Author : Ashok Sajjanhar

Published on Aug 05, 2017 Updated 0 Hours ago

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाजुक लोकतांत्रिक व्यवस्था को बड़ा आघात पहुंचा है और शरीफ की राजनीतिक विरासत तार-तार हो चुकी है।

पाकिस्तान में नवाज शरीफ की बर्खास्तगी: सेना की बड़ी जीत
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच द्वारा 28 जुलाई को सर्वसम्मति से फैसला सुनाए जाने के बाद उन्हें अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही नाटकीय रूप से इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा है। इस बात का श्रेय शरीफ को जाता है कि उन्होंने बिना किसी तरह की रुकावट डाले, फैसले को मानते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) (पीएमएल(एन)) ने इसका पुरज़ोर विरोध किया और इस फैसले को शरीफ को पद से बेदखल करने की साजिश करार दिया। शरीफ ने कहा कि फैसले के बारे में “गंभीर संदेह” होने के बावजूद वे कोर्ट के फैसले का पालन करेंगे। पीएमएल(एन) पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि वे इस फैसले को चुनौती देने के लिए सभी कानूनी और संवैधानिक तरीके अपनाएंगे। शरीफ के समर्थकों को यकीन है कि उन पर लगे आजीवन प्रतिबंध के बावजूद, अतीत की ही तरह वे इस बार भी वापसी करेंगे।

शरीफ के परिवार की संपत्ति के बारे में भ्रष्टाचार संबंधी जांच के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य करार दिया। उनके खिलाफ यह जांच साल भर से कुछ ही अर्सा पहले सामने आए पनामा पेपर लीक मामले के बाद कराई गई थी। इसके साथ ही उनका तीसरा कार्यकाल भी अधूरा रह गया। इससे पहले भी उन्हें दो बार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही पद से हटा दिया गया था। पहली बार 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान के साथ गहरे मतभेदों के कारण और दूसरी बार 1999 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने सैन्य विद्रोह के जरिए उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया था।

2013 के आम चुनावों के बाद, नवाज शरीफ 70 बरस पहले आजाद होने वाले पाकिस्तान के 26वें प्रधानमंत्री बनें। अब तक शौकत अजीज के अलावा, एक भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। शौकत अजीज ने अगस्त 2004 से नवम्बर 2007 तक नेशनल असेम्बली की अवधि पूरी होने तक अपना संक्षिप्त कार्यकाल पूरा किया था। ऐसी उम्मीद थी कि शरीफ इस बार यह अभाग्य का सिलसिला तोड़ पाने में समर्थ हो सकेंगे, लेकिन उन्हें 4 साल से कुछ अर्सा ज्यादा सत्ता में बिताने के बाद पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। जैसा कि अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने अपने ट्वीट में कहा, “पाकिस्तान अपनी 70 साल पुरानी परम्परा के प्रति वफादार रहा: कोई भी प्रधानमंत्री जनता द्वारा नहीं हटाया गया, वह केवल न्यायाधीशों, जनरलों, नौकरशाहों या हत्यारों द्वारा ही हटाया गया” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “नवाज शरीफ दोषपूर्ण व्यक्ति हैं, लेकिन उन्हें हटाने का तरीका उनसे भी ज्यादा दोषपूर्ण है।” पाकिस्तान में कोर्ट के फैसले के बारे में सामान्य तौर पर इसी तरह कहा गया है, जबकि शरीफ के विरोधियों, राजनीतिक वर्गों और पत्रकार समुदाय ने इस स्पष्ट फैसले का स्वागत करते हुए खुशी जाहिर की है।

नवाज शरीफ परिवार पर अपार सम्पत्ति का संतोषजनक ब्यौरा नहीं देने का आरोप लगाने वाली जांच समिति की रिपोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा बर्खास्त किए जाने पर शरीफ को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा मई, 2017 में स्थापित की गई छह सदस्यों वाली संयुक्त जांच टीम (जेआईटी) ने अपने निष्कर्ष में कहा है कि नवाज शरीफ के चार बच्चों में से तीन-दो पुत्र हसन नवाज और हुसैन नवाज शरीफ तथा पुत्री मरियम सफदर ने लंदन में सम्पत्तियां खरीदने के लिए कागजी कम्पनियों (शेल कम्पनियों)का इस्तेमाल किया और वे अपनी सम्पत्ति के स्रोतों का संतोषजनक ब्यौरा नहीं दे सके। कोर्ट ने शरीफ, मरियम, उनके पति सफदर, पाकिस्तान के वित्त मंत्री इस्हाक डार और अन्य के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज करने की सिफारिश भी की।

शरीफ के राजनीतिक पद पर आसीन होने पर लगी रोक का कारण सरकारी धन का गबन या भ्रष्टाचार करने के आरोप नहीं हैं। इन आरोपों की अब तक जांच नहीं की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो को मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों की जांच करने तथा शरीफ के परिवार पर लगे आरोपों की तह तक जाने के लिए जीआईटी द्वारा इकट्ठा किए गए सबूत के आधार पर शरीफ और उनके परिवार के खिलाफ आपराधिक जांच शुरू करने का निर्देश दिया है।

दूसरी ओर, बेंच ने इस बात पर गौर किया कि कैपिटल एफजेडई के बोर्ड के चैयरमेन के तौर प्रधानमंत्री शरीफ की नौकरी तथा 2013 के चुनावों के दौरान उम्मीदवारी का पर्चा भरते समय इस नौकरी की जानकारी न देना क्या जनप्रतिनिधित्व कानून, 1976 की धारा 12(2)का उल्लंघन है। बेंच ने इस सवाल का जवाब हां में देते हुए कहा जानकारी न देना, झूठे घोषणापत्र को औपचारिक तौर पर स्वीकार करने के बराबर है। इसी बात ने प्रधानमंत्री को संविधान, 1973 के अनुच्छेद 62(1)(एफ) और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1976 की धारा 99(1)(एफ) के संकल्पों के तहत खुद को “ईमानदार” कहने के हक से वंचित कर दिया है। इससे पहले भी गत अप्रैल में इस मामले के सुनवाई के लिए आने पर इस पांच सदस्यीय बेंच के दो सदस्यों ने संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के आधार पर अपना फैसला सुनाते हुए शरीफ को फौरन अयोग्य ठहराने का आह्वान किया था। ये अनुच्छेद, 1973 के संविधान पर जनरल जिया द्वारा ढाए गए कहर के अवशेषों को प्रस्तुत करते हैं। अनुच्छेद 62 प्रधानमंत्री के सादिक (ईमानदार) और अनुच्छेद 63 अमीन (नेक) होने का प्रावधान करते हैं। जीआईटी की रिपोर्ट में शरीफ दोनों कसौटियों पर विफल रहे हैं।

शरीफ ने 2013 में जब पदभार ग्रहण किया था, तो उस समय वे बेहद लोकप्रिय थे। उन्होंने अपने मन में देश की ताकतवर सेना के प्रति गहरा वैर पाल रखा था। उन्होंने तेजी से कदम उठाते हुए उन क्षेत्रों में, विशेषकर विदेश नीति में नागरिक सरकार का प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की, जो लम्बे अर्से से सेना के जनरलों के अधीन रहे हैं। इस मामले में उनका रिकॉर्ड हालांकि ज्यादा अच्छा नहीं रहा। वे सेना के जनरलों से ताकत छीनने की इच्छा दिल में लिए ही सत्ता से बाहर हो गए।

दरअसल, जहां एक ओर नागरिक प्रशासन बेहद बदनाम रहा है, वहीं दूसरी ओर सेना की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता और समर्थन का पैमाना हाल के वर्षों के मुकाबले कई गुणा बढ़ चुका है।

अपने हाल के कार्यकाल के दौरान, शरीफ के सेना के साथ संबंध काफी उतार-चढ़ाव भरे रहे। भारत के प्रति उनके ज्यादा खुलेपन के संकेतों की प्रतिक्रिया एकदम उलट हुई, क्योंकि जनरलों ने अपने कारणों से उनके इन प्रयासों को नकार दिया। शरीफ-डीजी, आईएसआई के साथ जंग/जियो ग्रुप के टकराव, डॉन द्वारा जनरल रहील शेख के कार्यकाल के आखिरी महीने में मामला लीक किए जाने आदि में उसका पक्ष लेकर, अपने अभिमान और अक्खड़पन के कारण सेना के साथ टकराने का मोल चुका रहे हैं। यह जानते हुए भी कि सेना के साथ उनके पिछले टकरावों का अंजाम गैरजिम्मेदाराना दुस्साहस और अक्खड़पन था, इसका बावजूद इनमें से हर एक तथा इनसे मिलती-जुलती अन्य कई घटनाओं में प्रधानमंत्री का यही रवैया कायम रहा,जिसका अब उन्हें हर्जाना चुकाना होगा। वह शायद यह समझने नाकाम रहे कि ऑपरेशन जर्ब-ए-अज्ब और उसके बाद पाकिस्तान के भीतर आतंकवादी हमलों में कमी आने से जनता की नजरों में सेना का सम्मान बहुत बढ़ गया था। पाकिस्तानी सेना शायद ही कभी नीति नियंत्रण और जनता की स्वीकृति और समर्थन का ऐसा मिला-जुला प्रबल स्वरूप हासिल कर पाई है, जैसा वर्तमान में उसे प्राप्त है।

शरीफ की राजनीतिक विरासत तार-तार

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाजुक लोकतांत्रिक व्यवस्था को बड़ा आघात पहुंचा है और शरीफ की राजनीतिक विरासत तार-तार हो चुकी है।

नवाज शरीफ सबसे कद्दावर नेता है, जिन्हें पाकिस्तान ने पिछले कम से कम 25 साल में तैयार किया है। उन्होंने 1990 के दशक के आरंभ में पाकिस्तान मुस्लिम लीग में नवाज गुट बनाया और शुरूआत से लेकर 2013 के चुनावों तक इसकी अगुवाई करते हुए तीसरे कार्यकाल के लिए अभूतपूर्व जीत हासिल की। जिस तरह नवाज शरीफ राजनीति के क्षेत्र में अपने सभी विरोधियों पर हावी हैं, उसी तरह पीएमएल (एन) भी इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) तथा आसिफ अली जरदारी और बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी)पर हावी है।

सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले ने पीएमएल (एन) की बुनियाद हिलाकर रख दी है, क्योंकि इसमें नवाज शरीफ के अलावा, उनकी पुत्री मरियम को भी फंसाया गया है, जिन्हें आने वाले समय में शरीफ की जगह पर लाने के लिए तैयार किया जा रहा था। शरीफ परिवार और पीएमएल (एन) के लिए यह दौर अनिश्चितता और अस्थिरता का है। शरीफ या उनकी पार्टी के लिए यह फैसला अचानक नहीं आया। दरअसल अप्रैल 2017 के दौरान आए 3-2 के बंटे हुए फैसले के बाद ही तस्वीर एकदम साफ हो गई थी।

जेआईटी की संरचना और कामकाज के बारे में अनेक चिंताएं और संदेह व्यक्त किए जाते रहे । उसके छह सदस्यों में से एक सदस्य सेना और दूसरा सदस्य आईएसआई से था। इस टीम में उनकी मौजूदगी का और कोई संतोषजनक कारण नहीं था, सिवाए इसके कि पाकिस्तान सेना इस जांच दल की कार्यवाही पर नियंत्रण बनाए रखना चाहती थी। शरीफ के पुत्र ने अपने परिवार के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया प्रदर्शित करने वाले टीम के दो अन्य सदस्यों पर आपत्ति व्यक्त की थी, लेकिन न्यायाधीशों ने उनकी आपत्तियों को खारिज कर दिया। जेआईटी के साथ सुनवाई में केवल उन तीन न्यायाधीशों ने भाग लिया था, जो अपने शुरूआती फैसले में नवाज शरीफ के अपराध के बारे में संतुष्ट न थे और उन्होंने इस मामले को नवगठित जेआईटी के पास भेजने की सलाह दी थी। पांच सदस्यों वाली इस बेंच के अध्यक्ष द्वारा शरीफ परिवार की तुलना बहुत अपमानजनक रूप से मारियो पुजो के “द गॉडफॉदर” में मौजूद माफिया के साथ किए जाने के साथ ही, वे इस जांच का रुख शरीफ के नैतिक चरित्र की सरगर्मी से जांच करने की दिशा मोड़ कर अपना इरादा पहले ही स्पष्ट कर चुके थे।

फैसला सुनाने में हुई अनुचित जल्दबाजी ने भी इसकी विश्वसनीयता और तटस्थता को नुकसान पहुंचाया।

अदालत में हुए इस नाटक का निर्देशन संभवत: पाकिस्तान की ताकतवर सेना द्वारा किया गया था, जो परम्परागत रूप से नागरिक सरकारों के भविष्य का फैसला करती आई है। दबी जुबान में एक यह अटकल भी लगाई जा रही थी कि न्यायालय के इस फैसले को ताकतवर जनरलों की महत्वपूर्ण सहायता और समर्थन हासिल है।

सुप्रीम कोर्ट और पांच हाईकोर्ट सहित पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायपालिका — हाल के वर्षों में तेजी से अपनी आजादी और अधिकार का दावा करने लगी है।

लेकिन निरंकुश कदमों से लोकतंत्र की हिफाजत करने के बारे में इसका रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। कुछ मुट्ठी भर न्यायाधीशों द्वारा असहमति प्रकट किए जाने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट द्वारा “आवश्यकता के सिद्धांत” के तहत 1958, 1977 और 1999 में हुए तीनों सफल सैनिक विद्रोहों को कानूनी जामा पहना दिया गया।

2013 में नवाज शरीफ के सत्ता में आने के बाद से ही उनके खिलाफ मुहिम छेड़ने में जुटने वाले पूर्व क्रिकेटर और पीटीआई के अध्यक्ष इमरान खान को शरीफ के हटने के बाद सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा होगा। यह फैसला उनके लिए निर्विवाद रूप से राजनीतिक और नैतिक जीत है। ऐसी अटकले लगाई जा रही हैं कि शरीफ के खिलाफ अपने अभियान में उन्हें पाकिस्तानी सेना की ओर से पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और लॉजिस्टिकल समर्थन प्राप्त हुआ है।

शरीफ के ब्रांड को आगे ले जाना

नवाज शरीफ ने अपने स्थान पर प्रधानमंत्री और पार्टी के मौलिक कर्णधार के रूप में अपने भाई और पंजाब सूबे के वर्तमान मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ की ताजपोशी की।

एक स्तर पर, पार्टी को एकजुट रखने और शरीफ के ब्रांड को आगे बढ़ाने का यह बहुत स्पष्ट विकल्प था। हालांकि इसके फौरन बाद अंतरिम प्रधानमंत्री के तौर पर मौजूदा पेट्रोलियम मंत्री शाहिद खाकान अब्बासी का नाम आया। शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने से पहले, मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना होगा और नेशनल असेम्बली के लिए अपने भाई की सीट से चुनाव जीतना होगा। यह चुनाव आने वाले हफ्तों में कराए जाएंगे।

फिलहाल, नवाज शरीफ की चुनौती पीएमएल (एन) की डगमगाती नैया को संभालना और उसे पार लगाना है। ऐसी उम्मीद है कि अब से नवाज शरीफ “शहीद” का चोगा पहनकर पार्टी की निगरानी, निर्देशन और मार्गदर्शन करना जारी रखेंगे। इससे एक साल से कम समय के भीतर होने जा रहे नेशनल असेम्बली के चुनावों में, उनकी पार्टी की स्थिति अच्छी होगी।

पंजाब के महत्व को समझते हुए,नवाज शरीफ ने शहबाज के पुत्र हमजा शहबाज को वहां मुख्यमंत्री के तौर पर नियुक्त कर इस सूबे को भी अपने परिवार के पास ही रखने का फैसला किया है। हमजा प्रोविएंशल असेम्बली के सदस्य और पिता के डिप्टी के तौर पर कार्य करते हैं। देश के चुनावी परिदृश्य में पंजाब का स्थान महत्वपूर्ण है और नवाज शरीफ उस पर अपना नियंत्रण गंवाना नहीं चाहते। हमजा शहबाज और नवाज परिवार के बीच टकराव की खबरें भी आ रहीं थीं, लेकिन दोनों ही परिवारों ने इसका जोरदार खंडन किया है। नवाज को प्रधानमंत्री पद और साथ ही साथ सबसे ज्यादा प्रभावशाली और शक्तिशाली सूबे का प्रबंधन, दोनों अपने भाई के परिवार को सौंपते हुए सावधानी बरतनी चाहिए, लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं।

ऐसा लगता है कि इस अप्रिय दास्तान में सेना ही स्पष्ट रूप से विजेता के तौर पर उभरी है। वह उस नापसंद शख्स से पिंड छुड़ाने में सफल रही है, जो सेना की कीमत पर नागरिक सरकार के अधिकार और दायरे में वृद्धि करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा था। मौजूदा व्यवस्था निश्चित तौर पर सेना के लिए उपयुक्त है, क्योंकि वह सामने न आकर, पर्दे के पीछे से ही निर्णय लेने और नीति निर्धारित करने की प्रक्रिया पर नियंत्रण रख सकती है और मार्गदर्शन कर सकती है। सेना द्वारा सीधे तौर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेने के बारे में लगाई जा रही अटकलें गलत साबित हुई हैं। शासन की बागडोर सीधे अपने हाथ में लेकर सेना कुछ हासिल नहीं कर पाएगी, जबकि यही अधिकार और ताकत बिना किसी जिम्मेदारी के उसके पास मौजूद है।

इस फैसले के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के समाज और राज व्यवस्था में अनिश्चितता, दुविधा और अस्थिरता बढ़ेगी। बलूचिस्तान, सिंध और खैबर पख्तूनख्वा में आतंकवादी हमलों के कारण बढ़ती अस्थिरता तथा गिलगित और बाल्टीस्तान के बीच बढ़ते असंतोष सहित नवाज की विदाई पाकिस्तान में सुरक्षा और शांति का संकेत नहीं है।

भारत को ज्यादा चौकन्ना रहने की जरूरत

आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि जब भी पाकिस्तान में घरेलू समस्याएं उत्पन्न होती हैं, उसकी सेना अपनी जनता का ध्यान वहां से हटाने के लिए भारत के खिलाफ कुछ गैरजिम्मेदाराना दुस्साहस करती है। उसकी सेना ने पिछले कुछ समय से अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं और विशेषकर 8 जुलाई 2016 को हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी बुरहान वानी की मौत के बाद पाकिस्तान की ओर से संघर्षविराम उल्लंघन और सीमापार घुसपैठ की घटनाएं बढ़ गई हैं। भारत को सीमा पार से होने वाली आतंकवादी गतिविधियों में हुई वृद्धि से निपटने के लिए सतर्क और चौकन्ना रहने की जरूरत है।

भारतीय सुरक्षा बलों ने हाल के हफ्तों में आतंकवादियों का मुंह तोड़ जवाब देने और उन्हें कुचलने में कई महत्वपूर्ण सफलातएं हासिल की हैं। पथराव करने वालों को प्रोत्साहन और समर्थन देने वालों के खिलाफ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की प्रभावी कार्रवाई की वजह से ऐसी घटनाओं में काफी कमी आई है। पाकिस्तानी सेना और राज व्यवस्था हालांकि बुरहान वानी की मौत के बाद उत्पन्न हिंसा को एक मौके की तरह देख रही थी। इसलिए भारत के लिए यह और भी ज्यादा आवश्यक हो जाता है कि वह पश्चिमी सीमा पर किसी भी प्रकार की स्थिति का सामना करने को तैयार रहे।

हाल के हफ्तों में चीन के साथ भारत के संबंधों में भारी गिरावट आई है और वे बिल्कुल निम्न स्तर पर जा पहुंचे हैं। चीन, भारत पर दबाव बढ़ाने के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर कदम उठाने की ओर आकृष्ट हो सकता है। भारत को सभी दिशाओं में चौकन्ना रहने की जरूरत है, ताकि यह सुनिश्चित रहे कि इन विरोधियों में से किसी की भी तरफ से कुछ अप्रत्याशित न हो जाए

नवाज शरीफ भारत के साथ स्थिर, शांतिपूर्ण संबंधों का केवल दुविधा और अनिच्छा के साथ समर्थन करते थे। उनकी विदाई पर भारत में शोक नहीं मनाया जाना चाहिए, क्योंकि उनके कार्यकाल को चार बरस से ज्यादा अर्सा बीत चुका था और इस दौरान दोनों देशों के आपसी संबंधों को कोई सुधार नहीं देखा गया।

इसके विपरीत, पठानकोट हमले के बाद से दोनों देशों के संबंध बिगड़ते चले गए। इस हमले को प्रधानमंत्री मोदी की साहसी और ऐतिहासिक लाहौर तथा रेवन्दी की यात्रा के एक सप्ताह के भीतर अंजाम दिया गया था। प्रधानमंत्री मोदी वहां शरीफ की पोती के विवाह में शरीक होने गए थे। इतना ही नहीं, बुरहान वानी की मौत के बाद दोनों देशों के संबंध और ज्यादा बिगड़ गए। शरीफ ने संबंधों में सुधार लाने की कोशिश की, जैसा कि जुलाई 2015 के उफा घोषणापत्र तथा 9 दिसम्बर 2015 के समग्र द्विपक्षीय संवाद शुरू करने के फैसले से जाहिर होता है। हालांकि वे ऐसी किसी भी पहल को आगे बढ़ाने में नाकाम रहे और आखिर में सेना ने उन्हें यह प्रयास छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

शरीफ का जाना, भारत के लिए सिर्फ इस हद तक ही चिंता की बात है कि इससे पाकिस्तान की राज व्यवस्था में बड़े पैमाने पर अस्थिरता और अनिश्चितता आएगी, जो उसकी ताकतवर सेना को भारत के खिलाफ कुछ दुस्साहस भरे कदम उठाने के लिए उकसा सकती है। भारत को अपनी सुरक्षा और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए सभी मोर्चों पर सतर्क और चौकन्ना रहना होगा।

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