Author : Rachel Rizzo

Published on Feb 10, 2020 Updated 0 Hours ago

नाटो इतिहास का सर्वाधिक सफल सैन्य गठबंधन है लेकिन आगे के समय में शीर्ष पर बने रहने के लिए नाटो के नेताओं को गठबंधन के भविष्य को लेकर गंभीर बातचीत के लिए अपने मन को तैयार करना होगा. दरअसल, नाटो की मुख्य चुनौतियां नितांत नयी हैं और खुद इस संगठन के भीतर से उभर रही हैं.

नाटो का भविष्य: नेताओं को रक्षा–ख़र्च के सवाल से आगे बढ़कर ठोस मुद्दों पर बात करनी चाहिए

नाटो अर्थात उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन की स्थापना की 70वीं सालगिरह के मौके पर सदस्य देशों के नेता लंदन में एकजुट हुए और सैन्य-सुरक्षा से जुड़े  अहम मसलों पर चर्चा भी किए.

ऐसे तो बहुत से मुद्दे थे जो नाटो के इस शिखर सम्मेलन को पटरी से उतार सकते थे और इसे देखते हुए अटलांटिक के दोनों ही छोर पर बसे देशों के विश्लेषक चिंता में थे कि ना जाने ढाई दिन चलने वाले सम्मेलन में क्या कुछ देखने को मिले. लेकिन सौभाग्य कहिए कि ‘ड्रामा’ ज्यादा लंबा नहीं खींचा—समारोह के ज्यादातर हिस्से में यही देखने को मिला कि नेता रस्मअदागयी के तौर पर खींचे जाने वाले फैमिली-फोटो के लिए एकजुट हो रहे हैं, रक्षा के साझे दायित्व की अहमियत पर जोर दे रहे हैं और आसन्न ख़तरों (हायब्रिड थ्रेटस्), सैन्य तैयारियों और सैन्य-ख़र्चों पर बात कर रहे हैं. ये एक हद तक अपेक्षित भी था क्योंकि बीते कुछ सालों में देखने में आया है कि नाटो में शामिल देश ज़रुरत के समय एकजुट होकर मोर्चा खोलते हैं.

वैसे ये सब अच्छा है और भला जान पड़ता है लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की तारीख में नाटो बड़ी रणनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा है. दुर्भाग्य देखिए कि ये चुनौतियां रूस सरीखे बाहरी देश की देन नहीं और ना ही इन चुनौतियों का रिश्ता इस बड़े सवाल के जवाब तलाशने से है कि नये उभरते रक्षा-परिवेश में नाटो की भूमिका क्या हो. दरअसल, नाटो की मुख्य चुनौतियां  नितांत नयी हैं और खुद इस संगठन के भीतर से उभर रही हैं.

लोकतंत्र की राह पर पीछे हटते कदम

पहली और शायद सबसे खतरनाक आंतरिक चुनौती तो यही है कि नाटो के सदस्य देश तुर्की और हंगरी के कदम लोकतंत्र की राह पर पीछे खिसक रहे हैं. साल 2016 के जुलाई में हुई तख्ता पलट  की एक नाकाम कोशिश के बाद से तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगन ने अपने देश में नागरिक-स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगाया है और तुर्की एक तरह से अधिनायकवाद के रास्ते पर चल पड़ा है. जेल में बंद पत्रकारों की संख्या के आधार पर देखें तो आज तुर्की दुनिया में शीर्ष स्थान पर है, तुर्की में अदालतें एर्दोगन-राज के साथ मिलीभगत में काम करती हैं और चुनाव ना तो स्वतंत्र रह गये हैं ना ही निष्पक्ष. तुर्की के लोकतांत्रिक संस्थान भी प्रभावहीन हो चले हैं.[i] यही नहीं, तुर्की ने हाल ही में एक रूस-निर्मित एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद की है और अक्टूबर में कुर्दों के कब्जे वाले उत्तरी सीरिया पर हमला बोला है. नाटो के सदस्य देशों ने तुर्की के इन दोनों कदमों की कड़ी निन्दा की. 

हंगरी और तुर्की के रुझान गंभीर चिंता जगाने वाले हैं और अभी तक इन दो देशों के नेताओं ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे लगे कि ये अपनी करनी से बाज आयेंगे.

मध्य यूरोप का देश हंगरी भी तुर्की जैसे रास्ते पर चल पड़ा है. हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन खुद को सगर्व “अनुदार डेमोक्रेट”(इल्लिबरल डेमोक्रेट) के रूप में चिन्हित करते हैं और कहते हैं कि उन्हें लोगों ने जनादेश दिया है कि वे अपने हाल के कुछ ‘अनुदार कार्यों’(इल्लिबरल एक्टस्) का बचाव करें.[ii] साल 2017 में हंगरी ने एक कानून बनाया. इस कानून के मुताब़िक विदेश से वित्तीय सहायता हासिल करने वाले गैर स्वयंसेवी संगठनों को अब विदेशी एजेंट के रुप में पंजीयन कराना होगा. यह कानून मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के भी प्रतिकूल है. साथ ही, इस कानून से पठन-पाठन से जुड़ी अकादमिक स्वतंत्रताएं सीमित होती हैं और न्यायपालिका पर राजनीतिक नियंत्रण मजबूत होता है. [iii] न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता पैट्रिक किंग्सले के अनुसार, ” ऑर्बन के सहयोगियों का संवैधानिक न्यायालय पर नियंत्रण है और ऑर्बन के प्रति वफादारी दिखाने में लगे लोग ये तय करते हैं कि कौन सा मामला अदालत में मुकदमे का रुप लेगा.” [iv] राजकीय नियंत्रण में चलने वाली मीडिया भी ऑर्बन का पिछलग्गू बनकर बोलती है और स्वतंत्र उद्यमों को दबाव की रणनीति अपनाकर हां में हां मिलाने के लिए मजबूर किया जा रहा है. साथ ही, ऑर्बन आप्रवासियों, शरणार्थियों और विदेश से आये अन्य लोगों को देश के लिए खतरा बताते हुए उन्हें डंडामार शैली में फटकार लगाते हैं और यूरोप-आशंकित (युरोस्केप्टिक्स) अन्य लोगों की तरह यूरोपीय संघ को एक ‘फर्जी संस्था’करार देते हैं.[v]

हंगरी और तुर्की के रुझान गंभीर चिंता जगाने वाले हैं और अभी तक इन दो देशों के नेताओं ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे लगे कि ये अपनी करनी से बाज आयेंगे.

कभी हां और कभी ना वाले नाटो के देश

नाटो के लिए दूसरी आंतरिक चुनौती  है इसके कुछ सबसे ताक़तवर देशों का डांवाडोल रुख. ऐसे देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम खास तौर पर लिया जा सकता है. डॉनल्ड ट्रम्प ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में नाटो गठबंधन को ” पुराना-धुराना ” करार दिया था. उन्होंने स्पष्ट स्वर में कहा था कि उन्हें लगता है कि अमेरिका के लिए नाटो की सदस्यता घाटे का सौदा साबित हो रही है. नाटो के प्रत्येक देश से उम्मीद की जाती है कि वो अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत रक्षा पर ख़र्च करेगा और डोनल्ड ट्रम्प आज की तारीख में भी नाटो के ज्यादातर देशों बारे में बड़ी ढीठाई से कहते हैं कि वे अपेक्षा से कहीं कम ख़र्च कर रहे हैं और इस कारण कर्तव्य के निर्वाह के मामले में “दोषी” हैं. अकेले ट्रम्प ही ऐसे राष्ट्रपति नहीं जो नाटो के यूरोपीय देशों पर दबाव डाल रहे हों कि वे अपने रक्षा-ख़र्च को बढ़ायें लेकिन वे अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्होंने नाटो संधि के अनुच्छेद-V के प्रति अमेरिका की वचनबद्धता को लेकर सवाल खड़े किये हैं. संधि के अनुच्छेद- V में कहा गया है कि नाटो के किसी भी सदस्य देश पर आक्रमण की स्थिति में उसे नाटो गठबंधन के समस्त देशों पर आक्रमण माना जायेगा और अमेरिकी राष्ट्रपति के इस रुख से नाटो की साझा रक्षा-भावना को चोट पहुंची है. अमेरिकी राष्ट्रपति के सोच का एक इशारा ये है कि नाटो के सदस्य देश पर आक्रमण की स्थिति में अमेरिका उसकी मदद को आगे नहीं आयेगा और इससे नाटो की बुनियाद पर चोट पड़ती है. अमेरिकी राष्ट्रपति का रुख ये कहता प्रतीत होता है कि नाटो से बाहर के देश ये देखने के लिए कि अनुच्छेद-V का सिद्धांत किस हद तक अमल में हैं, चाहें तो इसकी परीक्षा करे लें. सौभाग्य कहिए कि नवंबर के दूसरे पखवाड़े में नाटो के महासचिव जेन्स स्टॉल्टेनबर्ग ने घोषणा की कि गठबंधन के यूरोपीय देशों और कनाडा ने रक्षा-व्यय बढ़ा दिया है और उन्होंने अपनी बात में ये भी जोड़ा कि “ नये अनुमानों के मुताबिक कुल रक्षा-व्यय 2024 तक बढ़कर 400 अरब डॉलर हो जायेगा.”[vi] शायद इस बात से ट्रम्प के तेवर कुछ ढ़ीले पड़े और उन्होंने रक्षा-व्यय में बढ़ोत्तरी का श्रेय स्वयं अपने को देने का मौका नहीं गंवाया.

लेकिन ट्रंप नाटो के लिए सिरदर्द पैदा करने वाला एकमात्र नेता नहीं. नवंबर की शुरुआत में, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने द इकोनॉमिस्ट को एक धमाकेदार इंटरव्यू दिया और इस इंटरव्यू से अटलांटिक के दोनों सिरों पर बसे नाटो के देश घनचक्कर में पड़े

लेकिन ट्रंप नाटो के लिए सिरदर्द पैदा करने वाला एकमात्र नेता नहीं. नवंबर की शुरुआत में, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने द इकोनॉमिस्ट को एक धमाकेदार इंटरव्यू दिया और इस इंटरव्यू से अटलांटिक के दोनों सिरों पर बसे नाटो के देश घनचक्कर में पड़े.[vii] साक्षात्कार में मैक्रॉन ने अफसोस जताते हुए कहा कि “नाटो का ब्रेनडेथ ” हो चुका है, उन्होंने साझा रक्षा के प्रावधान की वैधता पर सवाल उठाया और आह्वान किया कि अमेरिकी ख़तरों के मद्देनज़र नाटो की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन किया जाय. मैक्रॉन का कहना था कि इन सवालों का जवाब है अखिल यूरोपीय स्तर पर अधिकाधिक एका कायम करना. मैक्रॉन के इंटरव्यू पर अटलांटिक के दोनों छोर के देशों के नेताओं की तेज और तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं. जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने नाटो के अस्तित्व को अनिवार्य बताते हुए कहा कि मैक्रॉन ने “कठोर” शब्दों का इस्तेमाल किया है.[viii] अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने इस मौके को भुनाते हुए दबाव बनाया कि यूरोप अपने रक्षा-ख़र्च को बढ़ाये [ix] और जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने कहा कि “उत्तरी अमेरिका से यूरोप को दूर करने का कोई भी प्रयास ना सिर्फ इस पार-अटलांटिक गठबंधन को कमजोर करेगा बल्कि इससे यूरोप के विखंडित होने का भी खतरा है.”[x] लेकिन मैक्रॉन इंटरव्यू में कही गई अपनी बातों पर अड़े रहे. उन्होंने कहा कि ये नाटो के लिए होश में आने का वक्त है, साथ ही नाटो के अपने उद्देश्यों और बुनियादी लक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन का भी.

नाटो: आगे किस राह पर?

दुर्भाग्य कहिए कि नाटो इस स्थिति में नहीं कि चीजों को मनमुताबिक चुन और छांट सके. चाहे अंदरुनी तौर पर पहचान का ही संकट क्यों ना खड़ा हो जाये, नाटो को इतना सक्षम तो होना ही चाहिए कि वो गठबंधन के बाहर के देशों से अपने सदस्य देशों की सुरक्षा और बचाव की क्षमता विकसित कर सके, सदस्य देशों के बीच सैन्य तैयारियां सुनिश्चित करे और अंतरिक्ष, 5जी तथा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सरीखे रक्षा-सबंधी नये उभरते क्षेत्रों से निबट सके. इन तमाम चीजों को कारगर तरीके से कर दिखना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं.

तो फिर सवाल उठता है कि नाटो को क्या करना चाहिए? ये कोई आसान सवाल नहीं लेकिन एक बात निश्चित है: गठबंधन आगे के सालों में प्रासंगिक और ताक़तवर बना रहे इसके लिए बहुत ज़रुरी है कि वो अपनी आंतरिक संगति को धक्का पहुंचाने वाले मूल सवालों पर गहराई से विचार करे.

नाटो में शामिल देशों के नेताओं को सबसे पहले तो आपस में इस सवाल पर बात करनी चाहिए कि गठबंधन के उन देशों के साथ कैसे निबटा जाय जो अधिनायकवाद की तरफ झुक रहे हैं(या फिर इस बात पर नाटो के नेता विचार करें कि ऐसे देशों से निबटना है अथवा नहीं). नाटो को इस समस्या का सामना कोई पहली बार नहीं करना पड़ रहा लेकिन अभी की चुनौतियां इतनी भारी-भरकम है कि नाटो के लिए पहले के किसी समय की तुलना में आज के समय में एकजुट होकर रहना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठा है. सवाल ये उठ खड़ा हुआ है कि क्या नाटो सिर्फ सैन्य उद्देश्यों को समर्पित गठबंधन है ? या फिर, नाटो का साझे मूल्यों के हमराह देशों का गठबंधन होना भी ज़रुरी है ? अगर इस प्रश्न का उत्तर है कि ‘हां’ नाटो के सदस्य देशों का साझे मूल्यों का हमराह होना भी ज़रुरी है तो फिर आपस में बेलाग-लपेट की बात करनी होगी. दरअसल मूल्य ही वो बुनियाद है जिसपर गठबंधन को तामीर किया जाता है. अगर साझे मूल्यों में एका ना हो तो फिर साझा रक्षा-दायित्व तथा सामूहिक सुरक्षा जैसे बुनियादी लक्ष्यों से भटकने का खतरा पैदा होता है. आज की तारीख में नाटो के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिसके सहारे वो अपने सदस्य देश को अलोकतांत्रिक कदम उठाने पर दंडित कर सके. चूंकि नाटो सर्व-सहमति पर आधारित गठबंधन है इसलिए इसके सदस्य देशों का गठबंधन के हर देश पर लागू होने वाले फ़ैसलों पर सहमत होना आवश्यक है.

रक्षा-व्यय के मुद्दे से अलग सोचने की ज़रुरत

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन से प्रकाशित एक अध्ययन में जोनाथन कात्ज और टॉरे तौसिग ने सुझाव दिया है कि नाटो में प्रशासनिक कामों के लिए एक नयी समिति बने. ये समिति नाटो में राजनीतिक मामलों तथा सुरक्षा नीति से संबंधित सहायक महासचिव की अध्यक्षता में बनायी जाय और समिति वाशिंग्टन संधि के सिद्धांतों के उल्लंघन के मामलों को देखें क्योंकि नाटो की बुनियाद वाशिंग्टन संधि के दस्तावेज़ से ही तैयार हुई है.[xi] यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा और नाटो के सदस्य देशों के नेताओं को इसके समर्थन में खड़ा होना चाहिए. बात चाहे उच्च स्तरीय बैठकों तथा शिखर सम्मेलनों के साझे दस्तावेज़ तैयार करने की हो अथवा नाटो के सदस्यों देशों के बीच स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्य और उदारवाद के महत्व पर जोर देने की- नयी समिति का बनना अहम साबित होगा.

नाटो की एक बड़ी ज़रुरत यह भी है कि वहां अब बातचीत सुरक्षा मद में होने वाले व्यय से हटकर कोई अलग दिशा ले. ये बात ठीक है कि यूरोपीय देशों के लिए सुरक्षा ख़र्च को बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाना और अपने रक्षा-व्यय संबंधी लक्ष्यों को पूरा करना ज़रुरी है लेकिन हाल के आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि यूरोप ने इस दिशा में अच्छी प्रगति की है. बीते कुछ सालों में रक्षा-व्यय का सवाल नाटो के विदेश मंत्रियों तथा रक्षा मंत्रियों के स्तर की लगभग सारी बैठकों और शिखर सम्मेलनों में छाया रहा है. बर्लिन, ब्रुसेल्स तथा वाशिंग्टन में होने वाले आयोजनों तथा विशेषज्ञों की बैठकों में यूरोप के देशों के रक्षा-व्यय का मुद्दा एक अहम सवाल बनकर छाया रहा. आज की तारीख में रक्षा-व्यय का मुद्दा नाटो के सदस्य देशों को ज्यादा अहम मसलों पर ठोस बातचीत शुरु करने में बाधा पहुंचा रहा है, रक्षा-व्यय के मुद्दे के हावी रहने से ध्यान वास्तविक क्षमता पर ना होकर मनमाने आंकड़ों पर केंद्रित हो रहा है और इससे ट्रम्प की आलोचनाओं को और ज्यादा बल मिल रहा है. रक्षा-व्यय का मुद्दा विवादों का अखाड़ा बन गया है. नाटो के नेताओं को चाहिए कि वे अब रक्षा-व्यय के मुद्दे से आगे बढ़ते हुए अपना ध्यान क्षमताओं पर केंद्रित करें: ये सोचें कि नाटो के सदस्य देश किन चीजों की पेशकदमी कर रहे हैं? क्या सदस्य देश ज़रुरत पड़ने पर इन क्षमताओं का उपयोग करने के पक्ष में हैं ? ये भी सोचना होगा कि गठबंधन में शामिल वैसे देश जो रक्षा-व्यय के मद में कम ख़र्च कर रहे हैं क्या कुछ अन्य क्षेत्रों जैसे सायबर-सुरक्षा अथवा सूचना-विरुपण (डिस्इन्फॉरमेशन) की काट में कुछ विशेष योगदान कर सकते हैं ? उम्मीद बांधी जा सकती है कि ज्यादा ठोस मुद्दों को बातचीत का विषय बनाने से नाटो के नेताओं की चिंताओं में कमी आयेगी.

दरअसल नाटो इतिहास का सर्वाधिक सफल सैन्य गठबंधन है. लेकिन आगे के समय में शीर्ष पर बने रहने के लिए नाटो के नेताओं को गठबंधन के भविष्य को लेकर गंभीर बातचीत के लिए अपने मन को तैयार करना होगा. ये बातचीत कठिन साबित होगी, बहुत संभव है कि बातचीत विवाद का रुप ले ले लेकिन अगर नाटो को आगे के समय में मजबूत, एकजुट और प्रासंगिक बने रहना है तो फिर ऐसी बातचीत का होना ज़रुरी है.


[i] “Turkey leads the world in jailed journalists”, The Economist, January 16, 2019.

[ii] Carisa Nietsche, “How Hungary’s Orban puts Democratic Tools to Authoritarian Use”, World Politics Review, June 10, 2019.

[iii] Pitor Buras, “Poland, Hungary, and the Slipping Façade of Democracy”, European Council on Foreign Relations, July 11, 2018.

[iv] Patrick Kingsley, “On the Surface, Hungary is a Democracy. But What Lies Beneath?” The New York Times, December 25, 2018.

[v] See note 2.

[vi] “NATO Secretary General Announces Increased Spending by Allies”, NATO, November 22, 2019.

[vii] “Emmanuel Macron in his Own Words”, The Economist, November 7, 2019.

[viii] “Germany’s Merkel, Maas defend NATO after Macron’s rebuke”, Deutsche Welle, November 10, 2019,

[ix] David M. Herszenhorn, Jacopo Barigazzi, Rym Momtaz, “Emmanuel Macron’s Transatlantic Turbulence”, Politico Europe, November 13, 2019.

[x] FP Editors, “Stoltenberg to Macron: NATO’s Not Dead Yet”, Foreign Policy, November 7, 2019.

[xi] Jonathan Katz and Torrey Taussig, “An Inconvenient Truth: Addressing Democratic Backsliding Within NATO”, Brookings, July 10, 2018.

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