Author : Vikram Sood

Published on Oct 24, 2018 Updated 0 Hours ago

जहां एक तरफ तकनीक केंद्रित (टेक्नोसेंट्रिक) खतरे बढ़ रहे हैं, जिनसे निपटने की ज़रूरत है तो वहीं आगे बढ़ने के लिए पुलिस बल का कायाकल्प भी आवश्यक है।

पुलिस सुधार सबसे कमज़ोर कड़ी के लिए होने चाहिए

आतंरिक सुरक्षा की दोबारा कल्पना करना बहुत ही सरल लग सकता है। हमारी कल्पना की गयी आतंरिक सुरक्षा में आज के अनुसार उभरने वाली चुनौतियों पर आधारित सुरक्षा प्रणाली लगाना एक कठिन कदम है। आज के तकनीक केन्द्रित संसार में चुनौतियों का स्रोत, प्रकृति और श्रृंखला बहुत ही तेजी से बदल रही है। वर्तमान संस्थानों में सुरक्षा को लेकर जो भी प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं, वह अब बहुत दिनों तक पर्याप्त रहने वाली नहीं हैं।

और फिर भारत के लिए, जहां एक तरफ पुरानी चुनौतियां साथ चल रही हैं, तो वहीं इंटरनेट आधारित जोखिम सहित कई नए चुनौतियां भी अपना सिर उठा रही हैं। भविष्य की सुरक्षा चुनौतियां, फिर चाहे वह आंतरिक हों या बाहरी, वह विभिन्न रणनीतियों और हाथियारों का इस्तेमाल करेंगी। हर कोई इस समय एक एकदम नया शब्द सुन रहा है और वह है सोशल मीडिया के हाथ में हथियार । इसमें सामाजिक और राजनीतिक रूप से अपने उभार के लिए सोशल मीडिया को तनाव फैलाने के लिए और अपने पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए तैयार करने के लिए अपने दोस्तों के बीच कुछ न कुछ भड़काऊ पोस्ट न केवल पोस्ट किए जाते हैं, बल्कि उन्हें जमकर शेयर भी करवाया जाता है। तत्काल संवाद के युग में साइबरएक्टिविज्म अब अत्याधुनिक सुरक्षा प्रणाली की भी पहुँच से बहुत दूर है, और वह इतने लोगों तक पहुँच गया है कि ऐसी स्थिति में कितने लोग आपस में जुड़ जाते हैं, उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसलिए खुफिया एजेंसियों पर तेजी से उभरती हुई ऐसी स्थितियों पर नियंत्रण करने के लिए एक ख़ास दबाव होगा।

शीतयुद्ध के दौरान, अमेरिका ने एक परियोजना की कल्पना की थी, जिसे वह एमके-अल्ट्रा कहते थे, जिसे दवा के माध्यम से दिमाग पर नियंत्रण हासिल करने के लिए बनाया था। आज इक्कीसवीं शताब्दी में हम डेटा माइनिंग कम्पनियों के द्वारा हमारे निजी डेटा को अनुमान का पता लगाने के लिए इस्तेमाल होते देख रहे हैं। जो भी यह शोध करती हैं, वह बहुत ही आसानी से किसी भी खरीददार के पास या उसके पास चला जाता है जो यह शोध करवाता है, फिर चाहे वह विदेशी सरकार हो, कोई निजी संस्थान हो, कोई आतंकी संगठन या फिर सुनियोजित अपराध समूह। जो इस बारे में बेहतर तरीके से कल्पना कर पाएगा वही दोबारा से सोची हुई सुरक्षा के लिए बेहतर तैयार होगा।

सरकार ने हाल ही में पाकिस्तान के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर हर समय निगरानी के लिए लेज़र की झाड़ी, थर्मल इमेजिंग तकनीक, अंडरग्राउंड सेंसर, फाइबर ऑप्टिक सेंसर और राडार एवं सोनर तकनीक का इस्तेमाल सीमा की सुरक्षा के लिए करने की घोषणा की है। यह सुनने में आकर्षक लग सकता है। स्मार्ट होना आवश्यक है, मगर यह भी आवश्यक है कि हम यह जानें कि हमारी प्रणाली और व्यवस्था कितनी स्मार्ट है। स्मार्ट सीमा सुरक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि ऐसी योजनाओं में स्मार्ट संचार, अत्यधिक गतिशीलता और एक विपरीत बल के साथ तेज प्रतिक्रिया हो जिससे घुसपैठ की घटनाओं की जांच की जा सके।

सटीक आधुनिक इंटेलिजेंस आज के लिए सबसे बड़ी जरूरत है मगर इसीके साथ यह भी बहुत जरूरी है कि इसे कैसे पाया जाता है और इस पर कैसे कदम उठाए जाते हैं। हर व्यवस्था की अपनी कमजोर और मजबूत कड़ियां होती हैं। भारत में सबसे कमज़ोर कड़ी है स्थानीय पुलिस अधिकारी, जो क़ानून और व्यवस्था का सबसे पहला चेहरा होता है।

कई तरीके से हमारी समस्या बहुत ही मूल और बुनियादी है। हमारे देश को एक आधुनिक और स्मार्ट पुलिस बल चाहिए जो प्रशिक्षित, संवेदनशील, शिक्षित और जिम्मेदार हो। ऐसा ही पुलिस बल आधुनिक तकनीक और हथियारों का इस्तेमाल करे, उसके पास तत्काल ही कहीं भी जाने की शारीरिक क्षमता होनी चाहिए। उसे न केवल आधुनिक तकनीक के प्रति प्रशिक्षित होना चाहिए बल्कि उसे उन सभी उपकरणों और गेम, गिज्मो आदि के बारे में भी पता होना चाहिए, जो आधुनिक तकनीक का हिस्सा हैं। उसे यह ध्यान में रखना चाहिए कि लाठी और बांस के दिन अब पूरे हो चुके हैं। बीट कांस्टेबल एक ऐसा इंसान होना चाहिए जिसके पास आम आदमी आराम से अपनी शिकायत लेकर आ सके, पुलिस स्टेशन एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहां पर छाया और सुरक्षा के लिए बैठा जा सके। पुलिस का एक ऐसा मानवीय और संवेदनशील चेहरा होना चाहिए जिसके साथ नागरिक बात करने के लिए हमेशा तैयार हों और सूचना देते समय भरोसा जता सकें।

पुलिस अधिकारियों को अपनी छवि सुधारने के लिए और अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए पूरी तरह से कायाकल्प करना होगा। हम उन्हें यह काम के कम घंटे और परिवार के साथ रहने के लिए सुरक्षित स्थान देकर शुरू कर सकते हैं। जो सबसे ज्यादा जोखिम पर है वह एकदम निचले पायदान पर बैठा हुआ ही है और यकीनन वही इस श्रंख्ला की सबसे कमज़ोर कड़ी है। लगभग 150 साल पहले अंग्रेजों द्वारा नियुक्त फ्रेज़र आयोग ने पुलिस बल की एक तस्वीर प्रस्तुत की थी जिसमें उन्होंने पुलिस बल को भ्रष्ट और शोषक बताया था, जो आम नागरिकों का भरोसा हासिल करने में विफल रही थी। आज आज़ाद हुए सत्तर से ज्यादा साल हो गए हैं, मगर दुर्भाग्य से अब तक हालात बदले नहीं हैं। पुलिस बल के सुधार के खिलाफ सभी राज्यों में एक राजनीतिक-राजशाही गठजोड़ है, जो अब राज्यों की अपनी उथली राजनीति के चलते और भी ज्यादा बढ़ रहा है। जब तक यह आवश्यक सुधार जिनके लिए विख्यात पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह सालों से आवाज़ उठा रहे हैं, क्रियान्वित नहीं होते हैं, तब तक एक नए, आधुनिक सुरक्षा हथियार, सुरक्षा प्रणाली एक सपना ही रहेगी।

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