Published on Jun 20, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में सामुदायिक स्तर पर सहयोग का ढांचा विकसित किए जाने की ज़रूरत है ताकि, पीड़ितों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाने, खाना-पानी, सेहत, बिजली और साफ़-सफ़ाई जैसी बुनियादी ज़रूरतें तुरंत पूरी की जा सकें.

फणी तूफ़ान के डेढ़ महीने बाद क्या प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए तैयार हो गए हैं हम?

समुद्री चक्रवात फ़णी ने 3 मई को ओडिशा के समुद्र तट पर हमला बोला था. ये कैटेगरी चार का तूफ़ान था. पिछले बीस साल में ओडिशा में तबाही मचाने वाला ये सबसे भयानक तूफ़ान था. ओडिशा की तूफ़ान से निपटने की तैयारी बहुत अच्छी रही. तूफ़ान की पहले चेतावनी देने वाले सिस्टम और समय पर योजनाबद्ध तरीक़े से लोगों को सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाकर ओडिशा ने जनहानि को बचाने में कामयाबी हासिल की थी. ओडिशा के प्रशासन ने समय पर तूफ़ान की चपेट में आने वाले समुद्र तटीय इलाक़ों से क़रीब 12 लाख लोगों को क़रीब 4 हज़ार चक्रवात राहत शिविरों में सुरक्षित पहुंचाने में कामयाबी हासिल की थी. लेकिन, समुद्री तूफ़ान फ़णी के गुज़र जाने के एक महीने बाद ओडिशा में अभी भी ज़िंदगी पटरी पर नहीं लौट पायी है. ख़बरों के मुताबिक़, अभी भी सैकड़ों परिवार सामुदायिक राहत शिविरों में ही रह रहे हैं. क्योंकि वो अभी भी अपने लिए अस्थायी मकान नहीं बना पाए हैं. इससे एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है-क्या हम आपदाओं से निपटने के लिए वाक़ई तैयार हैं? क्या हमारा सिस्टम और बुनियादी ढांचा इतने मज़बूत हैं कि भारी तबाही मचाने वाली क़ुदरती आपदाओं से निपट सके? क्या हमारे पास ये क्षमता है कि हम इनका सामना कर के दोबारा अपने पैरों पर खड़े हो सकें?

दूसरे तटीय राज्यों की तरह ओडिशा का भी ऐसे समुद्री तूफ़ानों का सामना करने का लंबा तजुर्बा रहा है. 1999 में महातूफ़ान बॉब और 2013 में आये फैलिन तूफ़ान का सामना करने वाले ओडिशा ने ऐसे समुद्री तूफ़ानों से निपटने की व्यवस्था विकसित करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं. इन्हीं तूफ़ानों के बाद ओडिशा में स्टेट डिज़ास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की स्थापना की गई. ये भारत में क़ुदरती आपदा से निपटने के लिए बनाई गई पहली संस्था थी. ओडिशा ने समुद्री तूफ़ान से निपटने के लिए 800 राहत शिविर बनाए हैं. तूफान की पहले से चेतावनी देने वाला सिस्टम विकसित किया है. ऐसे तूफ़ान आने पर राहत कार्य चलाने के लिए डिज़ास्टर रैपिड एक्शन फ़ोर्स बनाई है. इसके अलावा राज्य की सरकार ने जन जागरूकता अभियान भी बड़े पैमाने पर चलाए हैं. ये भारत के गिने-चुने राज्यों में से एक है, जहां तूफ़ान से होने वाली तबाही का डेटाबेस बनाया गया है. इसमें होने वाले बदलावों को लगातार अपडेट किया जाता है. इसका मक़सद सेंडाइ फ्रेमवर्क फॉर डिज़ास्टर रिस्क रिडक्शन (SFDRR) के डेटाबेस से लगातार समन्वय बनाए रखना है. ओडिशा के इन सतत प्रयासों के नतीजे भी देखने को मिल रहे हैं. 1999 में आए समुद्री तूफ़ान में 10 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे. वहीं 2019 में फ़णी तूफ़ान से केवल 19 जनहानियां हुईं. लेकिन, समुद्री चक्रवातों से निपटने की अच्छी व्यवस्था केवल ओडिशा ने नहीं की है. कैटेगरी चार के तूफ़ान हुदहुद के आने पर आंध्र प्रदेश ने भी लोगों को सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाने की अपनी व्यवस्था का बहुत अच्छे से इस्तेमाल किया था. उस तूफ़ान के आने की आहट पर लाखों लोग राहत शिविरों में पहुंचाए गए थे.

हालांकि तटीय इलाक़ों में समुद्री चक्रवातों से जनहानि में कमी आई है. लेकिन, हम अभी भी समुद्री तूफ़ान से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या नहीं कम कर सके हैं. फिर, तूफ़ान ने होने वाले दूसरे नुक़सानों से बचाव में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है. बड़ी क़ुदरती आपदाओं से बुनियादी ढांचों को भारी नुक़सान पहुंचने का सिलसिला अभी भी जारी है.

समुद्री तूफ़ान फ़णी के गुज़र जाने के कई हफ़्तों बाद अब जाकर इससे हुई तबाही की सही तस्वीर सामने आ रही है. ख़ास तौर से बुनियादी ढांचे को हुए नुक़सान की. ओडिशा सरकार के शुरुआती आकलन के मुताबिक़, इस तूफ़ान की वजह से 16 हज़ार 659 गांवों के 1.51 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं. इस तूफ़ान ने पांच लाख से ज़्यादा मकान तबाह कर दिए और अस्पताल की 6700 इमारतों को भी भारी नुक़सान पहुंचा. समुद्री तूफ़ान फ़णी की चपेट में आकर 34 लाख से ज़्यादा जानवरों की मौत हो गई. पुरी, खुर्दा और भुवनेश्वर ज़िलों में बिजली सप्लाई की व्यवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो गई. ओडिशा सरकार के आकलन के मुताबिक़, इस तूफ़ान की वजह से राज्य को 50 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा का नुक़सान हुआ है. इसके बाद बड़े पैमाने पर लोगों को संक्रमण और महामारी का ख़तरा भी है, क्योंकि पीने का साफ़ पानी और स्वच्छता की व्यवस्था नहीं है. अब जबकि फ़णी जैसे तूफ़ानों का आना आम बात हो गई, तो ये ज़रूरी हो गया है कि भारत जैसे विकसित देश ऐसा ढांचा विकसित करें, ताकि विकास के जो काम हुए हैं, उन्हें तबाही से बचाया जा सके. तूफ़ानों से होने वाली तबाही को कम किया जा सके. ताकि, आर्थिक नुक़सान कम हो. और आपदाओं से उबरने में कम से कम समय लगे.

हमें इसके लिए विकास की योजनाओं में आपदा प्रबंधन को भी शामिल करना होगा. आपदा के दायरे में आने वाले इलाक़ों में मास्टर प्लानिंग करनी होगी. राज्य स्तर ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी बिल्डिंग बाई लॉज़ और नियम बनाने होंगे. ताकि क़ुदरती आफ़त की सूरत में इमारतों और दूसरे बुनियादी ढांचों को तबाह होने से बचाया जा सके.

आवास और शहरी विकास मंत्रालय ने 2016 में मॉडल बिल्डिंग बाई लॉज़ में जोख़िम और इमारतों के वर्गीकरण की व्यवस्था है, ताकि उन्हें ऐसी किसी प्राकृतिक आपदा से बचाया जा सके. लेकिन, ऐसी आपदा झेलने वाले ज़्यादातर भारतीय शहर इन नियमों को सख़्ती से नहीं लागू करते. ऐसे नियमों को सख़्ती से लागू न कराने की व्यवस्था की वजह से शहरों में लगातार नियमों की अनदेखी कर के इमारतें बनाई जा रही हैं. और जब ऐसी आपदाएं आती हैं, तो शहरों में बहुत नुक़सान होता है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के आने का सिलसिला भी बढ़ रहा है और वो ज़्यादा घातक भी होते जा रहे है. इसकी वजह से अब प्राकृतिक आपदा प्रबंधन, मज़बूत बुनियादी ढांचे के विकास और ऐसी आपदाएं आने पर इनसे निपटने के क्षेत्र में नई संभावनाएं पैदा हुई हैं. भारत में किसी आपदा की पहले से चेतावनी देने की संस्थागत व्यवस्था पहले से ही है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी उपग्रहों की मदद से नए बनने वाले तूफ़ानों की पहले से ही अच्छी तस्वीरें दे देते हैं. वहीं भारतीय मौसम विभाग पूरे देश के मौसम पर कड़ी निगाह रखता है. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया नियमित रूप से भूस्खलन वाले इलाक़ों का आकलन करता है, ताकि सुनामी से होने वाली तबाही की चेतावनी पहले से दी जा सके. जलवायु से जुड़ी इन संस्थागत क्षमताओं के बीच व्यापक तालमेल बढ़ाने की ज़रूरत है. इसका फ़ायदा ये होगा कि बिल्डिंग डिज़ाइन और उनकी प्लानिंग से एक मज़बूत बुनियादी ढांचा विकसित किया जा सकेगा. इसके अलावा ऐसी आपदाओं से निपटने के परंपरागत तरीक़ों की जानकारी सबसे ज़्यादा मुश्किल झेलने वाले तटीय इलाक़ों के लोगों तक पहुंचाना भी बहुत अहम है. ऐसी हर प्राकृतिक आपदा एक मौक़ा भी होती है, ताकि ढेर सारे आंकड़े जुटाकर उनका विश्लेषण किया जा सके. ये पता लगाया जा सके कि ऐसे तूफ़ानों का ज़रूरी बुनियादी ढांचे और सुविधाओं पर क्या असर होता है. भुवनेश्वर के शहरी और ग्रामीण इलाक़ों के पास ऐसी जानकारी जमा करने की शानदार व्यवस्था है. इस सिस्टम से देश के सभी प्रमुख आपदा प्रबंधन संस्थान जुड़े हुए हैं. सरकार और अकादमिक उद्योग के बीच आफसी सहयोग से हर ऐसी आपदा से कुछ सीखने और अपनी तैयारी को बेहतर किया जाता है. इस व्यवस्था से देश के दूसरे इलाक़े के लोगों का भी भला किया जा सकता है.

भारत के पास दुनिया के दूसरे देशों से भी आपदा प्रबंधन सीखने का मौक़ा है. हांगकांग, चीन, जापान और कोरिया जैसे देशो ने पिछले कुछ वर्षों में बार-बार आने वाले तूफ़ानों से निपटने के लिए बढ़िया बुनियादी ढांचा विकसित किया है, ताकि तूफ़ान आए तो वो नुक़सान से बच जाएं. ओडिशा जैसे तटीय राज्यों को इनसे सीखना चाहिए, ताकि समुद्री तूफ़ानों से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सके. किसी प्राकृतिक आपदा के बाद लोगों को तेज़ी से उनके पैरों पर खड़ा किया जा सके.

सबसे अहम बात ये है कि भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में सामुदायिक स्तर पर सहयोग का ढांचा विकसित किए जाने की ज़रूरत है. ताकि, प्रभावित लोगों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाने, खाना-पानी, सेहत, बिजली और साफ़-सफ़ाई जैसी बुनियादी ज़रूरतें तुरंत पूरी की जा सकें. इसके बाद केंद्रीकृत राहत और बचाव व्यवस्था सक्रिय हो, तो तूफ़ान के बाद प्रभावित लोगों को सामान्य ज़िंदगी को पटरी पर लौटाने में मदद मिल सके. इस काम में स्वयंसेवी संगठनों को सरकारी संगठनों की मदद करनी चाहिए, ताकि प्रभावित आबादी को ऐसी व्यवस्था से मदद लेने और उसके रख-रखाव का सलीक़ा आ जाए.

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