Author : Antara Sengupta

Published on Jul 16, 2018 Updated 0 Hours ago

अगर बड़ी तस्वीर देखि जाए तो इस नए एक्ट में पुराने UGC एक्ट के हुबहू प्रावधान है सिवाए इसके कि इसमें फंड करने का प्रावधान नहीं होगा। इसलिए ये समझना मुश्किल है कि क्यूँ सिर्फ़ इतने छोटे बदलावों के लिए एक नए एक्ट की ज़रूरत क्यूँ है।

उच्च शिक्षा का नया अधिनियम: क्या होगा यूजीसी को भंग

27 जून को मानव संसाधन मंत्रालय ने बड़ा बहादुरी का फैसला लेते हुए यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन यानी UGC को ख़त्म करने की शुरुआत कर दी। UGC को ख़त्म करने की मांग तब से चल रही थी जब से ६ दशक पहले इसकी स्थापना हुई थी क्यूंकि ये एक ऐसी संस्था रही है जिसकी उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षाविद आलोचना करते रहे हैं। UGC के बदले कई निर्देश जारी किए गए हैं जो इसकी जगह लेंगे और इसे हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया HECI रिपील ऑफ़ UGC एक्ट कहा जायेगा। RIP UGC यानी रेस्ट इन पीस UGC का हैश टैग इन्टरनेट पर काफी लोकप्रिय हुआ जिस से ज़ाहिर है कि इससे जुड़े तमाम पक्ष इस फैसले से खुश हैं, जो UGC को सक्षमता देने वाली संस्था की जगह एक बाधा मानते रहे।

ज़रूरत से ज्यादा नियंत्रण करने की वजह से UGC की समय समय पर आलोचना होती रही है। इस ज़रूरत से ज्यादा नियंत्रण की वजह से कई बार छात्रवृत्ति मिलने में देर होती रही, विश्विद्यालयों की स्वायत्ता पर असर पड़ा और जो निचले स्तर के संस्थान थे उन पर कोई अंकुश नहीं लग पाया, और जो बदलाव सुझाये गए थे जैसे कि पूर्वस्नातक के कोर्स को ४ साल करना, अलग अलग संस्थानों में दाखिले की प्रक्रिया में अडंगा लगाना, और शिक्षा के उच्च संस्थान की स्वायत्ता और मान्यता पर धीरे काम करना ये सब UGC की आलोचना के बिंदु रहे। UGC पर फण्ड की बदइन्तेज़ामी का भी आरोप लगा। बहरहाल जो नया HECI एक्ट है उसमें न किसी तरह की दूरदर्शिता दिखती है न ही कोई लक्ष्य। इस तरह के कानून बनाने की प्रक्रिया की खासियत है कि कागजातों में कुछ भी साफ़ नहीं, किसी भी तरह का विस्तार नहीं, इसलिए उसके विस्तार को सझना ज़रूरी होगा ये जान ने के लिए कि उसमें क्या अच्छे और बुरे है। फिर भी ये सराहनीय है कि मानव संसाधन मंत्रालय ने इस एक्ट की भाषा सरल रखी है और उसमें कानूनी पेचीदगियां कम हैं। मौजूदा स्वरुप में इस से जुड़े सभी लोगों के लिए इसका अवलोकन समझना आसान हो गया है।

क्या मानव संसाधन मंत्रालय ने ईमानदारी दिखाई है?

इस पूरे हंगामे में हम इस बात का आंकलन भूल गए कि UGC को ख़त्म करने की ज़रूरत क्यूँ पड़ी। मानव संसाधन मंत्रालय ने इसे ज़रूरी नहीं समझा कि इस अचानक उठाये गए क़दम की वजह का खुलासा करें क्यूंकि UGC एक्ट को ख़त्म करना शिक्षा के क्षेत्र में एक तरह से एक क्रांति की तरह है। इसी वजह से हम में से ज्यादातर लोगों के पास कोई बेंचमार्क नहीं था जिस से हम UGC एक्ट को नए एक्ट से तुलना कर सकें। अगर बड़ी तस्वीर देखि जाए तो इस नए एक्ट में पुराने UGC एक्ट के हुबहू प्रावधान है सिवाए इसके कि इसमें फंड करने का प्रावधान नहीं होगा। इसलिए ये समझना मुश्किल है कि क्यूँ सिर्फ़ इतने छोटे बदलावों के लिए एक नए एक्ट की ज़रूरत क्यूँ है।

दुसरे मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर ये वादा कर रहे हैं की राष्ट्रीय शिक्षा नीति साल २०१८ के ख़त्म होने के पहले ही लोगों के सामने आ जाएगी तो ये सवाल उठता है कि क्या ये नया प्लान शिक्षा नीति से अलग है और नयी नीति क्या दुसरे बदलाव लेकर आएगी।

अगर ये बदलाव अभी सिर्फ नाम मात्र किये गए हैं तो अलग बात है, नहीं तो इस बात पर गंभीर सोंच की ज़रूरत है कि जो नया एक्ट लागू किया गया है उसके काम करने की योजना क्या है।

UGC जब १९५६ में बनाया गया था तब ही से उसके पास फंडिंग का अधिकार था। यानी किसी संस्था को पैसे देने न देने का फैसला UGC कर सकता था। इस वजह से UGC के तहत कई गड़बड़ियाँ हुईं, अनियमितताएं हुईं। इसलिए MHRD ने प्रस्तावित HECI को अब फंडिंग का अधिकार नहीं दिया है। ये UGC की स्थापना के बाद से अब तक का सबसे बड़ा बदलाव है।मानव संसाधन मंत्रालय ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है की HECI सिर्फ शिक्षा से जुड़े मामलों को देखेगा। लेकिन ये साफ़ नहीं है कि अब वित्तीय ढांचा का स्वरुप क्या होगा। सबसे सशक्त अधिकार है फंड पर अधिकार, जिसे अगर सरकार के हाथों में दे दिया जाए तो इसके अपने खतरे हैं। क्यूंकि ये फिर शैक्षणिक संस्थानों पर अलग तरीके से नियंत्रण लगा सकते हैं और अपने पूर्वाग्रहों के मुताबिक बर्ताव कर सकते हैं। पहले से ही UGC के अंतर्गत फंड की तंगी झेल रहे कुछ संस्थानों को कहीं अब अपनी संस्थानों को चलाने के लिए चंद नेताओं के भरोसे तो नहीं रहना पड़ेगा। इसके ऊपर अब केंद्र के पास ये पूरा अधिकार होगा कि वो अध्यक्ष या उनके उपाध्यक्ष को किसी भी बहाने हटा सकें, जैसे की नैतिक भ्रष्टाचार के आधार पर। ऐसा लगता है की मानव संसाधन मंत्रालय ने HECI की स्वायत्ता को अपने पास सुरक्षित रख लिया है। और हो सकता है कि HECI अपने अंतर्गत काम कर रहे संस्थानों के साथ भी कुछ ऐसा ही करे। ये देखना बाक़ी है कि एक ऐसी संस्था जिस से राजनीती इतनी ज्यादा जुडी है, जिसके पास बेहफ कम स्वायत्ता है, वो अपने अंतर्गत आ रही संस्थानों को कैसे स्वायत बना पाएगी।

कमीशन की अंतरात्मा में टकराव

हालाँकि सबसे ज्यादा चर्चा इस बात की रही कि ये एक्ट स्वायत्ता को लागु करने में सक्षम होगा, लेकिन इस एक्ट के अनुच्छेद 15।3।a and 15।3।b के मुताबिक HECI सभी कोर्स के विस्तार, उसके सिखाये जाने के परिणाम के अलावा करिकुलम के विकास और कौशल विकास के लिए मापदंड तय करेगा। यानी सबसे नीचे के स्तर तक चीज़ों के प्रबंध पर नज़र रखने की तय्यारी है, जिस से हर स्तर पर नियंत्रण घटने की बजाये और बढेगा। अगर संस्थाओं को स्वायत्त बनाना है तो उन्हें ये आजादी दी चाहिए की वो अपना पाठ्यक्रम खुद तैयार करें न की किसी HECI जैसी संस्था के सहमती का इंतज़ार करें। ख़ास तौर पर कौशल विकास कोर्स में तेज़ी से बदलाव हो रहे हैं, और संस्थाओं को आजादी चाहिए कि वो डिमांड के मुताबिक बदलाव कर सकें।

हस्तक्षेप सिर्फ पाठ्यक्रम तय करने तक नहीं है, HECI उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रशासन के ढांचे को भी अपने मुताबिक तय करेगा, यानी किसी भी संस्थान की अपने मुताबिक अपने प्रशासनिक और शैक्षणिक मंडल तय करने का जो अधिकार है ये उसमें भी हस्तक्षेप होगा।

केंद्रीय और राज्य सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों की फीस तय करने के नियम को भी HECI ही तय करेगा। जो सरकारी मदद वाले प्राइवेट संस्थान हैं उनके सेल्फ फिनांस कोर्स की फीस्क को वो नियंत्रित करने की सोंच सकते हैं लेकिन राज्य की पब्लिक यूनिवर्सिटी और उस से जुड़े कॉलेज जो पहले ही काफी कम फीस लेते हैं उन पर कार्यवाई करना या दबाव बनाना जायज़ नहीं होगा। अगर किसी संस्थान को स्वायत संस्थान बनाना है तो प्रशासनिक आजादी ज़रूरी है, साथ ही वित्तीय फैसले लेने की आजादी, अपना सिलेबस तय करने की आजादी, लेकी नए बने एक्ट के तहत ये सभी चीज़ें इनकी निगरानी में रहेंगी। हालांकि अभी ये देखना बाक़ी है कि UGC के तहत अलग अलग श्रेणी की स्वायत्ता प्राप्त संस्थाओं पर इसका क्या असर पड़ेगा।

इसके अलावा पुराने UGC की एक आलोचना उसकी सदस्यता को लेकर रही है। नयी HECI इस समस्या को हल नहीं करती है। नई HECI में सिवाय किसी ख़ास मकसद के लिए एक अस्थाई ग्रुप और भारत सरकार में जॉइंट सेक्रेटरी या उसके ऊपर स्तर के अफसर की इस संस्था के लिए नियुक्ति के अलावा ऐसा कोई स्थाई सदस्य नहीं है जो HECI के फैसलों को लागू कर सके। बल्कि मैनेजमेंट, तकनीकी,लेखांकन और साइंस के जानकार भी अस्थाई सदस्य ही होंगे। इस से ये ज़ाहिर है कि एक और नियामक संस्था का स्थापित होने के पहले ही गिरना तय है। बहरहाल भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली ने ऐसे कई संस्थानों को बिखरते देखा है क्यूंकि नीतियों को ठीक तरह से लागु करने की कोई व्यवस्था नहीं रही, और HECI का हाल अभी ड्राफ्ट के स्तर पर तो कुछ ऐसा ही लग रहा है।

अब यहाँ से आगे बढ़ते हुए एक स्वायत्त व्यवसायिक संस्था का गठन ज़रूरी है जो उच्च शिक्षा संस्थानों में फंड का वितरण करे, इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय मॉडल की मिसाल देखनी चाहिए ताकि ऐसे कारगर ढांचे बनाये जा सकें जो मंत्रालय के हाथों में सारे अधिकार नहीं देंगे लेकिन साथ ही इस क्षेत्र के विकास में मदद करे। ऐसा नहीं होने पर संस्थानों के लिए वित्तीय स्वायत्ता हासिल करना मुश्किल हो जाएगा साथ ही सुधार के लिए फंड हासिल करना भी आसान नहीं रहेगा।

7 जुलाई तक ही इस पर सरकार ने फीडबैक देने की समयसीमा रखी है जिसकी वजह से इस एक्ट का जिन लोगों पर असर पड़ेगा, जो इसके हिस्सेदार हैं उनको समय नहीं दिया गया है कि वो इस पर विस्तार से रिसर्च कर के, चर्चा कर के HECI एक्ट में बदलाव का सुझाव दे सकें। एक्ट की नीयत साफ़ नहीं है, जिस से द्र्फ्त के दस्तावेज़ को एक कारगर एक्ट बन ने की राह में कई सवाल खड़े होते हैं। बस यही उमीद्द की जा सकती है कि HECI का हो हल्ला नयी बोतल में पुरानी शराब न निकले।

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