हाल ही में चेन्नई के निकट सम्पन्न डेफएक्सपो 2018 के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर से हथियार प्रणालियों के निर्माण में स्वदेशीकरण की तत्काल आवश्यकता और भारत को रक्षा उद्योग के केंद्र में तब्दील करने की सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई। हालांकि उन्होंने इस कार्य की जटिलता और “मेक इन इंडिया” परियोजनाओं की प्रगति की रफ्तार धीमी होने की बात भी स्वीकार की। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, “भारत न सिर्फ आयात के विकल्प के उद्देश्य से निर्माण करेगा, बल्कि भारत में निर्मित रक्षा उत्पादों का निर्यात अन्य देशों को करने के लिए भी रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देगा।”
हकीकत हालांकि काफी अलग है। दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा रक्षा बजट होने के बावजूद भारत अपनी 60 प्रतिशत हथियार प्रणालियों को विदेशी बाजारों से खरीदता है, जबकि भारत की तुलना में पाकिस्तान ने अपनी हथियार प्रणालियां ज्यादा विदेशी ग्राहकों को बेची हैं। बजट के मुद्रास्फीति और राजस्व से संबंधित भाग की जरूरतें पूरी करने के लिए 2018-19 के रक्षा बजट में मामूली वृद्धि की गई है। हालांकि आयात पर होने वाले पूंजीगत खर्च में कमी का रुझान दिखाई दे रहा है और जैसा कि थलसेना उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शरद चंद ने संसदीय समिति में कहा कि आवंटित राशि केवल पहले से प्रतिबद्ध खर्चों को पूरा करने के लिए ही काफी होगी, इसका अर्थ यह है कि कोई भी नई हथियार प्रणाली हासिल नहीं की जा सकेगी। निश्चित तौर पर यह खतरनाक है, खासतौर पर तब, जबकि भंडार में गोला बारूद बहुत कम मात्रा में है, और तो और यह 10 दिन के गहन युद्ध के लिए भी पर्याप्त नहीं है।
दुनिया का पांचवां सबसेड़ा रक्षा बजट होने के बावजूद भारत अपनी 60 प्रतिशत हथियार प्रणालियों को विदेशी बाजारों से खरीदता है।
भारत के नौकरशाहों के काम की धीमी रफ्तार और जटिल खरीद प्रक्रियाएं मुख्य रूप से दोषी हैं। रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) हर एक तरह की आकस्मिक स्थिति को कवर करने के लिए बड़ी सटीकता के साथ स्थापित की गई है और नई सदी की शुरुआत के बाद यह कम से कम तीन बार संशोधित की जा चुकी है। इस सहस्त्राब्दी में प्रकाशित चार डीपीपी के साथ मैं स्वयं सबद्ध रहा हूं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनमें हर एक में उसके पिछले संस्करण के मुकाबले सुधार देखा गया। हालांकि खामी इसकी व्याख्या और इसके कार्यान्वयन में रही। डीपीपी 2007 में नई श्रेणी “मेक इन इंडिया” की शुरुआत की गई और इसे सभी बुराइयों का रामबाण इलाज मानकर सराहा गया। यह बिल्कुल अनूठा कदम था और इस नए वेंचर के लिए शुरुआती परीक्षण के लिए दो परियोजनाओं का चयन किया गया। इनमें से पहली परियोजना ”इन्फेंट्री कॉम्बेट व्हीकल (आईसीवी)” और दूसरी ”बैटलफील्ड मैनेजमेंट सिस्टम्स (बीएमएस)” थी। आईसीवी की योजना बनाने और तैयारी करने में बहुत सावधानी बरती गई और मेजर जनरल की अगुवाई में एचक्यू इंटीग्रेटेड डिफेंट स्टाफ द्वारा समिति का गठन किया गया तथा तकनीकी सेवाओं के सदस्यों, वैज्ञानिकों और नौकरशाहों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद चार ऐसी कम्पनियों को शॉर्टलिस्ट किया, जिनमें इस नई योजना को पूरा करने की क्षमता थी। इन कम्पनियों में टाटा, एलएंडटी, महिन्द्रा और ओएफबी शामिल थीं। चारों कम्पनियों को जनरल स्टाफ क्वालिटेटिव आवश्यकताओं से अवगत कराया गया और उन्हें इसके मुताबिक अपनी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) देनी थी। उनके आधार पर कांट्रैक्ट के लिए दो कम्पनियों को शॉर्टलिस्ट किया जाना था। सरकार को उनके विकास के लिए खर्च की 80 प्रतिशत राशि प्रदान करनी थी और इन कम्पनियों को प्रोटोटाइप्स का उत्पादन करना था जिनका परीक्षण 2014-15 तक किया जाना था।
जब डीपीआर प्रस्तुत की गई, तो रक्षा मंत्रालय को मूल्यांकन प्रक्रिया में खामी दिखाई देने लगी और निजी कम्पनियों द्वारा शुरुआत में शॉर्टलिस्ट नहीं किए जाने का दबाव बनाये जाने के कारण 2012-13 में कीमती चार बरसों की बरबादी के बाद यह पूरी प्रक्रिया खारिज कर दी गई। जब इसे नए सिरे से प्रस्तुत किया गया, तो 11 कम्पनियों को डीपीआर जमा कराने की पेशकश दी गई। यदि मूल्यांकन प्रक्रिया चार कम्पनियों को ठीक से नहीं संभाल पायी, तो उसके लिए 11 कम्पनियों से निपट पाना लगभग नामुमकिन होगा।
कुछ और बरस बीतने के बाद अधिकारियों को हकीकत का अहसास होने लगा और कुछ प्रमुख चुनिंदा इंटीग्रेटर्स को इकट्ठा कर समूह तैयार करने और अन्य निर्माताओं का सब-सिस्टम का अंग बनाने का विचार आया। यह कहना वाजिब होगा कि नौ साल जाया हो जाने के बावजूद हम अब तक दो ऐसे कांट्रैक्टर्स के नाम तय कर उन्हें शॉर्टलिस्ट नहीं कर सके हैं, जिन्हें प्रोटोटाइप्स के निर्माण की जिम्मेदारी दी जा सके। अगर सब ठीक रहा और शुरुआती शॉर्टलिस्टिंग 2018 में कर दी गई, तो प्रोटोटाइप्स का विकास (3-4 साल), परीक्षण और मूल्यांकन (2 साल) और कांट्रेक्ट को अंतिम रूप देने में (एक साल) का वक्त लगेगा। आशावादी होने के नाते हम अपेक्षा कर सकते हैं कि यह कांट्रैक्ट 2025 तक किसी कम्पनी को दिया जाएगा और निर्माण का काम कुछ हद तक 2027 में हो शुरु सकेगा! 18 साल की देरी के बाद!! इसका खामियाजा केवल इनके यूजर्स या उपयोगकर्ताओं को उठाना होगा, जिन्हें फिलहाल अपने पास पहले से मौजूद पुराने उपकरण बीएमपी 2 का संचालन और रखरखाव करना पड़ेगा, वह अतिरिक्त लागत पर उन्हें अपग्रेड करने के बाद।
जून 2017 में, सरकार ने रक्षा उपकरण की खरीद से संबंधित मौलिक समस्याओं को समझते हुए धीरेंद्र सिंह समिति द्वारा दाखिल 2015 की रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर “सामरिक साझेदारी का मॉडल” विकसित किया। इस तरीके के तहत, निजी क्षेत्र की कुछ कम्पनियों को उनकी प्रमाणित क्षमता के आधार पर सिस्टम्स इंटीग्रेटर्स घोषित किया जाएगा और वे रक्षा से संबंधित मजबूत औद्योगिक बुनियाद रखने के लक्ष्य के साथ विदेशी ओईएम के साथ करार करेंगी। ये कम्पनियां आर एंड डी तथा उत्पादन सुविधाओं का आधार तैयार करने के लिए दीर्घकालिक निवेश करेंगी। शुरूआत में चार खंडों का चयन किया गया लड़ाकू विमान, हैलीकॉप्टर, पनडुब्बिडयां और बख्तरबंद गाड़ियां। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक अन्य अच्छा विचार था, लेकिन समस्याएं इसे अमल में लाने पर हो सकती थी, चिंता के कुछ कारण हैं:
- संस्थागत क्षमता और इसे तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाने की काबिलियत का अभाव।
- जैसा कि पहले संकेत दिया जा चुका है कि एक हथियार प्रणाली के लिए महज चार कम्पनियों की प्रतिस्पर्धा के साथ आईसीवी के लिए “मेक” प्रक्रिया कोई परिणाम हासिल करने में नाकाम रही। यहां बहुत बड़ी तादाद में हथियार प्रणालियों और असीम अवसरों के साथ तीनों सेनाएं शामिल हैं।
- नीति निर्धारक निकायों को ज्यादा स्वायत्तता और अधिकार दिए जाने की जरूरत है। एक स्थायी मध्यस्थता समिति की तत्काल जरूरत है, जो विवादों का जल्दी से निपटारा कर सके। अमेरिका में खरीद एजेंसी डीआरएपीए के पास एक स्थायी मध्यस्थता समिति है, जो ऐसे मामलों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाती है और उसका फैसला आखिरी होता है।
- डर इस बात का है कि बुनियादी ढांचे के लिए अपना धन लगाने की प्रतिबद्धता व्यक्त करने वाले और शुरुआती ऑर्डर पाने वाले भारत के सामरिक साझेदार आगे चलकर डीपीएसयू से हार जाएंगे। यही अच्छी मंशा वाले इस विचार के अंत का संकेत हैं।
तीनों सेनाओं में से नौसेना ने डिजाइन की अपनी आंतरिक क्षमता — नेवल डिजाइन ब्यूरो की वजह से स्वदेशीकरण की दिशा में प्रारंभिक रूप में अच्छी प्रगति की है। इसलिए उन्हें जहाज के डिजाइन और विकास के लिए डीआरडीओ पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि उनका विकास करने के लिए उसे उनके सब-सिस्टम्स को आउटसोर्स करना होगा। इसके अलावा, युद्धपोतों का निर्माण करने वाले शिप यार्ड्स की कमान अनिवार्य रूप से सेवारत नौसैनिक अधिकारी के हाथ में है। इसलिए, शुरूआत से ही नौसेना का सभी गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण है।
तीनों सेनाओं में से नौसेना ने डिजाइन की अपनी आंतरिक क्षमता — नेवल डिजाइन ब्यूरो की वजह से स्वदेशीकरण की दिशा में प्रारंभिक रूप में अच्छी प्रगति की है।
सेना और वायुसेना डीआरडीओ और डीपीएसयू/ओएफबी पर निर्भर हैं। 2016 में एक प्रमुख पहल सेना द्वारा की गई और एक नोडल एजेंसी के रूप में आर्मी डिजाइन ब्यूरो की स्थापना की गई, जो तकनीकी ज्ञान और प्रक्रियाओं के कोष की तरह काम करती है और संचालन संबंधी जरूरतों तथा जनरल स्टाफ क्वालिटी रिक्वायरमेंट (जीएसक्यूआर) का निर्धारण करने में सहायता करती है और सेना तथा निजी क्षेत्र में एक लिंक की तरह भी काम करती है। स्थापना के एक साल के भीतर ही, निजी क्षेत्र ने हथेली के आकार के ड्रोन, 50 किलोग्राम भार उठाने में सक्षम ड्रोन और कम वजन की बुलेट प्रूफ जैकेट के विकास से संबंधित सेना की समस्याओं के लिए 26 समाधान प्रस्तुत किए। लिहाजा, योग्यता पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, लेकिन उसका तालमेल इच्छा और जोखिम उठाने की क्षमता के साथ बैठाना होगा।
सफलता की राह
आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए सरकार “मेक इन इंडिया” पर जोर देते हुए निश्चित तौर पर सही दिशा में आगे बढ़ रही है, हालांकि इसके कार्यान्वयन को सफल बनाने के लिए इसमें बदलाव लाने की जरूरत है और इसके लिए कुछ सिफारिशें हैं:
- चिन्हित किए गए चार क्षेत्रों में सामरिक भागीदारी की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए। अवसर पाने वाली चारों खुशकिस्मत कम्पनियों के खिलाफ बहुत बड़ी संख्या में आपत्तियां व्यक्त की जाएंगी, इसलिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता बरती जाए और उस निर्णय को चर्चा के बल पर बदला नहीं जाए।
- स्थायी मध्यस्थता प्रकोष्ठ की स्थापना की जाए, जिसके समक्ष सभी आपत्तियां उठाई जाएं और जिसका निर्णय अंतिम हो और उसकी समीक्षा नहीं की जा सके।
- निजी क्षेत्र का विश्वास और मनोबल बढ़ाने के लिए उसे बड़े ठेके दिए जाएं।
- यदि लक्ष्य निर्यात की क्षमता हासिल करना है, तो हथियार प्रणाली सबसे पहले हमारे सशस्त्र बलों की सेवा में शामिल की जाए।
- निजी क्षेत्र और सरकार के बीच लम्बे समय से मौजूद विश्वास के अंतर को मिटाया जाए। इसलिए सरकार को निजी उद्योग, डीआरडीओ, डीपीएसयू और ओएफबी के लिए समान अवसर सुनिश्चित कराने चाहिए।
- सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत की ताकत को देखते हुए, कृत्रिम आसूचना (एआई)और साइबर सुरक्षा क्षेत्रों पर व्यापक बल दिया जाए! “चिप” को स्वदेशी तरीके से विकसित करने और उसका निर्माण करने के लिए सम्मिलित प्रयास किए जाएं।
- डीआरडीओ के विश्वास और अधिकार को बढ़ाने के लिए उसे व्यापक वित्तीय एवं प्रशासनिक स्वायत्तता दी जाए।
- ऑफ्सेट प्रोग्राम कल्पना के मुताबिक लाभदायक नहीं रहा। इसलिए सीमाओं की पहचान कर उन्हें दूर करना चाहिए तथा ऑफ्सेट का सिविल सेक्टर में भी विस्तार किया जाए, वह भी कार्यान्वयन के लिए।
- निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए रक्षा उत्पादन विभाग के कर्मचारियों को प्रशिक्षित किए जाने और लम्बे कार्यकाल दिए जाने की जरूरत है।
युद्ध स्तर पर लामबंदी
रक्षा विनिर्माण क्षेत्र को युद्ध स्तर पर लामबंद किए जाने की जरूरत है और खरीद या निर्माण से संबंधित प्रत्येक विभाग, एजेंसी या व्यक्ति को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने की तुलना में भारत के सभी गांवों का विद्युतीकरण आसान मालूम पड़ता है। इन सभी भारी-भरकम हिदायतों के बाद भी अगर सशस्त्र बलों को वे हथियार प्रणालियां नहीं मिल पातीं, जिन पर वे देश की हिफाजत करने के लिए भरोसा कर सकते हैं, तो दोष हर उस नागरिक का है, जो इसलिए रुकावटे खड़ी कर रहा है कि हम अपनी सुरक्षा और आजादी के लिए दूसरे देशों पर आश्रित रहें।
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