Author : Ashok Malik

Published on Oct 27, 2016 Updated 12 Days ago
पड़ोसी देशों के ​लिए भारतीय नीतियों की संरचना में बदलाव की जरूरत
लगातार कमजोर होते सार्क के चलते भारत की विदेश नीति में किन बदलावों की जरूरत है

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (दक्षेस) के अशक्त होने के साथ ही, पड़ोसी देशों के प्रति अपनी नीति के लिए तत्काल नई शैली तलाशना भारत के लिए नितांत आवश्यक हो गया है। दक्षेस के भीतर पाकिस्तान के वीटो से मुक्त निकटतम पड़ोसी देशों के साथ  जनीतिक, व्यापार और संपर्क से जुड़े संबंधों को व्यापक बनाने के अतिरिक्त दो अन्य कारणों की भी इसमें भूमिका रही हैः

  • पड़ोसी देशों से संबंधित नीति का व्यापक क्षेत्रीय प्रबंधों के रूप में तर्कसंगत और भौगोलिक विस्तार।
  • दक्षिण-एशिया के लगभग प्रत्येक देश में चीन का एक कारक के रूप आगमन-पिछले दशक और 2008 के बाद की चीन की त्वरित, आक्रात्मकता का उत्पाद- जिसकी वजह से भारत को पड़ोसियों के साथ अपने दृष्टिकोण के बारे में पुनर्विचार करने और उसकी नए सिरे से परिकल्पना करने के लिए विवश होना पड़ रहा है।

पूर्व के प्रति, यह नई नीति ज्यादा स्पष्ट हो चुकी है। जहां गोवा में ब्रिक्स (ब्राजील,रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) शिखर सम्मेलन प्रारंभ हो रहा है, वहीं भारत ने बिम्सटेक सम्मेलन के लिए आउटरीच देशों तक को निमंत्रण दे दिया है। बहुक्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी की पहल-बिम्सटेक की स्थापना भारत के अलावा बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, भूटान और नेपाल को शामिल करके की गई है। बिम्सटेक के सात सदस्य देशों में से पांच दक्षेस के भी संस्थापक हैं। इनमें से चार -बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल ने मिलकर बीबीआईएन का गठन किया है।

दक्षेस के भीतर, भारत द्वारा फास्ट ट्रैक के रूप में प्रोत्साहित किया जाने वाला बीबीआईएन, बिम्सटेक के और अधिक ऊर्जावान भारतीय आधार का मूल है। बिम्सटेक में प्राप्त सार्थक निष्कर्ष भारत को चीन द्वारा संरक्षित बीसीआईएम (क्षेत्रीय सहयोग के लिए बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार मंच) के भीतर उसके विचार-विमर्श में भी मजबूती प्रदान करेंगे। बीसीआईएम राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ‘एक पट्टी, एक सड़क’ कार्यक्रम का एक खंड है, जहां भारत और चीन के पास सहयोग और इंटरसैक्शन के लिए संभावनाएं है, बशर्ते राजनीतिक संदेहों का समाधान हो जाए।पूर्व के प्रति, भारत की नई शैली के कारक ज्यादा स्पष्ट होते जा रहे हैं, लेकिन पश्चिम का क्या? अफगानिस्तान दक्षेस का सदस्य देश है और भारत का महत्वपूर्ण दोस्त एवं सहयोगी भी है। इसके बावजूद इन दोनों के बीच स्थित-पाकिस्तान का विशाल भूभाग -परस्पर लाभकारी परियोजनाओं के लिए उपलब्ध नहीं है और इसलिए उसे बीच में छोड़कर आगे बढ़ना होगा। चीन-पाकिस्तान आर्थिक परियोजना (सीपीईसी) के जरिए पाकिस्तान में चीन की मौजूदगी भी एक ऐसा मामला है, जिसे भारत महत्वपूर्ण खतरे के रूप में देख रहा है।

सीपीईसी, के तहत पाकिस्तान से 46 बिलियन डॉलर तक के चीनी निवेश का वायदा किया गया है। इसमें से,एक-तिहाई यानी 14 बिलियन डॉलर की राशि पहले से ही ऊर्जा और सड़क निर्माण से संबंधित परियोजनाओं में लगाई जा चुकी है। प्रथम दृष्टया पाकिस्तान द्वारा आर्थिक सहायता और बुनियादी सुविधाओं के लिए लाभ ग्रहण किए जाने में तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सीपीईसी के अंतर्गत सूचीबद्ध परियोजनाएं वाणिज्यिक रूप से व्यवहारिक नहीं हैं।

दो स्थानों – जम्मू-कश्मीर की पूर्व रियासत के अंग और भारत के वैध दावे वाले स्थान गिलगित-बाल्टीस्तान तथा -बलूचिस्तान के मकरान तट पर स्थित बंदरगाह शहर ग्वादर- में भारत सीपीईसी की प्रकृति को लेकर सतर्क है। गिलगित-बाल्टीस्तान का बुनियादी ढांचा और सड़कें, कुल मिलाकर सैन्य उद्देश्यों को ही पूरा करते हैं-और वह चीनी और पाकिस्तानी सैनिकों को एक ही मोर्चे पर एकजुट कर सकता है-यह बात अब स्पष्ट होती जा रही है। ग्वादर में,भारत की दहलीज से सटे अरब सागर में चीनी नौसैनिक ठिकाना, भारत के सामरिक भूगोल को नया आकार देने का कारण बन सकता है।

भारत अपने पश्चिमी छोर के क्षेत्रीय कोणों के प्रति के कैसा रुख रखता है? इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करने से पहले, पाकिस्तान के काम करने के अंदाज और उसके द्वारा भरी गई और खाली छोड़ी गई जगहों को समझना महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इन जगहों से ही इसी बात का संकेत मिलेगा कि भारत वस्तुतः क्या हासिल कर सकता है और क्या हासिल नहीं कर सकता है। अमेरिका से दूर जा चुका पाकिस्तान अब अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चीन को अपने बड़े हितैषी के रूप में देख रहा है। अमेरिका के साथ भारत की निकटता बढ़ रही है और चीन पर रूस की बढ़ती निर्भरता से भी पाकिस्तान को मास्को तक पहुंच बनाने के अवसर-लेकिन सीमित अवसर प्राप्त हो रहे हैं।

साथ ही साथ, जैसे-जैसे पाकिस्तान अपने दक्षिण एशियाई आश्रय से दूर हो रहा है, वैसे-वैसे वह रुढ़िवादी समाज के बीच फंसता जा रहा है, जो पश्चिम एशिया की ओर पहचान के सहारे और सैन्य एवं सामरिक रूप से कुलीन वर्ग के तौर पर देख रहा है, जिसे चीन का स्थानापन्न बनने में लाभ दिखाई देता है-भले ही इस प्रक्रिया में पाकिस्तान के फिनलैंड जैसा बनने (फिनलैंडाइजे़शन) के दीर्घकालिक जोखिम मौजूद हों।

पाकिस्तान अपने पश्चिम में जो जगहें खाली छोड़ रहा है, वे भारत के लिए कुछ अवसर प्रस्तुत करती हैं। मसलन हिंद महासागर-प्रशांत महासागर क्षेत्र में, जहां भारत विविध प्रतिस्पर्धी ताकतों के साथ संबंधों को व्यवस्थित कर रहा है- और उनमें से कुछ के साथ संबंधों का चतुराई के साथ, जबकि कुछ अन्य के साथ असहजता के साथ संभाल रहा है। -भारत के पास प्रमुख सुन्नी रियासतों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर), प्रमुख शिया ताकत (ईरान) और साथ ही साथ छोटी ताकतों के साथ भी युद्धाभ्यास करने के अवसर हैं।

यह समझने की जरूरत है कि यह युद्धाभ्यास असीमित कतई नहीं हैं। सामूहिक गुटबंदी या कार्रवाई के आह्वान की गुंजाइश भी बहुत कम है। इन देशों के बीच भी आपस में काफी विरोधाभास हैं और उनमें एक भी चीन से सीधे टकराव नहीं मोल लेना चाहता। कोई भी सीधे तौर पर सीपीईसी का विरोध नहीं करने वाला है, भारत की खातिर भी नहीं।

प्रश्न यह है कि अफगानिस्तान तक भारत की वास्तविक पहुंच को सीपीईसी और पाकिस्तान द्वारा एकाधिकार जताते हुए रोके जाने के विरुद्ध किस हद तक निर्णय लिया जा सकता है, उसका विरोध किया जा सकता है, उसे नजरंदाज किया जा सकता है, उसे जटिल (यहां तक कि विवादास्पद) बनाया जा सकता है और उसके लिए इस कार्य का बचाव करना, कार्यान्वयन करना और इस बरकरार रख पाना दुष्कर बनाया जा सकता है? यह आसानी से हो सकता है। मिसाल के तौर पर, बलूच अल्पसंख्यकों के खिलाफ पाकिस्तान के मानवाधिकार उल्लंघनों को उजागर करने के लिए किए गए भारतीय कूटनीतिक प्रयासों को कई बरसों तक और कई सरकारों द्वारा जारी रखने की जरूरत होगी-और संभवतः इसमें बलूचिस्तान में मौजूद कई अन्य सहायकों और तंत्रों द्वारा सहायता प्रदान किए जाने की जरूरत होगी- ताकि ठोस प्रभाव पड़ सके।

चाबहार बंदरगाह (ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में ओमान की खाड़ी में) ग्वादर का विकल्प या प्रतिद्वंद्वी नहीं है, लेकिन भारत को अफगानिस्तान और क्षेत्र तक आसान पहुंच और अवसर प्रदान करने की उम्मीद दिलाता है। यह उपयुक्त है कि ईरानी सरकार ने भारत से ओमान को परियोजना में भागीदार बनने का आमंत्रित करने का अनुरोध किया है और इस प्रकार चाबहार का सामरिक महत्व और व्यवहारिकता बढ़ी है।

ग्वादर में चीन द्वारा संचालित सुविधा की संभावना यूएई की भी चिंता का कारण है। यदि भारत बंदरगाह के सैन्य निहितार्थों को लेकर चिंतित है, वहीं अमीरात को लगता है कि चाबहार की सामुद्रिक स्थिति, उसे पूर्णतया व्यवसायिक बंदरगाह बनाती है, जो संभवतः दुबई बंदरगाह की बाजार में हिस्सेदारी को समाप्त कर सकता है। जहां तक सीपीईसी के व्यापक परिणामों का सवाल है, ईरानी कैसे नवीन साम्राज्यवादी ताकत-चीन के अपने पड़ोस में आगमन और स्थायीकरण को स्वीकार करेंगे-इस बारे में अब तक विचार नहीं किया गया है।

पूरे खाड़ी क्षेत्र में, पाकिस्तान के आतंक के बुनियादी ढांचों और धार्मिक कट्टरपंथी क्षमताओं को लेकर आशंकाएं व्याप्त हैं। आतंकवादी गुटों के साथ सीधे संपर्क और निर्वासित कामगारों के समुदायों के बीच या उनके द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार को लेकर सवाल उठ रहे हैं, जिनकी जड़े पाकिस्तान में तलाशी जा सकती हैं। इसके साथ ही, भारत में अवसंरचना, ऊर्जा, सैन्य उत्पादन और अन्य ऐसे निवेश के क्षेत्र हैं, जहां अरब देशों की ओर से सरकार के स्वामित्व वाली निवेश राशि लगायी जा सकती है। पिछले दो बरसों में मोदी सरकार ने खाड़ी क्षेत्र की राजधानियों में भारत की उपस्थिति बढ़ाने में इसका परिश्रम से उपयोग किया है।

अबु धाबी के शाहजादे और यूएई के भावी शासक को अगले साल गणतंत्र दिवस समारोह में आमंत्रित किया जाना इन प्रयासों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। मोदी सरकार के पहले दो गणतंत्र दिवस समारोहों के दौरान राष्ट्रपति बराक ओबामा (2015) और राष्ट्रपति फ्रांस्वा होलांद (2016) को आमंत्रित किया गया था, इसे देखते हुए यह प्रतीकात्मक संदेश अनसुना नहीं रहेगा। यह कहना उपयुक्त होगा कि विशेषकर यूएई और अबु धाबी भारत की ‘थिंक वेस्ट’ नीति का मुख्य आकर्षण बन चुके हैं, जैसे कि 25 बरस पहले सिंगापुर “लुक ईस्ट” नीति के लिए मुख्य क्षेत्र था।

तब से धीरे-धीरे, दक्षेस के बाद की, पड़ोस-पड़ोस संबंधी-क्षेत्रीय रणनीति का संरचनात्मक डिजाइन उभर रहा है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जिन्हें लक्षित किया गया है, वे भी अपने “लौह मित्रों” की तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। आने वाले तीन महीने, राष्ट्रपति शी के गोवा से रवाना होने से लेकर शाहजादा के दिल्ली आगमन तक का समय मोदी और भारत के लिए निश्चित तौर पर “आश्चर्यों” सहित चुनौतीपूर्ण होगा।

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