Author : Ramanath Jha

Published on Aug 05, 2023 Updated 0 Hours ago

चूंकि महाराष्ट्र के नगरपालिका में ओबीसी आरक्षण का अनुपालन नहीं किया गया है, नगरपालिका चुनाव ठप्प हो गए हैं.

म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में प्रशासक: क्या हैं मायने?
म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में प्रशासक: क्या हैं मायने?

भारत में म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के सामान्य शासन का निर्माण तीन परतीय संरचना हैं. शहर के भौगोलिक क्षेत्रों के अंतर्गत चुने गए काउंसिलर्स/पार्षद के मध्य में म्युनिसिपल कॉरपोरेशन सर्वोच्च स्थान पर हैं, अपने चुने गए वॉर्ड का प्रतिनिधित्व करने के अलावा, सभी काउंसिलर नीति निर्माण में सलाहकार और वोटिंग हेतु कार्य करते हैं. नगरपालिका स्थानीय नीति निर्धारित करती हैं, बजट को पास करती हैं, सिटी प्लान आदि को पारित करती है और नगरीय नगरपालिका के कार्यान्वयन संबंधी मुद्दों पर विचार करती हैं. अगले चरण में विभिन्न कमेटी हैं, जहां लोकप्रिय निर्वाचित पार्षद कमेटी को उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया में सहयोग करते हैं. स्टैंडिंग कमेटी, इसकी सबसे महत्वपूर्ण कमेटी है जो कि वित्तीय शक्ति का इस्तेमाल करती है और नगरपालिका प्रशासन द्वारा प्रस्तुत किए गए टेन्डर और प्रपोज़ल को पारित करती हैं. म्युनिसिपल कॉरपोरेशन जिनकी आबादी तीन लाख से ज्यादा है वहाँ वॉर्ड कमेटी होती हैं, जिन्हें उनके ज़ोन में पड़ने वाले वॉर्ड संबंधी किसी विशेष निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त होता है. उस ज़ोन से चुने गए सभी पार्षद, वॉर्ड कमेटी के सदस्य होते हैं. तीसरे पायदान पर म्युनिसिपल कमिश्नर हैं, जो कि म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चीफ़ एक्ज़क्यूटिव हैं. उनकी नियुक्ति राज्य द्वारा की जाती है और वो अमूमन भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस ) श्रेणी से होते हैं. 

संविधान इस बाबत बिल्कुल स्पष्ट है कि नगरपालिका में चुनी हुई निकाय अपने निर्धारित पांच वर्ष की कार्यावधि के बाद जारी नहीं रह सकती है. साथ ही ये भी संभव नहीं है कि समय पर चुनाव नहीं हो पाने की स्थिति में, शहरी स्थानीय निकाय बिना प्रभारी के रहे या शहरी प्रशासन में किसी प्रकार की शून्यता हो जाये. 

ओबीसी आरक्षण का मुद्दा

हम यहाँ जो विमर्श कर रहे है वो एक ऐसी असामान्य स्थिति है जो महाराष्ट्र के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में उत्पन्न हो गई है. भारतीय  संविधान (74 वां संशोधन) अधिनियम के अनुसार, म्युनिसिपालिटी को उसके प्रथम मीटिंग में अपॉइन्टमेंट के बाद पांच साल की नियमित कार्याविधी दी जाती है. म्युनिसिपालिटी का चुनाव उसके पूर्ववर्ती म्युनिसिपालिटी के कार्यावधि की समाप्ति से पहले हो जानी चाहिए. संविधान कभी भी ऐसे किसी चुनाव की परिकल्पना नहीं करता जो वर्तमान के म्युनिसिपालिटी की कार्यावधि के पूर्व हो. हालांकि, दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गए हैं, जब महाराष्ट्र में राज्य चुनाव कमीशन संविधान के तहत समय पर चुनाव नहीं करा पायी है. संविधान इस बाबत बिल्कुल स्पष्ट है कि नगरपालिका में चुनी हुई निकाय अपने निर्धारित पांच वर्ष की कार्यावधि के बाद जारी नहीं रह सकती है. साथ ही ये भी संभव नहीं है कि समय पर चुनाव नहीं हो पाने की स्थिति में, शहरी स्थानीय निकाय बिना प्रभारी के रहे या शहरी प्रशासन में किसी प्रकार की शून्यता हो जाये. शहरी सेवाएं जो लाखों नागरिकों के जीवन के लिए प्रवर्तक हैं, उन्हे नित दिन के तौर-तरीके पर सभी नागरिकों को मुहैया कराया जाना चाहिए. इसलिए, जबतक चुनाव पूर्ण न हो जाए और चयनित पार्षद अपनी नियमित सेवाएं दे सके, तब तक इसकी कार्यात्मक की निरन्तरता के लिए, कुछ वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए. 

ये अभूतपूर्व स्थिति उत्पन्न हो गई है सिर्फ़ उस मकड़जाल की वजह से जो कि पिछड़ी जाति (ओबीसी) के इर्द गिर्द बुनी गई हैं. महाराष्ट्र राज्य विधान परिषद द्वारा पास किए गए बिल को अंततः राज्यपाल ने पारित कर दिया. ये कानून राज्य विधान परिषद को नगरपालिका में ओबीसी को 27 प्रतिशत कोटा देने का प्रावधान करता है.

अतीत में, संशोधन एक्ट के अस्तित्व से पहले, चुनी हुई नगरपालिका को समय से पूर्व भंग करने का पूर्ण अधिकार राज्य के पास होता था. उसके बाद राज्य एक प्रशासक की नियुक्ति कर सकता था. संविधान में संशोधन के उपरांत अब ये लगभग नामुमकिन हैं. चंद राज्यों ने जब ऐसी कोशिश की भी तो न्यायपालिका ने उन्हें रोक दिया. हालांकि, ऐसी अभूतपूर्व स्थिति में, संशोधन के बाद, महाराष्ट्र सरकार को ऐसे सभी नगरपालिका कॉरपोरेशन में जहां की चुनी हुई निर्वाचित निकाय या तो अपना सत्र पूरा कर चुकी है या फिर, चुनाव होने से पूर्व अपना सत्र पूरा कर चुकी होगी, वहाँ पर प्रशासक नियुक्त करने पड़ेंगे. मुंबई – 10 लाख से भी ज्य़ादा आबादी वाली देश की सबसे बड़ी नगरपालिका के अलावे पुणे, नागपुर जो क्रमश:3 और 2 लाख से ज्य़ादा आबादी है, फिर ठाणे, पिंपरी चिंचवाड, नासिक, सोलापुर, अमरावती, अकोला और उल्हासनगर आदि भी हैं. चूंकि राज्य नगरपालिका कानून को नगरपालिका में प्रशासक की नियुक्ति का प्रावधान नहीं हैं, महाराष्ट्र सरकार ने नगर अधिनियम में संशोधन करते हुए, प्रशासक की नियुक्ति का प्रावधान किया है. 

अप्रत्याशित घटना

ये अभूतपूर्व स्थिति उत्पन्न हो गई है सिर्फ़ उस मकड़जाल की वजह से जो कि पिछड़ी जाति (ओबीसी) के इर्द गिर्द बुनी गई हैं. महाराष्ट्र राज्य विधान परिषद द्वारा पास किए गए बिल को अंततः राज्यपाल ने पारित कर दिया. ये कानून राज्य विधान परिषद को नगरपालिका में ओबीसी को 27 प्रतिशत कोटा देने का प्रावधान करता है. ये मुद्दा राज्य पिछड़ी जाति कमिशन (एमएसबीसीसी) द्वारा दिए गए अंतरिम रिपोर्ट के आधार पर उठाया गया था. हालांकि, एक तरफ जहां राज्य ने इस कानून को सिरहाने रख दिया है, चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रखा हुआ है. विचार योग्य बात ये है कि एक बार तो सभी राजनीतिक दल भी, इस पूरे घटनाक्रम के उपरांत , इस बात पर पूरी तरह से एकमत है कि ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण के बग़ैर चुनाव के लिए आगे नहीं बढ़ सकते हैं. 

महाराष्ट्र जैसे हालात दिल्ली में भी बन गई हैं. भारत सरकार पूर्वी, उत्तरी एवं दक्षिणी नगरपालिका कॉरपोरेशन की निकायों को चुनाव पूर्व , एकल नगरपालिका प्रारूप में बदलना चाह रही है. इस संभावित एकीकरण के मद्देनज़र राज्य चुनाव आयोग ने चुनाव को टाल दिया है. 

महाराष्ट्र जैसे हालात दिल्ली में भी बन गई हैं. भारत सरकार पूर्वी, उत्तरी एवं दक्षिणी नगरपालिका कॉरपोरेशन की निकायों को चुनाव पूर्व , एकल नगरपालिका प्रारूप में बदलना चाह रही है. इस संभावित एकीकरण के मद्देनज़र राज्य चुनाव आयोग ने चुनाव को टाल दिया है. स्वाभाविक है, एक बार दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022 के कानून बन जाने के बाद तक, विशेष ऑफिसर के तौर पर जाने जाने वाले प्रशासक की नियुक्ति की जाएगी. 

प्रशासक की नियुक्ति के परिणाम काफी गंभीर हो सकते हैं. पहला, यह नगरपालिका में, चुनी हुई निकाय का पूर्णतयाः अंत साबित होगी. सभी चुने गए पार्षदों का पार्षद बनने के अधिकार ज़ब्त हो जाएंगे. इसके माने यह हुए कि सभी लोकप्रिय रूप से गठित समितियां जहां पार्षद सदस्य थे, उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है. हालांकि, ये लोकप्रिय निकाय अब अपने असल स्वरूप में मौजूद नहीं हैं, वे अब वैद्यानिक निकाय हैं और कार्यों को क्रियान्वित करने हेतु अस्तित्व में रहना जारी रखेंगे. उसके अलावे, म्युनिसिपालिटी अपने कर्तव्यों का निर्वाहन जैसे नीति बनाना, योजनाओं का अम्लीकरण, और बजट और शहर के नगरपालिका मामलों को विनियमित करने का कार्य जारी रखेंगे. 

कैसे समाधान तक पहुंचा जाए?

ऐसी स्थिति होने के बावजूद की नगर परिषद के इस लोकप्रिय पात्र को भंग कर दिया गया है, शहर को अपने पात्र के अनुसार ही क्रियाशील रहना चाहिए, जैसा की नगरपालिका कानून द्वारा नगर-निगम को प्रदान किया गया है. एक समाधान निकाला गया है और वो ये कि राज्य अपने वैधानिक शक्ति का इस्तेमाल करके एक प्रशासक की नियुक्ति करे. प्रशासक वो है जो एकल व्यक्ति के तौर पर म्युनिसिपल कमिश्नर, नगर-निगम के सांविधिक समितियाँ आदि का कार्य संभाले. सभी शक्तियां अंत में, एकल व्यक्ति के हाथों में समाहित होती है. हालांकि, कानून के आलोक में, व्यक्ति विशेष तीन भिन्न-भिन्न ‘अवतार’ लेते हैं. म्युनिसिपल कमिश्नर के तौर पर,  प्रशासक वो सारे मुद्दों का निपटारण करता है जो एक म्युनिसिपल कमिश्नर के कार्यक्षेत्र में आता हैं. कमेटी के ‘अवतार’ में,  प्रशासक, बा-हैसियत म्युनिसिपल कमिश्नर कमेटी को प्रपोज़ल भेजते हैं, और कमेटी के तौर पर उसे पारित करते हैं. ये वो मसौदे होते है जो म्युनिसिपल कमिश्नर की क्षमता के भीतर के नहीं होते है, बल्कि वो कमेटी के कार्यक्षेत्र में से होते हैं. तीसरे ‘अवतार’ में वो नगरपालिका के रूप में, प्रशासक सबसे पहले नगर आयुक्त के तौर पर, उसे मसौदा भेजते हैं फिर दूसरे, अगर ज़रूरी हो तो कमेटी के रूप में भी, और फिर नगरपालिका के तौर पर उस मसौदे को पारित करते हैं. 

 ये कहना दूर की बात होगी कि ओबीसी आरक्षण का मुद्दा एक ‘अप्रत्याशित घटना’ की श्रेणी में आती हैं. ये स्पष्ट तौर पर बताता है कि स्थानीय सशक्तिकरण कितना नाज़ुक है और कितनी आसानी से इसे छोटा किया जा सकता है.

इस व्यापक परिवर्तन का योग और सार यह है कि शहरी निकाय के क्षेत्र के अंतर्गत रहने वाले नागरिकों के लिए प्रशासक के नियुक्ति के उपरांत अपने चुने हुए प्रतिनिधि के रूप में उनकी आवाज़ खो चुकी होती हैं. इस व्यवस्था से, स्थानीय निकाय रूपी लोकप्रिय पात्र के धूमिल होने के उपरांत इस काउंसिल की सारी ज़िम्मेदारी प्रशासक के ऊपर डाल देने से, नगरपालिका मामले में,  इसे एकल, सर्वव्यापी और सर्व शक्तिमान स्थिति में ला खड़ा करती हैं. जबकि, नगरपालिका में राज्य का समग्र अधिकार हमेशा ही विवाद से परे रहा है, नगरपालिका में लोकप्रिय निकाय की अनुपस्थिति, राज्य के अधिकार को और भी अटूट और निरपेक्ष बनाती है. 

ये समझा जा सकता है कि, ये संक्षिप्त, अपरिहार्य अवधि के लिए किसी आवश्यकताओं की वजह से है, जो मानव कंट्रोल के परे हैं. ये कहना दूर की बात होगी कि ओबीसी आरक्षण का मुद्दा एक ‘अप्रत्याशित घटना’ की श्रेणी में आती हैं. ये स्पष्ट तौर पर बताता है कि स्थानीय सशक्तिकरण कितना नाज़ुक है और कितनी आसानी से इसे छोटा किया जा सकता है. 

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.