Author : J. M. Mauskar

Published on Dec 12, 2018 Updated 0 Hours ago

2015 में यूएनएफसीसीसी के पैरिस समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन से निपटने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में जलवायु संबंधी कोष की भूमिका पर काफी जोर दिया गया। तब से विकसित देशों ने वित्तीय कोष से जुड़ी गड़बड़ियों के बारे में कई तरह के दावे किए हैं। ऐसे में जलवायु कोष संबंधी कुछ भ्रांतियों को दूर करना जरूरी है।

जलवायु कोष: भ्रांति बनाम हकीकत

इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की ओर से तैयार की गई विशेष रिपोर्ट, ‘ग्लोबल वार्मिंग ऑफ 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड,’ ने ब्रह्मांड के गर्म होने की चेतावनी दी है और जहरीली गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए अभूतपूर्व प्रयास की जरूरत पर जोर दिया है। रिपोर्ट कहती है कि इसे हासिल करने के लिए नए उपाय अपनाने और उत्सर्जन को कम करने में निवेश को बढ़ाना होगा, नीतियों में बदलाव करना होगा और तकनीकी नवाचार व व्यवहार में बदलाव लाने होंगे। संक्षेप में कहें तो यह रिपोर्ट समग्र प्रयास की बात करती है।

इस रिपोर्ट के आलोक में यह मांग उठने लगी है कि यूएन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के काटोविस में होने वाले कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप 24) में देशों की ओर से तय किए गए नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) के स्तर को बढ़ाने का फैसला किया जाए।

बिना पर्याप्त जलवायु कोष के मौजूदा प्रस्तावित एनडीसी को पूरा करना भी संभव नहीं होगा, किसी नए लक्ष्य की तो बात ही छोड़ दीजिए। पैरिस समझौते के तहत निर्धारित मौजूदा एनडीसी की वित्तीय जरूरतों का सिर्फ जोड़ निकाल कर किए गए प्रारंभिक आकलन के मुताबिक ही यह रकम लगभग 4.4 ट्रिलियन (44 खरब) होती है।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यूएनएफसीसीसी के तहत अनुलग्नक-2 (औद्योगिक) देशों की ओर से उत्सर्जन कम करने के उपायों के साथ ही तकनीकी के हस्तांतरण और वित्तीय संसाधन उपलब्ध करवाना जरूरी है ताकि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन संबंधी कदम उठा सकें।

इसके बाद, 2009 में कोपनहेगन में, विकसित देशों ने 2020 तक वार्षिक 100 अरब डॉलर के लक्ष्य को पूरा करने का वादा किया था। यूएनएफसीसीसी का 2015 का पैरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों के तहत जलवायु कोश की भूमिका पर काफी जोर देता है। उसके बाद से, विकसित देशों ने जलवायु संबंधी वित्तीय व्यवस्था में बहुत से कमियों के दावे किए हैं। जलवायु कोष संबंधी कुछ भ्रांतियों को दूर किया जाना जरूरी है।

भ्रांति 1: जलवायु कोष भी एक तरह का कोष है जिसकी जरूरत नवीकरणीय ऊर्जा के लिए है और इसका मुख्य लक्ष्य उत्सर्जन को कम करना व देशों को जैव इंधन से दूर करना है।

दूसरे कोषों से अलग, जलवायु कोष कर्जदाता-कर्जदार या दाता-दान प्राप्तकर्ता के संबंधों पर आधारित नहीं है। इस मामले में विकसित देशों के लिए एक बाध्यता है कि वे अपनी ऐतिहासिक जिम्मेवारियों को पूरा करें, क्योंकि पिछले 150-200 वर्षों के दौरान उन्होंने जहरीली गैसों के उत्सर्जन में अहम भूमिका निभाई है, जो जलवायु परिवर्तन का अहम कारण बनी हैं। जलवायु कोष के तहत उत्सर्जन घटाने और नए उपायों को अपनाने, इन दोनों ही तरह के प्रयासों को सहयोग देना होगा। साथ ही इसमें विकासशील दशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं का भी ध्यान रखना होगा।

भ्रांति 2: जलवायु कोष का एक बड़ा हिस्सा विकासशील देशों को पहले से ही जा रहा है।

ऐसा नहीं है। यूएनएफसीसीसी में जलवायु कोष को बढ़ाने, नई चीजें जोड़ने व इसकी सुनियोजित और पर्याप्त उपलब्धता आदि को ले कर चर्चा अधूरी और अस्पष्ट ही रह गई है।

2015 का भारत सरकार का एक चर्चा पत्र बताता है कि अगर जलवायु कोष की संकुचित परिभाषा भी तय करनी हो, जो यूएनएफसीसीसी के जरिए छूट के आधार पर जारी किए गए वास्तविक धन तक ही सीमित हो, तो 2014 में नए और अतिरिक्त निकासी की राशि सिर्फ 2.2 अरब डॉलर होगी ना कि 62 अरब डॉलर, जैसा कि ओईसीडी रिपोर्ट में दावा किया गया है।

ऑक्सफेम की जलवायु कोष शैडो रिपोर्ट 2018 बताती है कि (अ) विकसित देशों की ओर से 2015-16 के लिए किया गया 48 अरब डॉलर के कुल लोक जलवायु कोष का दावा “बेहद बढ़ा-चढ़ा कर” पेश किया गया आंकड़ा है, जिसमें कर्ज की रकम को ज्यादा बताया गया है; (आ) पूर्ण रूप से ग्रांट आधारित सहायता तो और कम, 11-13 अरब डॉलर है; (इ) दोतरफा फंडिंग के जलवायु संदर्भ को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया और जलवायु-संबंधी कोष आधिकारिक सहायता राशि के बढ़े हुए हिस्से के तौर पर लिया जा रहा था (जो संभावित डाइवर्जन की ओर इशारा करता है); और (ई) जलवायु के लिए निजी क्षेत्र से “जुटाए गए” धन की गणना बढ़ा-चढ़ा कर और दुबारा की गई।

हाल के कुछ अनुमान के मुताबिक, 2015 और 2016 के दौरान क्रमश: लगभग 1.4 अरब डॉलर और 2.4 अरब डॉलर यूएनएफसीसीसी और बहुराष्ट्रीय जलवायु कोष के जरिए जारी किए गए।

भ्रांति 3: जलवायु कोष के लिए निजी क्षेत्र प्रमुख स्रोत होना चाहिए; सार्वजनिक जलवायु कोश के सीमित प्रवाह को अवरोध घटा कर और वित्तीय निर्णय लेने की प्रक्रिया में जलवायु संबंधी खतरों को शामिल कर दूर किया जा सकता है।

निजी क्षेत्र उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करता है जहां लाभ ज्यादा हो और खतरा कम, खास तौर पर रिन्यूएबल जैसे क्षेत्रों तक सीमित है, जहां संबंधित लाभ बहुत अधिक हैं।

इसलिए, पैरिस समझौते की धारा 9.3 स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक कोष की अहमियत की ओर संकेत करती है। इस समझौते में निजी निवेश को ज्यादा तरजीह देने की कहीं कोशिश नहीं हुई है। विकासशील देश स्पष्ट तौर पर जलवायु परिवर्तन के खतरों की जद में हैं। जलवायु संबंधी खतरों को वित्तीय फैसले लेने की व्यवस्था में शामिल करने से विकासशील देशों के वित्तीय प्रवाह पर बुरा असर पड़ सकता है या उनका रिस्क प्रीमियम बढ़ सकता है, जिससे उनके वित्तीय प्रवाह की लागत बढ़ जाएगी।

भ्रांति 4: बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के पास पर्याप्त संसाधन हैं जिनसे वे अपने जलवायु संबंधी कदम खुद उठा सकते हैं। इसलिए जलवायु कोष मुख्य रूप से एलडीसी/ एसआईडीएस को जानी चाहिए।

विभिन्न विकसित देशों की ओर से सामान्य तौर पर तर्क दिया जाता है है कि “दुनिया बदल गई है,” मतलब यह कि बहुत से बड़े विकासशील देशों को आय के आधार पर अलग रखा जाना चाहिए। जबकि हकीकत में दुनिया के लगभग 80 प्रतिशत गरीब लोग “मध्य आय वर्ग” वाले इन्हीं देशों में रहते हैं।

गरीबी को दूर करने में पर्याप्त प्रगति के बावजूद, दुनिया के गरीब भारत में बहुत बड़ी संख्या में हैं। इसी तरह, भारत का एनडीसी बताता है कि 2015-2030 के बीच जलवायु परिवर्तन की चुनौती के लिए 2.5 ट्रिलियन (2014-15 की कीमत पर) की जरूरत होगी। आईएमएफ के वर्ल्ड इकनॉमिक आउटलुक डेटाबेस के मुताबिक इसकी तुलना में भारत की जीडीपी मौजूदा मूल्यों के आधार पर 2017 में 2,602.31 अरब डॉलर थी। विकास संबंधी भारत की विशाल जरूरतों को देखते हुए जलवायु परिवर्तन संबंधी कदमों के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने में घरेलू संसाधन बहुत कम हैं।

भ्रांति 5: नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन संबंधी वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए यूएनएफसीसीसी कोष और ग्रीन बांड/ पर्याप्त हैं।

ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीएफसी) वादों के लिहाज से सबसे बड़ा बहुपक्षीय जलवायु कोश है और इसके जलवायु कोश का प्रमुख साधन होने की उम्मीद है। कोपनहेगन में 2009 में किए गए 2020 तक 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष के वादे जिसे 2015 में पैरिस में दुहराया गया था, उसके मुकाबले जीसीफ के कुल वादे महज 10.3 अरब डॉलर हैं। अगर सबसे बड़े जलवायु कोश का वादा 2020 में विकसित देशों की ओर से किए गए वादे का महज दसवां हिस्सा भी रहता है तो भी माना जा सकता है कि जीसीएफ या दूसरी मदद काफी कुछ कर सकती है।

विकासशील देशों के जलवायु संबंधी कार्यों की लागत चूंकि 4 ट्रिलियन डॉलर से काफी ज्यादा होगी, ये कोश, अगर मौजूदा ट्रेंड जारी रहता है, तो विकासशील देशों की जरूरतों के काफी कम रह जाएगी। इसी तरह, जीसीएफ में पहले से किए गए वादे के मुकाबले गिरावट आ रही है और जीसीएफ में इसे दुबारा चालू रखने की चर्चा किसी अर्थपूर्ण स्थान तक नहीं पहुंच सकी है।

भ्रांति 6: पैरिस समझौते के मुताबिक जो भी देश सक्षम हैं, गरीब देशों के लिए जलवायु परिवर्नत संबंधी कोश में सहयोग करें।

पैरिस समझौते की धारा 9.1 स्पष्ट रूप से कहती है, “विकसित देशों के पक्ष विकासशील देशों के पक्ष को वित्तीय संसाधन उपलब्ध करवाएंगे।”

कुछ विकसित देशों ने इस जिम्मेदारी को झटक कर दूर करने का प्रयास किया है। पर्यावरण संबंधी संसाधनों पर विकासशील देशों को उनका उपयुक्त अधिकार उपलब्ध नहीं करवा कर हम समानता के सभी सिद्धांतों के खिलाफ जा रहे हैं साथ ही इसमें साझा लेकिन अलग-अलग जवाबदेही के पूरी तरह स्थापित सिद्धांत के भी खिलाफ है।

सितंबर, 2018 में बैंकाक में पैरिस एग्रीमेंट वर्क प्रोग्राम का मसौदा तय करने के लिए हुए सम्मेलन में मूल रूप से जलवायु कोष को ले कर ही गतिरोध पैदा हो गया। आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट से बजी खतरे की घंटी को कान खोल कर सुनने का समय आ गया है। इसे दिसंबर, 2018 में काटोविस सीओपी की बातचीत में शामिल लोगों और उनके राजनीतिक आकाओं को भी अच्छे से समझ लेना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि जलवायु कोष संबंधी उपरोक्त हकीकत को अच्छी तरह समझ लिया जाए।

राजश्री राय वित्त मंत्रालय, भारत सरकार में आर्थिक सलाहकार हैं।


राजश्री रे वित्त मंत्रालय, भारत सरकार, में आर्थिक सलाहकार हैं।

यह टिप्पणी मूल रूप से बिजनेस स्टेंडर्ड में प्रकाशित हुई थी।

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