Author : Ria Kasliwal

Published on Jan 27, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत की आर्थिक रिकवरी का शेप अलग-अलग है. अलग-अलग सेक्टर अलग-अलग रफ़्तार से पहले वाली स्थिति में आ रहे हैं. हालांकि ग़रीब और कमज़ोर लोग पीछे छूट गए हैं.

भारत की आर्थिक रिकवरी का शेप

महामारी के हमले के समय से भारत की रिकवरी के शेप को लेकर लगातार चर्चा हो रही है. तेज़ और आशावादी वी-शेप से लेकर तीव्र और निराशावादी डब्ल्यू-शेप तक, इस मुद्दे पर बातचीत बंद नहीं हुई है कि किस तरह हम महामारी से उबरेंगे. लेकिन अब इस बात पर आम राय बन रही है कि भारत वास्तव में अलग-अलग रफ़्तार वाली रिकवरी के दौर से गुज़र रहा है जहां अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टर अलग-अलग रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि, मुद्दा ये है कि अलग-अलग रफ़्तार वाली रिकवरी अंग्रेज़ी वर्णमाला के ‘के’ शेप पर निर्भर है. इसकी वजह से पहले से ग़ैर-बराबरी वाले भारतीय समाज में असमानता और बढ़ सकती है.

ये बंटवारा के-शेप की रिकवरी के रूप में दिखाई पड़ता है जहां अर्थव्यवस्था तरक़्क़ी में गिरावट का अनुभव करती है जिसके बाद रिकवरी अलग-अलग तरीक़े से होती है. 

सरकार वी-शेप की रिकवरी की दलील पर अड़ी है जो कि वास्तव में आर्थिक गतिविधि और रोज़गार में भारी गिरावट के बाद तेज़ बढ़ोतरी है. भारतीय संदर्भ में इस बढ़ोतरी को देशव्यापी और राज्य स्तरीय लॉकडाउन हटाने के बाद मांग और कारोबार की गतिविधियों में इज़ाफ़े के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन ये बड़ी तस्वीर का सिर्फ़ छोटा हिस्सा दिखाता है. बड़ी तस्वीर ये है कि महामारी का उद्योगों के साथ-साथ कामगारों पर आर्थिक असर पड़ा है. ये बंटवारा के-शेप की रिकवरी के रूप में दिखाई पड़ता है जहां अर्थव्यवस्था तरक़्क़ी में गिरावट का अनुभव करती है जिसके बाद रिकवरी अलग-अलग तरीक़े से होती है. इसमें अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा आगे बढ़ता है जबकि दूसरा हिस्सा ख़राब स्थिति में बना रहता है.

सांख्य़िकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ दूसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था ने बेहतरीन प्रदर्शन दिखाया है. 2020-21 की दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था में 7.5% की गिरावट दर्ज की गई है जबकि उससे पहले की तिमाही में अभूतपूर्व 23.9% की गिरावट आई थी. लेकिन इस बेहतरी का मतलब ये नहीं है कि औपचारिक और अनौपचारिक सेक्टर के लिए रिकवरी का रास्ता एक जैसा है क्योंकि अनौपचारिक सेक्टर जीडीपी की गणना में पूरी तरह शामिल नहीं हो पाता है. संपूर्ण रूप से देखें तो जहां औपचारिक सेक्टर अपेक्षाकृत लगातार रिकवर कर रहा है, वहीं अनौपचारिक सेक्टर पर महामारी का बेहद ख़राब असर पड़ा है.

औपचारिक और अनौपचापिक सेक्टर में फर्क़ 

ये अंतर मज़दूरों और दफ़्तर में काम करने वाले लोगों के हालात से समझा जा सकता है. जहां मज़दूरों को अपने घरों तक पैदल चलकर जाना पड़ा वहीं दफ़्तर में काम करने वाले लोग अपने-अपने घरों में बैठकर आराम से काम करते रहे. इसके अलावा, अश्विनी देशपांडे और राजेश रामचंद्रन के द्वारा जुलाई 2020 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ दैनिक मज़दूरी करने वाले कामगारों के काम गंवाने की दर लॉकडाउन से पहले के मुक़ाबले लॉकडाउन के बाद 9 गुना ज़्यादा थी.

साथ ही, औपचारिक सेक्टर के भीतर भी महामारी और लॉकडाउन के असर में विशाल अंतर रहा है. उदाहरण के लिए, जहां ई-कॉमर्स सेक्टर ने फरवरी से जून 2020 के बीच 17% की वृद्धि दर्ज की है (यूनिकॉमर्स रिपोर्ट), वहीं भारत के अतिथि सत्कार सेक्टर ने अप्रैल-अक्टूबर 2020 के बीच 2019 के मुक़ाबले एक कमरे से राजस्व के मामले में 43.5% की गिरावट देखी (जेएलएल का होटल मोमेंटम इंडिया). इसी तरह भारत में फिनटेक कंपनियां अपने विकास को लेकर उम्मीद से भरी हैं क्योंकि ऑनलाइन सॉल्यूशन की तरफ़ उपभोक्ताओं के व्यवहार में संरचनात्मक बदलाव आया है (मैट्रिक्स पार्टनर्स एंड मैकिंज़ी एंड कंपनी). दूसरी तरफ़, उड्डयन सेक्टर अभी भी कोविड से पहले के स्तर के मुक़ाबले काफ़ी कम क्षमता से काम कर रहा है क्योंकि उसकी सीमा निश्चित की गई है. साथ ही जोख़िम की वजह से यात्री भी आने-जाने से हिचक रहे हैं.

इस तरह, फार्मास्युटिकल, टेक्नोलॉजी, ई-रिटेल और सॉफ्टवेयर सर्विसेज़ जैसे सेक्टर ने जहां महामारी के दौरान अच्छा प्रदर्शन किया है, वहीं पर्यटन, परिवहन, अतिथि सत्कार, मनोरंजन और इस तरह के दूसरे सेक्टर ने महामारी की चोट का सामना किया है.

श्रमिकों के रोज़गार के मामले में भी औपचारिक और अनौपचारिक सेक्टर में बंटवारा और विषम रिकवरी देखी जा सकती है. यद्यपि लॉकडाउन के दौरान भारत ने अभूतपूर्व नौकरी के नुक़सान का सामना किया लेकिन अब बेरोज़गारी लॉकडाउन से पहले के स्तर पर पहुंच गई है. लेकिन बेरोज़गारी के मामले में रिकवरी सभी के लिए एक जैसी नहीं रही है. इस मामले में कमज़ोर तबका पीछे छूट गया है. साथ ही, इस कमज़ोर तबके का एक बड़ा हिस्सा अक्सर अनौपचारिक सेक्टर में नौकरी करता है जो उन्हें मौजूदा संकट जैसी आर्थिक गिरावट के दौरान और कमज़ोर कर देता है. 

नौजवानों को गंभीर आर्थिक नुकसान

देशपांडे और रामचंद्रन द्वारा उपर बताए गए अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि लॉकडाउन के बाद सवर्ण जातियों के मुक़ाबले अनुसूचित जाति के बीच नौकरी गंवाने की दर तीन गुना ज़्यादा थी. अश्विनी देशपांडे द्वारा किए गए एक और अध्ययन में पता चला कि लॉकडाउन से पहले काम करने वाली महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले रोज़गार मिलने की संभावना 23.5%  कम है.

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई कि मौजूदा संकट पहले की महामारियों के रास्ते पर चल सकता है. उस वक़्त महामारी के बाद आमदनी की असमानता बढ़ गई और कम पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार मिलने में काफ़ी दिक़्क़त हुई जबकि उच्च शिक्षा हासिल लोगों के रोज़गार पर मामूली असर पड़ा. साथ ही एशियाई विकास बैंक और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक साझा रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी की वजह से वयस्कों (25 साल और उससे ज़्यादा) के मुक़ाबले नौजवानों (15-24 साल) को गंभीर तात्कालिक और दीर्घकालीन आर्थिक और सामाजिक झटके का सामना करना पड़ेगा. रिपोर्ट में 41 लाख भारतीय नौजवानों के नौकरी गंवाने का अनुमान लगाया गया है.

सरकार ने आर्थिक बहाली के लिए समय पर वित्तीय प्रोत्साहन मुहैया कराया लेकिन ये दूसरे देशों के मुक़ाबले ज़्यादातर अपर्याप्त साबित हुआ. 

इसलिए, बेहद असमानता वाले भारत में लॉकडाउन के बाद विषम रिकवरी मौजूदा असमानता का उदाहरण दे रही है. आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहतर सेक्टर जहां स्थायी वृद्धि का अनुभव कर रहे हैं, वहीं कमज़ोर कामगारों और परिवार वाले सेक्टर अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

हालांकि, सरकार ने आर्थिक बहाली के लिए समय पर वित्तीय प्रोत्साहन मुहैया कराया लेकिन ये दूसरे देशों के मुक़ाबले ज़्यादातर अपर्याप्त साबित हुआ. पहला आंकड़ा दुनिया के अलग-अलग उभरते बाज़ारों और मध्य आय वाले देशों के द्वारा उठाए गए कुल वित्तीय उपायों की तुलना करता है.

 

इसमें भारत (जिसे हाइलाइट किया गया है) का स्थान नीचे के पांच देशों में है और उभरते बाज़ारों और मध्य आय वाली अर्थव्यवस्थाओं के द्वारा घोषित किए गए औसत वित्तीय प्रोत्साहन (जिसे घेरा गया है) से ये काफ़ी नीचे हैं. लंबे वक़्त में विकास का ये ढांचा भारत के लिए काफ़ी नुक़सानदेह साबित हो सकता है जैसा कि दूसरे आंकड़े से पता चलता है. इसमें अलग-अलग विकसित और उभरते बाज़ार वाली अर्थव्यवस्था को महामारी से पहले के अनुमान के मुक़ाबले 2025 में जीडीपी के नुक़सान के बारे में बताया गया है.

महामारी से पहले के अनुमान के मुक़ाबले भारत को अपनी जीडीपी का लगभग 12% नुक़सान हो सकता है- ये चुनिंदा देशों में दूसरा सबसे ख़राब प्रदर्शन है और इसकी वजह असंतुलित रिकवरी है.

लेकिन प्रमाण बताते हैं कि विस्तार करने वाले और प्रगतिशील मौद्रिक और वित्तीय नीतियों के सही मेल से आर्थिक महामंदी जैसी बेहद ख़राब आर्थिक गिरावट के दौरान भी रिकवरी का के-शेप सफलतापूर्वक वी-शेप में बदल गया है. इसी तरह, भारत भी उन नीतियों को अपना सकता है जिनसे प्रभावित सेक्टर पर लक्ष्य साधा जाए, जिससे उनकी बहाली तेज़ हो और संतुलित विकास का रास्ता तैयार हो.

समाज के समृद्ध तबके की रिकवरी अक्सर कमज़ोर तबके की दुर्गति के ऊपर हावी रहती है जैसा कि मौजूदा संकट के दौरान रहा है. अर्थव्यवस्था की अलग-अलग रफ़्तार वाली रिकवरी को नज़रअंदाज़ करने के बदले एक सम्मिलित रफ़्तार को सुनिश्चित करने के लिए साझा कोशिश करने की ज़रूरत है. ऐसे में ज़रूरत है एक फुर्तीले सरकारी जवाब की जो भारत की आर्थिक रिकवरी के शेप को बदल सके.


ये लेख मूल रूप से द डेक्कन हेराल्ड में प्रकाशित हुआ था.

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