Author : Sushant Sareen

Published on Apr 23, 2020 Updated 0 Hours ago

जब-जब तब्लीग़ी जमात जैसे संगठन को खुली छूट मिलती है, उसका हौसला मज़बूत होता है और उसे लगता है कि बिना किसी डर के वो सरकार की अवहेलना कर सकता है. कोविड-19 संकट के बाद जो नई विश्व व्यवस्था बनने जा रही है, उसमें इस तरह की छूट ख़त्म करनी होगी.

निज़ामुद्दीन के तब्लीग़ी जमात की गुत्थी

तब्लीग़ी जमात का मक़सद इस्लाम के शब्दों को फैलाना और मुसलमानों को बेहतर बनाना है. लेकिन हाल के दिनों में न सिर्फ़ दक्षिण एशिया जहां इस संगठन की जड़ है- इसका अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में है- बल्कि बाक़ी एशिया और शायद दुनिया के बाक़ी हिस्सों में भी कोविड-19 वायरस का ‘सुपर स्प्रेडर’ बनकर कुख्यात हो गया है.

राजधानी दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में जहां सालाना धार्मिक सभा में दुनियाभर से तब्लीग़ी जमात के अनुयायी इकट्ठा हुए थे, वहां कोविड-19 का क्लस्टर सामने आने के बाद भारत में जो ग़ुस्सा ज़ाहिर किया जा रहा है वो पूरी तरह जायज़ है. रिपोर्ट के मुताबिक़ तब्लीग़ी जमात के जलसे से जुड़ी 10 मौतें और 300 से ज़्यादा लोगों के अस्पताल में दाखिल होने की बात पहले ही सामने आ चुकी हैं. इससे भी ख़राब बात ये है कि जलसे में पूरे भारत से लोग आए थे, यहां से लौटे कई लोग देश के चारों कोनों में फैले अपने-अपने राज्यों, शहरों और गांवों में वायरस के वाहक बन गए हैं. 20 से ज़्यादा लोगों के जमा होने के खिलाफ़ सरकार के आदेश का तब्लीग़ियों की तरफ़ से खुलेआम उल्लंघन, कैसे विदेशी टूरिस्ट वीज़ा लेकर धार्मिक गतिविधि कर सकते हैं, उचित कार्रवाई करने में जमात के नेताओं के गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये और लापरवाही को लेकर आरोप-प्रत्यारोप ज़रूरी है लेकिन उससे भी बढ़कर ज़रूरी है कि नुक़सान को कैसे रोका जाए. सवाल ये भी है कि क्या नुक़सान को अब रोका भी जा सकता है क्योंकि जलसे में शामिल लोग भारत के दूर-दराज इलाक़ों में पहुंच गए होंगे और शायद वायरस फैला चुके होंगे. लेकिन तब्लीग़ी जमात के द्वारा लाई गई कोविड-19 की बर्बादी सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं है.

कुछ ही दिन पहले क़रीब 500 तब्लीग़ियों जिनमें दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया और अफ्रीका के 100 से ज़्यादा विदेशी भी थे, को सिंध के सुकुर शहर में क्वॉरन्टीन किया गया था

ईरान से शिया श्रद्धालुओं के लौटने के बाद पाकिस्तान में भी तब्लीगी जमात ने सबसे ज़्यादा वायरस फैलाया है. लाहौर के बाहरी इलाक़े रायविंड में सालाना जलसा नहीं करने की चेतावनी और मिन्नत के बावजूद मार्च के दूसरे हफ़्ते में इज्तेमा का आयोजन हुआ. इसी तरह का जलसा खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में भी हुआ जहां वायरस के ख़तरे का मज़ाक़ उड़ाने वाले वीडियो शेयर किए गए और महामारी को धोखा बताया गया. कुछ ही दिनों के भीतर स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को कोविड-19 के मरीज़ मिलने लगे जिनका रिश्ता तब्लीग़ी जलसे से था. भारत की तरह पाकिस्तान में भी तब्लीग़ियों ने पूरे देश में वायरस को फैलाया और इस समस्या की जटिलता अभी तक सुलझाई नहीं जा सकी है. कुछ ही दिन पहले क़रीब 500 तब्लीग़ियों जिनमें दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया और अफ्रीका के 100 से ज़्यादा विदेशी भी थे, को सिंध के सुकुर शहर में क्वॉरन्टीन किया गया था. ऐसी रिपोर्ट भी थी कि कम-से-कम चीन का एक तब्लीग़ी कोविड-19 के टेस्ट में पॉज़िटिव मिला था. जलसा आयोजित करने की जमात की ज़िद की वजह से नुक़सान को काबू करने में देर हो गई. इज़रायल के अख़बार हारेत्ज़ ने दावा किया है कि रायविंड के जलसे में शामिल लोग किर्गिस्तान से लेकर गाज़ा तक वायरस फैला चुके हैं.

इस बीच लगता है कि बांग्लादेश अभी तक हर साल देश में होने वाले विशाल तब्लीग़ी जलसे की वजह से वायरस के फैलने से बचा हुआ है. इसके बावजूद डर जताया जा रहा है कि मलेशिया में तब्लीग़ी इज्तमा में शामिल होकर लौट रहे रोहिंग्या अपने साथ वायरस लेकर आए हैं. मलेशिया में तब्लीग़ी जमात के जलसे, जिसके बारे में माना जाता है कि वो वहां के दो-तिहाई कोविड-19 पॉज़िटिव मामलों में संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार है, वहां से भी पूरे इलाक़े में वायरस के फैलने का डर जताया जा रहा है. इंडोनेशिया तब्लीग़ी जलसे को रोकने में कामयाब रहा लेकिन इसके बावजूद वहां मामले तेज़ी से बढ़े. दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे देशों में भी संक्रमण के पीछे मलेशिया में तब्लीग़ी जलसे का सीधा संबंध बताया जा रहा है.

पिछले कुछ सालों में तब्लीग़ी जमात दुनिया में धर्म का प्रचार करने वाले सबसे बड़े संगठन के रूप में उभरा है और इसकी मौजूदगी पूरी दुनिया में है. ये देवबंदी विचारधारा से निकला है और 1920 के आसपास इसकी बुनियाद देवबंदी धर्मगुरु मोहम्मद इलियास ने रखी. माना जाता है कि 100 साल पहले आर्य समाज और शुद्धि आंदोलन की प्रतिक्रिया के तौर पर ये वजूद में आया. इसका प्राथमिक उद्देश्य धर्मांतरण के ज़रिए समूह को एकजुट रखना और इस्लाम के नैतिकतावादी रूप का प्रचार करना है. शुरुआत में मेव जैसे मुस्लिम समूहों के बीच ये सक्रिय रहा क्योंकि उन्होंने कई हिंदू रीति-रिवाज़ों को अपनाए रखा था. दावा का जो काम जमात करता है वो स्वैच्छिक है. जमातियों के पास जो समय होता है वो उसका इस्तेमाल मुसलमानों को इस्लाम के बारे में बताने और गैर-मुस्लिमों को इस्लाम अपनाने का न्यौता देने में करते हैं. धर्म प्रचारकों की घुमंतू टोली होती है- कुछ साल में 4 दिन के लिए धर्म प्रचार करते हैं तो दूसरे 40 दिन के लिए. घुमंतू धर्म प्रचारक देश के भीतर यात्रा करने के अलावा सीमा पार जाकर भी इस्लाम का प्रचार करते हैं और इस दौरान अपनी यात्रा और ठहरने का इंतज़ाम ख़ुद करते हैं. जमात के पास फंड की कोई कमी नहीं है जो मुख्य रूप से पैसे वाले सरपरस्तों और साधारण लोगों के अलावा किताबों और दूसरे साहित्य की बिक्री से आता है. जब इज्तमा होता है तो बेहद सुनियोजित ढंग से होता है. ये बेहद किफ़ायती भी होते हैं और जो लोग दूर-दराज से रूहानी चैन के लिए इज्तमा में शामिल होने आते हैं उन्हें मुफ़्त में तोहफ़े नहीं दिए जाते.

जमात का सांगठनिक ढांचा बेहद अव्यवस्थित है, इसका अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय दिल्ली में है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीति की वजह से सत्ता संघर्ष हुआ है और सत्ता के नये केंद्र बने हैं. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान और बांग्लादेश में

साधारण शुरुआत करने वाले जमात की मौजूदगी अब लगभग दुनिया के हर देश में है. जमात का सांगठनिक ढांचा बेहद अव्यवस्थित है, इसका अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय दिल्ली में है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीति की वजह से सत्ता संघर्ष हुआ है और सत्ता के नये केंद्र बने हैं. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान और बांग्लादेश में. इसके बावजूद इन सभी मरकज़ के बीच भाईचारे का रिश्ता है और सभी देशों के बड़े धर्मगुरु दूसरे देश में आयोजित जलसे में शिरकत करते हैं और भाषण देते हैं. बांग्लादेश में आयोजित होने वाले सालाना जलसे को अक्सर हज के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा आयोजन कहा जाता है. यहां तक कि रायविंड के सालाना इज्तमा में भी 10 लाख से ज़्यादा मुसलमान इकट्ठा होते हैं.

देवबंदी आंदोलन के सधे हुए विस्तार के बाद, जिसमें सरकार की सरपरस्ती का भी योगदान है (ख़ासतौर से पाकिस्तान में जहां सरकार की वैचारिक और विदेश नीति के एजेंडे की आड़ में देवबंदी जिहाद में सबसे आगे रहे हैं) तब्लीग़ी जमात के असर और संसाधनों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. हालांकि, जमात राजनीति से दूर रहता है और किसी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होता है या किसी राजनीतिक दल को खुलकर समर्थन नहीं देता है लेकिन इसके बावजूद न तो इसे राजनीतिक तौर पर नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, न ही ये ख़ुद को पूरी तरह से राजनीति से अलग कर सकता है. दूसरे शब्दों में भले ही जमात सांगठनिक तौर पर राजनीति से दूर रहे, इसके अनुयायी अक्सर राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं. पाकिस्तान में ख़ासतौर पर ऐसी कई मिसालें हैं जब जमात के अमीर ने सेना में बड़े पदों से रिटायर अधिकारियों के साथ बैठक की है जिसका मक़सद राजनीति में जाने की संभावना तलाशना था. हालांकि, जमात गैर-राजनीतिक है लेकिन समर्थकों पर इसकी गहरी पकड़ की वजह से कोई जमात या उसके समर्थकों से उलझना नहीं चाहता. नतीजतन तब्लीग़ी अक्सर ऐसा काम करते हैं जिसकी वजह से गंभीर हादसे होते हैं जैसा कि हाल में ट्रेन के जलने की घटना हुई थी. जमात अक्सर बड़े जलसों पर पाबंदी लगाने के सरकारी आदेश की अवहेलना करता है जैसा कि अभी हुआ है जब सभी सलाहों के ख़िलाफ़ जाकर उसने इज्तमा का आयोजन किया. वो भी तब जब इस डर का पता था कि इसकी वजह से कोविड-19 फैल सकता है.

राजनीति से ज़्यादा तब्लीग़ी जमात ने कुख्यात आतंकी संगठनों से अपने सदस्यों के रिश्तों की वजह से दुनियाभर में अपनी ख़राब छवि बना ली है. हरकत-उल-अंसार और हरकत-उल-मुजाहिदीन से लेकर जैश-ए-मोहम्मद, पूरा तालिबान, लश्कर-ए-झंगवी और सिपह-ए-साहबा पाकिस्तान तक सभी तब्लीग़ी जमात से जुड़े हुए हैं

हालांकि, राजनीति से ज़्यादा तब्लीग़ी जमात ने कुख्यात आतंकी संगठनों से अपने सदस्यों के रिश्तों की वजह से दुनियाभर में अपनी ख़राब छवि बना ली है. हरकत-उल-अंसार और हरकत-उल-मुजाहिदीन से लेकर जैश-ए-मोहम्मद, पूरा तालिबान, लश्कर-ए-झंगवी और सिपह-ए-साहबा पाकिस्तान तक सभी तब्लीग़ी जमात से जुड़े हुए हैं. मसूद अज़हर जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी के बारे में कहा जाता है कि उसने पूर्वी अफ्रीका- सूडान, सोमालिया, केन्या- का दौरा धर्म के प्रचार और नेटवर्क बनाने के लिए किया. ISI के पूर्व प्रमुख और 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट के मास्टरमाइंड जावेद नसीर तब्लीग़ी जमात के कट्टर अनुयायी हैं. नसीर ने एक अदालती हलफनामे में ख़ुद माना है कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की पाबंदियों को दरकिनार कर बोस्निया और दूसरे जिहादी ठिकानों में हथियारों की सप्लाई की है. तब्लीग़ी जमात से जुड़े लोगों को सैन बरनैर्डिनो नरसंहार और बार्सिलोना धमाकों से भी जोड़ा जा चुका है. हालांकि, जमात ने अपने अनुयायियों की जिहादी कार्रवाई से हमेशा ख़ुद को अलग किया है और कम-से-कम सार्वजनिक तौर पर कभी भी जिहाद का समर्थन नहीं किया है लेकिन इसके बावजूद इस बात का गहरा शक है कि उसके सदस्य अक्सर जिहादी गतिविधियों में साथ देते हैं या जिहादी गतिविधियों को लेकर अपनी आंख बंद कर लेते हैं.

कोविड-19 महामारी की वजह से दुनिया के काम-काज के ढंग में बदलाव को देखते हुए ऐसा मुमकिन है कि तब्लीग़ी जमात पर भी समय के हिसाब से बदलाव का भारी दबाव पड़े. इसका धार्मिक नैतिकतावाद लोगों की सेहत को ख़तरे में डालने का बहाना नहीं बन सकता, न ही संक्रमित विदेशी प्रचारकों के ज़रिए संक्रमण फैलाने में इसकी आपराधिक लापरवाही को माफ़ किया जा सकता है. जब-जब तब्लीग़ी जमात जैसे संगठन को खुली छूट मिलती है, उसका हौसला मज़बूत होता है और उसे लगता है कि बिना किसी डर के वो सरकार की अवहेलना कर सकता है. कोविड-19 संकट के बाद जो नई विश्व व्यवस्था बनने जा रही है, उसमें इस तरह की छूट ख़त्म करनी होगी.

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