Published on Dec 27, 2016 Updated 0 Hours ago
डिजिटल इंडिया के लिए गैर-जियोस्टेशनरी उपग्रह समूह

आज हम अपनी जिंदगी किस तरह जीते हैं, इसमें विज्ञान और तकनीकी की बहुत अहम भूमिका हो गई है। तकनीकी खोज और सूचना तक लोगों की पहुंच में आए भारी बदलाव ने लोगों के आपस में संपर्क करने के तरीके को बदल दिया है। पहले आपको किसी चीज के बारे में जानने की जरूरत होती थी, तो पुस्तकालय का रुख करते थे, लेकिन अब कोई भी उससे जुड़ी सूचना आसानी से इंटरनेट पर देख सकता है। इसकी मदद से अब लोग डॉक्टर, वकील आदि पेशेवरों से ज्यादा प्रासंगिक और उपयोगी तरीके से बातचीत कर सकते हैं। इंटरनेट की पहुंच ज्यादा तेज रफ्तार से बढ़ रही है, खास तौर पर स्मार्ट फोन के आने के बाद।

व्हाट्सऐप का उपयोग करने वालों की संख्या एक अरब को पार कर चुकी है, जबकि इसी तरह की एक और सेवा स्काइप का अब भी 7.5 करोड़ लोग ही उपयोग करते हैं (स्काइप पर रजिस्ट्रेशन के लिए मोबाइल नंबर नहीं, बल्कि ईमेल एड्रेस की जरूरत होती है)। ये भी मोबाइल की लगातार बढ़ती संख्या को ही दर्शाते हैं। भारत में चार लाख से ज्यादा सेल फोन टॉवर हैं जिनकी सेटेलाइट कनेक्टिविटी हमें यूनिवर्सल कवरेज मुहैया करवाती है।

सारिणी–1

वर्ष इंटरनेट उपयोगकर्ता ** पहुंच (आबादी का प्रतिशत) कुल आबादी उपयोग नहीं करने वाले (इंटरनेट विहीन) 1Y उपयोगकर्ता में बदलाव 1Y उपयोगकर्ता में बदलाव जनसंख्या में बदलाव
 2016* 462,124,989 34.8 % 1,326,801,576 864,676,587 30.5 %  108,010,242  1.2 %
 2015* 354,114,747 27 % 1,311,050,527 956,935,780 51.9 %  120,962,270  1.22 %
 2014 233,152,478 18 % 1,295,291,543 1,062,139,065 20.7 %  39,948,148  1.23 %
2013 193,204,330 15.1 % 1,279,498,874 1,086,294,544 21.5 %  34,243,984  1.26 %
2012 158,960,346 12.6 % 1,263,589,639 1,104,629,293 26.5 %  33,342,533  1.29 %
2011 125,617,813 10.1 % 1,247,446,011 1,121,828,198 36.1 %  33,293,976  1.34 %

* 1 जुलाई, 2016 का अनुमान
** इंटरनेट उपयोगकर्ता = वे व्यक्ति जो घर पर किसी भी उपकरण या कनेक्शन के जरिए इंटरनेट का उपयोग कर सकते हैं

हाल के वर्षों में इंटरनेट सेवा प्रदान करने के लिए जियोस्टेशनरी (जियो) उपग्रह एक विकल्प के तौर पर उभरे हैं। जियोस्टेशनरी उपग्रह धरती की भूमध्यरेखा से 36,000 किलोमीटर ऊपर स्थित होते हैं यह बहुत बड़े क्षेत्र को कवर करते हैं। एक उपग्रह धरती के एक तिहाई हिस्से को कवर कर सकता है। इससे इंटरनेट सेवा प्रदाता (आईएसपी) को व्यापक भौगोलीय क्षेत्र में ग्राहक हासिल करने की छूट मिलती है, हालांकि इसकी प्रवाह क्षमता (थ्रूपुट) कम होता है। जीयो हाई थ्रूपुट सेटेलाइट (एचटीएस) के जरिए स्पॉटबीम सेवा उच्च डेटा दर उपलब्ध करवाती है। आईएसपी और ग्राहक दोनों ही सेटेलाइट के जरिए एंटेना डिश लगा कर बिना तार के जुड़े होते हैं। हालांकि नियामक सीमाओं की वजह से मोबाइल फोन इन सेवाओं से नहीं जुड़ सकते हैं।

खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बढ़ाने की जरूरत को बहुत गंभीरता से महसूस किया जा रहा है। इसके साथ ही सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और युवा कार्यबल के साथ भारत ‘डिजिटल डिवाइड’ को दूर करने का संघर्ष कर रहा है। जून, 2016 तक 46.2 करोड़ (कुल आबादी का 39%) लोग इंटरनेट से जुड़ चुके हैं। लेकिन जब हमारे पड़ोसी देश अपनी बूढ़ी होती आबादी से जूझ रहे हैं और हम जनसांख्यिकी लाभ यानी डेमोग्राफिक डिविडेंड की अक्सर बात करते रहते हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर भारत ने कुछ अहम फैसले नहीं लिए तो यह जनसांख्यिकी विपदा में भी बदल सकती है।

यह भी अनुमान लगाया गया है कि अगर भारत सौ फीसदी इंटरनेट कनेक्टिविटी हासिल कर ले तो वर्ष 2020 तक यह अपने सकल घरे लूउत्पाद में एक ट्रिलियन डॉलर अतिरिक्त जोड़ सकता है।

इंटरनेट सेवाओं को सभी के लिए और खास तौर पर ग्रामीण आबादी के लिए उपलब्ध करवाने पर अब भारत सहित सभी सरकारों का जोर तेजी से बढ़ता जा रहा है। आर्थिक कारण इसके लिए खास तौर पर मजबूर कर रहे हैं। लगभग 45,000 भारतीय गांवों में यूनिवर्सल मोबाइल कनेक्टिविटी है, जबकि 1,20,000 गांव ग्रामीण इंटरनेट मिशन के जरिए जुड़ेंगे जो फाइबर ऑप्टिक सेवा के जरिए हो रहा है। हालांकि 1,00,000 गांव फिर भी नहीं जुड़ पाएंगे और इस वजह से जो डिजिटल खाई पैदा होगी, वह सामाजिक और राजनीतिक रूप से बहुत खतरनाक होगी। अधिकांश नागरिकों के लिए इंटरनेट से जुड़ने का सबसे आसान तरीका सस्ते स्मार्ट फोन ही हैं। भारत के ग्रामीण इलाकों में स्मार्ट फोन की पहुंच को ध्यान में रखते हुए पहले से मौजूद सेल फोन टॉवर का उपयोग करते हुए उन्हें इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध करवाई जा सकती है। इसे हाई थ्रूपुट लिओ उपग्रह के जरिए मुमकिन बनाया जा सकता है जो ग्रामीण इलाकों के सेल फोन टॉवर तक इंटरनेट उपलब्ध करवाएंगे।

लियो उपग्रह-आधारित इंटरनेट

अमेरिका के संघीय संचार आयोग ने केए बैंड सेटेलाइट इंटरनेट उपयोग के लिए पहली बार आवेदन 1995 में मंगवाए थे। आवेदकों में टेलीडेसिक नाम की कंपनी भी थी जिसने इंटरनेट सेवा देने के लिए 840 लो अर्थ ओर्बिट उपग्रह (लियो) की योजना बनाई थी। हालांकि यह योजना आखिरकार 2003 में नाकाम हो गई। इंटरनेट सेवा प्रदान करने के लिए पहली उपग्रह सेवा है यूटेलसैट की ई-बर्ड (वर्तमान में यूटेलसैट 31ए) जो पूरे यूरोप में जियोस्टेशनरी उपग्रह के जरिए यह सेवा दे रही है। ह्यूग्स नेट, एक्सीड (वायासैट की) और डिशनेट अमेरिकी निजी कंपनियों में से हैं जो जियोस्टेशनरी उपग्रह का उपयोग करते हुए पूरे अमेरिका में उपग्रह इंटरनेट उपलब्ध करवा रही हैं। टेरेस्टेरियल ग्राहकों के अलावा वीयासेट विमान यात्रा के दौरान यात्रियों को, समुद्री नौकाओं को और ऑफशोर तेल और गैस स्टेशनों को भी हाई स्पीड इंटरनेट सेवा प्रदान कर रही है।

इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशन यूनियन के मुताबिक, सेटेलाइट आधारित इंटरनेट सेवा का चयन करने वालों की संख्या 2011 के 15 लाख के मुकाबले 2020 में बढ़ कर 60 लाख होने की उम्मीद है। इस बढ़ते चलन में उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश ही सबसे आगे रहने वाले हैं। उपयोगकर्ता की संख्या में बढ़ोतरी के साथ ही सेटेलाइट आईएसपी आवंटित स्पेक्ट्रम के उपयोग को बेहतर बना कर हायर डेटा रेट की मांग को भी पूरा करने की कोशिश में जुटी हैं।
हाई थ्रूपुट सेटेलाइट (एचटीएस) इस तरह डिजाइन की गई होती हैं कि ये सामान्य सेटेलाइट के मुकाबले दुगनी से ले कर 20 गुनी क्षमता पर काम कर सकें। वायासैट- 1 और ईको स्टार XVII दोनों ही 100 जीबीआईटी/सेकेंड की क्षमता प्रदान करती हैं जो सामान्य केयू बैंड सेटेलाइट की थ्रूपुट क्षमता के मुकाबले लगभग सौ गुनी है। यह स्पॉट बीम तकनीक की मदद से मुमकिन हो सका है जहां सेटेलाइट बीम को खास भौगोलिक क्षेत्र पर ही फोकस करवाया जाता है, जहां आईएसपी के उपभोक्ता ज्यादा होते हैं। एचटीएस फ्रिक्वेंसी रीयूज तकनीक का भी इस्तेमाल करती हैं ताकि स्वीकृत स्पेक्ट्रम का अधिकतम उपयोग हो सके। एचटीएस सस्ती भी हैं। वायासैट- 1 अंतरीक्ष में प्रति सेकेंड गीगाबाइट डेटा की आपूर्ति 30 लाख डॉलर से कम में करती है जबकि सामान्य सेटेलाइट में इस काम पर 10 करोड़ डॉलर का खर्च आता है। 2020 तक एचटीएस प्रति सेकेंड 1.34 टेट्रा बाइट से अधिक की क्षमता हासिल कर लेंगे।

लेकिन इस बाजार के लिए‘लेटेंसी’अब भी समस्या बना हुआ है। लेटेंसी किसी डेटा पॉकेट के उपग्रह के जरिए ग्राहक से सर्वर तक जाने और फिर वापस आने के सफर में लगने वाला समय है। जियोस्टेशनरी उपग्रह के मामले में लेटेंसी लगभग 500 मिलिसेकेंड है। हालांकि इंटरनेट पर मिलने वाली बहुत सी सेवाओं के लिए यह कोई समस्या नहीं है, लेकिन लाइव स्ट्रीमिंग या वीडियो गेम खेलने आदि में ग्राहक को देरी होती है और इस वजह से समस्या होती है। इसके अलावा जियोस्टेशनरी वृत्त में लगातार भीड़ बढ़ रही है जिसकी वजह से नए उपग्रह के लिए समस्या हो रही है। इतनी ऊंचाई से इंटरनेट सेवा प्रदान करने से सिग्नल टकराने की समस्या बनी रहती है क्योंकि यहां पृथ्वी पर मौजूद स्टेशन और कक्ष में मौजूद दूसरे उपग्रहों से होने वाले प्रसारण से इसमें बाधा पहुंच सकती है। अब तक इंटरनेट से दूर रह गए लोगों की संख्या तीन अरब से बढ़ कर चार अरब तक पहुंच गई है। इसका नतीजा यह है कि लियो उपग्रह का समूह उतारने में दिलचस्पी बढ़ती जा रही है जो पृथ्वी के सभी कोनों तक सतत इंटरनेट सेवा प्रदान कर सकेगा और वह भी कम लेटेंसी (~ 50 मिलिसेकेंड) के साथ। इन लियो उपग्रहों से सेल फोन टॉवर के माध्यम से जुड़ा जा सकता है, जिसे बहुत कम ऊर्जा की जरूरत होती है।

वन वेब ने एयरबस के साथ मिल कर इन-फ्लाइट इंटरनेट सेवा प्रदान करने के लिए तीन अरब डॉलर की लागत से 648 उपग्रह उतारने की योजना बनई है जो 2018 से शुरू हो जाएंगे। इन उपग्रहों के समूह के जरिए आठ जीबीपीएस के हाई थ्रूपुट और 30 मिलिसेकेंड से कम की लेटेंसी की सेवा मिलने की उम्मीद है। स्पेसएक्स ने इसी इरादे से वर्ष 2017 से शुरू कर अगले पांच साल के दौरान लगभग 4,000 लियो उपग्रह उतारने की योजना का एलान कया है। गूगल ने स्पेसएक्स के साथ साझेदारी की योजना बनाई है और एक अरब डॉलर का निवेश किया है। इसी दौरान, वन वेब में वर्जिन ग्रुप और क्वैलकॉम ने भी दिलचस्पी दिखाई है। हालांकि ऐसे बड़े मिशन में कामयाब होने की क्षमता के लिहाज से स्पेसएक्स बेहतर स्थिति में है क्योंकि यह इन उपग्रहों को अपने ही दम पर उतारने में सक्षम है, जबकि वन वेब को रूस के सोयूज और वर्जिन गैलेक्टिक के लांचवन रॉकेट पर निर्भर रहना होगा।

भारतीय परिदृश्य

जियोस्टेशनरी (जीएसओ) हाई थ्रूपुट सेटेलाइट (एचटीएस) के जरिए जुड़ने की लागत ज्यादा है, क्योंकि यहां हाई-पॉवर एंप्लीफायर (एचपीए), एंटेना, एलेक्ट्रॉनिक्स और बैक-अप पॉवर को मिला कर प्रति सेल टॉवर 10,000 डॉलर से ज्यादा का खर्च आ सकता है। इसलिए हम भविष्य के लो-अर्थ ऑर्बिट (लियो) उपग्रह समूह पर विचार करेंगे ताकि हमारी लागत कम हो सके। सारिणी 1 में लियो उपग्रह और जीएसओ उपग्रह की तुलना की गई है।

सारिणी -1

जियो/ लियो एचटीएस तुलना

जियो लियो
लेटेंसी (2 एचओपी) ~500एमएस <50एमएस
एचपीए पॉवर, प्रति 216 एमएचजेड एचटीएस ट्रांसपोंडर (अधिकतम थ्रूपुट) 1किलोवॉट 1वॉट
छूट गई कवरेज पोल और अधिकतम गहरी घाटियां शून्य (आउटडोर एक्सेस प्वाइंट)
एक्लिप्स (ऊर्जा भंडार के आकार हेतु) एक्वीनोक्सेज (<=70 मिनट) प्रति दिन एक-घंटे के 12 चक्र
समुद्र/भूमि कवरेज सिर्फ जमीन के हिस्से को ही लक्ष्य कर सकता है किसी भी वक्त ऑर्बिट का >60% समुद्र के ऊपर होगा; <60%, ऑर्बिट के सट्रीरेबल स्वैद का लाभ उठा रहा होगा
समुद्री बाजार तक पहुंच 10के जहाज सतह पर मौजूद लगभग सभी जहाज
प्रति उपग्रह क्षमता एफएसएस उपग्रह से 20 गुनी एफएसएस उपग्रह से 80 गुनी
वैश्विक नेटवर्क उपग्रह/टेरेस्टेरियल सिर्फ उपग्रह
बीम का व्यास 100-300 किलोमीटर 25-7 किलोमीटर

ऐसे समूह के लिए ग्राउंड स्टेशन ढांचे पर पूंजीगत खर्च जियोस्टेशनरी इंटरनेट उपग्रह के मुकाबले 5% से भी कम हो सकता है। अंतर-महाद्वीपीय संचार के लिहाज से लीयो उपग्रह समूह की बहुत अहमियत है। 2.5 करोड़ भारतीय प्रवासी समुदाय की अपने परिचित मीडिया, मनोरंजन और अन्य इंटरेक्टिव सेवाओं की मांग को पूरा करने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। हिंद महासागर में बढ़ती समुद्री जरूरतों को पूरा करने के लिए भी इसका आसानी से उपयोग किया जा सकता है। यह खास तौर पर समूद्री यातायात पथ और मछुआरों की नौकाओं को समुद्र में दूर तक संपर्क में बने रहने की सुविधा उपलब्ध करवाता है। फीजी, मॉरिशस और त्रिनिडाड (इन तीन में 35 लाख वर्ग किलोमीटर के विशेष आर्थिक क्षेत्र, ईईजेड हैं) जैसे कुछ द्वीप राष्ट्रों में भारतीय प्रवासियों का अनुपात राजनीतिक रूप से बहुत अहम है। लियो समूह की ओर से मुमकिन हो रहे सस्ते अंतरराष्ट्रीय संपर्क को भारत आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकता है और इन द्वीप राष्ट्रों के ईईजेड को विकसित करने में भागीदारी कर सकता है। साथ ही उन्हें अपने विज्ञान और तकनीकी गतिविधियों में शामिल कर सकता है। ये तीन द्वीप राष्ट्र ठीक आठ टाइम जोन दूर हैं और स्वतंत्र भारतीय डीप-स्पेस नेटवर्क तैयार कर सकते हैं।

अंतर-महाद्वीपीय संचार के लिहाज से लियो उपग्रह समूह की बहुत अहमियत है। 2.5 करोड़ भारतीय प्रवासी समुदाय की अपने परिचित मीडिया, मनोरंजन और अन्य इंटरेक्टिव सेवाओं की मांगको पूरा करने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। हिंद महासागर में बढ़ती समुद्री जरूरतों को पूरा करने के लिए भी इसका आसानी से उपयोग किया जा सकता है।

स्पेक्ट्रम आवंटन में बेहतर समन्वय कर लियो समूहों में सिग्नल टकराने की समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है। चूंकि लियोस्टेशनरी उपग्रह के लिए जितनी ऊर्जा की जरूरत होती है, उससे कम उपलब्ध होती है इसलिए सिग्नल टकराव की समस्या को डिजाइन तैयार करने के समय ही दूर किया जा सकता है। हालांकि लियो की अधिक संख्या की वजह से जाम की स्थिति और उपग्रह के समाप्त हो जाने को ले कर अभी बहस की जा सकती है। खास कर जबकि सेवाओं के लिए सैकड़ों उपग्रह संचालित किए जा रहे हैं। विभिन्न एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल और नई तकनीक को अपना कर इन समस्याओं को आसानी से दूर किया जा सकता है। चूंकि इसकी लागत इससे होने वाले फायदों से बहुत कम है, इसलिए इस प्रस्ताव पर विमर्श करना उपयोगी होगा।

लियो एचटीएस समूह के जरिए उपग्रह संपर्क जोड़ने में जमीन के स्टेशन पर होने वाला अतिरिक्त पूंजीगत खर्च (कैपेक्स) जियो एचटीएस उपग्रह के मुकाबले 5% से भी कम होगा। इसके अलावा वैश्विक लियो एचटीएस समूह पर स्पेस-सेगमेंट का पूंजीगत खर्च उसी तरह के जियो एचटीएस उपग्रह से मिलने वाले कवरेज के मुकाबले इतना कम होगा कि सेवा प्रदाता के ऑपरेशनल खर्च (ऑपेक्स) को भी कम (अगर हम लियो समूह के जमीन से समुद्र के कवरेज की मुश्किल स्थिति को ध्यान में रखें तो भी) कर देगा।

उपग्रह आधारित इंटरनेट का विचार नया तो नहीं है, लेकिन हाल में स्पेसएक्स और वन वेब जैसी कंपनियां सामने आई हैं और इसमें दिलचस्पी बढ़ी है। इसके बावजूद लेटेंसी वह समस्या है जिसकी वजह से इस विचार को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं मिल सकी है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह इंटरनेट के सामान्य उपयोग के लिहाज से बहुत बड़ी समस्या नहीं है लेकिन जो लोग ऑनलाइन गेम या वीडियो कांफ्रेंसिंग आदि कर रहे हों, उनकी सेवा गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है। उपग्रह को लियो पर स्थापित कर देने से लेटेंसी का मुद्दा बहुत हद तक दूर हो सकता है और कवरेज भी जीयो सेटेलाइट के अनुरूप ही बनी रहेगी जो लगभग 22,000 मील ऊपर हैं। इसका मतलब है कि बेहतर कवरेज के लिए ज्यादा संख्या में लियो उपग्रह चाहिए होंगे। 1990 के दशक में जब इस विचार पर काम शुरू हुआ था, उस समय के मुकाबले लागत काफी कम हुई है लेकिन यह वास्तव में व्यवहारिक और सस्ता होगा या नहीं यह सवाल अब भी बना हुआ है, जिसका जवाब तलाशा जाना जरूरी है।

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