Published on Sep 09, 2020 Updated 0 Hours ago

रणनीतिक मामलों पर भारत द्वारा एकतरफ़ा फैसले लिए जाने को लेकर इन देशों में अंतर्निहित और संस्थागत धारणा बन चुकी है.

भारत में पड़ोसी देशों के प्रति रणनीतिक विश्वास का अभाव

खबरों के मुताबिक श्रीलंका द्वारा भारत से ऋण-माफ करने की अपील लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी है और यह भारत के लिए एक रणनीतिक चिंता का विषय है. इसका भारत-श्रीलंका संबंधों पर त्वरित और दूरगामी असर हो सकता है. इसके अलावा ख़बरें ये भी हैं कि भारत द्वारा श्रीलंका की ऋण-माफी की अपील पर कोई प्रतिक्रिया न दिए जाने पर श्रीलंका ने इस मामले में चीन का रुख किया है. ये दोनों ख़बरें भारत की छिपी हुई रणनीतिक परेशानियों और चिंताओं को और नज़दीक लाने का काम कर सकती हैं.

यह महज़ संयोग भी हो सकता है कि श्रीलंका के प्रधान मंत्री महिंदा राजपक्षे ने अपने देश में शासन बदलने और राजनीतिक फेरबदल के लिए भारतीय एजेंसियों पर पश्चिमी देशों के साथ मिलकर काम करने के पुराने संदर्भ को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. ग़ौरतलब है कि साल 2015 के राष्ट्रपति चुनावों में हारने के बाद मीडिया को दिए  साक्षात्कार जिसमें राजपक्षे ने भारत की खुफ़िया एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) का उल्लेख किया था के बाद उन्होंने कभी इस बात का ज़िक्र नहीं किया है.

इसके साथ ही भारत और श्रीलंका की मीडिया में इस तरह की रिपोर्ट भी सामने आई हैं, जिसमें कोलंबो पोर्ट के ईस्ट टर्मिनल के त्रिपक्षीय विकास के लिए भारत और जापान को शामिल करने पर कोलंबो अब पुनर्विचार कर रहा है. इस पोर्ट को लेकर इन देशों के बीच बातचीत हो चुकी है और मौजूदा प्रधानमंत्री राजपाक्षे के पूर्ववर्ती सिरीसेना-राजपक्षे की सरकार ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की थी. हालांकि, नवंबर 2019 को राजपक्षे के सत्ता में लौटने के बाद इस तरह का घटनाक्रम पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं था, लेकिन ऋण-स्थगन और मुद्रा-विनिमय के लिए श्रीलंकाई अनुरोध पर भारतीय देरी से इसे जोड़ना फिलहाल जल्दी भी हो सकती.

भारत के अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू की रिपोर्ट जिसने पहली बार श्रीलंकाई अनुरोध के लिए भारतीय प्रतिक्रिया में देरी की सूचना दी थी, कहती है कि दोनों पक्षों ने वीडियो सम्मेलन के ज़रिए इस मसले पर चर्चा की है. कोलंबो में स्थित भारतीय उच्चायोग के बयान का हवाला देते हुए, अख़बार ने कहा है कि एचसी गोपाल बागले ने वरिष्ठ श्रीलंकाई अधिकारियों के साथ ये बातचीत की है.

समय का चक्र

श्रीलंका के महिंदा राजपक्षे की तरह, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भी यह आरोप लगाया है कि नई दिल्ली अब “मेरी सरकार को गिराने की कोशिश कर रही है.” ऐसा कहते हुए, ओली ने अपने  एकतरफ़ा फैसले और द्विपक्षीय सीमाओं के ‘प्रवर्तन’ से बहुत हद तक ख़ुद को दूर किया है. भारत और नेपाल के बीच यह मसले लंबे समय तक बातचीत का विषय रहे हैं. हालांकि, एक सकारात्मक बात यह है कि भारतीय के तीसरे भरोसेमंद पड़ोसी, भूटान ने मीडिया में आई उन खबरों का खंडन किया है जिनके मुताबिक भूटान ने पूर्वोत्तर राज्य असम में बहने वाले पानी को रोका था.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कहते हैं कि भारत के पड़ोसी और मित्र तीनों ही देश चीन के करीब जा रहे हैं. बांग्लादेश और श्रीलंका के मामले में यह आर्थिक मोर्चे पर हो रहा है और नेपाल में यह राजनीतिक रूप से भी सामने आ रहा है. 

इन सभी मामलों की बारीकियों से अलग हटते हुए और चीन द्वारा सीमा पर हिंसा की घटनाओं के मद्देनज़र, भारत अचानक ख़ुद को छोटे पड़ोसियों के साथ कई मुद्दों पर उलझा हुआ महसूस कर रहा है. इन सभी देशों के साथ भारत के अलग-अलग मसले रहे हैं कि लेकिन इस तरह की उलझनें बीते समय और उन परिस्थितियों का दोहराव हैं. इस साल की शुरुआत में भी इसी तरह बांग्लादेश जो भारत का सबसे विश्वसनीय पड़ोसी और साझेदार रहा है, उसने भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) पर कड़ी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की थी और यहां तक की इस मसले को लेकर मंत्रिस्तरीय यात्राओं को भी रद्द कर दिया था.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कहते हैं कि भारत के पड़ोसी और मित्र तीनों ही देश चीन के करीब जा रहे हैं. बांग्लादेश और श्रीलंका के मामले में यह आर्थिक मोर्चे पर हो रहा है और नेपाल में यह राजनीतिक रूप से भी सामने आ रहा है. यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि साल 2017 में डोकलाम ट्राई-जंक्शन में चीन की उकसाव वाली कार्रवाई का उद्देश्य भूटान को यह बताना भी था कि वह भारत पर अपनी निर्भरता को लेकर कहाँ एक रेखा खींचे. भारत के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को लेकर सभी पक्ष यह मान सकते हैं कि यह समस्या दोनों तरफ से है और  एकतरफ़ा नहीं. हालांकि, इस मामले में धारणाएं और किस हद तक इस बात को माना जाता है, यह सबसे महत्वपूर्ण है. क्षेत्र और जनसंख्या, अर्थव्यवस्था और सैन्य ताकत, वैश्विक राजनीतिक पहुंच और अपने पड़ोसियों के पक्ष में विश्व की राय को सकारात्कम रूप से प्रभावित करने की क्षमता को लेकर भारत अपनी स्थिति में अनूठा है. अपनी भौगोलिक-राजनीतिक परिस्थितियों के चलते अपने पड़ोसी देशों के मुकाबले उसकी राय अधिक मायने रखती है और वह जब भी चाहे या उससे ऐसा अपेक्षित हो, इस संबंध में अपने पड़ोसी देशों पर प्रभाव डालने का काम कर सकता है.

यह एक मायने में ‘संरचनात्मक असंतुलन’ भी है और यह असंतुलन भूगोल और भारत के राजनीतिक इतिहास का नतीजा है, लेकिन इसका एक गहरा संदर्भ और अर्थ भी है. भारत के रणनीतिकार और सामरिक नीतियां तय करने वाले अक्सर इस बिंदु को दरकिनार कर देते हैं कि भारत की इस अनूठी उपस्थिति को लेकर धारणाओं में अंतर आया है. भारत और उसके लोग जहां यह सोचते और मानते हैं कि इस क्षेत्र में भारत की भूमिका ‘बड़े भाई’ (elder brother) की तरह है, वहीं क्षेत्रीय स्तर पर उसे ‘बिग ब्रदर’ (big brother) की तरह देखा जाता है. अतीत में लौटकर पड़ोसियों के साथ अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करना या फिर उन्हें भविष्य के नज़रिए से जांचने की कोशिशें मददगार साबित नहीं हुई हैं. इसका सबसे बड़ा कारण भारत को लेकर इस क्षेत्र में उसके पड़ोसी देशों के मन में बसी ये धारणाएं ही हैं.

टीमप्लेयर नहीं है भारत

क्षेत्रीय और द्विपक्षीय संदर्भ में, भारत को भूस्थैतिक, भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक दृष्टि से एक टीम के खिलाड़ी के रूप में नहीं देखा जाता है. वह इस क्षेत्र में और अपने पड़ोसी देशों के टीम के नेता के रूप में काम करने के बावजूद अपने लिए टीम-लीडर की धारणा नहीं बना पाया है. शीत युद्ध के दौर में, दुनिया ने दक्षिण एशिया (पाकिस्तान को छोड़कर) के लिए भारत को ‘प्रभाव वाले पारंपरिक क्षेत्र’ के रूप में स्वीकार किया. नई दिल्ली ने भी ख़ुद को इस स्थिति में माना लेकिन भारत के पड़ोसी देश जो इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं ऐसा नहीं मानते.

पड़ोसी देश, भू-राजनीतिक और भूस्थैतिक मामलों पर भारत को अक्सर छोटे देशों के साथ परामर्श या संवाद किए बग़ैर ‘ एकतरफ़ा फैसला’ लेने वाले के रूप में देखते हैं. क्षेत्रीय साझेदारी के चलते ये फैसले भारत के पड़ोसी छोटे देशों के लिए भी मायने रखते हैं. शीत युद्ध काल में भारत ने तत्कालीन सोवियत संघ (अगस्त 1971) से जो ‘दोस्ती और सहयोग संधि’ की और शीत युद्ध के बाद भारत द्वारा किया गया, भारत-अमेरिका रक्षा रूपरेखा समझौता’ (जून 2005) अक्सर भारत के  एकतरफ़ावाद के प्रमुख उदाहरण के रूप में  ज़िक्र किया जाता है.

शीत युद्ध के दौर में, दुनिया ने दक्षिण एशिया (पाकिस्तान को छोड़कर) के लिए भारत को ‘प्रभाव वाले पारंपरिक क्षेत्र’ के रूप में स्वीकार किया. नई दिल्ली ने भी ख़ुद को इस स्थिति में माना लेकिन भारत के पड़ोसी देश जो इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं ऐसा नहीं मानते.

श्रीलंका जैसे देशों में, राजनीतिक नेतृत्व ने ख़ुद को ठगा हुआ और छोटा महसूस किया जब रणनीतिक समुदाय ने भारत के उन फैसलों का संज्ञान लिया जिन्होंने इस क्षेत्र में भूस्थैतिक स्थितियों को और भी अधिक प्रभावित किया है. उदाहरण के लिए, 1971 में 10 साल के लिए की गई भारत-सोवियत संधि (जो अगले 10 साल के लिए एक बार फिर बढ़ाई गई) को श्रीलंका के नेतृत्व में हिंद महासागर में शांति बहाल करने के लिए दी गई आईओआर (IOR) कॉल के संदर्भ में देखा जाता है.

हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के पड़ोसी देशों में मौजूद रणनीतिक समुदाय का एक वर्ग मानता है कि सुरक्षा जैसे संयुक्त मुद्दों और व्यापक मसलों पर नई दिल्ली का एकपक्षीय रुख उनके भीतर असहजता और सीमाओं को लेकर असुरक्षा की भावना को बढ़ाता है. आत्मरक्षा के तंत्र के रूप में इन देशों ने भारत के बजाय गैर-क्षेत्रीय खिलाड़ियों का सहारा लेने का काम किया है, जैसे शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और शीत-युद्ध के बाद चीन.

श्रीलंका में, 1971 के समझौते का उल्लेख कोलंबो के लिए उस फैसले के लिए भी किया जाता है जिसके तहत उस साल दिसंबर के महीने में कोलंबो ने पाकिस्तान वायु सेना (पीएएफ) को ईंधन भरने की सुविधा प्रदान करने का काम किया था. यह वो समय था जब बांग्लादेश लिबरेशन वार’ 16 दिनों के अपने सबसे निर्णायक दौर में था. श्रीलंका ने यह फैसला इसके बावजूद लिया कि उसी साल जून में भारतीय वायु सेना ने जनथा विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) यानी पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट के आतंक से निपटने के लिए कोलंबो की तुरंत सहायता की थी.

नए किस्म की हठधर्मिता

साल 1991 के बाद भारत में हुए आर्थिक सुधारों से भारत की आर्थिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव आया. यह वो दौर भी था जब शीत-युद्ध के बाद नई दिल्ली को दक्षिण एशिया में एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में देखा जाता था. इन घटनाक्रमों के बीच भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ नरम और व्यवस्थित होने के अलावा दृढ़ और सख्त भी हुआ. साल 1989 में, सुधारों के शुरू होने से कुछ साल पहले, भारत ने कलकत्ता बंदरगाह पर नेपाली व्यापार के लिए रोक लगा दी. यह फैसला लिया गया क्योंकि इससे पहले काठमांडू ने एकपक्षीय फैसला लेते हुए दोनों देशों की मुद्राओं का विच्छेद कर दिया था. साल 2015 में, नेपाल ने भारत के प्रति नरम नेपाल के मधेशी समुदाय द्वारा दो महीनों तक किए गए चक्का-जाम और प्रदर्शनों में भारत का हाथ होने की बात कही.

थिंपू में सरकार बदलने के बाद भारत और भूटान के बीच द्विपक्षीय संबंधों में सुधार हुआ, खासकर ‘डोकलाम मुद्दे’ पर जब भूटान ने चीनी घुसपैठ को रोकने के लिए भारतीय मदद मांगी और भारत की ओर से मदद दी गई. 

भूटान में 2015 के संसदीय चुनावों से पहले, भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों ने भूटान को रियायती पेट्रोलियम-उत्पाद की आपूर्ति पर रोक लगा दी थी. इसे अप्रत्यक्ष रुप से स्थानीय मतदाताओं को भूटान की तत्कालीन सरकार के खिलाफ़ प्रभावित करने के रूप में देखा गया. थिंपू में सरकार बदलने के बाद भारत और भूटान के बीच द्विपक्षीय संबंधों में सुधार हुआ, खासकर ‘डोकलाम मुद्दे’ पर जब भूटान ने चीनी घुसपैठ को रोकने के लिए भारतीय मदद मांगी और भारत की ओर से मदद दी गई.

पाकिस्तान के अलावा अपने पड़ोसी देशों के राजनीतिक मसलों और ‘लोकतंत्र जैसे मुद्दे’ पर भारत ने कभी दखल नहीं दिया लेकिन फरवरी 2018 में ऐसे एक मसले पर उसने पहली बार कड़ी प्रतिक्रिया दी. मालदीव में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने आपातकाल की घोषणा की और सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व न्यायाधीशों को पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और अन्य ‘राजनीतिक कैदियों’ को रिहा करने का आदेश देने पर गिरफ्तार कर लिया.

इसके प्रतिशोध में, मालदीव के विदेश मंत्रालय ने भारत को ‘देश के आंतरिक मामलों में दखल देने’ के  खिलाफ़ आगाह किया. वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद शाइनी ने कहा कि मालदीव ने कभी ‘कश्मीर मुद्दे’ पर टिप्पणी नहीं की और भारत को भी दूसरे देशों के ‘आंतरिक मामलों’ पर उसी तरह से काम करना चाहिए. उस साल के अंत में भारत ने एक बार फिर अपने पड़ोसी देश के  खिलाफ़ जाते हुए और संभवत: पहली बार, यामीन के शासन में मालदीव की संसद में नेता रहे अहमद निहान को भारत आने से वंचित कर दिया.

चीनी हस्तक्षेप

हालांकि, पड़ोसी देश श्रीलंका के मामले में भारत की दृढ़ता खुलकर सामने आई. मार्च 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) में अमेरिका के नेतृत्व में श्रीलंका पर ‘युद्ध अपराधों की जांच’ के लिए लाए गए प्रस्ताव पर भारत ने अमेरिका का समर्थन करते हुए, श्रीलंका के खिलाफ़ मतदान किया. श्रीलंकाई रणनीतिकारों और राजनीतिज्ञ के अनुसार उस समय भारत ने अगर श्रीलंका के हक में मतदान किया होता तो कई ऐसे देश जो इस मामले पर अपनी राय नहीं बना पा रहे थे या खुलकर श्रीलंका का समर्थन नहीं कर पा रहे थे, वो उसके समर्थन में आते. इसे श्रीलंका के खिलाफ़ कार्रवाई को लेकर पश्चिमी देशों की मांग को दरकिनार किया जा सकता था.

श्रीलंकाई विश्लेषकों का दावा है कि साल 2012 में यूएनएचआरसी में उनके लिए एक सम्मानजनक हार की स्थिति पैदा हो गई क्योंकि चीन ने अंतिम मिनट पर हस्तक्षेप कर श्रीलंका के समर्थन में मतदान किया.

श्रीलंकाई विश्लेषकों का दावा है कि साल 2012 में यूएनएचआरसी में उनके लिए एक सम्मानजनक हार की स्थिति पैदा हो गई क्योंकि चीन ने अंतिम मिनट पर हस्तक्षेप कर श्रीलंका के समर्थन में मतदान किया. स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का कहना है कि श्रीलंका के पक्ष में मतदान करने के लिए चीन ने ‘अपने ग्राहक देशों और साझेदारों’ को प्रभावित किया. इसके बिना भी, मानवाधिकारों पर संदिग्ध ट्रैक-रिकॉर्ड और अपने घरेलू मोर्चे पर इस तरह के संबंधित मुद्दों वाले छोटे पड़ोसी देशों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो-वोट की अनंत आवश्यकता होगी.

ऐसे में इन देशों के पास अब चीन और रूस ही एक विकल्प बचे हैं और भारत उनकी सूची से बाहर है, क्योंकि इस संबंध में किसी भी तरह की उम्मीद का वास्तविकता बनना बेहद मुश्किल है. हालाँकि, यूएनएचआरसी में भारत के 2012 के मतदान से पहले के सालों में वे सभी भारत के वोट के ज़रिए अपने पक्ष या विपक्ष में बयार बनते देख चुके हैं.

आर्थिक सहायता और ऋण जाल के अलावा भी, अपने ख़ुद के घरेलू मुद्दों से जूझते और अपने आंतरिक मामलों में भारत द्वारा दखलंदाज़ी की धारणा रखते हुए इन छोटे पड़ोसी देशों को पहले अमेरिका और अब चीन में एक निर्विवाद और सुनिश्चित समर्थक दिखाई देता है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर यूएनएचआरसी और यूएनएससी जैसे संगठनों के सामने ये दोनों देश ही उनके लिए खड़े हो सकते हैं. रणनीतिक मामलों पर भारत द्वारा  एकतरफ़ा फैसले लिए जाने को लेकर इन देशों में अंतर्निहित और संस्थागत धारणा बन चुकी है. इसने भारत के लिए मुश्किलें ही पैदा की हैं और मामले को गलत दिशा में बढ़ाया है. यह आने वाले समय और दीर्घकाल में भारत के लिए चिंता का विषय है.

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