हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ट्विटर पर घोषणा की कि वह सीरिया में आईएसआईएस-विरोधी और असद-विरोधी गुटों की सहायता कर रहे तथा आईएसआईएस के खिलाफ ऑपरेशन इन्हेरन्ट रिजॉल्व अम्ब्रेला के तहत पश्चिमी गठबंधन की अगुवाई कर रहे अपने सैनिकों को वापस बुलाएंगे। हालांकि ट्विटर के जरिए अपने गठबंधन सहयोगियों और खास तौर पर मौजूदा प्रशासन तक पहुंचाई गई अमेरिका द्वारा आईएसआईएस को “परास्त” किए जाने की राष्ट्रपति ट्रम्प की घोषणा, दरअसल सीरिया संकट के बारे में तथ्यों की गलत जानकारी और गलत ढंग से परिकल्पित दृष्टिकोण है, जिसके क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह के आशय हैं।
आईएसआईएस के “परास्त” होने की कहानी नई नहीं है और संघर्ष से सैनिकों को वापस बुलाने का इरादा भी ट्रम्प ने कोई रातोंरात नहीं किया है। मार्च 2018 में, ओहायो राज्य में आयोजित एक रैली में राष्ट्रपति ट्रम्प ने घोषणा की थी कि अमेरिका जल्द ही सीरिया से हट जाएगा। ऐसा कदम उठाने का फैसला शायद जगजाहिर था, लेकिन इसे जिस ढंग से कार्यान्वित किया गया, वह स्वाभाविक रूप से संदेह उत्पन्न करता है। इस मामले पर राष्ट्रपति के ट्वीट्स पर ब्रिटेन, फ्रांस और इस्राइल जैसे सहयोगियों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एक स्वर से इस कदम की आलोचना की है। उन्हें भी संभवत: इस फैसले की जानकारी सोशल मीडिया से ही मिली। अमेरिका के करीबी सहयोगी ब्रिटेन ने इस फैसले के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए बार-बार कहा कि आईएसआईएस का खतरा “अब तक बरकरार है।”
राष्ट्रपति द्वारा ट्वीटर पर घोषित इस निर्णय के महत्वपूर्ण परिणाम हुए। अमेरिका के रक्षा मंत्री एवं सेना के पूर्व जनरल जेम्स मैटिस, जिनकी नियुक्ति से पहले अमेरिकी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने उनका मखौल उड़ाया था — ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
पिछले दो बरसों में हालात में हुए बदलावों के चलते जनरल मैटिस को आज ट्रम्प प्रशासन के सबसे विवेकपूर्ण अधिकारी और व्हाइट हाउस में होने वाले अस्थिर फैसलों को रुकवा सकने वाले शख्स के तौर पर देखा जाता है। हालात उस समय और भी बिगड़ गए, जब मैटिक की घोषणा के बाद आईएसआईएस के खिलाफ संचालित ऑपरेशन इन्हेरन्ट रिजॉल्व अम्ब्रेला के प्रमुख ब्रेट मैकगर्क ने भी अपने सेवानिवृत्त होने के समय से दो महीने पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया। मैकगर्क सीरिया और इराक में अमेरिकी कार्रवाई का नेतृत्व कर चुके हैं और उन्हें पश्चिमी गठबंधन को एकजुट रखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा जाता है। मैटिस और मैकगर्क दोनों ने सीरिया में आईएसआईएस-विरोधी गुटों को बार-बार अमेरिकी समर्थन का भरोसा दिलाया था, लिहाजा मौजूदा कदम को उन्हीं के नेतृत्व द्वारा ही उनके वायदों से विश्वासघात किए जाने के तौर पर देखा जा रहा है।
राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा आईएसआईएस-विरोधी कार्रवाइयों को रोक कर रखने और उस पर बल देने का निर्णय तुर्की तक फोन कॉल के जरिए पहुंचाया गया। बावजूद इसके कि तुर्की ने आईएसआईएस को उसके शुरूआती बरसों के दौरान सीरिया और इराक में पनपने में गुपचुप तरीके से सहायता दी थी। दरअसल कुर्दों की स्वतंत्र राष्ट्र की मांग और परतिया कारकेरेन कुर्दिस्तान (पीकेके, यानी कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी) के खिलाफ तुर्की के संघर्ष के कारण कुर्दों की ताकत कम करने के इरादे से तुर्की ने ऐसा किया था। सीरिया के उत्तरी भागों में तुर्की की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है और जहां एक ओर, वर्तमान में आईएसआईएस का जमाव दियर अल ज़ोर के मरुस्थली इलाकों के भीतर और उनके आस पास है, जो तुर्की की सीमा से काफी दूर दक्षिण में सीरिया के अंदरूनी हिस्से में है, ऐसे में यह देखना बाकी है कि तुर्की अब सीरिया में किस तरह ऑपरेट करेगा। तुर्की समर्थित मिलिशिया में इस्लामिक गुट भी शामिल हैं, जो असद विरोधी होने के बावजूद अपनी कमान वाले क्षेत्रों के आसपास इस्लामी ढांचे बनाने के इच्छुक हैं। इसबीच, कभी यूनाइटेड किंगडम के आकार जितने भूभाग की कमान संभालने वाले आईएसआईएस के हाथ करीब-करीब खाली हो चुके हैं। हालांकि इलाके छिन जाने का आशय आईएसआईएस का अंत हो जाना नहीं है। यहाँ तक कि आईएसआईएस के रूप में जन्म लेने से पहले यह गुट और इसकी विचारधारा इराक में अल कायदा सहित विविध नामों से प्रचलन में थी। इराक में आईएसआईस की दावेदारी वाले हमले और सत्ता में शून्य बरकरार रहने की रिपोर्ट्स मिलना लगातार जारी है तथा क्षेत्र के विविध सामाजिक-आर्थिक वर्ग सक्रिय चुनौती बने हुए हैं।
यूं तो यह सच है कि विदेशी ताकतें और उनके सैन्य हस्तक्षेप से इस मसले का समाधान नहीं हो सकता और अक्सर उनके नतीजे प्रतिकूल रहे हैं, ऐसे में वर्तमान में जारी ऑपरेशन्स पर रोक लगाने से सिर्फ क्षेत्र के आतंकी गुटों को ही फिर से वापसी करने का मौका मिलेगा, चाहे वे इस्लामिक स्टेट जैसे विशाल आकार और संगठित रूप में हों या छोटे आतंकी आंदोलन वाले अपने परम्परागत स्वरूप में हों।
बेंजामिन बाहने और पैट्रिक बी जॉनसन ने 2017 में फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में प्रकाशित आईएसआईएस कुड राइस अगेन शीर्षक वाले अपने महत्वपूर्ण निबन्ध में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि पुनरुत्थान की दृष्टि से आईएसआईएस का रिकॉर्ड बहुत अच्छा है और “यह गुट साबित कर चुका है कि वह खुद को मरणासन्न स्थिति से उबारने में समर्थ है।” आईएसआईएस ने जहां इराक और सीरिया में खुद को मुश्किलों से फौरन उबार लिया, वहीं दो प्रमुख विदेशी स्थानों अफगानिस्तान और लीबिया में व्यापक नियंत्रण भी बरकरार रखा। जहां एक ओर आईएसआईएस खोरासान ने अफगानिस्तान में तेज गति से विस्तार किया और एक ऐसा नेटवर्क तैयार करने के लिए हक्कानी नेटवर्क के बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल किया, जो काबुल जैसे कुछ स्थानों पर तालिबान का प्रतिद्वंद्वी है, वहीं दूसरी ओर यह 2011 में पश्चिमी ताकतों की खराब रणनीति वाली कार्रवाई के बाद बचे-खुचे लीबिया में हमले करना जारी रखे हुए है। लीबिया की राजधानी त्रिपोली में हाल ही में हुए हमले का जिम्मा आईएसआईएस ने लिया है, जबकि यह लेख लिखा जा रहा था। अफ्रीकी साहेल में आईएसआईएस समर्थक गुटों का पनपना जारी है।
तथाकथित इस्लामिक स्टेट के खिलाफ युद्ध में कुर्द सबसे आगे रहे हैं और उनको ज्यादातर ट्रेनिंग नेटो के सदस्य देशों से मिली है और अमेरिकी सैनिक संघर्ष के ‘सलाहकार’ के तौर पर सेवायें दे रहे हैं।
ख़िलाफ़त की हार के बाद सीरिया का भविष्य लम्बे अरसे तक अस्पष्ट रहा। ऐसे में इस तरह अचानक अमेरिकी सैनिकों की वापसी से कहीं ज्यादा हैरतंगेज बात यह है कि व्हाइट हाउस ने यह कदम अमेरिकी रक्षा विभाग और नेटो सहयोगियों को अंधेरे में रखकर उठाया है। यही बात अब चिंता का प्रमुख कारण बन गई है। मसला सिर्फ सैनिकों की वापसी का नहीं है, बल्कि बिना किसी तरह की चर्चा या बिना सहयोगियों को ध्यान में रखे और बिना किसी उचित प्रक्रिया का पालन किए, जिस अजीब तरीके से यह कदम उठाया गया है, उसे लेकर विश्व व्यवस्था तथा वैश्विक संस्थाओं को कमजोर बनाने में अमेरिका की भूमिका को लेकर बैचनी उत्पन्न हो गई है। तुलनात्मक रूप से देखें, तो इन सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों की तादाद में भी कटौती की गई है। अमेरिका के ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ के तहत पिछले 17 साल से तालिबान के खिलाफ जारी युद्ध में शामिल रहा अफगानिस्तान, अब तालिबान की जीत के अंदेशे के कारण दुविधा में है। भारत जैसे देश जिनका अफगानिस्तान की सुरक्षा को लेकर काफी कुछ दाव पर है, उन्हें अंदेशा है कि ट्रम्प अपने साझेदार देशों या क्षेत्र के प्रमुख देशों से सलाह किए बगैर अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को पूरी तरह हटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर सकते हैं, शायद दूसरी बार नाकाम रहे देश को सभी एलिमेंट्स के लिए खुला छोड़ सकते हैं।
यह दोहराना महत्वपूर्ण है कि शुरुआत में अमेरिका ने आईएसआईएस के खिलाफ अपने सैनिकों को सलाहकार के तौर पर तैनात किया था। इस्लामिक स्टेट को हराने के लिए पश्चिमी देशों के अभियानों में स्थानीय लोगों ने सबसे ज्यादा सहायता की थी — जिनमें इराक में इराकी सशस्त्र बल और सीरिया में कुर्द मिलिशिया शामिल थे। सामरिक भूमिकाओं के लिए जहां थल सैनिक तैनात किए गए थे, वहीं पश्चिमी वायु शक्ति ने खिलाफत को नुकसान पहुंचाने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बिना वायु सेना की सहायता के इस अभियान का परिणाम बिल्कुल अलग भी हो सकता था। सैन्य अभियान के बाद भी क्षमता निर्माण के उपाय करने के लिए अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन की जरूरत होगी ताकि आईएसआईएस को दोबारा सिर उठाने या उसके जैसे किसी अन्य गुट को पनपने से रोका जा सके।
कहा जाता है कि एक बार किसी तालिबान कमांडर ने अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले के बारे में कहा था कि ‘उनके पास घड़ियां हैं, लेकिन हमारे पास वक्त है।’ वह पक्ष यदि चाहे, तो संघर्ष में अपने से कहीं ज्यादा ताकतवर दुश्मन के थमने का इंतजार कर सकता है। हो सकता है कि आईएसआईएस-विरोधियों विशेषकर कुर्दों के सप्लाई और ट्रेनिंग के चैनल बंद हो जाने से उत्साहित आईएसआईएस, एक विद्रोही गुट के रूप में अपने पुनर्गठन के लिए दोबारा से कुछ ऐसा ही होने की राह देख रहा हो। जहां एक ओर ओबामा प्रशासन द्वारा सीरिया में अव्यवस्थित रवैया अपनाने के बाद से वहां अमेरिका का अभियान काफी जटिल हो चुका है, वहीं दूसरी ओर संस्थागत अराजकता के जरिए अमेरिकी विदेश नीति को नया आकार देने की मौजूदा तात्कालिक सोच दुनिया भर में केवल आईएसआईएस जैसी लोकतंत्र विरोधी ताकतों के लिए ही मददगार साबित होगी।
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