ग्रामीण और शहरी विकास अभियानों के जरिये लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी लाने के भारत सरकार के वादे को पूरा कर पाना आसान नहीं है। देश के तेजी से बदल रहे इलाकों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाना इसका एक महत्वपूर्ण कारण है।
घनी आबादी वाले शहरों से सटे ग्रामीण इलाकों में शहरीकरण के प्रभाव की वजह से कई बदलाव आ रहे हैं। इस तरह की प्रवृत्तियां जारी रहने की उम्मीद है और ये आबादी और भवनों की संख्या में वृद्धि, खाली जगहों और कृषि भूमि में कमी, लैंड यूज और पेशेवर तौर तरीकों में परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
ग्रामीण इलाका होने की वजह से इन जगहों पर आर्थिक और भवन निर्माण गतिविधियों के नियमन के लिए कानूनी प्रावधान और प्रशासकीय व्यवस्थाएं अपर्याप्त और अनुपयुक्त हें जिससे कि शहरीकरण की वजह से जो पैदा हो रही चुनौतियों से तालमेल बिठाया जा सके। जरूरी तंत्र के अभाव के कारण अराजक स्थिति पैदा हो रही है और दयनीय जीवन स्तर के हालात बन रहे हैं। ऐसी कई जगहों पर पेयजल, मल व्यवहन (सैनिटेशन), बिजली आदि मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी ग्रामीण प्रशासन (पंचायत) की है और इन पर काफी दबाव है क्योंकि एक बड़ी आबादी को इन जरूरी आवश्यकताओं की जरूरत है। यहां बड़ी मात्रा में ठोस कचरा पैदा होता है और इनका संग्रहण और इनके निपटारे की व्यवस्था काफी पिछड़ी हुई है।
रियल एस्टेट के व्यवसायी और बिल्डर इलाकों में बेखौफ होकर अपना काम करते हैं और भवनों में दुकानों और अतिरिक्त मंजिलों का निर्माण के अवसर का दुरूपयोग करते हैं ताकि बढ़ती आबादी की जरूरतों को समायोजित किया जा सके। विकास संबंधी नियंत्रण और भवन उपनियम नहीं होने के कारण बेतरतीब ढंग से भवनों के ढांचों में बदलाव किया जाता है। रियल एस्टेट के एजेंटों और आप्रवासियों के निहित स्वार्थ की वजह से सार्वजनिक स्थानों को लेकर विवाद होता है जिससे वहां के निवासियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अनधिकृत निर्माण वृष्टिजल (रेनवाटर) के प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित करता है और मानसून के दौरान स्थानीय स्तर पर बाढ़ की स्थितियां पैदा करता है। दूसरी समस्या आवागमन से संबंधित है। संकरी गलियों का इस्तेमाल गाड़ियां पार्क करने और गाड़ियां चलाने के लिए होता है। वाहन उत्सर्जन और अवैध निर्माण की वजह से होने वाला प्रदूषण आम है जिसका गंभीर प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर होता है।
ऐसी समस्याएं घनी आबादी वाले शहरों के इर्द गिर्द के अनेक ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं जहां के निवासियों का जीवन स्तर काफी दयनीय होता है। इन इलाकों में आबादी बढ़ रही है, ग्रामीण प्रवृत्ति बदल रही है, माल और सेवाओं के लिए मांग बढ़ रही है लेकिन प्रशासकीय तंत्र पारंपरिक बना हुआ है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इलाके की बदलती प्रवृत्तियों के आकलन के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं और न ही बदलती स्थितियों को ध्यान में रखते हुए स्थानीय स्तर की शासन प्रणाली की गुणवत्ता में सुधार को महत्व दिया जा रहा है। ऐसे कई इलाकों को पहले राज्य सरकारों के कानून के अंतर्गत जो ग्रामीण प्रशासन प्रदान किया गया वो बरकरार हैं हांलाकि स्थानीय ग्रामीण शासन प्रणाली स्थानिक और आर्थिक बदलाव को संभालने के लिए पर्याप्त रूप से अधिकारप्रदत्त और साधनसक्षम नहीं हैं।
शासन व्यवस्था का दृष्टिकोण यह है कि ग्रामीण इलाकों को ग्रामीण सुधार पद्धति की जरूरत होती है जबकि शहरी इलाकों को शहरी सुधार पद्धति की। इस वजह से अधिकतर देश स्थानीय प्रवृत्तियों के आकलन के लिए कई प्रकार के मानकों या मानदंडों का उपयोग करते हैं जिनके आधार पर स्थान विशेष का ग्रामीण या शहरी प्रशासन का स्वरूप तय होता है। अलग अलग देशों में ये मानदंड अलग होते हैं और उस देश विशेष की आबादी और विकास संबंधी लक्षणों पर आधारित होते हैं। इससे स्थान विशेष के लिए सही प्रकार की शासन प्रणाली जैसे पंचायत या नगरपालिका तय करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रति एक वर्ग मील में एक हजार व्यक्ति से ज्यादा की आबादी वाले उन इलाकों को शहरी का दर्जा दिया जाता है जहां 2500 से ज्यादा निवासी रहते हैं। अमेरिका शहरी आबादी के मामले में चीन और भारत के बाद तीसरा स्थान रखता है जहां की आबादी 27 करोड़ से ज्यादा है।
इसी तरह गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारत का जनगणना कार्यालय किसी इलाके को तीन मानकों के आधार पर शहरी घोषित करता है। ये मानक हैं वैसे रिहाइशी इलाके जहां न्यूनतम 5000 लोग रहते हों, कम से कम 75 फीसदी पुरूष आबादी गैर कृषि धंधों में लगी हो और आबादी का घनत्व प्रति वर्ग मील कम से कम एक हजार व्यक्ति हो। जनगणना कार्यालय इन मानकों को पूरा नहीं करने वाले रिहायशी इलाकों को ग्रामीण घोषित कर देता है। जनगणना कार्यालय भारतीय शहरी आबादी की गणना के दौरान राज्य सरकार द्वारा घोषित शहरी ( वैधानिक शहरों ) की रिहायशी इलाकों की आबादी के साथ साथ तीन मानकों को पूरा करने वालों ( जनगणना शहरों) को भी शामिल करता है।
विडंबना ये है कि ग्रामीण और शहरी विकास राज्य के विषय हैं और राज्य सरकारें जनगणना के मानकों या गणनायोग्य उपयुक्त मानदंडों पर भरोसा नहीं करतीं। इसके बदले अस्पष्ट मानकों का उपयोग होता है जिनके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं होती।अस्पष्ट तौर तरीकों की वजह का परिणाम ये होता है कि इलाकों को शहरी और ग्रामीण का दर्जा देने के क्रम में स्थानीय लक्षणों पर ध्यान दिये बगैर राज्य अधिकारियों द्वारा मनमाने फैसले लिये जाते हैं। बदलती परिस्थितियों के अनुरूप काम करने में स्थानीय सरकार की नाकामी की यह एक प्रमुख वजह है।
इस समय भारत के राज्यों में ग्रामीण शासन प्रणाली के तहत आने वाले कई रिहायशी इलाकों में शहरी प्रवृत्तियां परिलक्षित हो रही हैं। 2011 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक 5.4 करोड़ भारतीयों से ज्यादा या देश की कुल आबादी का करीब पांच प्रतिशत हिस्सा उन ग्रामीण इलाकों में रहता है जो जनगणना मानकों के मुताबिक शहरी इलाके की पात्रता रखते हैं और इनमें से कई ग्रामीण रिहायशी इलाकों की आबादी एक लाख से भी ऊपर है। इसके अलावा, विश्व बैंक और यूरोपीय संघ के ज्वाइंट रिसर्च सेंटर के अध्ययनों से खुलासा होता है कि भारत ज्यादा शहरीकृत है। इनके आकलनों में बड़े शहरों के बाहरी इलाकों में हो रहा शहरीकरण शामिल है और ये समुदाय तालिका और सेटेलाइट से लिये चित्रों में दिख रहे निर्माण की ओर अग्रसर इलाकों की बढोतरी जैसे वैकल्पिक तौर तरीकों पर आधारित है।
शहरी नीति विश्लेषकों का मानना है कि राज्य सरकारें विभिन्न केन्द्र सरकार की ग्रामीण और शहरी वित्तीय योजनाओं का लाभ लेने के लिए मनमाने तरीके अपनाती हैं। संबंधित इलाकों का दर्जा ‘ग्रामीण’ से ‘शहरी’ करने को भी टाला जाता है जिससे कि भवन निर्माण उपनियम, विकास संबंधी नियंत्रण और कराधान संबंधित शहरी कानूनों को लागू ना करना पड़े। राज्य स्तर पर अव्यवहारिक कार्यप्रणाली का असर दयनीय जीवन स्तर में दिखता है।
तब भारत के ग्रामीण इलाकों की तेजी से बढती आबादी के जीवन स्तर में बेहतरी सुनिश्चित करने के लिए आखिर क्या किया जा सकता है? आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय ने जनगणना शहरों को वैधानिक शहरों में परिवर्तित करने और जनगणना शहरों में नगरपालिका की व्यवस्था तैयार करने को कहा है क्योंकि शहरी शासन प्रणाली ज्यादा साधन संपन्न होती है। भारत के संघीय ढांचे की वजह से, इस सलाह को राज्य सरकारें गंभीरता से नहीं ले रहीं क्योंकि वो राज्य के मामलों में स्वायत्ता को तरजीह देती हें। इसके अलावा, ‘शहरी’ की 1961 से चली आ रही जनगणना परिभाषा को राज्य की भौतिक, सामाजिक आर्थिक और विकास संबंधी लक्षणों के मुताबिक बदले की जरूरत होगी।
आदर्श तौर पर, राज्यों को शहरीकरण के वास्तविक विस्तार के आकलन के लिए यथार्थपूर्ण मानकों, मूल्यों और सुदूर संवेदी तकनीक( रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी) का उपयोग करना चाहिए। मानकों में जीवन स्तर के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जबकि अभी ऐसा नहीं हो रहा। तेजी से बढ़ते ग्रामीण रिहायशी इलाकों में सशक्त और लचीली व्यवस्था वाली नगरपालिका व्यवस्था कायम होनी चाहिए। शहरीकरण के लाभों के प्रति जागरूकता फैलाकर राज्य के अधिकारियों को इस प्रस्ताव पर सहमत किया जा सकता है।
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