ये लेख हमारी कोलाबा एडिट 2021 सीरीज़ का हिस्सा है.
कोविड-19 महामारी हमें लगातार ऐसे नए नए पहलुओं से जुड़े सबक़ सिखा रही है, जो हमारे रोज़मर्रा के अस्तित्व पर असर डाल रहे हैं. महामारी ने हमें ये मौक़ा भी दिया है कि हम थोड़ी देर ठहर कर मौजूदा व्यवस्थाओं का मूल्यांकन करें- ये समझने की कोशिश करें कि कैसे उन्हें बेहतर बनाया जा सकता है- न सिर्फ़ संकट के वक़्त बल्कि नागरिकों की लंबी अवधि की बेहतरी के लिए.
महामारी की आमद और उससे लड़ाई के दौरान हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की कई ख़ामियां खुलकर सामने आ गई थीं. ये स्वास्थ्य का इतना बड़ा संकट था, जिसका सामना हमने इससे पहले कभी नहीं किया था. मगर इसने हमारी विधायी और प्रशासनिक ढांचे की तमाम कमियों को भी उजागर किया. हमें ये भी बताया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के किसी संकट से निपटने के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी की आमद से लेकर अब तक, इससे निपटने के तरीक़े लगातार बदलते रहे हैं. उनमें सुधार लाया जाता रहा है. इसीलिए अब हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि महामारी के प्रबंधन से जुड़े मसलों को समझ सकें और ये तय कर सकें कि आगे चलकर इन मसलों को कैसे हल किया जा सकता है.
महामारी से निपटने के दौरान, भारत में दो क़ानूनों का बार-बार ज़िक्र किया जाता रहा है- संक्रामक महामारी क़ानून 1897 और आपदा प्रबंधन क़ानून 2005. संक्रामक महामारी क़ानून प्लेग की महामारी पर क़ाबू पाने के लिए लाया गया था.
महामारी से निपटने के दौरान, भारत में दो क़ानूनों का बार-बार ज़िक्र किया जाता रहा है- संक्रामक महामारी क़ानून 1897 और आपदा प्रबंधन क़ानून 2005. संक्रामक महामारी क़ानून प्लेग की महामारी पर क़ाबू पाने के लिए लाया गया था. और ये क़ानून उस वक़्त बनाया गया था, जब सरकार की क्षमता, स्थानीय प्रशासन की परिभाषा और प्रशासन से की जाने वाली अपेक्षाएं, आज के दौर से बिल्कुल ही अलग थीं. आपदा प्रबंधन क़ानून 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद बनाया गया था, ताकि क़ुदरती आपदाओं का सामना किया जा सके. इन दोनों क़ानूनों के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए बहुत सी अधिसूचनाएं जारी की जाती रहीं. कई बार तो महामारी की बदलती मांगों से निपटने के लिए हर दिन नई अधिसूचना जारी की जाती थी. संक्रामक महामारी क़ानून सरकार को ऐसे अधिकार देता है, जिससे वो महामारी की रोकथाम के लिए स्थानीय स्तर पर भी क़दम उठा सकें और इसमें संकट से निपटने के लिए विकेंद्रीकृत व्यवस्था है. इसी तरह आपदा प्रबंधन क़ानून का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया. हालांकि ये क़ानून सार्वजनिक स्वास्थ्य के संकटों के लिए नहीं बनाया गया है. इस क़ानून के तहत आपदा की व्यापक परिभाषा ने संक्रामक बीमारियों को इसके दायरे में लाने का रास्ता दिया. कोविड-19 महामारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य का इतना बड़ा संकट है, जो पहले कभी नहीं देखा गया था. इसीलिए, भारत और दुनिया के कई अ्य देशों के पास ऐसे क़ानून मौजूद नहीं थे, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के इतने भयंकर संकट से जूझ सकें. जब ये महामारी अपने उरूज पर थी, तो सरकार ने हर उस क़ानून का इस्तेमाल किया जो हमारे पास उपलब्ध थे. इनमें ये दो क़ानून तो शामिल थे. इसके अलावा आपराधिक क़ानूनों और दूसरे मौजूदा क़ानूनों के प्रावधानों का इस्तेमाल भी महामारी से निपटने के लिए किया गया. इसका असर लगभग हर क्षेत्र पर पड़ते देखा गया. इससे भ्रम और गफ़लत का माहौल बना. ज़रूरी क़दम उठाने में देर हुई और राष्ट्रीय और/ या राज्य स्तर की तुलना में स्थानीय स्तर पर उठाए जा सकने वाले क़दमों को लेकर सही रणनीति का अभाव भी दिखा.
सबसे अहम बात तो ये है कि अभी भी तीसरी लहर का ख़तरा मंडरा रहा है. और इसीलिए, सरकार की प्रशासनिक क्षमता को बढ़ाने और स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने की ज़रूरत और प्रासंगिकता, दोनों ही बनी हुई हैं.
इन सबको आपस में जोड़ने वाली जो कड़ी थी, वो इस भयावाह संकट के समय तीसरे स्तर के प्रशासन की भूमिका थी. पूरी महामारी के दौरान, लॉकडाउन के प्रबंधन से लेकर वैक्सीन को लेकर हिचक दूर करने तक स्थानीय प्रशासन की भूमिका स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई. वैसे तो हर क्षेत्र से मिसाल दी जा सकती है. लेकिन, इस लेख का ताल्लुक़ उन दो मुद्दों से है, जिनका ज़िक्र भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची में है. राज्य की सूची इसका हिस्सा है और इस तरह से इस पर क़ानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास है. पहला मसला तो सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े क़ानून का है, जो कोविड-19 से निपटने के दौरान सीखे गए सबक़ को शामिल करेगा. और दूसरा मसला संकट के समय सार्वजनिक पुस्तकालयों का है. इसने हमें ऐसे संकट के समय सामुदायिक जगहों की अहमियत का एहसास कराया है. वैसे तो ये दोनों ही मसले अपने अपने क्षेत्र के व्यापक विषयों का हिस्सा हैं. लेकिन, इनसे राज्य की क्षमता की भूमिका का संकेत मिलता है, और हमें इस महामारी के दौरान सबक़ भी सीखने को मिला है.
राज्यों के विषय
राज्यों के विषय की सूची में छठे नंबर पर है, ‘सार्वजनिक स्वास्थ्, साफ़-सफ़ाई, अस्पताल और डिस्पेंसरी’. असम, तमिलनाडु और गोवा (दमन और दीव के साथ) में कोविड-19 की आमद से पहले ही सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े क़ानून लागू थे. 31 अगस्त 2020 को दिए गए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से कहा था कि वो सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे में सुधार के लिए कार्यकारी और क़ानूनी योजना तैयार करें. ये काम क़ानूनी और प्रशासनिक संरचनाओं के क्षेत्र में साथ साथ होना चाहिए. चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, और इस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी आदेश दे दिया है. ऐसे में अब महाराष्ट्र को चाहिए कि वो राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक ऐसा क़ानून बनाए जो कर्तव्य- अधिकार- संयम के सिद्धांत पर आधारित हो और ये क़ानून न केवल सरकार और सरकारी संस्थाओं के अधिकारों और उनके दायित्वों को परिभाषित करे, बल्कि स्वास्थ्य के संकट और अन्य परिस्थितियों में जनता की भूमिका भी परिभाषित कर दे. सबसे अहम बात ये है कि इस क़ानून से सार्वजनिक स्वास्थ्य के आपातकाल के समय लागू होने वाले प्रोटोकॉल तय हों. क्षमता का निर्माण किया जाए और स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाए. इसके अलावा फ़ैसले लेने की ऐसी प्रक्रिया का ऐसा प्रोटोकॉल बनाया जाए, जो सबूतों पर आधारित हो. आख़िर में इस क़ानून को एक सशक्त स्वास्थ्य क़ानून बल बनाने की दिशा में काम करना चाहिए, जिसमें हर क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हों, जो आपस में जानकारी और रणनीतियों को साझा कर सकें, और कुशल तकनीकी और क़ानूनी सहयोग से आपस में संवाद भी कर सकें.
राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगने के बाद, महाराष्ट्र में सार्वजनिक पुस्तकालय भी बंद कर दिए गए थे. जबकि ऐसे मौक़े पर पब्लिक लाइब्रेरी एक अहम भूमिका निभा सकती थीं. इन जगहों का इस्तेमाल ऑनलाइन स्कूल, कोविड-19 की जानकारी बांटने के संसाधन केंद्र, क्वारंटीन सेंटर, टीकाकरण केंद्र या राज्य के वयस्कों और बच्चों के लिए उपयोगी अन्य कई तरह के काम करने में हो सकता था.
पुस्तकालय, संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 में 12वीं एंट्री के दायरे में आते हैं. पुस्तकालय एक महत्वपूर्ण सामुदायिक ठिकाने होते हैं, जो ज़िंदगी भर काम आने वाले अनुभव देते हैं और नागरिकों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हुनर को बढ़ाने और उनका विकास करने में बेहद अहम भूमिका निभाते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगने के बाद, महाराष्ट्र में सार्वजनिक पुस्तकालय भी बंद कर दिए गए थे. जबकि ऐसे मौक़े पर पब्लिक लाइब्रेरी एक अहम भूमिका निभा सकती थीं. इन जगहों का इस्तेमाल ऑनलाइन स्कूल, कोविड-19 की जानकारी बांटने के संसाधन केंद्र, क्वारंटीन सेंटर, टीकाकरण केंद्र या राज्य के वयस्कों और बच्चों के लिए उपयोगी अन्य कई तरह के काम करने में हो सकता था. इस समय पुस्तकालयों को डिजिटल बनाने की प्रक्रिया पर ज़ोर देने के कारण सार्वजनिक लाइब्रेरियों को खुला रखने की गति और तेज़ की जाती, क्योंकि समुदाय की सेवा जारी रखने के लिए डिजिटलीकरण ज़रूरी हो गया था. हालांकि, सार्वजनिक पुस्तकालयों के बंद होने के चलते, उनका मक़सद ही पूरा नहीं हुआ. अगर प्रशासन और पुस्तकालयों के बारे में फ़ैसले लेने का अधिकार शहरी स्थानीय निकायों यानी वार्ड कमेटी या ज़िला परिषदों के पास होता, तो लॉकडाउन के दौरान भी ये जगहें खुली होतीं. फिर कोविड-19 के स्थानीय संक्रमण के आंकड़े के हिसाब से इन ठिकानों का इस्तेमाल ज़रूरत के हिसाब से हो सकता था.
कैसे करें मूल्यांकन
अब जबकि कोविड-19 ने हमें सेहत पर ध्यान देने पर मजबूर कर दिया है. इस महामारी ने हमारी सभी सामाजिक व्यवस्थाओं को रौंद डाला है. इसीलिए अब ज़रूरत ये है कि हम इस बात का मूल्यांकन करें कि सरकार के अलग अलग अंग इस संकट से निपटने के लिए किस तरह के क़दम उठा सकते हैं, जिससे महामारी से निपटा जा सके. उस पर क़ाबू पाया जा सके और आने वाले समय में ऐसे संकट को रोका जा सके. सबसे अहम बात तो ये है कि अभी भी तीसरी लहर का ख़तरा मंडरा रहा है. और इसीलिए, सरकार की प्रशासनिक क्षमता को बढ़ाने और स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने की ज़रूरत और प्रासंगिकता, दोनों ही बनी हुई हैं. ये ज़रूरत भविष्य के किसी अनजाने संकट के लिए नहीं, बल्कि, अभी जो महामारी चल रही है, उससे बने हुए ख़तरे से निपटने की है.
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