Author : Arun Anand

Published on Mar 06, 2017 Updated 0 Hours ago

एबीवीपी ओर वामपंथियों के बीच जारी झड़प वास्तव में वामपंथियों और आरएसएस के बीच विचारधारा के आधार पर चल रहे भीषण संघर्ष का ही प्रतिबिंब है।

महज कैंपस की झड़प नहीं, विचारधारा का व्यापक टकराव

दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के बीच हुई ताजा झड़प अप्रत्याशित घटना नहीं है, इसके पीछे एक खास पृष्ठभमि है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के दो छात्रों को उनके कथित ‘भारत-विरोधी’ रवैये की वजह से रामजस कॉलेज में एक सेमिनार में भाग लेने से रोक देने की कोशिश को ले कर शुरू हुई यह घटना एक विचारधारा के व्यापक संघर्ष का हिस्सा है। यह वामपंथ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच पिछले कुछ समय से चल रहे वैचारिक संघर्ष का परिणाम है।

इस घटना के बाद से एबीवीपी और वामपंथियों के बीच लगातार टकराव चल रहा है और इसमें ऑनलाइन जगत और वास्तविक दुनिया दोनों शामिल हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के बहुत से लोग भी दोनों में से किसी एक के समर्थन में आ खड़े हुए हैं। यह झड़प और उसके बाद की घटनाएं दरअसल वामपंथ और आरएसएस के उस व्यापक वैचारिक संघर्ष से अलग नहीं है जो इस समय देश में जोर-शोर से चल रहा है। इसमें दोनों पक्ष का काफी कुछ दांव पर लगा है और इसलिए संघर्ष भी बहुत व्यापक है।

इन संघर्ष को ‘एबीवीपी बनाम अन्य’ के रूप में पेश करने कोशिश की जा रही है। लेकिन जरूरी नहीं है कि यह सच हो।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) आरएसएस के सहयोगी संगठनों में से है और देश भर के विश्वविद्यालय परिसरों में सक्रिय रहा है। एबीवीपी का संगठन सचिव आरएसएस का ही कोई प्रचारक (पूर्णकालिक कार्यकर्ता) होता है। हालांकि संगठन को अपने दैनिक काम-काज में स्वायत्तता हासिल है। एबीवीपी 1970 के दशक में जेपी आंदोलन के दौरान तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ संघर्ष में अग्रणी था। इसके बहुत से नेता आपात काल (1975-77) के दौरान गिरफ्तार किए गए और जेल में लंबे समय तक रहे। मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल में भारतीय जनता पार्टी के कम से कम एक दर्जन मंत्री (जिनमें कुछ वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री भी शामिल हैं) एबीवीपी के लिए बहुत सक्रिय तौर पर काम कर चुके हैं और विश्वविद्यालय के दिनों में इसी छात्र संगठन की ओर से चुनाव लड़ चुके हैं।

एक समय था जब एबीवीपी को भारतीय जनता पार्टी और इसके पूर्ववर्ती संस्करण भारतीय जनसंघ के लिए नेता तैयार करने वाली पौधशाला माना जाता था। पिछले दो तीन वर्षों के दौरान एबीवीपी ने विश्वविद्यालय कैंपस में वामपंथी प्रोपेगेंडा का मुकाबला करने की नई भूमिका निभानी आरंभ कर दी है। यह एक अहम बदलाव है। स्पष्ट है कि अब यह छात्र संगठन सिर्फ छात्र संघों की चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि अब इसे उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रतिद्वंदी के खेमे से वैचारिक जंग भी लड़नी है।

गौरतलब है कि 2016 में एबीवीपी ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में जबरदस्त जीत दर्ज की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय और देश के कई परिसरों में लंबे समय से एबीवीपी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है हालांकि जेएनयू जैसे कुछ बचे-खुचे ‘वामपंथी गढ़ों’ में एबीबवी उतनी मजबूत नहीं है। वामपंथी भी इस तस्वीर को हल्के में नहीं ले रहे हैं और एबीवीपी की बढ़त को रोकने के लिए सोची समझी रणनीति के तहत कैंपस की घटनाओं को व्यापक मुद्दों के साथ जोड़ कर इसे राजनीति आंदोलन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इसी संदर्भ में देखें तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमूला की आत्महत्या को “दलित चेतना” से जोड़ दिया जाता है तो जेएनयू और डीयू की घटनाओं को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” से जोड़ा रहा है। वास्तविकता यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय या हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटनाओं को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” या “दलित चेतना” के नजरिये से देखने से तस्वीर का असली पहलू सामने नहीं आएगा जो वामपंथियों और आरएसएस के बीच विचारधाराओं के टकराव से जुड़ा है।

ये घटनाएं वामपंथ और आरएसएस के बीच विचारधारा के आधार पर लड़ी जा रही बड़ी लड़ाई का नतीजा हैं।

केरल में 1960 के दशक से ही चल रहे इस टकराव से देश अच्छी तरह वाकिफ है। दिलचस्प बात यह है कि आरएसएस केरल में वामपंथियों द्वारा संघ—भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर 1 मार्च, 2017 को प्रदर्शन करने वाला था और डीयू में यह विवाद इसके लगभग एक सप्ताह उठा। गौरतलब है कि केरल में हत्याओं के खिलाफ आरएसएस की ओर से कुछ महीनों के अंदर ही किया जाने वाला यह दूसरा प्रदर्शन था। इतने कम समय में एक ही मु्द्दे पर आरएसएस द्वारा लगातार दूसरा प्रदर्शन यह संकेत करता है कि इस मुद्दे पर देश का ध्यान आकर्षित करने को ले कर आरएसएस कितना गंभीर है।

आरएसएस का कहना है कि केरल में 1960 के दशक से अब तक वामपंथियों के हाथों इसके 300 से ज्यादा कार्यकर्ताओं की निर्ममता से हत्या की जा चुकी है। वर्ष 2016 में वामपंथी लोकतांत्रिक मोर्चा(एलडीएफ) ने केरल में विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कर अपनी सरकार बनाई। तब से वामपंथियों और आरएसएस के बीच संघर्ष और सघन हो गया है।

हालांकि हम कह सकते हैं कि विश्वविद्यालयों में एबीवीपी और वाम-समर्थित छात्र संगठनों के बीच हो रही ताजा झड़प का स्त्रोत भारतीय जनता पार्टी की 2014 के लोकसभा चुनाव में हुई भारी जीत को माना जा सकता है। इसके बाद हुए केरल के घटनाक्रम ने आग में घी का काम किया है।

साल 2014 में भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने के बाद उसकी सरकार की एक प्राथमिकता यह है कि विश्वविद्यालय कैंपस में मार्क्सवादी घुसपैठ और उसके व्यापक प्रभाव को कम किया जाए। इस लिहाज से पाठ्यक्रमों में बदलाव करने से ले कर महत्वपूर्ण पदों पर गैर वामपंथियों की नियुक्तियां करने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं।

आरएसएस ने हमेशा से माना है कि अकादमिक संस्थान और विश्वविद्यालय कैंपसों में 1970 के दशक से ही कांग्रेस के सहयोग से वामपंथियों की ‘घुसपैठ’ होती रही है।

वामपंथियों को इससे भरी झटका लगा है और वे इसकी तीखी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। अधिकांश महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में मौजूदा सरकार द्वारा नए कुलपितयों की नियुक्ति की जा चुकी है। इन नए कुलपतियों के बारे में सभी को पता है कि ये वामपंथी विचारधारा के नजदीक नहीं हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड, गुजरात और असम जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में भाजपा की सरकार होने की वजह से सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही नहीं बल्कि राज्य विश्वविद्यालयों में भी बदलाव हो रहे हैं। इसका प्रभाव चारों ओर पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर आरएसएस-समर्थित शिक्षक संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट ने लंबे समय बाद वापसी करते हुए इस साल की शुरुआत में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के महत्वपूर्ण चुनावों में जीत दर्ज की। अभी यह देखा जाना बाकी है कि यह महज तात्कालिक बदलाव है या फिर इसकी रफ्तार और बढ़ती है।

इस संबंध में हाल में हुए एक महत्वपूर्ण आयोजन की चर्चा करना प्रासंगिक होगा जो ज्यादा चर्चा में नहीं आया, लेकिन अकादमिक जगत में बदलती बयार का स्पष्ट संकेत देता है। हाल ही में आरएसएस समर्थित संगठन भारतीय शिक्षण मंडल और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) ने साझा तौर पर “भारत बोध” विषय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। यह सम्मेलन दिल्ली के इग्नू परिसर में 23 से 25 फरवरी, 2017 को आयोजित किया गया था। दिलचस्प यह है कि इस सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने किया जिसके फौरन बाद मुख्य भाषण आरएसएस के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी ने दिया। इस तीन दिन के सम्मेलन के दौरान आरएसएस के शीर्ष नेता लगातार मौजूद रहे और कुलपतियों व अकादमिक जगत के लोगों के साथ मेल-जोल बढ़ाते रहे। इन अकादमिक विशेषज्ञों ने यहां “भारत बोध” विषय पर 125 से ज्यादा शोधपत्र पेश किए। इस घटनाक्रम को अकादमिक जगत में आरएसएस की ओर से अपने शक्ति प्रदर्शन के तौर पर भी देखा जा सकता है। 24 राज्यों और आधा दर्जन से ज्यादा देशों के प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में भाग ले कर विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की, जिनमें विज्ञान से ले कर कला-संस्कृति जैसे विषय शामिल हैं और यह पूरी चर्चा गैर-वामपंथी ढांचे से बाहर हुई।

आरएसएस को यह समझ में आ गया है कि वामपंथ चुनावी राजनीति में हाशिये पर आ चुका है और त्रिपुरा और केरल को छोड़ कर कहीं भी सरकार गठित करने में नाकाम रहा है। संसद के साथ ही उन राज्यों में भी इसके सदस्यों की संख्या लगातार घटती जा रही है, जहां ये कभी प्रभाव में रहे हैं। वामपंथ का अंतिम अरण्य विश्वविद्यालय परिसर ही रह गए हैं, जहां शिक्षकों के बीच इनका काफी प्रभाव है। छात्रों के बीच वाम-समर्थित संगठन उतने लोकप्रिय नहीं हैं, जितने एबीवीपी या कांग्रेस समर्थित छात्र संगठन नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई)।

साथ ही वामपंथी भी यह समझ रहे हैं कि उन्हें हाशिये पर धकेला जा रहा है और अब उन्हें अपना अस्तित्व बचाना है तो संघर्ष करना होगा। ऐसे में उन्होंने एक रणनीतिक चालाकी दिखाते हुए खुद को “उदारवादी मूल्यों” का समर्थक बताना शुरू कर दिया है। आरएसएस और एबीवीपी के साथ चल रहे विचारधारा से जुड़े झगड़े को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” और “दलितों के हक” की लड़ाई जैसे उदारवादी मूल्यों के साथ जोड़ा जा रहा है। स्पष्ट संकेत हैं कि आरएसएस और वामपंथियों के बीच यह संघर्ष और तीव्र होगी और इसकी रणभमि मुख्य रूप से हमारे विश्विद्यिालय परिसर ही बनेंगे।

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