Author : Terri Chapman

Published on Feb 11, 2020 Updated 0 Hours ago

सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के वैश्विक विस्तार में अहम प्रगति हुई है फिर दुनिया की ज्यादातर आबादी ऐसे कार्यक्रमों के फायदे से वंचित है. बदलते वैश्विक स्थितियों को देखते हुए नियोक्ता, परिवार और राष्ट्र-राज्य केंद्रित पुरानी सोच पर पुनर्विचार करके सामाजिक सुरक्षा के नये मॉडल तैयार करने होंगे.  

बेकार होते सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की जगह नये मॉडल अपनाने की ज़रूरत

सामाजिक सुरक्षा-कवच कहते हैं सामाजिक सहायता और सामाजिक बीमा के कार्यक्रमों को. इन कार्यक्रमों को गढ़ा ही जाता है इसलिए कि उनसे नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हो सके. इन कार्यक्रमों का उद्देश्य बेरोज़गारी, माता-पिता के रुप में निभायी जाने वाली ज़िम्मेदारी, बीमारी और स्वास्थ्य-रक्षा, मां-बाप अथवा जीवन-साथी की मृत्यु, वृद्धावस्था, आवासन तथा सामाजिक अपवर्जन से जुड़ी ज़रूरतों की पूर्ति करना और जोखिमों को मिटाना होता है. [1] ऐसे कार्यक्रम अपने विस्तार और कवरेज के मामले में अलग-अलग किस्म के हो सकते हैं. कोई कार्यक्रम अपने कवरेज और विस्तार में सार्विक (युनिवर्सल) हो सकता है तो कोई ऐसा भी जिसके दायरे में लाभार्थियों का कोई लक्षित समूह ही शामिल किया जाये और ऐसे लाभार्थियों का चयन ये देखते हुए किया जाये कि उनके पास जीवन-यापन के क्या और कैसे साधन उपलब्ध हैं.

यों सामाजिक सुरक्षा-कवच का दायरा दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ा है लेकिन एक जाहिर सी बात ये भी है कि कई विकसित और विकासशील देश अपनी आबादी की सामाजिक सुरक्षा संबंधी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं. आज दुनिया की मात्र 29 प्रतिशत आबादी को व्यापक सामाजिक सुरक्षा-कवच हासिल है जबकि दुनिया की 55 प्रतिशत आबादी को किसी भी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम का कवच हासिल नहीं. [2]

सवाल उठता है कि आखिर सामाजिक सुरक्षा-कवच से जुड़े लाभ और सुरक्षा को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचाया जाय? इस प्रश्न पर विचार करते हुए तीन समकालीन अवधारणाओं पर पुनर्विचार करना ज़रुरी है : 1) सामाजिक सुरक्षा-कवच मुहैया करने के एक स्रोत के रुप में नियोक्ता (एम्पलॉयर) की भूमिका; 2) सामाजिक सुरक्षा-कवच मुहैया करने के क्रम में पात्रता और हकदारी तय करने के लिए अक्सर परिवार को एक इकाई के रुप में देखा जाता है, सो परिवार की धारणा पर पुनर्विचार; 3) ये देखना कि राष्ट्र-राज्य को सामाजिक सुरक्षा-कवच मुहैया कराने वाला एकमात्र स्रोत मानना पर्याप्त है या नहीं. इन तीन मूल प्रश्नों पर अगर हम विचार नहीं करते तो आशंका बनी रहेगी कि सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों से अधिकतर लोग कहीं बाहर ही ना रह जायें.

सिर्फ नियोक्ता ही क्यों ?

अर्थव्यवस्था का असंगठित क्षेत्र ही क्यों संगठित क्षेत्र में भी ऐसी कई नौकरियां हैं जो लोगों के लिए जीविका का ज़रिया तो हैं लेकिन जिन्हें एक मानक के तौर पर नौकरी करार नहीं दिया जा सकता, जैसे पार्ट-टाइम(अंशकालिक) काम करना, स्व-रोज़गार में लगा होना, अस्थायी किस्म की नौकरी करना, अनुबंध आधारित ऐसी नौकरी जिसमें काम के घंटे परिभाषित नहीं होते या फिर ऑन-कॉल रोज़गार में होना. इस तरह की गैर-मानक(नॉन स्टैंडर्ड) नौकरी करने वालों की संख्या भी विश्व में अच्छी-ख़ासी है. [3] . ऐसी नॉन-स्टैंडर्ड नौकरियां सिर्फ उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं या फिर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विशेषता नहीं. द ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के देशों में औसतन छह में से एक कामगार स्व-रोज़गार में लगा है और 13 प्रतिशत कामगार अस्थायी अनुबंध वाली नौकरियों में हैं. साल 2005 में संयुक्त राज्य अमेरिका में नॉन-स्टैंडर्ड रोज़गार में लगे कामगारों की संख्या कुल कार्यबल का 10.7 प्रतिशत थी जो 2015 में बढ़कर 15.8 प्रतिशत हो गई. [4] कई देशों में कुछ तादाद ऐसे कामगारों की हैं जो ऑनलाइन प्लेटफार्म (मंच) के लिए काम करते हैं और नॉन-स्टैंडर्ड श्रेणी की नौकरी करने वाले लोगों में इनकी संख्या अब बढ़वार पर है.

नॉन-स्टैंडर्ड नौकरियां सिर्फ उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं या फिर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विशेषता नहीं. द ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के देशों में औसतन छह में से एक कामगार स्व-रोज़गार में लगा है और 13 प्रतिशत कामगार अस्थायी अनुबंध वाली नौकरियों में हैं.

लेकिन सामाजिक सुरक्षा की ज्यादातर योजनाएं इस बुनियादी सोच पर आधारित होती हैं कि कोई कामगार पूर्णकालिक नौकरी में है और कामगार को उसका नियोक्ता (एम्पलॉयर) मातृत्व/पितृत्व अवकाश, स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना बीमा तथा बीमारी की अवस्था को ध्यान में रखते हुए दी जाने वाली सुविधाएं मुहैया करायेगा. [5]  सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के केंद्र में मौजूद इस धारणा के कारण नॉन-स्टैंडर्ड श्रेणी के काम में लगे ज्यादातर कामगार सामाजिक सुरक्षा-कवच हासिल करने से वंचित रह जाते हैं.

चूंकि नॉन-स्टैंडर्ड श्रेणी के रोज़गार विश्व में बहुतायत हैं और फिर अर्थव्यवस्था के असंगठित में काम करने वाले की संख्या भी बहुत ज्यादा है. सो, समाज का एक बड़ा हिस्सा नियोक्ता-केंद्रित सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों के दायरे में नहीं आता, उसे सामाजिक जोखिम और अभाव से निबटने के लिए ज़रुरी सुरक्षा हासिल नहीं हो पाती. ऐसे में नियोक्ता की भूमिका पर नये सिरे से विचार करना बहुत ज़रुरी है.

आधुनिक परिवार

जहां तक सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की हकदारी (एन्टाइटलमेंट) और पात्रता का सवाल है, इसकी एक इकाई के रुप में परिवार की भूमिका केंद्रीय मानी जा सकती है. यह तो नहीं कहा जा सकता कि परिवार का कोई एक ही रुप दुनिया में हर जगह प्रचलित है मगर सामाजिक सुरक्षा-कवच मुहैया कराने की ज्यादातर योजनाओं में परिवार का मानक रुप एकल परिवार का लिया जाता है, मान लिया जाता है कि परिवार नाम की इकाई में चार जन होते हैं—माता-पिता और इनके दो बच्चे. लेकिन सच्चाई ये है कि दुनिया में 38 प्रतिशत परिवार ही एकल-परिवार के दायरे में आते हैं. [6] यों परिवार के स्वरुप के मामले में अलग-अलग देशों में बहुत विभिन्नता देखने को मिलती है तो भी इन परिवारों के बारे में कुछ बातें सामान्य तौर लक्ष्य की जा सकती हैं, जैसे-: प्रजनन-दर घट रही है; लोग देर से शादी कर रहे हैं और बच्चों को जन्म देने का निर्णय भी देरी से कर रहे हैं; अधिकाधिक लोगों के निस्संतान रहने का चलन है; तलाक की दर बढ़ रही है; ज्यादातर जोड़े एक साथ रह रहे हैं; आयु-प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेन्टेन्सी) बढ़ रही है; और महिलाएं श्रम-बल में प्रतिभागिता कर रही हैं. जाहिर है, जोखिम को कम करने और लोगों की खुशहाली को सुनिश्चित करने की कारगर नीतियां बनाने के लिए ये देखना होगा कि किसी जगह पर परिवार का कौन-सा रुप बहुतायत में प्रचलित है. अपने मन में आदर्श परिवार का कोई एक स्थिर रुप निर्धारित करके योजना बनाना कारगर नहीं होगा.

दुनिया के कई हिस्सों में जोड़ों का सह-वास या कह लें आपस में अविवाहित स्त्री-पुरुषों का एक साथ(लीव-इन रिलेशन) रहना अब जीवन का सामान्य ढर्रा बन गया है और यह प्रवृत्ति बढ़ रही है. ज्यादातर मामलों में देखने को मिलता है कि अविवाहित जोड़े अगर माता-पिता बनने का फैसला लेते हैं तो उन्हें वैसे अधिकार हासिल नहीं होते जैसा कि आपस में विवाहित जोड़ों को होता है.. [7] मिसाल के लिए, सामाजिक सुरक्षा मुहैया करने वाली बीमा योजनाएं जैसे जीवन बीमा या फिर स्वास्थ्य बीमा विवाहित जोड़ों के अनुकूल होती है. आपसी और अंतरंग रिश्तों की वैधानिक स्वीकृति तथा विभिन्न स्वरुप वाले परिवारों को वैधता ना हो तो लीव-इन रिलेशन को जी रहा कोई व्यक्ति ऐसी बीमा योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकता.

साथ ही ये भी देखने में आ रहा है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में श्रम-बल में महिलाओं की प्रतिभागिता बढ़वार पर है. लेकिन तुलनात्मक रुप से देखें तो महिलाओं का करियर औसतन छोटा होता है और उनके करियर की राह बाधित भी ज्यादा होती है, महिलाओं का आय-अर्जन पुरुषों की तुलना में कम है, वे बेगारी वाले (ऐसे काम जिनमें पारिश्रमिक का भुगतान नहीं होता) काम ज्यादा करती हैं और अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में महिला के सहायक पारिवारिक सदस्य के रुप में काम करने के आसार ज्यादा होते हैं. [8]  ऐसी दशा में जब सामाजिक सुरक्षा-कवच को रोज़गार के साथ जोड़ा जाता है तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कवरेज कम हो जाती है. सामाजिक सुरक्षा के कुछ कार्यक्रम अंशदान आधारित(कांट्रिब्यूटरी) होते हैं- मिसाल के लिए पेंशन की योजना जिसमें कोई व्यक्ति एक खास अवधि तक अपनी तरफ से भी राशि का योगदान करता है. ऐसी योजनाओं का फायदा महिलाओं को पूरी तरह से नहीं मिल पाता क्योंकि महिलाएं अपने करियर की अपेक्षाकृत छोटी अवधि में पेंशन सरीखे अंशदान आधारित योजना में कम रकम का योगदान कर पाती हैं. ये बात इस तथ्य से सिद्ध होती है कि दुनिया के तमाम हिस्सों में पेंशन योजनाओं में महिलाओं की पहुंच पुरुषों की तुलना में कम है.  [9]  इसके अतिरिक्त, अगर ऊपर बताये गये कारणों का ध्यान रखें तो ये भी नजर आता है कि महिलाओं की बचत की राशि तथा अर्जित संपदा पुरुषों की तुलना में कम होती है. इन कारणों से एक तो महिलाओं को हासिल सामाजिक सुरक्षा-कवच अपने परिमाण में कम होता है, साथ ही सुरक्षा के लिहाज से महिलाओं का अपने परिवार पर निर्भर होने का चलन देखने को मिलता है.

जब सामाजिक सुरक्षा-कवच को रोज़गार के साथ जोड़ा जाता है तो पुरुषों की तुलना में महिलाएं की कवरेज कम हो जाती है.

एक रूझान ये भी देखने में आ रहा है कि बढ़ते हुए तलाक-दर के कारण एकल अभिभावक( सिंगल पैरेन्ट) वाले परिवारों की संख्या बढ़ रही है और ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग अब अकेले रहते हुए बच्चे को जन्म देने का फैसला ले रहे हैं. ऐसे परिवारों को आय-अर्जन के मामले में झटका लगने और गरीबी में पड़ने का जोखिम दो अभिभावकों (माता-पिता) वाले परिवार की तुलना में ज्यादा होता है. [10]  अभिभावकों की रोज़गार दर, संसाधनों तक पहुंच, उत्तराधिकार तथा विवाहजन्य संपदा से संबंधित कानून सिंगल पैरेन्ट वाले परिवारों की गरीबी के महत्वपूर्ण निर्धारक हैं. [11] क्योंकि सिंगल पैरेन्ट वाले किसी परिवार को जिस किस्म के जोखिम का सामना करना पड़ता है वो दो अभिभावकों वाले परिवार के सामने मौजूद जोखिमों से स्वभावतया अलग होता है. सिंगल पैरेन्ट वाले परिवारों के लिए आय-उपार्जन और सेवा/सामान मुहैया करने के अलग तरह के उपाय करने की ज़रूरत होती है. [12] आवास और बच्चों के पालन-पोषण के लिए किफायती सुविधा, सवैतनिक छुट्टी (पेड लीव) और बच्चों की देखरेख की योजनाएं सिंगल पैरेन्ट वाले परिवारों की सामाजिक सहायता के लिए बहुत अहम होते हैं. [13]

सामाजिक सुरक्षा के उपाय परिवारों की वास्तविक ज़रूरतों से मेल खायें इसके लिए बहुत ज़रुरी है कि परिवारों के निर्माण के बदलते तौर-तरीकों को ध्यान में रखा जाये.

सामाजिक सुरक्षा का दायित्व सिर्फ राष्ट्र-राज्य का ही क्यों

इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि अभी हम एक वैश्वीकृत दुनिया में रह रहे हैं और ऐसी दुनिया में सामाजिक सुरक्षा की ज़रूरतों के एकमात्र पूर्तिकर्ता के रुप में राष्ट्र-राज्य की भूमिका पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. विश्व-बिरादरी ने टिकाऊ विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स्-एसडीजीस्) के रुप में  एक महत्वाकांक्षी विकास-योजना बनायी है. एसडीजी के कम से कम पांच लक्ष्य सामाजिक सुरक्षा से संबंधित हैं और इस अर्थ में ये स्वीकार किया गया है कि ये पांच लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय और पार-राष्ट्रीय महत्व के हैं.

अब समय आ चुका है जब हमें सामाजिक सुरक्षा की कवरेज को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने के लिए ही नहीं बल्कि एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के रुप में विकसित करने के लिए पूरे तालमेल के साथ प्रयास करने हैं.

सार्विक तौर पर सामाजिक सुरक्षा कवरेज प्रदान करने तथा विश्वस्तर पर लिये गये संकल्प को पूरा करने के लिए सामूहिक और पार-राष्ट्रीय प्रयासों की ज़रूरत है. अब समय आ चुका है जब हमें सामाजिक सुरक्षा की कवरेज को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने के लिए ही नहीं बल्कि एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के रुप में विकसित करने के लिए पूरे तालमेल के साथ प्रयास करने हैं. सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने का अंतर्राष्ट्रीय स्तर का ऐसा कार्यक्रम डिजिटल टेक्नोलॉजी की सहायता से पूरी दुनिया के लोगों को आपस में जोड़ेगा. ऐसे कार्यक्रम का लक्ष्य कवरेज से छूटे रहे गये हर व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा बीमा तथा सहायता प्रदान करने का होगा. इस कार्यक्रम को इस तरह से गढ़ा जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति चाहे दुनिया के किसी भी हिस्से में हो, वह बुनियादी किस्म की सामाजिक सुरक्षा-कवरेज किफायती दर पर हासिल कर सके.

अगर सामाजिक सुरक्षा की योजना पार-राष्ट्रीय तौर पर चलायी जाती है तो उसमें कई मसलों का ध्यान रखना संभव है जैसे उन लोगों की ज़रूरतों का ख्याल रखना जिन्हें कोई देश अपना मानने को तैयार नहीं, या वे लोग जो शरणार्थी हैं, शरणस्थलों की तलाश में हैं. ऐसी पारराष्ट्रीय योजना में ये भी ध्यान रखा जा सकता है कि आप्रवासियों को वैश्विक स्तर सामाजिक सुरक्षा-कवच प्रदान करने की ज़रूरतें बढ़ती जा रही है, साथ ही ऐसी योजना ये ध्यान में रखकर चलायी जा सकती है कि कई देश अपने समाज के कुछ हिस्सों की सामाजिक सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों की पूर्ति में नाकाम रहे हैं. आज लगभग 22 करोड़ की तादाद ऐसे लोगों की हैं जो उन देशों में रह रहे हैं जहां उन्हें नागरिकता हासिल नहीं. [14] अगर ये सभी लोग एक साथ किसी एक देश में रहें तो वो देश आबादी के लिहाज से दुनिया में पांचवें नंबर पर होगा. इन 22 करोड़ लोगों में बहुत कम ही ऐसे हैं जिन्हें उनके वास-स्थान वाले देश में किसी किस्म की सामाजिक सुरक्षा योजना हासिल करने का योग्य पात्र माना जाता है. इस तथ्य से जाहिर होता है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की एक नयी रुपरेखा बनाने की ज़रूरत है जो अपनी प्रकृति मे पार-राष्ट्रीय हो.

सामाजिक सुरक्षा कवरेज को सार्विक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है. फिर भी, सोच-विचार की पुरानी परिपाटियों के कारण ऐसे प्रयासों के असर में कमी रह जाती है. जैसा कि ऊपर बताया गया है, सोच-विचार की ऐसी पुरानी परिपाटियों में शामिल है नियोक्ता को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के एक स्रोत के रुप में देखना, सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों को बनाते समय उसमें परिवार की संकुचित अवधारणा को अपनाकर चलना और राष्ट्र-राज्य को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के एकमात्र केंद्र के रुप में देखना. अगर हमें भविष्य के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के नये मॉडल तैयार करने हैं तो फिर इन तीन बातों पर पुनर्विचार करना ज़रुरी है.


[1] European Commission, “Review of the Social Situation and the Development of Social Protection Policies in Member States and the Union,” Annual Report from the Social Protection Committee, 2019.

[2] UN Department of Economic and Social Affairs, Promoting Inclusion Through Social Protection: Report on the World Social Situation 2018 (UN, 2018), 8.

[3] OECD, The Future of Social Protection: What Works for Non-standard Workers? (Paris: OECD, 2018).

[4] Lawrence F. Katz and Alan B. Krueger, “The Rise and Nature of Alternative Work Arrangements in the United States, 1995-2015”, NBER Working Paper No. 22667, September 2016,

[5] Cristina Rat, “Access to Social Protections for Workers and Self-Employed”, European Commission, 2019,

[6] UN Women, “Progress of the World’s Women 2019-2020: Families in A Changing World,” 2019, 41.

[7] Ibid, 236.

[8] ILO, World Social Protection Report 2017-2019: Universal Social protection to Achieve the Sustainable Development Goals (ILO-Geneva: ILO, 2017), 175

[9] UN Department of Economic and Social Affairs, Promoting Inclusion Through Social Protection: Report on the World Social Situation 2018 (UN: 2018), 18

[10] OECD, “Chapter 1: Families are Changing,” Doing Better for Families (OECD: 2011), 36.

[11] See note 6, p.109.

[12] See note 6, p. 108.

[13] See note 6, p. 130.

[14] Peggy Levitt, Jocelyn Viterna, Amin Mueller, and Charlotte Lloyd, “Transnational Social Protection: Setting the Agenda,” Oxford Development Studies 45, no. 1 (2017): 2-19.

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