Published on Sep 03, 2020 Updated 0 Hours ago

इस हालत में फाइटर एयरक्राफ्ट पर 15-20 अरब डॉलर का भारी-भरकम ख़र्च समझदारी नहीं है वो भी तब जब अच्छे और सस्ते विकल्प मौजूद हैं जिससे मौजूदा घरेलू परियोजनाओं पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.

भारतीय वायुसेना के लिए नये लड़ाकू विमान: ज़वाब के बाद और ज़्यादा सवाल

पूर्वी लद्दाख में चीन की सेना के साथ तनावपूर्ण सैन्य गतिरोध के बीच रक्षा मंत्रालय की रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) ने 2 जुलाई को 38,900 करोड़ रुपये (5.2 अरब डॉलर) की अनुमानित क़ीमत के सैन्य ख़रीद प्रस्तावों को मंज़ूरी दी. इस मंज़ूरी में से ज़्यादातर हिस्सा घरेलू कार्यक्रमों जैसे रॉकेट आर्टिलरी, बख़्तरबंद गाड़ियों में सुधार, ज़मीन से मार करने वाली क्रूज़ मिसाइल (LACM) और 248 देसी अस्त्र बियॉन्ड विज़ुअल रेंज एयर-टू-एयर मिसाइल (BVRAAM) के लिए हैं. DAC ने भारतीय वायुसेना के लिए लड़ाकू विमानों की ख़रीद को भी मंज़ूरी दी जो अप्रैल 2015 में रफ़ाल समझौते की घोषणा के बाद विदेश से लड़ाकू विमानों की पहली ख़रीद है. इसके तहत 21 रूसी MiG-29UPG और 12 Su-30MKI को मंज़ूरी मिली है जिनमें Su-30MKI को रक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक कंपनी हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स बनाकर वायुसेना को सौंपेगी. इस घोषणा में ऐसी बातें छुपी हैं जो भारतीय वायुसेना के भविष्य की कुछ झलक दिखाती हैं और कुछ सवालों का ज़वाब मांगती हैं. 

तत्काल सुधार और दीर्घकालीन हल

जो क़दम उठाए गए हैं वो वायुसेना की तेज़ी से घटती क्षमता को बढ़ाने के लिए व्यावहारिक क़दम हैं. नये MiG-29 से 1 अरब डॉलर से कम लागत में नये स्क्वाड्रन की स्थापना हो सकेगी और इस क़ीमत में इससे बेहतर कम ही विकल्प हैं. इसके अलावा MiG-29UPG ने अपनी बेहतरीन विश्वसनीयता और क्षमता के साथ सेना को प्रभावित किया है और अतिरिक्त एयरक्राफ्ट के लिए पर्याप्त मौजूदा बुनियादी ढांचा और प्रशिक्षित सैन्य बल है. इसी तरह 10,730 करोड़ रुपये (1.43 अरब डॉलर) का Su-30MKI समझौता आने वाले वर्षों में जो लड़ाकू विमान वायुसेना से हटेंगे उनका ख़्याल रखेगा और इस रक़म का क़रीब एक-तिहाई हिस्सा नये उपकरणों और बदलाव पर ख़र्च होगा जिससे जंगी बेड़े की क्षमता बढ़ेगी और पुराने प्रदर्शन के मुद्दे का समाधान होगा.

ऐसा लगता है कि वायुसेना अपनी ताक़त अस्त्र BVRAAM पर लगा रही है. एक ज़्यादा मज़बूत लंबी दूरी की क्षमता की तरफ़ ये स्वागतयोग्य क़दम है और विकास की दिशा में साफ़ रास्ता है.

दूसरा, ऐसा लगता है कि वायुसेना अपनी ताक़त अस्त्र BVRAAM पर लगा रही है. एक ज़्यादा मज़बूत लंबी दूरी की क्षमता की तरफ़ ये स्वागतयोग्य क़दम है और विकास की दिशा में साफ़ रास्ता है. हालांकि, अस्त्र का परीक्षण हो चुका है और Su-30MKI पर पहली बार वो अपनी क्षमता साबित कर चुका है लेकिन MiG-29 के लिए DAC की मंज़ूरी में नये हथियारों और सेंसर के अलावा बेड़े के लिए नये मिशन कम्पयूटर को जोड़ने, जेट में स्वदेशी BVRAAM का इस्तेमाल शामिल है. अस्त्र हथियार सिस्टम MIL-STD-1553B डाटा बस और सही मिशन कम्प्यूटर के साथ सैद्धांतिक रूप से भारतीय वायुसेना के किसी भी फाइटर प्लेन में जोड़ा जा सकता है. अपने MiG-29K बेड़े के लिए नौसेना की तरफ़ से भी इस कार्यक्रम का समर्थन मिलने के साथ अस्त्र के लिए मौक़ा है कि वो ऐसा भारतीय हथियार सिस्टम बने जो पूरी क्षमता के साथ उत्पादन करे. महत्वपूर्ण बात ये है कि DAC की सैन्य उड्डयन मंज़ूरी भारतीय रक्षा उत्पादन क्षेत्र के लिए बड़ी रक़म देती है. भारतीय वायुसेना MiG-29UPG का मौजूदा बेड़ा नासिक में अपग्रेड करेगी, Su-30MKI की डिलीवरी HAL करेगी और अस्त्र मिसाइल का उत्पादन देश में होगा.

अनिश्चित भविष्य

अगर DAC की मंज़ूरी ज़वाब देती है तो इससे भविष्य के लिए सवाल भी खड़े होते हैं. इन सवालों में सबसे पहले है अमेरिका का काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA). रूस पर भारत की पुरानी सैन्य निर्भरता और ख़ासतौर पर भारतीय वायुसेना के ताज़ा रूसी S-400 एयर डिफेंस सिस्टम समझौते को देखते हुए भारत को CAATSA से छूट को लेकर कई बातें कही गई हैं. इस बीच भारत-अमेरिका रक्षा साझेदारी लगातार मज़बूत हुई है और क़ीमत के मामले में उसका विस्तार हुआ है ख़ास तौर पर पिछले 15 वर्षों में और अमेरिकी अधिकारियों ने आम तौर पर CAATSA मुद्दे पर भारत से चर्चा के दौरान मेल-मिलाप वाला लहजा अपनाया है. लगता है कि अमेरिका में ये समझ है कि भारत पर 2.4 अरब डॉलर का जुर्माना लगाने से उससे कई गुना ज़्यादा रक़म का भारत-अमेरिका रक्षा कारोबार ख़तरे में आ जाएगा. इससे द्विपक्षीय साझेदारी के साथ-साथ दोनों तरफ़ से कई सरकारों की कोशिशों की सफलता पर भी असर पड़ेगा.

एक और महत्वपूर्ण सवाल भारतीय वायुसेना की विस्तृत लड़ाकू विमान अधिग्रहण योजना से जुड़ा है. अगर वायुसेना अपग्रेडेड MiG-29 को लागत, डिलीवरी की रफ़्तार और समाहित करने में आसानी के आधार पर शामिल करने की इच्छा रखती है तो 114 नये लड़ाकू विमानों के लिए निहायत जटिल और ख़र्चीला कार्यक्रम क्या मक़सद हासिल करेगा ? ऐसा लगता है कि मौजूदा मल्टी-रोल फाइटर एयरक्राफ्ट प्रोजेक्ट (MRFA) ने कुछ उन मुद्दों का हल कर लिया है जिसने उसके कुख़्यात पूर्ववर्ती MMRCA ठेके को पटरी से उतार दिया और जिसके कारण कोई समझौता नहीं हो सका और 36 रफ़ाल लड़ाकू विमानों के लिए अलग समझौता करना पड़ा. अगर MRFA तकनीकी और औद्योगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है तो अलग-अलग प्रक्रिया के तहत जारी- तेजस LCA Mk.1, Mk.1A और Mk.2 भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. ये सभी कार्यक्रम मोटे तौर पर ‘4.5 जेनरेशन’ के समकक्ष ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फंड हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हैं. भारतीय वायुसेना के लिए बेहद कम पूंजी के आवंटन की वजह से उस पैसे को ज्यादा कार्यक्रमों में लगाना ठीक नहीं है.

लगता है कि अमेरिका में ये समझ है कि भारत पर 2.4 अरब डॉलर का जुर्माना लगाने से उससे कई गुना ज़्यादा रक़म का भारत-अमेरिका रक्षा कारोबार ख़तरे में आ जाएगा. इससे द्विपक्षीय साझेदारी के साथ-साथ दोनों तरफ़ से कई सरकारों की कोशिशों की सफलता पर भी असर पड़ेगा.

MRFA के लगातार वजूद में रहने के पीछे एक तार्किक मान्यता ये है कि LCA Mk.2 कार्यक्रम में देरी या झटके की हालत में इससे मदद मिलेगी. ये उसी तरह है जैसे शुरुआती LCA कार्यक्रम में बहुत ज़्यादा देरी की वजह से MMRCA की ज़रूरत महसूस हुई थी. लेकिन MMRCA से इसकी समानता को देखते हुए लागत के मुद्दे पर MRFA के फंसने की आशंका ज़्यादा है. जिस वक़्त रक्षा ख़रीद प्रणाली MRFA पर किसी फ़ैसले के क़रीब होगी, तब तक LCA Mk.2  सेना के लिए तैयार होगी. इस तरह से एक विदेशी समझौता गैर-ज़रूरी बन जाएगा.

लड़ाकू विमानों के अंतर को पाटना 

इन घटनाक्रमों और ख़रीद की अनिश्चितता से जिस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है वो ये है कि इस वक़्त भारतीय वायुसेना का बेड़ा 50 वर्षों में सबसे छोटा है. अभी 30 से भी कम फाइटर स्क्वाड्रन ऑपरेशन के लिए तैयार हैं. पुराने पड़ चुके लड़ाकू विमानों वाले चार स्क्वाड्रन 2024 तक इस्तेमाल से बाहर हो जाएंगे लेकिन तब तक सिर्फ़ दो स्क्वाड्रन वायुसेना में जुड़ेंगे. इसकी वजह से भारतीय वायुसेना में क़रीब 25 स्क्वाड्रन ही रह जाएंगे जबकि ज़रूरत 42 स्क्वाड्रन की है.

जिस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है वो ये है कि इस वक़्त भारतीय वायुसेना का बेड़ा 50 वर्षों में सबसे छोटा है. अभी 30 से भी कम फाइटर स्क्वाड्रन ऑपरेशन के लिए तैयार हैं.

ऐसे में सबसे व्यावहारिक क़दम होगा, ख़ास तौर पर आर्थिक अनिश्चितता के इस दौर में, कि ताज़ा DAC मंज़ूरी से मिले सबक़ को लागू किया जाए. भारतीय वायुसेना के लिए मिराज 2000 को ‘हथियार के अगले हिस्से’ के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन इसके बावजूद मिराज के सिर्फ़ तीन स्क्वाड्रन इस्तेमाल में हैं. दुनिया में जहां कहीं भी ये एयरक्राफ्ट मौजूद हैं, उन्हें ख़रीदना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए ख़ास तौर पर तब जब HAL पहले से घरेलू तौर पर इनकी मरम्मत और अपग्रेड करने के लिए तैयार है. ब्राज़ील के मिराज विमान बाज़ार में मौजूद नहीं हैं लेकिन क़तर और ताइवान के अलावा फ्रांस भी एक या दो स्क्वाड्रन के बराबर लड़ाकू विमान मुहैया करा सकते हैं. इसके अलावा रफ़ाल भी एक विकल्प है. भारतीय वायुसेना 36 रफ़ाल लड़ाकू विमानों से ज़्यादा का साथ देने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च कर चुकी है. हालांकि, रफ़ाल कम लागत वाले MiG-29UPG के विकल्प से दूर है लेकिन रफ़ाल का एक या दो स्क्वाड्रन 2016 के शुरुआती समझौते की तय लागत पर बिना बोझ डाले हासिल किया जा सकता है और इस तरह ये काफ़ी सस्ता होगा. और आख़िर में घरेलू तेजस है जो आख़िरी LCA Mk.1 और पहले LCA Mk.1A के बीच डिलीवरी में उत्पादन के अंतर को देख सकता है. हालांकि, मौजूदा योजना 14 LCA ट्रेनर के उत्पादन के साथ अंतर को पाटना है लेकिन अगर Mk.1A अपने तय समय से पीछे चला जाता है तो ये अच्छा होगा कि एक और स्क्वाड्रन के साथ प्रोडक्शन लाइन को सक्रिय रखा जाए.

इस हालत में फाइटर एयरक्राफ्ट पर 15-20 अरब डॉलर का भारी-भरकम ख़र्च समझदारी नहीं है वो भी तब जब अच्छे और सस्ते विकल्प मौजूद हैं जिससे मौजूदा घरेलू परियोजनाओं पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.

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