बंदरगाह रिहाइशी इलाक़ों से महज़ आधा मील की दूरी पर था. लेबनान की सरकार को चेतावनी भी दी गई थी कि इतनी बड़ी तादाद में अमोनियम नाइट्रेट रखने से कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है.
4 अगस्त को भयंकर विस्फोट हुआ और इसमें 200 लोगों की जान चली गई, 6 हज़ार लोग घायल हो गए और इस धमाके ने लगभग तीन लाख लोगों को बेघर कर दिया था. ये विस्फोट इतना भयंकर था कि बेरूत के कुछ हिस्सों में मुहल्ले के मुहल्ले उजड़ गए. ये वो इलाक़े थे, जिन्हें इज़राइल और ईरान समर्थित शिया सैन्य संगठन और सियासी दल हिज़्बुल्लाह के बीच संघर्ष की सूरत में पनाहगाह के तौर पर देखा जाता था. हिज़्बुल्ला एक हथियारबंद संगठन है, जिसे लेबनान का सबसे ताक़तवर पक्ष माना जाता है.
जिन तीन मुहल्लों में इस विस्फोट ने सबसे अधिक तबाही मचाई, उनमें से दो ईसाई बहुल इलाक़े थे. इन्हें मध्य पूर्व में पश्चिमी मूल्यों वाले आख़िरी ठिकाने माना जाता था. पब, रेस्तरां और आर्ट गैलरी वाले इन इलाक़ों में स्थानीय लोगों और सैलानी ख़ास दिलचस्पी लेते थे. और जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने बेरूत का दौरा किया था तो यहां रहने वाले लोगों ने मैक्रों का ज़बरदस्त स्वागत किया था, क्योंकि वो ख़ुद को फ्रांसीसी और लेवांती संस्कृति के मेल की मिसाल मानते हैं. इनमें से ज़्यादातर लोग फ्रांसीसी भाषा बोलते हैं.
फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने मांग की थी कि लेबनान में मध्य सितंबर तक एक नई सरकार का गठन हो जाना चाहिए और फिर एक साल में नए चुनाव कराए जाने चाहिए. लेकिन, नए नामांकित प्रधानमंत्री मुस्तफा अदीब को ज़िद्दी सांसदों की चुनौती का सामना करना पड़ा था, जो किसी भी सूरत में बस अपने हित साधना चाहते थे. सरकार बनाने में नाकाम रहने पर मुस्तफा अदीब ने इस्तीफा दे दिया था.
उम्मीद की किरण
मुस्तफा के इस्तीफ़े के बाद, लेबनान के परिचित चेहरे साद हरीरी ने प्रधानमंत्री पद पर दावा करते हुए ख़ुद को देश के मसीहा के तौर पर पेश किया. साद हरीरी को फ्रांस का समर्थन हासिल है और 2017 में हरीरी को सऊदी अरब द्वारा बंधक बनाए जाने के आरोप के बावजूद, वो ऐसे नेता हैं, जिनके नाम पर सबसे कम ऐतराज़ हो सकते हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि इस समय लेबनान में उनके कद का कोई और सुन्नी नेता नहीं है (लेबनान में प्रधानमंत्री का पद सुन्नी मुसलमान के लिए आरक्षित है). पीएम पद के लिए अपनी उम्मीदवारी का एलान करते हुए साद हरीरी ने एक स्थानीय न्यूज़ चैनल से कहा था कि, ‘मैं लेबनान को तबाह होने से बचाने के लिए उम्मीद के इकलौते दरवाज़े को बंद नहीं करना चाहता हूं.’ बहुत से लोगों को ये उम्मीद थी कि साद हरीरी की उम्मीदवारी पर सहमति बन जाएगी, ख़ास तौर हिज़्बुल्लाह-जो लेबनान में लिए जाने वाले हर बड़े फ़ैसले के पीछे की ताक़त होता है, उसे हरीरी को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी. हिज़्बुल्लाह को लगता है कि हरीरी के प्रधानमंत्री बनने पर वो अपने बुनियादी हितों की हिफ़ाज़त कर सकेंगे.
लेकिन, इस बार हिज़्बुल्लाह के ईसाई सहयोगी फ्री पैट्रियोटिक मूवमेंट (FPM) के अध्यक्ष माइकल अऊन की पार्टी ने हरीरी का समर्थन करने से इनकार कर दिया. FPM देश के ऊर्जा क्षेत्र पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती है और उसे डर है कि फ्रांसीसी जिन सुधारों की मांग कर रहे हैं और जिन सुधारों को लागू करने का हरीरी ने वादा भी किया है, उनसे ऊर्जा मंत्रालय पर FPM की पकड़ कमज़ोर हो जाएगी.
कई हफ़्तों तक गोपनीय बातचीत के बाद हरीरी को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया और जल्द ही उनके अपने मंत्रिमंडल का एलान करने की संभावना है. प्रदर्शनकारी मांग कर रहे हैं कि हरीरी अपनी कैबिनेट में टेक्नोक्रेट और ऐसे विशेषज्ञों को रखें, जिनका किसी राजनीतिक दल से संबंध न हो. लेकिन, बहुत से लोगों को डर है कि हरीरी सरकार के बहुत से मंत्रियों को पुराने सत्ताधारी वर्ग के लोग ही नियुक्त कर रहे हैं, जिससे कि सरकार पर उनका प्रभुत्व बना रहे.
लेबनान में सत्ता का बंटवारा धर्म के आधार पर होता है. ये छोटा सा देश 18 फ़िरक़ों में बंटा हुआ है. सबसे मलाईदार मंत्रालयों का बंटवारा सुन्नी, शिया, ईसाई और ड्रूज़ समुदायों के बीच होता है. वो इनसे होने वाली कमाई का इस्तेमाल निजी हित और अपने संगठनों को बढ़ावा देने में करते हैं. इसी वजह से वो किसी न्यायिक सुधार या प्रशासनिक सुधार के लिए तैयार नहीं होते, जिससे उनकी जवाबदेही तय हो, या प्रशासन में पारदर्शिता आए.
लेबनान के प्रदर्शनकारियों ने देश के सत्ताधारी कुलीन वर्ग के ख़िलाफ़ अपने आंदोलन की शुरुआत पिछले साल अक्टूबर में की थी. तब वो नारा लगाते थे, ‘किल्लोन यानी किल्लोन’. इसका अर्थ है, ‘सबका मतलब है सब कोई’ सत्ता छोड़ें या फिर उन्हें उखाड़ फेंका जाएगा, जिससे कि एक नई और ईमानदार सरकार को गद्दी पर बैठाया जा सके. साद हरीरी को पुराने सामंती वर्ग का हिस्सा माना जाता है. इसीलिए जनता उन पर भरोसा नहीं करती. वो कहते हैं कि मौजूदा सत्ताधारी वर्ग के किसी भी सदस्य पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता कि वो अर्थपूर्ण सुधारों को लागू करेंगे. जबकि पश्चिमी देशों ने लेबनान को आर्थिक संकट से उबारने के लिए मदद देने की यही शर्त रखी है.
क्या हालात जस का तस बना रहेगा?
एक बरस पहले लेबनान उम्मीदों से सराबोर था. दस लाख से ज़्यादा लोगों ने देश के तमाम शहरों की सड़कों पर उतरकर मांग की थी कि उन्हें बेहतर राजनेता चाहिए जो देश को कुशलता से चला सकें. लेकिन, पिछले बारह महीनों में हालात और बिगड़ते ही गए हैं. अर्थव्यवस्था की हालत लगातार ख़स्ता होती जा रही है और राजनेता उन टेक्नोक्रेट मंत्रियों की बागडोर अपने हाथ में रखे हुए हैं, जिन पर सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी है. लेबनान के लोग ग़रीब होते जा रहे हैं और उन्हें अपने परिवार का पेट पालने में भी मुश्किल हो रही है. अब उनके अंदर विरोध प्रदर्शन करने की भी ऊर्जा बहुत कम बची है और जिन लोगों के लिए मुमकिन है, वो देश छोड़कर जा रहे हैं.
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