Author : Sushant Sareen

Published on Nov 26, 2018 Updated 0 Hours ago

हालांकि पिछले आतंकवादी हमलों से उजागर कमियों को दूर करना जरूरी है — पर इससे भी ज्यादा ज़रूरी है अगले बड़े आतंकवादी हमले का पूर्वानुमान लगाना और उसे रोकना।

अतीत से सीखकर बढ़ें आगे

एक पुरानी कहावत है कि ‘सैनिक हमेशा अपनी आखिरी जंग लड़ने की तैयारी करते हैं।’ आतंकवाद से लड़ना भी कुछ ऐसा ही है। जिस तरहं सेनाएं भारी संसाधन खर्च कर पुराने युद्धों की समीक्षा करती हैं ताकि समझ सकें कि इसे और बेहतर कैसे लड़ा जा सकता था, ठीक वैसी ही स्थिति सुरक्षा एजेंसियों की भी होती हैं, वे पूर्व में हुए आतंकवादी हमलों की सतत समीक्षा कर यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती हैं कि वे दोबारा न घटित हों। पर कई बार उन कमियों को दूर करना ही काफी नहीं होता जिनके कारण पिछला आतंकवादी हमला हुआ था।

इतिहास से यही सबक मिलता है कि बड़े पैमाने पर हुए आतंकवादी हमले दोहराए नहीं जाते जबकि अपेक्षाकृत छोटे हमले जिन्हें ‘गार्डन वैरायटी’ भी कहा जाता है, दोहराए जाते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि सुरक्षा खामियां कुछ हद तक दूर कर ली जाती हैं और दूसरा कारण यह है कि पहले हमले से जितना ध्यान आतंकवादी अपनी ओर खींच सकते हैं, दूसरे हमले में इतना नहीं हो सकता है।

मुंबई की लोकल ट्रेनों को बार-बार निशाना बनाने की घटना अपवाद है नहीं तो पिछले सालों में हुआ कोई बड़ा आतंकवादी हमला दोहराया नहीं गया है और वे अपने आप में एकमात्र अलग घटना के तौर पर सामने आए हैं मसलन संसद पर हमला, जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बमबारी, 1993 में मुंबई में धारावाहिक बम विस्फोट, या आतंकवादियों द्वारा मुंबई में 26/11 को किया गया हमला।

इसलिए, अगले 26/11 को रोकने पर केंद्रित बातचीत या 26/11 जैसी एक और घटना को अंजाम देने के बारे में पाकिस्तान को चेतावनी देना व्यर्थ है। संभावना यही है कि अब एक और 26/11 नहीं होगा; लेकिन ऐसे अन्य हमले होंगे जो उतने ही भयानक और व्यापक होंगे।

मुंबई की लोकल ट्रेनों को बार-बार निशाना बनाने की घटना अपवाद है नहीं तो पिछले सालों में हुआ कोई बड़ा आतंकवादी हमला दोहराया नहीं गया है और वे अपने आप में एकमात्र अलग घटना के तौर पर सामने आए हैं मसलन संसद पर हमला, जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बमबारी, 1993 में मुंबई में धारावाहिक बम विस्फोट, या आतंकवादियों द्वारा मुंबई में 26/11 को किया गया हमला।

26/11 के बाद, पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूहों ने दुस्साहसी हमले करने की कोशिश की है जिनका लक्ष्य बड़ी संख्या में मौतें यां भारतीय सैन्य संपत्तियों को गंभीर नुकसान पहुंचाना था — जुलाई 2015 में गुरदासपुर में आतंकवादी हमले में रेल पटरी पर ट्रेन को उड़ानेने के लिए बम रखे गए, [1] जनवरी 2016 में पठानकोट एयरबेस हमले में कोई विमान क्षतिग्रस्त नहीं हुआ था, [2] 2017 में उत्तर प्रदेश और बिहार में रेल पटरियों पर श्रृंखलाबद्ध बम-विस्फोट की कोशिश। [3] इनमें से कोई भी हमला सफल हो जाता तो भारत सरकार के सामने फिर वैसे ही नीतिगत निर्णय लेने की चुनौती होती जैसी 26/11 के हमले के बाद थी। [4]

इसलिए यह जरूरी है कि पिछले हमलों से उजागर हुई कमियों को दूर किया जाए ताकि भविष्य में ऐसे हमले रोके जा सकें। (उदाहरण के तौर पर 26/11 के बाद होटलों ने अपने सुरक्षा नियमों को मजबूत किया, तटीय सुरक्षा को सुदृढ़ किया गया, त्वरित जवाबी कार्रवाई के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड — एनएसजी— के केंद्र बनाए गए, संस्थागत व कानूनी सुधार लागू किए गए)। इससे भी ज्यादा जरूरी है अगले बड़े आतंकवादी हमले का पूर्वानुमान लगाना जो हमारी कमियों को लाभ उठाकर किया जाएगा और भी भी सुरक्षा एजेंसिसयों के राडार पर नहीं है।

इधर पाकिस्तान फिर से जम्मू-कश्मीर में जिहादी हिंसा को बढ़ावा दे रहा है और राज्य में आतंकवाद को पुन: फैलाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। ऐसे में भारत की सुरक्षा एजेंसियों को इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि पाकिस्तान देश के अन्य हिस्सों में आतंकवाद फैलाने का प्रयास करेगा। पाकिस्तान द्वारा खालिस्तान आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए पहले से ही हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। [5]

पर इससे भी ज्यादा खतरनाक भारतीय मुस्लिमों को जेहाद के नाम पर भर्ती करने के पाकिस्तानी प्रयास होंगे। 2000 के दशक में इंडियन मुजाहिदीन नाम का एक ऐसा संगठन था जिसका नेटवर्क नेस्तानाबूद होने से पहले उसने कई हमले किए। [6] भारत में बढ़ रहे सामाजिक व सांप्रदायिक तनाव से पाकिस्तानी एजेंटों को भारीतय मुस्लिमों को भड़काने का मौका मिल सकता है। [7]

पाकिस्तान द्वारा भारतीयों को भारत के खिलाफ लड़ने के लिए भर्ती करने के प्रयास उसके 26/11 के अनुभव का नतीजा है। पाकिस्तानी नागरिक अजमल कसाब की गिरफ्तारी से उसके नापाक इरादों को जो खुलासा हुआ उससे निपटना पाकिस्तान के लिए काफी मुश्किल था। इस तरहं की गलती वे दोबारा नहीं दोहराना चाहेंगे। आतंकी हमलों में भारतीयों के शामिल होने से पाकिस्तान को अपना पल्ला झाड़ने में आसानी रहेगी। इससे न केवल पाकिस्तान को बाहरी मोर्चे पर तीखी प्रतिक्रिया से बचने में आसानी रहेगी, आतंरिक रूप से भी उसके लिए मुश्किलों की संभावना कम होगी जिसका अनुभव उसे हो चुका है। 9/11 के बाद और खासकर 2004 के पास पाकिस्तान ने अपनी ‘जेहादी फैक्टरी’ पर दोबारा नियंत्रण का प्रयास किया। इसके लिए उस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी थी और घरेलु मजबूरियां भी। पाकिस्तान ने ने केवल अपनी पश्चिमी सीमा पर कबीलाई इलाकों से सटे क्षेत्रों में जेहादियों पर नियंत्रण का प्रयास किया बल्कि भारत के साथ लगती पूर्वी सीमा पर भी उसने यह कोशिश की थी।

पाकिस्तान द्वारा भारतीयों को भारत के खिलाफ लड़ने के लिए भर्ती करने के प्रयास उसके 26/11 के अनुभव का नतीजा है।

ज्यादा से ज्यादा प्रयास अब इस बात के लिए है कि जेहादी समूह पाकिस्तान के नियंत्रण में रहें और उसके हितों के लिए काम करें, उन्हें अपनी मर्जी के अनुरूप नहीं चलने दिया जाए। ‘मुख्यधारा’ में लाने की पूरी कवायद इसी रणनीति का हिस्सा है। [8]

लेकिन जनता की नजरों में तो ये जेहादी समूह अब हथियारों से लैस नहीं रह गए हैं पर उनके आतंकी प्रकोष्ठ बरकरकार हैं। [9] फर्क सिर्फ इतना है कि 26/11 से पहले ये जेहादी कार्रवाई खुलेआम चल रही थी (यहां तक कि 2004 से पूर्व भी, इससे पहले कि जब पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने दुनिया को आश्वस्त किया था कि वे पाकिस्तानी जमीन को भारत के खिलाफ हिंसा के लिए इस्तेमाल नहीं होने देंगे) पर आज ये आतंकी समूह उतना खुलकर सामने नहीं आते हैं। इन समूहों को कोई आधिकारिक समर्थन नहीं मिलता है, जनता के सामने इन्हें सम्मानित करने को हतोत्साहित किया जाता है, इनकी गतिविधयों की मीडिया कवरेज को कड़ाई से नियंत्रित किया जाता है तथा भर्ती का काम भमिगत रहकर किया जा रहा है (सार्वजनिक रूप से जेहाद के लिए भर्ती का आमंत्रण देते हुए अपने फोन नंबर का ढिंढोरा पीटने के प्रयास अब खत्म हो गए हैं)।

पर कुल मिलाकर बात यह है कि पाकिस्तान जेहाद को ज्यादा गुपचुप तरीके से इस्तेमाल कर रहा है जबकि जेहाद के लिए उपलब्ध बुनियादी ढांचा वहीं का वहीं है, उसे नष्ट नहीं किया गया। एस. पॉल कपूर के शब्दों में, ‘आतंकवादियों को समर्थन पाकिस्तान की शासकीय नीति केवल एक अंग नहीं है। बल्कि इस्लामी आतंकवादियों का इस्तेमाल पाकिस्तान की बड़ी रणनीति का प्रमुख हिस्सा है।’ [10] चूंकि पाकिस्तान परंपरागत सैन्य क्षेत्र में भारत का मुकाबला नहीं कर सकता है इसलिए सैन्य संतुलन को बनाए रखने के लिए वह ‘उप पारंपरिक आक्रामक युद्ध (सबकन्वेंशनल वॉरफेयर) का इस्तेमाल कर रहा है।[11]

पाकिस्तान जेहाद को ज्यादा गुपचुप तरीके से इस्तेमाल कर रहा है जबकि जेहाद के लिए उपलब्ध बुनियादी ढांचा वहीं का वहीं है, उसे नष्ट नहीं किया गया।

जिहाद पाकिस्तान की बड़ी रणनीति का केंद्रीय स्तंभ है। आज पाकिस्तान की पकड़ जेहादी संगठनों पर पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है। इसलिए सरकार से इतर लोगों यां समूहों पर आतंक का दोष थोपने की पाकिस्तान रणनीति का पर्दाफाश हो चुका है। अन्य शब्दों में भारत पर अगला बड़ा आतंकी हमला स्वयं पाकिस्तान के प्रशासन क्षरा निर्देशित किया जाएगा। भारतीय सुरक्षा एजेंसियां इस हमले को रोकने के लिए जितना भी प्रयास कर लेंख् जब हमला होगा तो पाकिसतान की छाप उस पर होगी।

सवाल ये है कि ऐसे में भारत की प्रतिक्रिया होगी? एक विकल्प तो यह है कि धैर्य रखा जाए और कोई कड़ी जवाबी कार्रवाई करने से बचा जाए क्योंकि इससे न केवल संघर्ष में तीवग्रता आ सकती है साथ ही सैन्य विकल्प इस्तेमाल करने से आतंकवाद की समस्या से छुटकारा नहीं मिलेगा, भले ही ही इससे भावनात्मक संतुष्टि मिल जाए। इसलिए 26/11 के बाद जो नीति अपनाई थी उसी पर चलते हुए भारत कूटनीतिक व राजनीतिक हथियारों का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को इसकी भारी कीमत चुकाने पर मजबूर करेगा। [12] लेकिन पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन जिन्होंने 26/11 के बाद धैय बनाए रखने की नीति का समर्थन किया था खुद अब यही कहते हैं, “किसी बड़े हमले की स्थिति में अब किसी भी सरकार के लिए 26/11 के बाद अपनाए गए विकल्पों को दोबारा अपनाना लगभग असंभव होगा।” [13]

इसलिए जवाबी कार्रवाई अब बहुआयामी होनी चाहिए। कूटनीतिक और राजनीतिक माध्यमों के अलावा अब पाकिस्तान को सजा देना के लिए भारत को आर्थिक माध्यमों का भी इस्तेमाल करना चाहिए। [14] पर इन कदमों के अलावा ठोस कार्रवाई भी करनी होगी और इसका उद्देश्य सिर्फ जनभावनाओं को संतुष्ट करना ही नहीं होना चाहिए, [15] बल्कि पाकिस्तान को इस बात से घबराहट होनी चाहिए कि भारत कोई भी अप्रत्याशित कदम उठा सकता है। [16] ठोस कार्रवाई का एक तरीका तो सितंबर 2016 में किए गए सर्जिकल स्ट्राइक की तरहं हो सकता है। पर जरूरी नहीं है कि यह कार्रवाई केवल सीमपार जाकर सीमित हमले तक ही सीमित रहे। सैन्य बलों ने विभिन्न विकल्पों पर काम किया है, इनमें वे विकल्प भी शामिल हैं जिसमें संघर्ष और गहन हो सकता है और इसमें खतरा भारत के मुकाबले पाकिस्तान के लिए ज्यादा है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि पाकिस्तान अब यह न समझे कि वह भारत में आतंकवाद फैलाता रहेगा और इसके परिणाम उसे भुगतने नहीं पड़ेंगे।


[1] Manjeet Sehgal, Gurdaspur attack: Horror could have snuffed out many more lives, India Today, 28 July 2015. (accessed on 28 October 2018)

[2] Nitin Gokhale, Securing India the Modi way, Bloomsbury (2017), pp 67-68.

[3] Rakesh Jain, Bomb explosion near Buxar railway track: Sabotage, terror cause of recent train tragedies?, India Today, 7 February 2017; and Pakistan hand in Kanpur train tragedy? ISI paid goons to plant bombs on railway tracks, hints Bihar police, Financial Express, 17 January 2017. (accessed on 30 October 2018)

[4] George Perkovich & Toby Dalton, Not War, Not Peace: Motivating Pakistan to prevent cross-border terrorism, Oxford (2016), pp 1-4.

[5] Sanjeev Verma, Pak Lt Col brain behind pro-Khalistan initiative in Canada, Eaurope: Sleuths, Times of India, 7 August, 2018; and Sikh youth being trained at ISI facilities in Pakistan, says Indian government, Press Trust of India, 21 March 2018. (accessed on 26 October 2018)

[6] Praveen Swami, The Indian Mujahidin and Lashkar-i-Tayyiba’s Transnational Networks, Combating Terrorism Center: Vol. 2, Issue 6 (June 2009); and Namrata Goswami, Who is the Indian Mujahideen?, Institute for Defence Studies and Analyses, 3 February 2009. (accessed on 28 October 2018)

[7] Praveen Swami, India’s Invisible Jihad, Hudson Institute, 3 November, 2017. (accessed on 28 October 2018)

[8] Asif Shahzad, Pakistan army pushed political role for militant-linked groups, Reuters, 21 September, 2017. (accessed on 7 October 2018)

[9] Jaish-e-Muhammad (JeM) founder, Masood Azhar, is a native of Bahawalpur, in South Punjab and this town is also the headquarters of JeM. South Punjab is the breeding ground for many extremist, sectarian and Jihadi groups, including, Lashkar-e-Taiba (LeT), Deobandi madrasa — Makhzan-ul-Uloom, which is a hotbed of anti-Shiism, among others.

[10] S. Paul Kapur, Jihad as grand strategy — Islamist militancy, national security and the Pakistani state, Oxford (2017), pp 9.

[11] Praveen Swami, India’s new language of killing, The Hindu, 1 May 2014. (accessed on 30 October 2018)

[12] Shivshankar Menon, Choices: Inside the making of India’s foreign policy, Penguin (2016) pp 94-97.

[13] Ibid.

[14] Sushant Sareen, Pressuring Pakistan, Scholar Warrior, Centre for Land Warfare Studies (Spring 2018), pp 50.

[15] Ibid.

[16] Op.cit. (Gokhale, pp 49-50).

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