आर्थिक मोर्चे पर भारत की प्रगति की दृष्टि से शहरों की विशेष अहमियत है क्योंकि उन्हें ‘विकास का इंजन’ माना जाता है। यही नहीं, चूंकि हमारे देश में विकास से जुड़े सकारात्मक परिणामों को हासिल करने के लिए आर्थिक प्रगति पहली आवश्यकता है, अत: यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे शहरों का बेहतरीन प्रबंधन भी उतना ही जरूरी है। इसे शहरों के प्राथमिक कार्यों जैसे कि ‘रहने लायक माहौल’ और ‘आजीविका के सृजन’ को ध्यान में रखकर ही मूर्त रूप देना होगा। किसी भी शहर में ‘रहने लायक माहौल’ से तात्पर्य यह है कि वहां के निवासियों को पर्याप्त मात्रा में गुणवत्तापूर्ण स्थानीय सार्वजनिक वस्तुएं और सेवाएं निरंतर उपलब्ध होनी चाहिए। वहीं, ‘आजीविका के सृजन’ से तात्पर्य यह है कि शहरों में निवेश आकर्षित करने लायक माहौल बनाने का सामर्थ्य और क्षमता होनी चाहिए, क्योंकि तभी रोजगार सृजित होंगे और फिर उनकी बदौलत आजीविका का सृजन होगा। विधायी अधिकारों के अलावा शहरों को यह सब करने के लिए संसाधनों की आवश्यकता भी पड़ती है और मुख्य कठिनाई इसी मोर्चे पर है क्योंकि भारत में स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक वित्त का भारी टोटा रहता है!
आम तौर पर विश्व भर में स्थानीय सरकारों का कुल आकार एक साथ मिलाने पर संबंधित देश की राष्ट्रीय जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग छह प्रतिशत रहता है। हालांकि, भारत के मामले में तो यह महज एक प्रतिशत से भी कम है। स्थानीय सरकारों की टैक्स संबंधी सुस्ती के अलावा ऐसी निराशाजनक दशा दो कारणों से देखी जा रही है। पहला कारण यह है कि विभिन्न टैक्स और शुल्क बैंड एवं दरें राज्य सरकारों द्वारा ही तय की जाती हैं (ऐसा नहीं है कि उनका पूर्णतया दोहन किया जाता है) और दूसरा कारण यह है कि ऐसे ज्यादातर करों को राज्य सरकार द्वारा हड़प लिया जाता है जिन्हें सैद्धांतिक रूप से स्थानीय सरकार के लिए निर्दिष्ट किया जाता है। दरअसल, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के बाद इनमें से लगभग सभी करों को जीएसटी में मिला दिया गया है। इसमें चुंगी जैसा दुखदायी, लेकिन तेज उछाल वाला टैक्स भी शामिल है जो ग्रेटर मुंबई के नगर निगम के लिए कुल कर राजस्व का लगभग 45 प्रतिशत मुहैया कराता रहा है। इसके अलावा, जमीन आधारित वित्तीय साधनों का दोहन करने में दिख रही नई रुचि से स्थानीय सरकारों को प्रत्यक्ष या पूर्ण लाभ नहीं होता है क्योंकि संवैधानिक रूप से भूमि राज्य का विषय है। इन सभी का मतलब यही है कि कर और गैर-कर व्यवस्थाओं में सुधारों को लागू कर दिए जाने के बावजूद मौजूदा कर ढांचे के मद्देनजर शहर संभवत: कभी भी अधिशेष (सरप्लस) कर राजस्व वाले निकाय नहीं बन पाएंगे। अत: उच्च स्तर वाली सरकारों को अवश्य ही स्थानीय निकायों को धन हस्तांतरित करना चाहिए, ताकि उनके निर्दिष्ट कार्यों का वित्त पोषण संभव हो सके।
आम तौर पर विश्व भर में स्थानीय सरकारों का कुल आकार एक साथ मिलाने पर संबंधित देश की राष्ट्रीय जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग छह प्रतिशत रहता है। हालांकि, भारत के मामले में तो यह महज एक प्रतिशत से भी कम है।
संवैधानिक रूप से 74वें संविधान संशोधन के बाद इस उद्देश्य के लिए जो साधन सुलभ कराया गया वह राज्य वित्त आयोग (एसएफसी) के रूप में है। इन एसएफसी को हर पांच साल में गठित करना अनिवार्य किया गया है और एसएफसी को राज्य एवं शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के बीच उत्पन्न ऊर्ध्वाधर असंतुलन (विभिन्न कार्यों की व्यय आवश्यकताओं और राष्ट्रीय सरकार की तुलना में यूनिट सरकारों को सौंपे गए स्रोतों से प्राप्त राजस्व में अंसतुलन) और क्षैतिज असंतुलन (केंद्र की विभिन्न घटक इकाइयों की व्यय आवश्यकताओं और उनके अपने राजस्व में असंतुलन) को दूर करने के लिए फार्मूलाबद्ध वित्तीय हस्तांतरण या अंतरण सहित कोई पंचाट/सिफारिशें प्रस्तुत करनी हैं। राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच एसएफसी की ठीक वही भूमिका है जो केंद्र और राज्यों के बीच वित्त आयोग (एफसी) की है। लेकिन, वास्तव में, महाराष्ट्र सहित कई राज्य जिस तरह से एसएफसी के साथ पेश आते हैं वह हास्यास्पद है। वैसे तो महाराष्ट्र में एसएफसी का गठन नियमित रूप से किया जाता है, लेकिन यहां तक कि कार्रवाई रिपोर्ट भी विधायिका में तब प्रस्तुत की जाती है जब पंचाट की अवधि समाप्ति के करीब पहुंच जाती है। अब तक महाराष्ट्र में चार एसएफसी का गठन हो चुका है, लेकिन एक भी वित्तीय सिफारिश स्वीकार नहीं की गई है। संयोगवश ज्यादातर राज्यों में यही कटु सच्चाई है। यह हालत दरअसल वित्त आयोग की सिफारिशों के ठीक विपरीत है जिन्हें नियमत: केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। अत: यह मानकर चलना अत्यंत आवश्यक है कि एसएफसी को ठीक वही दर्जा प्राप्त है जो एफसी को हासिल है और इसके साथ ही वित्तीय अनुशंसाओं सहित उनके पंचाट को अत्यंत गंभीरता से लिया जाना चाहिए। जीएसटी उपरांत व्यवस्था में तो यह और भी आवश्यक हो गया है, क्योंकि लगभग सभी राजस्व साधनों को जीएसटी में समाहित कर दिया गया है।
वैसे तो महाराष्ट्र में एसएफसी का गठन नियमित रूप से किया जाता है, लेकिन यहां तक कि कार्रवाई रिपोर्ट भी विधायिका में तब प्रस्तुत की जाती है जब पंचाट की अवधि समाप्ति के करीब पहुंच जाती है।
इस संदर्भ में, एफसी का कामकाज एसएफसी की तुलना में बेहतर रहा है। वे राज्य सरकारों के माध्यम से स्थानीय निकायों को संसाधन हस्तांतरित करते रहे हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश, संविधान उन्हें सीधे स्थानीय निकायों से ही ‘बातचीत’ करने की अनुमति नहीं देता है। उन्हें स्थानीय निकायों (विशेष रूप से यूएलबी) को फार्मूलाबद्ध ढंग से अधिक से अधिक संसाधनों का हस्तांतरण अवश्य ही लगातार जारी रखना चाहिए, क्योंकि इससे फंड या धन प्रवाह काफी तेजी से बढ़ेगा। इन सभी में व्यावहारिक स्व-हित को अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए, ताकि इन फंड प्रवाहों को महज सहायता राशि के बजाय निवेश के रूप में देखा जा सके।
यूएलबी को सशक्त बनाने का एक अन्य महत्वपूर्ण तरीका यह हो सकता है कि उन्हें एकजुट होने और आभासी (वर्चुअल) इकाइयां बनाने की अनुमति दे दी जाए, ताकि वे आगे चलकर ऋणों और बांडों के जरिए वित्तीय बाजारों में वित्त (एक्सपोजर) प्राप्त कर सकें। इसका तात्पर्य यही है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘पूल्ड फंड बैंक्स’ में संशोधन करना होगा। इसमें संशोधन की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि अमेरिकी मॉडल में केवल सबसे मजबूत स्थानीय निकायों का ही चयन किया जाता है, जबकि भारत के विकास मॉडल में हमारे लिए समावेशी होना और सभी यूएलबी को साथ लेकर चलना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में दरों में अंतर (आर्बिट्रेज) और लागत संबंधी लाभ हासिल किए जा सकते हैं। बेशक, इसके लिए कुछ कानूनी बाधाओं को हटाना भी आवश्यक होगा और इसके साथ ही स्थानीय निकायों को करों एवं गैर-कर प्रभारों को तय करने में सर्वोत्तम प्रथाओं/सुधारों को अपनाना होगा, ताकि उनकी बैलेंस शीट को आकर्षक पेश किया जा सके और फिर इसकी बदौलत उन्हें अच्छी रेटिंग प्राप्त हो सके।
यूएलबी को सशक्त बनाने का एक अन्य महत्वपूर्ण तरीका यह हो सकता है कि उन्हें एकजुट होने और आभासी (वर्चुअल) इकाइयां बनाने की अनुमति दे दी जाए, ताकि वे आगे चलकर ऋणों और बांडों के जरिए वित्तीय बाजारों में वित्त (एक्सपोजर) प्राप्त कर सकें।
शहरी स्थानीय निकायों के क्षमता निर्माण की दिशा में एक और प्रयास यह हो सकता है कि पीपीपी (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) अनुबंध किए जाएं। यह विशेषकर मझोले और छोटे स्थानीय निकायों के लिए आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘यशदा’ जैसे मौजूदा संगठनों या यहां तक कि राज्य विश्वविद्यालयों का भी लाभ उठाया जा सकता है, लेकिन यही उचित होगा कि यदि शहरों को वास्तव में सशक्त बनाना है तो इस संदर्भ में समग्र प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के लिए एक नए संगठन की स्थापना की जाए, ताकि वे सही अर्थों में लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकें।
अंत में, शहर-स्तर की बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए आवश्यक धनराशि प्राप्त करने के एक प्रमुख माध्यम के रूप में आजकल भूमि-आधारित वित्तीय साधन (एलबीएफटी) चर्चाओं में हैं। हालांकि, इसे अमल में लाने के लिए कई शर्तों या आवश्यकताओं (सभी मुमकिन हैं) को पूरा करना होगा और एक अहम बात यह भी है कि स्थानीय निकायों का क्षमता निर्माण अत्यंत आवश्यक है। यहां वास्तव में बड़ा मुद्दा यह है कि ‘भूमि’ संवैधानिक रूप से राज्य का विषय है। अत: इन उपायों के जरिए जुटाए जाने वाले संसाधनों (कम से कम इसका एक बड़ा हिस्सा) को स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करने के लिए राज्यों को इसे पूर्णतया सुरक्षित रखना होगा। यही नहीं, राज्य को ऐसा करते वक्त एक राजनेता जैसा दृष्टिकोण अपनाना होगा। कम से कम महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील और आकांक्षी शहरी राज्यों से कानूनी तौर पर या तर्कसंगत तरीके से इसकी उम्मीद करना कतई गलत नहीं होगा।
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