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यूक्रेन में जारी युद्ध से आधुनिक युद्धकला का बदलता मिज़ाज उभरकर सामने आया है.
रूस-यूक्रेन संघर्ष की पहली सालगिरह बीत चुकी है. 21वीं सदी में जंग के बदलते मिज़ाज पर मंथन का यही माकूल वक़्त है. यूरोप में छिड़े युद्ध ने कई बातें साफ़ कर दी है. भले ही सैन्य टकराव के बुनियादी स्वभाव में बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन विरोधियों के बीच गतिशील संवाद के तौर पर युद्धकला का हमेशा उभार होता रहता है. ऐसा इसलिए क्योंकि “युद्ध” अपने निहित स्वरूप में हमेशा ग़ैर-तार्किक और बेलगाम होता है. भले ही जंग से जुड़े नियम अचल स्वभाव वाले होते हैं लेकिन टकराव में उलझे पक्ष अपने दुश्मन को हराने और तबाह करने के नित नए तरीक़े ढूंढते रहते हैं. भले ही एक पक्ष दूसरे को डिगाने में कामयाब ना हो, लेकिन अपना वजूद बचाए रखने के लिए उसे संघर्षपूर्ण हालातों में प्रतिद्वंदी को पछाड़ने के उपाय ढूंढने होते हैं.
यूक्रेन युद्ध ने दिखा दिया है कि टैंक, युद्धपोत और लड़ाकू विमानों जैसे बड़े जंगी प्लेटफ़ॉर्म, सस्ती रक्षात्मक प्रणालियों के सामने अब पहले से कहीं ज़्यादा नाज़ुक हालात में पहुंच गए हैं.
रूस-यूक्रेन संघर्ष को विश्लेषणकारी दृष्टिकोण से देखने पर निश्चित स्वरूप वाली 2 सीख मिलती है. इससे हासिल सीख का एक हिस्सा मैदान-ए-जंग में अपनाई जाने वाली रणनीतियों से जुड़ा है जबकि दूसरा, युद्ध के सामरिक सबक़ से ताल्लुक़ रखता है. हम मैदान-ए-जंग से हासिल सबक़ से शुरुआत करते हैं क्योंकि ये आधुनिक युद्ध कला के बदलते स्वभाव को ज़्यादा खुलकर प्रदर्शित करते हैं. सैन्य पर्यवेक्षकों के लिए पहली सीख यही है कि पूंजीगत परिसंपत्तियों के ज़रिए युद्ध भूमि में दबदबा क़ायम करने के तौर-तरीक़े अब अतीत की तरह कारगर नहीं हैं. यूक्रेन युद्ध ने दिखा दिया है कि टैंक, युद्धपोत और लड़ाकू विमानों जैसे बड़े जंगी प्लेटफ़ॉर्म, सस्ती रक्षात्मक प्रणालियों के सामने अब पहले से कहीं ज़्यादा नाज़ुक हालात में पहुंच गए हैं. ज़रा ग़ौर कीजिए: यूक्रेनी फ़ौज ने अमेरिकी स्टिंगर और जैवलिन मिसाइलों के ज़रिए रूसी सैनिकों पर विनाशकारी प्रहार किए; रूस का प्रमुख युद्धपोत मोस्क्वा तो नेपच्यून जहाज़-रोधी क्रूज़ मिसाइल के सिर्फ़ 2 प्रहार से ही समंदर में समा गया.
यहां प्रासंगिक बात ये है कि पुराने स्वरूप वाले युद्धक टैंक का कौशल अब फीका पड़ता जा रहा है. युद्ध के पहले चरण में हमले के शिकार ज़्यादातर रूसी टैंकों को कंधे से प्रक्षेपित किए जाने वाली सस्ती मिसाइलों और ड्रोन के ज़रिए तबाह किया गया. ज़ाहिर तौर पर रूसी टैंकों की आक्रामकता को रक्षा कवच और गतिशीलता के अभाव का सामना करना पड़ा. वहां का सैन्य नेतृत्व तोपों, वायु सहायता, टोही क्षमताओं और असलहों के साथ टैकों को संयुक्त सशस्त्र अभियानों में एकजुट तरीक़े से इस्तेमाल में लाने में नाकाम साबित हुआ. इससे रूसी आक्रामकता में और कमज़ोरी आ गई.
युद्ध से जुड़ा दूसरा रणनीतिक सबक़ ये है कि तोप युद्धकला के अहम घटक बने हुए हैं, लेकिन सटीकता से निशाना लगाने वाले असलहों के साथ प्रयोग किए जाने पर ये और घातक हो जाते हैं. यानी इनको सुनियोजित हमलों में इस्तेमाल में लाए जाने की ज़रूरत होती है. ग़ौरतलब है कि रूसी तोपों की बमबारियां यूक्रेनी रक्षा प्रणालियों को भेद पाने में नाकाम रही हैं. यूक्रेन के कमांड और कंट्रोल केंद्रों या रसद सुविधाओं को निशाना बनाए जाने पर भी वहां न्यूनतम नुक़सान देखा गया. इन परिसरों को जल्द बहाल भी कर दिया गया. उधर नेटो के हाई-मोबिलिटी आर्टिलरी रॉकेट सिस्टम या HIMARS, रूसी गोला बारूदों के ज़ख़ीरों, कमांड पोस्ट्स और महत्वपूर्ण पुलों को बार-बार तबाह करते रहे. चूंकि HIMARS प्रणाली से जीपीएस-निर्देशित प्रक्षेपास्त्रों को 50 मील दूर तक मार कराया जा सकता है, लिहाज़ा यूक्रेनी फ़ौज, रूस के जवाबी हमलों से बचते हुए एक सुरक्षित दूरी से हमलों को अंजाम देने में कामयाब रही.
युद्ध के एक साल के कालखंड में रूस हवाई सर्वोच्चता स्थापित करने और यूक्रेनी आसमान को नियंत्रित कर पाने में नाकामयाब रहा है. इसके विपरीत, आकार में छोटी यूक्रेन की वायुसेना अपना वजूद बनाए रखने और दुश्मन के ठिकानों पर प्रभावी हमलों को अंजाम देने में सफल रही है.
यूक्रेन युद्ध की तीसरी सीख ये है कि ड्रोन के ज़रिए युद्ध की रणनीति संभावित रूप से गेम-चेंजर साबित हो सकती है. इसमें रणभूमि के तमाम समीकरणों को स्थायी रूप से बदल डालने की क़ाबिलियत मौजूद है. तुर्की के बायराक्टर जैसे बड़े ड्रोन यूक्रेन में बड़े ठिकानों पर निशाना बनाने में बेहद प्रभावी रहे हैं. यहां तक कि छोटे ड्रोन ने भी ख़ुफ़िया जानकारियां इकट्ठी करने के साथ-साथ निगरानी और टोह लगाने के मिशनों में अहम भूमिका निभाई है. अनेक मौक़ों पर छोटे यूक्रेनी ड्रोन रूसी जंगी संरचनाओं का पता लगाने और उन्हें छकाने में कामयाब रहे हैं. इतना ही नहीं लंबे काफ़िलों पर हमले करने, आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित करने और गोला बारूद के ज़ख़ीरों को निशाना बनाने में भी ये कारगर साबित हुए हैं. इस युद्ध ने ये भी दिखा दिया कि असुरक्षित सैन्य वातावरण में हवाई शक्ति बेहद नाज़ुक होती है. युद्ध के एक साल के कालखंड में रूस हवाई सर्वोच्चता स्थापित करने और यूक्रेनी आसमान को नियंत्रित कर पाने में नाकामयाब रहा है. इसके विपरीत, आकार में छोटी यूक्रेन की वायुसेना अपना वजूद बनाए रखने और दुश्मन के ठिकानों पर प्रभावी हमलों को अंजाम देने में सफल रही है.
यूक्रेन में जारी जंग में आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रभाव तो और भी स्पष्ट रहे हैं. सैटेलाइट तस्वीरों के ज़रिए शत्रु के ठिकाने देखने और उनका पता लगाने की क्षमता ने प्रभावी रूप से यूक्रेन युद्ध को पारदर्शी बनाकर रख दिया. महंगे, क्षमतावान भू-स्थैतिक सैन्य उपग्रहों और धरती की निचली कक्षा में स्थित सस्ते वाणिज्यिक उपग्रहों, दोनों से हासिल डेटा और ड्रोन से जुटाई तस्वीरों ने निशाना लगाने की क़वायद में ज़बरदस्त सुधार ला दिया है. अंतरिक्ष-आधारित क्षमता और व्यापक ओपन-सोर्स डेटा के मिले-जुले स्वरूप के चलते सैन्य बलों का गुपचुप तरीक़े से आवागमन मुश्किल हो गया है. शुरुआत से ही यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई पर नज़दीकी से निगरानी रखी जा रही है और आज भी ये सिलसिला बदस्तूर जारी है. ये पूरी क़वायद आधुनिक युद्धों की बदलती विशेषताओं को बयां करती है.
इस संघर्ष से सामरिक मोर्चे पर कई सीख भी मिली है. पहला ये है कि भू सामरिक और कार्यकारी अनिवार्यताओं के बावजूद कभी भी जल्दबाज़ी में जंग की शुरुआत नहीं करनी चाहिए. रूस की ताक़त को लेकर राष्ट्रपति पुतिन की मान्यताओं और पश्चिम-विरोधी जोश ने उन्हें यूक्रेन के ख़िलाफ़ आवेशपूर्णआक्रमण को अंजाम देने पर आमादा कर दिया. निश्चित रूप से नेटो की विस्तारवादी नीतियों का रूसी राष्ट्रपति के डर को परवान चढ़ाने में हाथ रहा है, लेकिन इस कालखंड में कभी ऐसा नहीं लगा कि युद्ध से जुड़ी क़वायदों पर गंभीरता से मंथन किया गया होगा.
आधुनिक जंगों में ज़रूरत के हिसाब से ढलने की क़ाबिलियत एक और अहम सीख है. युद्ध में उलझे पक्ष तेज़ गति से और निर्णायक रूप से अपने क़दम आगे बढ़ाने की जुगत लगाते रहते हैं, लेकिन तमाम सैन्य कार्रवाइयों में अनिश्चितता का कारक स्थायी रूप से बरक़रार रहता है. युद्ध में उलझे पक्षों का बदलती परिस्थितियों के हिसाब से ढलना ज़रूरी है. इनमें नई प्रौद्योगिकियां, नई-नई रणनीतियां और पुरानी युद्धक परिसंपत्तियों के प्रयोग के नित नए तौर-तरीक़े शामिल हैं, ताकि दुश्मन को चकमा देकर घेरा जा सके. अक्टूबर 2022 में सेवास्तोपोल में काले सागर में रूसी बेड़े पर किए गए हमले के दौरान यूक्रेन ने इसी कौशल का प्रदर्शन किया था. तब यूक्रेनी बलों ने मानव रहित समुद्री जहाज़ों को आत्मघाती ड्रोन की तरह इस्तेमाल कर नौसैनिक जंगी ठिकानों को निशाना बनाया था.
रूसी फ़ौज द्वारा युद्ध से जुड़े मंसूबे हासिल नहीं कर पाने के पीछे रूसी पक्ष के अति-आत्मविश्वास का बड़ा योगदान रहा है. यूक्रेन में अनुकूल परिणाम हासिल करने को लेकर क्रेमलिन के अति-आशावाद के चलते रूसी पक्ष की ओर से कई ग़लतियां की गई.
तीसरा सामरिक सबक़ ये है कि आज की दुनिया में “अल्पकालिक युद्ध” दिल को बहलाने वाला मिथक है. यूक्रेन युद्ध इस बात का जीता जागता उदाहरण है. एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के भावी विनाश की परिकल्पना के साथ शुरू की गई युद्धक कार्रवाई का नाकाम होना तय है. रूसी फ़ौज द्वारा युद्ध से जुड़े मंसूबे हासिल नहीं कर पाने के पीछे रूसी पक्ष के अति-आत्मविश्वास का बड़ा योगदान रहा है. यूक्रेन में अनुकूल परिणाम हासिल करने को लेकर क्रेमलिन के अति-आशावाद के चलते रूसी पक्ष की ओर से कई ग़लतियां की गई. रूस की फ़ौज बिना किसी तैयारी के यूक्रेन पहुंच गई. वो पुराने पड़ चुके नक़्शों और ऐसी ख़ुफ़िया जानकारियों का सहारा ले रही थी जो पूरी तरह से सटीक नहीं थी. शुरुआती आक्रमणों को बेतरतीब ढंग से अंजाम दिया गया, जबकि यूक्रेनी हवाई रक्षा प्रणालियां मज़बूत बनी रहीं. साथ ही वो जवाबी हमलों के लिए भी बेहतर रूप से तैयार थी.
योजनाओं के अभाव के दूसरे संकेत भी स्पष्ट थे. रूसी फ़ौज को युद्ध के बारे में ठीक ढंग से जानकारियां नहीं दी गई थीं. रूस के कई सैनिकों तो ये तक पता नहीं था कि वो आख़िर वो युद्ध लड़ क्यों रहे हैं. कुछ फ़ौजी तो इतने लापरवाह निकले कि उन्होंने अपने घरों में सेल फोन पर कॉल कर दिया, जिससे उनकी तैनाती से जुड़े स्थान का ख़ुलासा हो गया. इससे यूक्रेनी फ़ौज को उनका पता लगाने और बड़ी तादाद में उनको ढेर करने का मौक़ा मिल गया. इसके बावजूद रूस ने नई परिस्थितियों के हिसाब से ढलने या नए-नए प्रयोग करने से इनकार कर दिया. रणभूमि में नुक़सान झेलने के बावजूद देश का सैन्य तंत्र बेतरतीब बना रहा.
रूसी फ़ौज 2022 की दूसरी छमाही में पूर्वी यूक्रेन में अपनी गतिविधियों को समेट पाई, हालांकि उसने अपनी प्रतिरक्षा क्षमताओं से ज़्यादा भूभाग पर क़ब्ज़ा करने की ग़लती भी कर दी. विशाल भूभाग के बचाव की ज़िम्मेदारी ऐसे अप्रशिक्षित लड़ाकों के कंधों पर आ गई जिनके पास पर्याप्त हथियार और साजो सामान मौजूद नहीं थे. कई सैनिकों को पुराने पड़ चुके हथियारों से संतोष करना पड़ रहा था और उनके पास युद्ध का पेशवर अनुभव भी काफ़ी कम था. यूक्रेन के असैन्य इलाक़ों में नियमित रूप से बमबारी किए जाने से हालात बदतर हो गए. इससे यूक्रेन के इरादे और बुलंद हो गए. हालांकि रूसी युद्धकला में अनियमित लड़ाकों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है, लेकिन इससे आधुनिक युद्धों का मिश्रित स्वभाव रेखांकित होता है. हालांकि जागरूकता के दृष्टिकोण से ग़ौर करने वाली बात ये है कि रणभूमि में राज्यसत्ता से इतर किरदारों की मौजदूगी और युद्धकला की विषम रणनीतियों के प्रयोग से पूरी क़वायद में पेचीदापन आ जाता है. इससे युद्ध के मोर्चे पर असमंजस के बादल गहराने लगते हैं.
आज की पारस्परिक निर्भरता वाली दुनिया में जब 2 राज्यसत्ताएं आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं तो ज़्यादा ठोस संबंधों वाले पक्ष को अंतर्निहित बढ़त हासिल होती है. क्षमताओं में असंतुलनों के बावजूद ऐसी राज्यसत्ता फ़ायदे में रहती है.
एक और अहम सीख ये है कि आधुनिक काल की जंगी क़वायदों में दीर्घकालिक विजय, रसद श्रृंखलाएं बरक़रार रखने और गोला-बारूद के भंडारों को टिकाऊ बनाए रखने पर निर्भर होती है. युद्धक अभियानों में (ख़ासतौर से क़ब्ज़ा करने वाली ताक़त के लिए) रसद बेहद अहम होते हैं. पश्चिमी यूक्रेन में महीनों तक चले गतिरोध के बाद रूसियों ने अपने सबक़ सीख लिए हैं. रूसी सेना ने अपने अवास्तविक लक्ष्यों को संशोधित किया. उसने जंगी अभियानों को केंद्रित करते हुए पूर्वी यूक्रेन में संसाधनों को एकजुट किया क्योंकि सफलता की संभावना यहीं ज़्यादा थी. हालांकि इसके बावजूद यूक्रेनी पक्ष रूस से एक क़दम आगे रहा है. उसने अपनी रसदों और भंडारों को उन्नत करते हुए रूसी बलों पर कामयाबी से जवाबी हमले किए हैं. अहम बात ये है कि यूक्रेन, जंगी क़वायद में मदद को लेकर युद्ध सामग्रियां जुटाने के लिए अब भी यूरोपीय गठजोड़ के साथियों और अमेरिका पर निर्भर है.
अंतिम सामरिक सीख ये है कि भले ही युद्ध, सत्ता और उसके प्रभावी अमल से जुड़े होते हैं लेकिन उनमें विजय और पराजय, शक्ति के स्वभाव पर आधारित होता है, जो निरंतर बदलते रहते हैं. आज की पारस्परिक निर्भरता वाली दुनिया में जब 2 राज्यसत्ताएं आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं तो ज़्यादा ठोस संबंधों वाले पक्ष को अंतर्निहित बढ़त हासिल होती है. क्षमताओं में असंतुलनों के बावजूद ऐसी राज्यसत्ता फ़ायदे में रहती है. रूसी आक्रामकता के ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहने की यूक्रेनी काबिलियत से इस बात के सबूत मिल जाते हैं. क्षमतावान गठबंधन साथियों की मदद से जंग में उलझे विषम क्षमताओं वाले 2 शत्रु पक्षों के बीच के अंतर को कुछ हद तक पाटने में कामयाबी मिल जाती है. ग़ौरतलब है कि आधुनिक युद्धों में ज़ोर-ज़बरदस्ती और दूसरे पक्ष को दंडित करने की धमकी देने के बड़े कारक जुड़े होते हैं. इसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष को अपने सियासी मंसूबों का त्याग करने और उसकी मांगें मानने के लिए मजबूर कर देता है. ऐसी जंग में मांगों के सर्वोच्च स्तर पर डटे रहने वाले रुख़ (जो शत्रु पक्ष की ओर से और ज़्यादा प्रतिरोध को हवा देती है) की बजाए न्यूनतमवादी रणनीति का सहारा लेना अक्सर बेहतर होता है. इन संदर्भों में यूक्रेन में जारी टकराव एक सजग करने वाला क़िस्सा है, जो सैन्य पर्यवेक्षकों और सामरिक चिंतकों के लिए समान रूप से गहन अध्ययन का विषय बन गया है.
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A former naval officer Abhijit Singh Visiting Fellow at ORF. A maritime professional with specialist and command experience in front-line Indian naval ships he has been ...
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