Published on Sep 06, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत में कई प्रोजेक्ट भूमि अधिग्रहण में आने वाली दिक्कतों का शिकार हो जाते हैं,ऐसे में इस समस्या का क्या निदान हो सकता है?

लैंड पूलिंग — भारत में भूमि अधिग्रहण की समस्याओं का समाधान?

भारत में शहरी विकास भले ही नितांत आवश्‍यक हो, लेकिन राज्यों द्वारा इस उद्देश्‍य से किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में आड़े आने वाली समस्‍याएं निरंतर गंभीर बनी हुई हैं। भूमि अधिग्रहण से जुड़े मुद्दों के कारण ही अनेक प्रमुख शहरी विकास परियोजनाएं परवान नहीं चढ़ पा रही हैं। ये मुद्दे अक्‍सर भूमि अधिग्रहण से प्रभावित व्यक्तियों को मिलने वाले मुआवजे, उनके पुनर्वास और पुनर्स्थापन से जुड़ी समस्याओं के कारण गंभीर रूप अख्तियार कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, किसानों द्वारा किए जा रहे प्रतिरोध और विरोध के कारण गुजरात में अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का काम दिसंबर 2018 तक की समय सीमा में पूरा होने की संभावना नहीं है। किसान इसके तहत मिलने वाले मुआवजे के बारे में आवश्‍यक जानकारी के अभाव का हवाला दे रहे हैं। इसी तरह नवी मुंबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के विकास का काम भी धीमा पड़ गया है क्योंकि प्रभावित परिवार अपनी भूमि छोड़ने के इच्छुक नहीं हैं। ये परिवार अपने पुनर्वास स्थल में रहन-सहन के हालात के प्रतिकूल होने के साथ-साथ मुआवजा राशि अपर्याप्‍त होने का भी हवाला दे रहे हैं।

भारत एक ऐसा देश है जहां कृषि भूमि आबादी के एक बड़े हिस्‍से को रोजगार मुहैया कराती है। अत: इस देश में विकास के लिए होने वाले भूमि अधिग्रहण का प्रतिरोध किया जाना लाजिमी ही है। इसके अलावा, राज्य भूमि अधिग्रहण के लिए आवश्यक मुआवजे का वित्त पोषण करने में अक्सर असमर्थ रहते हैं। यदि भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार (आरएफसीटीएलएआरआर) अधिनियम, 2013 के तहत भूमि का अधिग्रहण किया जाए, तो राज्यों को ग्रामीण इलाकों में भूमि अधिग्रहण के मामले में उसके बाजार मूल्य के लगभग चार गुना और शहरी क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण के मामले में उसके बाजार मूल्य की दोगुनी राशि का भुगतान करना होगा। उदाहरण के लिए, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर (डीएमआईसी) परियोजना भूमि अधिग्रहण में आड़े आ रही समस्‍याओं के कारण निर्धारित समय सीमा से पीछे चल रही है। भूमि से जुड़ा मुआवजा देने के लिए धन सीमित होने के कारण राजस्थान इस परियोजना के घोषित होने के पहले पांच वर्षों में कुछ भी भूमि हासिल करने में असमर्थ रहा है।

भूमि अधिग्रहण से जुड़े मौजूदा कानूनी ढांचे ने कुछ अतिरिक्त जटिलताएं उत्‍पन्‍न कर दी हैं। दरअसल, आरएफसीटीएलएआरआर अधिनियम के मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन प्रावधान उन 13 अन्य संबंधित कानूनों के प्रावधानों के अनुरूप नहीं हैं जिन्हें आरएफसीटीएलएआरआर अधिनियम से छूट दी गई है। इन कानूनों में बुनियादी ढांचे से संबंधित प्रमुख कानून जैसे कि 1956 का राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1978 का मेट्रो रेल (निर्माण कार्य) अधिनियम, 1989 का रेल अधिनियम और 2003 का विद्युत अधिनियम शामिल हैं।

आरएफसीटीएलएआरआर अधिनियम के प्रति सरकार की धारणा यह भी है कि यह कानून का एक ऐसा असुविधाजनक अंश है जो भूमि अधिग्रहण की गति को बाधित करता है और इसके साथ ही उसकी लागत को भी बढ़ा देता हैआरएफसीटीएलएआरआर को पहले ही दो अध्‍यादेशों और दो संशोधन विधेयकों के जरिए केंद्रीय स्तर पर चुनौती दी चुकी है।

चूंकि भूमि राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों ने भी ऐसे राज्य-विशिष्ट कानूनी सुधारों को लागू किया है जिनके तहत ‘आरएफसीटीएलएआरआर’ को नजरअंदाज किया जाता है। इनमें से कई सुधारों के तहत भूमि अधिग्रहण के लिए सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) करने की अनिवार्यता समाप्‍त कर दी गई है और इसके साथ ही भूमि से जुड़े मुआवजे की रकम में बदलाव कर दिया गया है। ये दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें आरएफसीटीएलएआरआर को डेवलपर्स द्वारा लचीला और निर्देशात्मक या नियमानुसार माना जाता है। हालांकि, इन्‍हें भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों के साथ इंसाफ सुनिश्चित करने की कुंजी भी माना जाता है।

इन सभी वजहों के साथ-साथ जिला अदालतों में ज्‍यादातर मौजूदा दीवानी मामलों के जमीन और संपत्ति विवादों से ही जुड़े रहने के कारण भी भूमि अधिग्रहण का काम इतना ज्‍यादा जटिल हो गया है कि इनमें से किसी भी पक्ष को सही अर्थों में जीत नसीब नहीं होती है। हालांकि, भारत को यदि अपनी शहरी आकांक्षाओं को सफलतापूर्वक पूरा करना है, तो उसे भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के साथ-साथ इससे प्रभावित लोगों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक चिंताओं को पर्याप्त रूप से दूर करना होगा। यह विशेष रूप से उन स्थितियों में राज्यों के लिए कठिन साबित होता है जब उन्‍हें भूमि अधिग्रहण की लागत का भी बोझ उठाना पड़ता है।

भूमि अधिग्रहण के मॉडल के रूप में भूमि पूलिंग में हैं व्‍यापक संभावनाएं

इसी वर्तमान हालात को देखते हुए भारत में ‘प्रत्‍यक्ष भूमि अधिग्रहण’ के एक कारगर एवं लोकप्रिय विकल्प के रूप में ‘भूमि पूलिंग’ बड़ी तेजी से उभर कर सामने आई है। यही नहीं, विभिन्‍न राज्यों ने तो इस व्‍यवस्‍था का उपयोग करने के लिए अपने यहां संबंधित कानूनों में संशोधन तक कर दिया है।

भूमि पूलिंगजो भूमि पुनर्व्यवस्थापन या भूमि पुनर्गठन के रूप में भी जानी जाती है, दरअसल एक ऐसी भूमि अधिग्रहण रणनीति है जिसके तहत निजी भूखंडों (पार्सल) के स्वामित्व अधिकारों को एक गठित एजेंसी को स्थानांतरित कर दिया जाता है और इस तरह से इन भूखंडों की पूलिंग की जाती है।

यह एजेंसी इस तरह से एकत्रित (पूल्‍ड) भूमि में से कुछ टुकड़ों का उपयोग बुनियादी ढांचागत विकास के लिए करती है और इसके साथ ही वह कुछ टुकड़ों को बेच भी देती है। वहीं, इस तरह से एकत्रित (पूल्‍ड) भूमि में से बनाए गए कुछ नए भूखंडों या टुकड़ों के अधिकारों को मूल भूमि मालिकों को उनकी मूल संपत्ति के कुछ अनुपात में वापस स्थानांतरित कर दिया जाता है।

सार्वजनिक एजेंसी के परिप्रेक्ष्य से यह आर्थिक या वित्तीय दृष्टि से एक संकुचित या रूढ़िवादी योजना है: इसके तहत इस एजेंसी को भूमि अधिग्रहण लागत का कुछ भी भुगतान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है तथा भूमि की बिक्री से कुछ राजस्व की प्राप्ति होती है और इसके साथ ही मुआवजा संबंधित भूमि मालिकों से प्राप्‍त होता है जो अब उस भूमि के मालिक हो गए हैं जिसकी कीमत भूमि विकास से जुड़े कार्यों के बाद काफी बढ़ गई है। चूंकि इस तरह की योजनाओं के लिए भूमि मालिकों की स्वैच्छिक सहमति भी जरूरी होती है और इनमें मुआवजे के अन्य स्‍वरूपों (जैसे कि फसल की हानि होने पर वार्षिक भुगतान) का भी प्रावधान है, इसलिए भूमि पूलिंग एक ऐसी व्‍यवस्‍था है जिसमें सामाजिक चिंताओं को दूर करते हुए भूमि अधिग्रहण की पारंपरिक प्रक्रिया में तेजी लाने की भरपूर क्षमता भी है। यही नहीं, इस तरह की योजनाओं से बेतरतीब आकार वाले छोटे-छोटे भूखंडों का समुचित पुनर्गठन विकास के उपयोग की दृष्टि से अधिक उपयुक्त भूखंडों के रूप में करना भी संभव हो जाता है। एक और खास बात यह है कि इस समूची प्रक्रिया में भूमि मालिकों के साथ पारदर्शी रहने पर विशेष जोर दिया जाता है।

भूमि की पूलिंग भारत के लिए नई नहीं है। इसका उपयोग टाउन प्लानिंग स्कीम (टीपीएस) की व्‍यवस्‍था के तहत गुजरात में किया गया है, जहां एकल टीपीएस का क्षेत्र 100 से 1,200 हेक्टेयर तक हो सकता है और यह 100 से 2,000 व्यक्तिगत भूखंडों को कवर कर सकता है। टीपीएस के तहत अहमदाबाद में 76 किलोमीटर लंबे रिंग रोड को निर्मित किया जाना है और यह धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक भूमि को इकट्ठा करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

आंध्र प्रदेश में भी उसकी नई राजधानी अमरावती के विकास के लिए असाधारण रूप से बड़े पैमाने पर भूमि की पूलिंग की गई है। हजारों भूमि मालिक किसानों से 33,000 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की गई और 59,000 से भी अधिक भूखंड वापस कर दिए गए हैं। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) भी भूमि पूलिंग नीति जारी करने की प्रक्रिया में है जिसका उद्देश्‍य आवास विकास के अहम कार्य को नई गति प्रदान करना है।

वैसे तो ‘सीधे तौर पर भूमि अधिग्रहण’ के मुकाबले ‘भूमि पूलिंग’ में विकास का अपेक्षाकृत अधिक सहभागितापूर्ण विजन है, लेकिन भूमि पूलिंग के तहत मिलने वाला मुआवजा और पुनर्वास अब भी प्रभावित लोगों के लिए चिंता का विषय है।

उदाहरण के लिए, धोलेरा के कुछ किसानों ने अपनी भूमि की पूलिंग करने का विरोध किया है। उन्‍होंने यह दलील दी है कि अपने पुनर्निर्मित भूखंडों पर फिर से खेती शुरू करने पर पहले के मुकाबले काफी ज्‍यादा लागत आती है क्योंकि इसके लिए नए कृषि उपकरण अवश्‍य ही खरीदने पड़ेंगे। भूमि मालिकों द्वारा भूमि की पूलिंग के लिए समुचित सहमति दी गई है या नहीं, यह भी बहस का विषय है। विकास के लिए जो आवश्यक गति चाहिए उसके मद्देनजर अक्सर एजेंसियों पर भूमि पूलिंग को अनिवार्य बनाए जाने का दबाव रहता है। नवी मुंबई हवाई अड्डा प्रभाव अधिसूचित क्षेत्र (एनएआईएनए) के विकास में कुछ ऐसी ही स्थिति देखी गई है क्‍योंकि उसके मामले में भूमि पूलिंग को स्वैच्छिक के बजाय अनिवार्य कर दिया गया था, ताकि इसमें देरी ना हो।

यह सुनिश्चित करने के लिए अभी और भी बहुत कुछ किया जाना चाहिए कि मुआवजा एवं पुनर्वास प्रावधान बंटाईदार किसानों और कृषि मजदूरों के लिए भी होने चाहिए, क्योंकि क्षतिपूर्ति पैकेज भूमिहीन के लिए अक्सर अपर्याप्त ही होते हैं। उदाहरण के लिए, बंटाईदार किसानों और भूमिहीन परिवारों के लिए अमरावती से जुड़ी भूमि पूलिंग योजना में केवल 2,500 रुपये का मासिक भुगतान ही शामिल है। इसके अलावा, भूमि की पूलिंग में सक्षम होना इस बात पर निर्भर करता है कि भूमि स्वामित्व के रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से प्रलेखित होने चाहिए। हालांकि, इस तरह की स्थिति प्रायः नहीं देखी जाती है।

भूमि की पूलिंग एवं इससे संबंधित कानूनी ढांचे के अध्‍ययन और इसे सुव्‍यवस्थित करने के लिए अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है, ताकि यह भारत में भूमि अधिग्रहण का एक सटीक विकल्प साबित हो सके। इस दिशा में ये सब चीजें वास्‍तव में आवश्‍यक हैं — अधिकारियों को प्रभावित लोगों को ध्‍यान में रखते हुए इस बारे में अवश्‍य ही स्पष्ट और पारदर्शी होना चाहिए कि भूमि पूलिंग के तहत वास्तव में मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन कैसे किया जाएगा और इसके साथ ही यह भी ध्‍यान में रखा जाना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण की जरूरत पूरी करने में कहीं सामाजिक चिंताओं की अनदेखी न हो जाए। यदि भूमि की पूलिंग सही ढंग से की जाए, तो यह संभवतः पारंपरिक भूमि अधिग्रहण के मुकाबले हितधारकों के बीच कहीं अधिक वैधता एवं भरोसा सृजित कर सकती है और इसके जरिए भारत वास्तव में ऐसा समावेशी विकास सुनिश्चित कर सकता है जिसमें सभी लाभान्वित हो सकेंगे।


किम्बर्ली चिया यान मिन वेलेस्ले कॉलेज, अमेरिका में पर्यावरण अध्ययन के साथ-साथ दक्षिण एशिया से संबंधित अध्ययन करने में भी जुटी हुई हैं।

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