Author : Harsh V. Pant

Published on Mar 07, 2019 Updated 0 Hours ago

बीजिंग का रुख व्यावहारिक दिख रहा है, जो उसके लिए जरूरी भी है, और वह ट्रंप के साथ कोई ठोस समझौता होने तक साथ-साथ चलने की जरूरत को भी भांप चुका है।

चीन की आर्थिक कूटनीति से सीखें

अमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध अब खत्म होता दिख रहा है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस कयास की वजह एक संभावित समझौता है, जो अपनी गति पकड़ चुका है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने उम्मीद जताई है कि सैकड़ों अरबों डॉलर मूल्य के उत्पादों पर शुल्क खत्म करने को लेकर चीन के साथ हो रही यह व्यापार वार्ता निश्चय ही सफल होगी। वित्त मंत्री स्टीवन मनुचिन का भी कहना है कि दोनों पक्ष सौदे के बिल्कुल करीब पहुंच रहे हैं। व्हाइट हाउस के आर्थिक सलाहकार लैरी कुडलो की मानें, तो ‘(दोनों देशों के बीच) प्रगति काफी शानदार रही है।’ अमेरिका और चीन का यह तनाव इसलिए खत्म होता दिख रहा है, क्योंकि दोनों देशों के शासनाध्यक्ष इसी महीने के अंत में फ्लोरिडा के मार-ए-लागो में मिलने की योजना बना रहे हैं, जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का रिसॉर्ट है।

अगर दोनों निजामों में सहमति बनती है, तो चीनी उत्पादों पर लगभग 200 अरब डॉलर का शुल्क अमेरिका वापस करेगा, जबकि चीन ऑटो आदि पर लगाए जाने वाले औद्योगिक करों को घटाएगा। इस बीच, चीन एक नया विदेशी निवेश कानून भी पारित कराने के प्रयास कर रहा है, जो वैश्विक निवेशकों को निवेश के समान अवसर मुहैया कराएगा। यह ट्रंप प्रशासन की एक बड़ी मांग रही है। इस कानून में बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआर) और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर कानूनी सुरक्षा उपायों का भी जिक्र है। विदेशी निवेश कानून का मसौदा इस सप्ताह समीक्षा के लिए नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (चीन की संसद) में भेजा जाएगा और मुमकिन है कि अगले हफ्ते इस पर वोटिंग हो जाए। चीन ने अपने यहां कृषि और ऊर्जा क्षेत्र को लाभ पहुंचाने के लिए छह साल में 12 खरब अमेरिकी डॉलर की खरीद बढ़ाने की पेशकश भी की है। इसमें बीजिंग के साथ पुराने अमेरिकी व्यापार घाटे की राष्ट्रपति ट्रंप की चिंताओं का पूरा ध्यान रखा गया है। वहीं बीजिंग का जोर इस पर भी है कि चीन के उत्पादों पर अमेरिका द्वारा लगाया जा रहा 200 अरब डॉलर का शुल्क जल्द हटा लिया जाए।

चीन एक नया विदेशी निवेश कानून पारित कराने के प्रयास कर रहा है, जो वैश्विक निवेशकों को निवेश के समान अवसर मुहैया कराएगा। यह ट्रंप प्रशासन की एक बड़ी मांग रही है।

सरकारों के स्तर पर दोनों देश नियमित रूप से परामर्श तंत्र स्थापित करने की योजना भी बना रहे हैं, ताकि व्यापार संबंधी मुश्किलें दूर की जा सकें। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइजर के मुताबिक, यदि बातचीत अपने अंजाम तक पहुंचने में सफल नहीं होती, तो अमेरिका टैरिफ यानी शुल्क की तरह ‘आनुपातिक’ व ‘एकतरफा’ कार्रवाई को मजबूर होगा। हालांकि समझौते की शुरुआत में ही शुल्क हटाने को लेकर ट्रंप प्रशासन अब भी ऊहापोह की स्थिति में है, क्योंकि कुछ शुल्क को बनाए रखने से अमेरिका का पक्ष मजबूत बना रहेगा।

बहरहाल, दुनिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक ताकतें, अमेरिका और चीन, पिछले वर्ष मार्च से ही व्यापार युद्ध लड़ रहे हैं, जब राष्ट्रपति ट्रंप ने आयातीत स्टील और एल्यूमिनियम से बने उत्पादों पर भारी शुल्क लगाने की घोषणा की। इसके जवाब में चीन ने भी जैसे को तैसा की नीति अपनाई और अमेरिका से आयातित उत्पादों पर अरबों डॉलर के शुल्क लगा दिए।

देखा जाए, तो चीन के लिए मौजूदा हालात कहीं ज्यादा कठिन हैं। उसने न सिर्फ आर्थिक विकास का अपना लक्ष्य कम कर दिया है, बल्कि अमेरिका के साथ गहराती कारोबारी जंग और बढ़ते कर्ज-संकट को देखते हुए टैक्स में बड़ी कटौती की भी घोषणा की है। उसका 2019 का जीडीपी विकास लक्ष्य 6-6.5 फीसदी है, जो करीब तीन दशकों का सबसे धीमा आर्थिक विकास कहा जाएगा। अगर अमेरिका के साथ तनाव कम हो जाता है, तब भी चीन की अर्थव्यवस्था के सामने ऋण जोखिम और घरेलू खपत वृद्धि दर में कमी जैसी मुश्किलें बनी रहेंगी। इसीलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका के साथ व्यापारिक गतिरोध खत्म करने को लेकर चीन कहीं ज्यादा उत्सुक दिख रहा है।

उधर, डोनाल्ड ट्रंप के लिए चीन के साथ व्यापार सौदा किसी जीत से कम नहीं होगा, जो रूस पर जांच का शिंकजा कसने और घरेलू स्तर पर हार के कारण थोड़े मुश्किल में दिख रहे हैं। अगर चीन के साथ संभावित समझौता अपनी मंजिल पर पहुंचता है, तो ट्रंप इस वार्ता में अपनी जीत का दावा करेंगे, जिससे सीमा सुरक्षा और दीवार निर्माण से जुड़े वित्त पोषण को लेकर उनकी छवि पर आ रही आंच की राजनीतिक भरपाई हो सकेगी।

चीन के लिए मौजूदा हालात कहीं ज्यादा कठिन हैं। उसने न सिर्फ आर्थिक विकास का अपना लक्ष्य कम कर दिया है, बल्कि अमेरिका के साथ गहराती कारोबारी जंग और बढ़ते कर्ज-संकट को देखते हुए टैक्स में बड़ी कटौती की भी घोषणा की है।

अमेरिका-चीन दोस्ती कई मोर्चों पर मुश्किलों का सामना कर रही वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए किसी अच्छी खबर से कम नहीं होगी। यह पूरी तरह साफ नहीं है कि दोनों देशों के कारोबारी रिश्ते को बेपटरी करने वाले संरचनात्मक मुद्दे इस संभावित सौदे के साथ खत्म हो जाएंगे। पर बीजिंग का रुख व्यावहारिक दिख रहा है, जो उसके लिए जरूरी भी है, और वह ट्रंप के साथ कोई ठोस समझौता होने तक साथ-साथ चलने की जरूरत को भी भांप चुका है। इसीलिए ट्रंप द्वारा ‘ट्रांजेक्शनलिज्म’ यानी लेन-देन संबंधी नजरिये को अपनाने से बहुत पहले बीजिंग कई मामलों में इसे अपने भीतर उतार चुका था।

फिलहाल कारोबार के लिहाज से ट्रंप की नजरें भारत पर टिकी हुई हैं, इसीलिए यह देखना लाजिमी होगा कि क्या नई दिल्ली भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव करके थोड़ा-बहुत ‘लेन-देन’ कर सकेगी? ट्रंप ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारत को मिल रहे तरजीही व्यापार वाले देश का दर्जा खत्म करने की मंशा रखते हैं। यह दर्जा भारत को एक योजना के तहत मिला है, जिसमें 5.6 अरब डॉलर के भारतीय निर्यात के लिए अमेरिका में कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है। अमेरिका का मानना है कि नई दिल्ली इस सुविधा के बदले में अमेरिका को अपने बाजारों तक ‘न्यायसंगत और उचित’ पहुंच का वादा नहीं निभा सकी है। भारत इस जीएसपी कार्यक्रम का दुनिया का सबसे बड़ा लाभार्थी है, और उससे यह दर्जा छीन लेना ट्रंप के 2017 में पदभार संभालने के बाद नई दिल्ली के खिलाफ उसकी सबसे कड़ी कार्रवाई माना जाएगा। हालांकि इस कदम से द्विपक्षीय कारोबार पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं है, लेकिन आपसी सामरिक साझेदारी में यह तनाव के बीज जरूर बो सकता है। भारत में चूंकि अभी चुनावी मौसम है, इसीलिए इस पर सियासी रोटियां सेंकी जा सकती हैं। लेकिन जैसा कि चीन ने दिखाया है, चुपचाप कूटनीतिक तरीके से इसका हल तलाशना हमारे लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद हो सकता है।


यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है।

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