पुलवामा हमले के बाद एक बार फिर भारत और चीन के रिश्तों पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। इस हमले पर शुरुआती प्रतिक्रिया देते हुए चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि ‘हम इस घटना से गहरे सदमे में हैं। घायलों और शोक संतप्त परिवारों के प्रति हमारी गहरी संवेदना और सहानुभूति है।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘हम आतंकवाद के सभी रूपों की कड़ी निंदा करते हैं। हमें उम्मीद है कि संबंधित देश आतंकवाद के खतरे से निपटने में सहयोग करेंगे और क्षेत्रीय शांति व स्थिरता बनाए रखने के लिए साझा प्रयास करेंगे।’ मगर जब उनसे मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा वैश्विक आतंकी घोषित करने के चीन के रुख के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब वही पुराना था। नई दिल्ली की इस मांग पर बीजिंग का अब तक यही कहना रहा है कि ‘जैश-ए-मोहम्मद को प्रतिबंधित आतंकी संगठनों की सूची में शामिल किया जा चुका है। चीन जिम्मेदार और रचनात्मक तरीके से इस मांग पर गौर करेगा।’
बहरहाल, इस हमले को लेकर दुनिया भर में फैली नाराजगी के कारण चीन का रुख भी बहुत मामूली सा बदलता हुआ दिख रहा है। पहले उसकी तरफ से यह कहा गया कि मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने संबंधी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा में वह ‘उद्देश्यपूर्ण, निष्पक्ष और पेशेवर तरीके’ से भाग लेगा। फिर, जब सुरक्षा परिषद ने इस हमले की निंदा करते हुए जैश-ए-मोहम्मद और उसके मुखिया मसूद अजहर का नाम लिया, तो उस पर भी चीन ने अपनी सहमति जताई। हालांकि तब भी, यह भरोसे से नहीं कहा जा सकता कि अब चीन का रवैया पूरी तरह बदल जाएगा। आज भी लगता यही है कि पाकिस्तान और मसूद अजहर को जिस तरह पिछले कुछ वर्षों से वह बचाता आ रहा है, आगे भी बचाता रहेगा। वह तमाम कूटनीतिक प्रयासों के बाद भी अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने की भारत की मांग टालता रहा है। इस वर्ष तो ऐसा दो बार हो चुका है, और हर बार बीजिंग का स्पष्टीकरण अनोखा होता है। इस बार तो चीन के उप-विदेश मंत्री ली बाओदोंग ने अपने देश के रुख को सही ठहराते हुए कहा कि ‘चीन आतंकवाद के सभी रूपों का विरोध करता है। आतंकवाद से निपटने का कोई दोहरा मापदंड नहीं होना चाहिए, और न ही आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर कोई राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश होनी चाहिए।
बीजिंग की बदलती भंगिमा में कई भारतीय बेशक आतंकवाद विरोधी प्रयासों में उसके साथी बनने की उम्मीद तलाश रहे हों, लेकिन चीन के नीति-नियंता इसे लेकर किसी उलझन में नहीं हैं।
लिहाजा बीजिंग की बदलती भंगिमा में कई भारतीय बेशक आतंकवाद विरोधी प्रयासों में उसके साथी बनने की उम्मीद तलाश रहे हों, लेकिन चीन के नीति-नियंता इसे लेकर किसी उलझन में नहीं हैं। उनकी नजरों में, मसूद अजहर यदि आज कोई समस्या है, तो यह भारत का अपना किया-धरा है। दरअसल, मसूद को 1999 में वाजपेयी सरकार ने विमान संख्या आईसी- 814 के अपहरण के बाद अफगानिस्तान में बंधक बनाए गए विमान चालक दल और उसके यात्रियों के बदले रिहा किया था। उसके बाद से ही वह भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए मुश्किलें पैदा करता आया है। साल 2016 में जब जैश-ए-मोहम्मद ने पठानकोट के एयरबेस पर हमले की जिम्मेदारी कबूली, तब जाकर भारत ने मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा वैश्विक आतंकी घोषित करवाने के प्रयासों पर अपना ध्यान लगाया। चीन चूंकि सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य है और उसे वीटो पावर भी हासिल है। लिहाजा वह हर बार पाकिस्तान की मदद करता आया है। भारत के प्रस्ताव पर ‘तकनीकी’ आधार पर अड़ंगा लगाने के बाद आखिरकार दिसंबर 2016 में उसने वीटो का इस्तेमाल करके उस पर रोक लगा दी।
डोकाला विवाद के बाद पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अनौपचारिक बातचीत करने चीन के वुहान पहुंचे थे, तब दोनों देशों के रिश्तों में एक नई ताजगी आती दिखी। लेकिन वुहान बैठक भी मसूद अजहर को लेकर चीन के रुख को बदलने में सफल न हो सकी। भारत के लिए वुहान सम्मेलन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अस्थिर आर्थिक नीतियों के नकारात्मक प्रभावों को दूर करने का एक प्रयास था, तो चीन के लिए वह एक ऐसे समय में भारत के साथ अपने रिश्तों को सुधारने का मौका था, जब वाशिंगटन सिर्फ बीजिंग को निशाना बना रहा था। हालांकि तब भी इसका मतलब यह कतई नहीं था कि भारत के साथ लगने वाली सीमा पर सैनिकों की तैनाती और स्थाई निर्माण के कार्य चीन टाल देगा या दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत को चुनौती देना वह बंद कर देगा। भारत के खिलाफ ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स’ का समर्थन चीन लंबे समय से करता आया है। भारत के पूर्वोत्तर राज्य में विद्रोहियों को उकसाने में उसकी भूमिका तो जगजाहिर है।
भारत के खिलाफ ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स’ का समर्थन चीन लंबे समय से करता आया है। भारत के पूर्वोत्तर राज्य में विद्रोहियों को उकसाने में उसकी भूमिका तो जगजाहिर है।
यही वजह है कि पुलवामा हमले के बाद भले ही भारत ने पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक प्रयास शुरू कर दिए हैं, लेकिन यह पूरी तरह सफल होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। चीन और सऊदी अरब जैसे देश पाकिस्तान के अब भी प्रमुख सहयोगी हैं। सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने भारत आने से पहले पाकिस्तान के साथ एक ऐसे घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया है, जो ‘संयुक्त राष्ट्र की आतंकी सूची को लेकर किसी भी तरह की राजनीति’ से बचने की बात कहता है। यह जाहिर तौर पर मसूद अजहर के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रयासों पर निशाना साधता है।
साफ है, चीन भी पहले की तरह पाकिस्तान का कवच बना रहेगा। वुहान बैठक से जो भावना निकलकर बाहर आई थी, यदि वह अब भी अस्तित्व में है, तो अपनी आखिरी सांसें ही गिन रही है। इसीलिए चीन को कड़ा जवाब देने का वक्त आ गया है। अगर वह अपनी पुरानी पाकिस्तान-नीति जारी रखता है, तो भारत को भी अपनी चीन-नीति की पड़ताल करनी चाहिए। भले ही दोनों एशियाई ताकत कई वैश्विक हितों को साझा करते हों, लेकिन कुछ मनगढ़ंत रिश्तों की वेदी पर द्विपक्षीय मसलों को कुर्बान किया जा रहा है। चीन को अब यह संदेश मिल ही जाना चाहिए कि पारंपरिक राह पर आगे बढ़ने का कोई मतलब नहीं है।
यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है।
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