Published on Feb 09, 2024 Updated 0 Hours ago

एक ओर केरल काजू उद्योग में लगातार तेजी से आगे ब रहा है, लेकिन इस विकास का लाभ इसमें काम करने वाली महिलाओं को कितना मिल पाया है?

केरल का काजू संकट और महिला कामगारों के लिए चुनौतियां

वैश्विक आर्थिक ढांचे के अंतर्गत श्रम शक्ति को बेहतर तरीके से प्रासंगिक बनाने में दक्षिण एशिया में सबकी रूचि बढ़ रही है। लगातार अध्ययनों से ये बात स्पष्ट हुई है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में श्रम की पट्टा ठेकेदारी (subcontracting) जितनी दिखती है उससे ज्यादा जटिल है और अलग अलग दृष्टिकोण से इसका विश्लेषण करने की जरूरत है ताकि बेहतर नीतिगत नतीजे हासिल किये जा सकें। बदलती आर्थिक परिस्थितियों और कामकाज की स्थितियों को लचीला बनाये जाने की वजह से पट्टा ठेकेदारी के अंतर्गत श्रमिकों की नियुक्ति में लगातार वृद्धि हुई है और अंतत: इससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और महिलाओं की जिंदगी के बीच जमीनी स्तर पर एक रिश्ता कायम हुआ है।

केरल का कोल्लम जिला “विश्व की काजू राजधानी” के रूप में भी प्रसिद्ध है और ये भारत के निर्यात में हो रही बढ़ोतरी का ज्वलंत उदाहरण है। करीब आठ लाख टन कच्चा काजू भारत में आयात होता है और कोल्लम में काजू की फैक्ट्रियों में प्रसंस्कृत होता है जहां महिलाएं मुख्यत: पट्टा ठेकेदारी व्यवस्था के अंतर्गत काम करती हैं। आयातित काजू का बड़ा हिस्सा दक्षिण अफ्रीका के देशों से आता है। कोल्लम शहर में उम्मीद थी कि प्रसंस्कृत काजू उत्पादन में अभूतपूर्व बढोतरी दर्ज होगी और इसके निर्यात और घरेलू स्तर पर खपत में बढ़ोतरी होगी। अफ्रीका और भारत के बीच राजनयिक स्तर पर बिचौलियों को हटाने के भी प्रयास शुरू किये गये ताकि अफ्रीका के काजू किसानों और केरल में काजू प्रसंस्करण में लगी इकाईयों को ज्यादा लाभ मिल सके। दक्षिण केरल में काजू संकट वर्ष 2016 में शुरू हुआ था जब केन्द्र सरकार ने कच्चे काजू पर 9.36 प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया था। इस वजह से आयातित काजू की कीमत काफी ज्यादा बढ़ गयी थी जबकि प्रसंस्कृत काजू की कीमत में उस अनुपात में ज्यादा वृद्धि नहीं हो पाई थी, जिसकी वजह से काजू उद्योग पर आर्थिक खतरा मंडराने लगा। काजू श्रमिकों का वेतन बढ़ाने के केरल सरकार के फैसले और वियतनाम के मशीन से प्रसंस्कृत सस्ते काजू से बढ़ती प्रतियोगिता के कारण कोल्लम की करीब 700 फैक्ट्रियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है जहां करीब 2.5 लाख कुशल महिलाओं को रोजगार मिला हुआ है। ये महिलाएं ग्रामीण केरल के निचले तबके से आती हैं। इन फैक्ट्रियों में कार्यरत पुरूषों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम यानि करीब 50 हजार है। हांलाकि हाल में ही इसी वर्ष जब केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कच्चे काजू पर लगने वाला शुल्क 2.5 फीसदी घटाने का ऐलान किया था तभी इस व्यवसाय में लगे कई लोगों को लगा था कि यह उपाय एक समय उत्कर्ष रहे रहे उद्योग को पहले ही हो चुके नुकसान से उबारने में अपर्याप्त सिद्ध होगा।

दूर से देखने पर कोल्लम संकट एक ऐसा शुद्ध आर्थिक संकट नजर आता है जिसका असर अलग अलग समूहों के श्रमिकों पर उसी तरह हुआ जैसा कि इस उद्योग में बड़ी संख्या में कार्यरत महिलाओं पर हुआ। लेकिन नतीजे पर गहराई से नजर डालें तो यहां अलग प्रकार के लैंगिक भेदभाव का संकेत मिलता है और ये पता चलता है कि क्यों इस उद्योग के पट्टा ठेकेदारी में महिलाओं को पहली वरीयता देकर ज्यादा अनुपात में नियुक्त किया गया है और इससे ये गंभीर सवाल भी उठ खड़ा होता है कि बाहरी आर्थिक कारकों का प्रतिकूल असर महिलाओं पर पुरूषों की तुलना मे ज्यादा होता है। इस वजह से भी पट्टा ठेकेदारी केन्द्रित उद्योगों को दिक्कतों का सामना करना होता है। द हिंदू अखबार में 28 अप्रैल, 2018 को प्रकाशित लेख के अनुसार 58 वर्षीय काजू श्रमिक महिला शांता ने कहा “मैं नहीं जानती कि कंप्यूटर क्या है और मैं कभी स्कूल नहीं गयी। मुझे गिनती भी ठीक से नहीं आती और लोग ऐसी नौकरानी नहीं रखना चाहते जिसके हाथों में जलने के निशान हों। इससे ये बात जाहिर होती है कि यहां कार्यरत लोगों के लिए दूसरी नौकरी ढूंढना आसान नहीं है।”

पूंजीवादी उत्पादन के बदलते चरित्र की वजह से कामकाज की परिस्थितियो में लचीलापन आया है और इसके साथ तकनीकी सुधारों ने काम के विकेन्द्रीकरण को वाणिज्यिक रूप से ज्यादा संभव और कुशल बना दिया है। अमर्त्य सेन और लूर्देस बनेरिया ने तर्क दिया था कि पूंजीवाद ने महिला और पुरूष को अलग अलग तरीके से प्रभावित किया है और इसलिए दोनों के साथ एक जैसा व्यवहार करना ठीक नहीं है। लिंगभेद और विकास पर हुए एक शोध ‘नये युग में महिलाओं के लिए विकास संबंधी विकल्प’ (Development Alternatives for Women for a New Era — DAWN) ने एक नया दृष्टिकोण विकसित किया है। ये दृष्टिकोण ना केवल विकास की प्रकृति और समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं वाले विकसित देशों के प्रभुत्व पर सवाल खड़ा करता है बल्कि इस बात की भी वकालत करता है कि तीसरी दुनिया की गरीब महलाओं के परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी नीतियों को तैयार किया जाना चाहिए और उनमें सुधार और उनका मूल्यांकन होना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि इस वर्ग की महिलाओं की तादाद सबसे ज्यादा हैं और ये सबसे कमजोर हैं और ये बात कोल्लम संकट से भी साबित हुई है।

महिलाएं अपनी प्रजनन संबंधी भूमिकाओं और घरेलू जिम्मेदारियों के साथ साथ पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थिति के कारण प्राय: अस्थायी और असुरक्षित कार्य स्वीकार कर लेती हैं जिसकी वजह से उन्हें असुरक्षा और स्वास्थ्य बिगाड़ने वाली स्थितियों में काम करना पड़ता है। इसके अलावा महिलाओं को कम वेतन, पेंशन या इसी तरह की अन्य सरकारी सुविधाओं के अभाव का सामना करना होता है। इनमें से कई बातें कोल्लम के महिला काजू श्रमिकों के संदर्भ में भी नजर आती हैं। अंग्रेजी अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड में 5 मई 2018 को प्रकाशित लेख में काजू की फैक्ट्री में काम करने वाली पूर्व महिला श्रमिक सुधर्मा का बयान है “मुझे हर महीने तीन हजार रूपये मिलते थे। मैं अब खाली बैठी हूं। हमें उम्मीद है कि कंपनी फिर से खुलेगी। मालिकों का कहना है कि केरल सरकार के वेतन में बढ़ोतरी के आदेश के कारण वे संकट में हैं। हम कम वेतन में भी काम करने के लिए तैयार हैं।” ये वे मुख्य कारण हैं जो ये बताते हैं कि आखिर क्यों पट्टा ठेकेदारी के अंतर्गत काम करने वाले श्रमिकों की हालत की लिंगभेद संबंधी नजरिये के साथ समीक्षा करने की जरूरत है खासकर भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में जहां उत्पादन और आयात पर निर्भरता ज्यादा है। भूमंडलीकरण के दौर में ये जानना बहुत महत्वपूर्ण हैं कि बतौर श्रमिक एक महिला के अधिकार पर पट्टा ठेकेदारी क्या प्रभाव डालती है, घर और कार्यस्थल पर लिंगभेद की वजह से उनपर क्या असर पड़ता है और इस तरह का वेतनभोगी कार्य किस तरह महिलाओं पर दोहरा बोझ डालते हैं जिन्हें अपने परिवार की देखभाल भी करनी होती है और मजदूरी भी करनी होती है।

विकास संबंधी एजेंडा में लैंगिक एकीकरण का मसला जटिल है। इसकी वजह ये है कि इसका फोकस महिलाओं के लिए लघुकालिक कार्यक्रमों की ओर है जो महिलाओं के दीर्घकालिक हितों को प्रोत्साहन देने की बजाय पुरुष बेरोजगारी के नकारात्मक प्रभावों को कम करने पर ज्यादा ध्यान देता है। ये प्रवृत्ति विश्व बैंक औऱ अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों महिला रोजगार कार्यक्रमों में भी साफ नजर आती है। लिंगभेद के लिहाज से संवेदनशील संरचना से जुड़ी अन्य समस्याओं में महिलाओं को लैंगिक मुख्यधारा में लाना भी शामिल है जहां सामाजिक बदलाव की नारीवादी प्रक्रिया एक तकनीकी प्रक्रिया में बदल गयी है जहां प्रक्रिया और कार्यान्वयन में बड़ा गैप नजर आता है औऱ इससे उनका एकीकरण ज्यादा जटिल हो गया है।

आगे का रास्ता हांलाकि लंबा है जिसमें महिलाओं और पुरूषों के साथ उनकी जाति, वर्ग और विभिन्नताओं के मद्देनजर अलग अलग व्यवहार को शामिल किया जाना है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए नीति निर्धारण की पद्धति काफी महत्वपूर्ण है ताकि विकसित देशों में लोकतंत्र, मानवाधिकार, समाज और अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है उसी तरह विकास की कल्पना इन देशों में की जा सके।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.