Author : Rasheed Kidwai

Published on Mar 06, 2024 Updated 0 Hours ago

अगर टीचर्स, किताबें, इंटरनेट और कंप्यूटर जैसी सुविधाएं उन्हें उपलब्ध करा दी जाएं तो मदरसे भी आधुनिक होकर मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं.

मदरसों को आधुनिकीकरण के साथ संबल देने की भी ज़रूरत है

मदरसे काल विशेष में जकड़े हुए हैं, जिन्हें आधुनिकीकरण और किसी तरह के ठप्पे से बचाए जाने की बेहद ज़रूरत है. साथ ही इसकी भी तत्काल आवश्यकता है कि मदरसों को आतंकवाद की पाठशाला कहने जैसे कलंक से बचाया जाए. हाल ही में प्रकाशित एक किताब देश में मौजूद इन इस्लामी संस्थानों व उनकी समस्याओं पर गंभीर विमर्श की दावत दे रही है.

लेखकद्वय जियाउस्सलाम और डॉ. एम असलम परवेज़ की किताब ‘मदरसाज इन द एज ऑफ इस्लामोफोबिया’ (सेज पब्लिकेशन 2019) बताती है कि भारत में इस्लाम का पालन-पोषण करने वाले शिक्षण स्थल रहे मदरसे कैसे इन दिनों कठिन समय से जूझते हुए विभिन्न चुनौतियों से घिरे हैं. उनमें सुधार के साथ उनका आधुनिकीकरण करने की भी ज़रूरत है. इसमें इस्लामोफोबिया की लहर उन्हें और अलग-थलग तथा मदरसे के विद्यार्थियों को आतंकवादी ठहराने की प्रवृत्ति स्थिति को और ख़राब कर रही है.

जियाउस्सलाम कहते हैं, ” हकीक़त यह है कि आतंकवाद के नाम पर पकड़े गए ऐसे तमाम विद्यार्थियों पर आतंकवाद का आरोप कभी सिद्ध नहीं हो सका. अदालतों द्वारा उन्हें ससम्मान बरी किया गया. दुखद स्थिति यह है कि न्याय की यह प्रक्रिया बहुत लंबी खींच जाती है तथा ख़ुद को निर्दोष सिद्ध करने की सारी दौड़धूप आरोपित को स्वयं करनी पड़ती है. अब्दुल वाहिद शेख का मामला ले लीजिए, जिसे मुंबई रेल धमाकों का आरोपी बनाया गया था. 9 साल बाद वह बरी हो पाया. उससे पहले वाले सलमान फारसी की बात कर लीजिए. ‘फारसी’ हाफ़िज़े-कुरआन है यानी कुरआन उसे कंठस्थ है. उसे मालेगांव धमाकों में आरोपी बना दिया गया. फारसी को भी बरी होने में 8 साल लगे. फिर वह अपने पुराने जीवन में कभी नहीं लौट पाया. वह एक प्रशिक्षित चिकित्सक भी है, लेकिन उसका सब कुछ छिन गया और जीवनयापन के लिए उसे बकरा-बकरी तक पालना पड़े. इन दुखद व भयावह परिस्थितियों से बचा जा सकता था, लेकिन स्थितियां यह हो जाती हैं कि मीडिया भी आरोप लगते ही उन्हें आतंकवादी पुकारने लगता है. हालांकि जब तक आरोप सिद्ध न हो जाए, मीडिया को उसे आरोपी ही कहना चाहिए, आतंकवादी नहीं. जब तक अपराध सिद्ध न हो जाए तब तक उनकी छवि बर्बाद करने से बचना चाहिए. यह भी आंशिक हल है. वास्तविक परिस्थितियां समझने के लिए मैं मीडियाकर्मियों को दावत देता हूं कि वे ख़ुद ही चुन कर किसी भी इस्लामिक शिक्षण संस्थान में जाएं और देखें कि वहां किसी भी मदरसे में हथियारों का भंडारण नहीं किया जाता, न ही वे अपने विद्यार्थियों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते हैं.”

मदरसों के पाठ्यक्रमों का गहन अध्ययन करने पर लेखकद्वय इस नतीजे पर पहुंचे कि वहां पढ़ाए जाने वाले फिक्ह (इस्लामिक विधि)की शैली, भाषा तथा उदाहरण प्राचीनकालीन हो चुके हैं. “ये (पाठ्यक्रम) तर्क व चर्चा का माहौल बनाने के बजाय द्वेष व विरोध का भाव अधिक पैदा कर रहे हैं. इनसे जानकारीपरक तर्क शक्ति के बजाय ऊब पैदा होने लगती है. इसमें ज़्यादातर टीकाओं की टीकाएं पढ़ाई जा रही हैं! निश्चित ही यह दिलचस्पी जगाने का आदर्श तरीका नहीं है.” अलबत्ता दक्षिण भारत के कुछ राज्यों विशेषकर केरल व बंगाल में स्थिति कुछ अलग है, जहां अंग्रेजी, साइंस व गणित जैसे विषय भी पढ़ाए जाते हैं.

जियाउस्सलाम प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द हिंदू’ से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं, जबकि मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के वाइस चॉन्सलर डॉ. मुहम्मद असलम परवेज़ बॉटनी के प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर भी हैं. देश भर में फैले हजारों मदरसों के बारे में गहन अध्ययन करने के बाद वे कहते हैं कि स्थानीय मदरसों से विद्वान् (स्नातक के समकक्ष) हो कर निकलने वाले विद्यार्थी बाकी विश्व के बारे में थोड़ा-बहुत ही जानते हैं. इसीलिए पुस्तक के आखिर में लिखा गया है कि “साइंस (के आविष्कारों तक) में चिरस्थाई योगदान देने वाले समुदाय की स्थिति यह हो गई है कि वह महज रट्टा मारने तथा संकीर्ण परंपरागत शैली में बंध कर रह गया.”

देश के ज़्यादातर मदरसों में हनफी विचारधारा की शिक्षा दी जाती है. इसमें शाफई, मालिकी व हंबली विचारधारा का समावेश नहीं किया जाता. लेखकद्वय कहते हैं, “ज़्यादातर सुन्नी मदरसे दर्से-निजामी (निजामी पाठ्यक्रम) की तालीम देते हैं, जिसका निर्धारण कोई 300 साल पहले किया गया था. इसमें आधुनिक विचारों का समावेश नाम मात्र का ही मिलता है. शिया समुदाय के कुछ विद्वानों ने इस दिशा में कोशिश की थी, उन्हें मुश्किल से ही स्वीकारा गया.” वे कहते हैं कि वास्तव में तो यह मदरसे इस्लाम के बारे में कम सिखाते हैं. वे युवाओं को इस्लाम का एक विशेष सारतत्व पढ़ाते हैं. दूसरी विचारधाराओं की अनदेखी करना कुरआन में दिए गए निर्देशों से विरोधाभासी है.

कुरआन इंसानों से चिंतन, खोज और तर्क करने का आग्रह करता है, जबकि मदरसों का अपने विद्यार्थियों से कहना होता है कि वे केवल कुरआन याद करें और कोई प्रश्न न पूछें

विद्वान लेखकगण पाते हैं कि सन् 2019 या 2020 में मदरसों का जो पाठ्यक्रम है, वही 1920 बल्कि 1870 में भी वही था. उनके मुताबिक़ “इसमें काल का अभाव पाया जाता है, जो कुरआन की शिक्षा के ख़िलाफ़ है. कुरआन इंसानों से चिंतन, खोज और तर्क करने का आग्रह करता है, जबकि मदरसों का अपने विद्यार्थियों से कहना होता है कि वे केवल कुरआन याद करें और कोई प्रश्न न पूछें. सवाल पूछने वाले को ऐसा माना जाता है कि उसने परंपरा तोड़ी है तथा इस पर वहां सजा का प्रावधान है.”

अपनी इसी सोच के चलते अनेक शिक्षणस्थल आज भी 14वीं सदी में इब्ने-कसीर द्वारा लिखी गई कुरआन की टीका को महत्व देते हैं. मौलाना अबुल हसन अली नदवी यानी अली मियां, अबुल आला मौदूदी, डॉ. इसरार अहमद, मौलाना वहीदुद्दीन खान जैसे 20वीं सदी के विद्वानों द्वारा इस क्षेत्र में किए काम उनके लिए ज़्यादा महत्व नहीं रखते. “समय की गति से मानो अनभिज्ञ से भारतीय मदरसों में आज भी आदर्श यही है कि टोपी लगाए विद्यार्थी किताब पर ऊंगली फेरते हुए कुरआन रटते रहें, भले वे उसे समझ न पाएं. यह कोई नई बात नहीं है कि आप किसी कुरआन हाफ़िज़ से पूछें तो वह कुरआन की एक सूरः का भी अर्थ न बता सके.”

लेखकद्वय के मुताबिक़ 12वीं शताब्दी तक मुसलमान वैज्ञानिक खोज, आविष्कारों तथा शोध कार्यों में चोटी पर थे. उस दौर में अनेक महान मुस्लिम फिलॉस्फर्स, गणितज्ञ, डॉक्टर्स व इतिहासकार हुए. वे लोग तर्क संगत वैज्ञानिक सोच रखने के साथ आधुनिक शिक्षाओं व अपने समय से जुड़े थे. इसके विपरीत भारत के ज़्यादातर मदरसे अपने विद्यार्थियों को कंप्यूटर व इंटरनेट तक भी मुहैया नहीं कराते हैं.

भारत के ज़्यादातर मदरसे अपने विद्यार्थियों को कंप्यूटर व इंटरनेट तक भी मुहैया नहीं कराते हैं

भारतीय मदरसों की एक और बहुत बड़ी समस्या वित्तीय व्यवस्था है. लगभग सारे मदरसे आमजन के सहयोग से चलते हैं. ज़्यादातर रहवासी मदरसों में विद्यार्थियों को ज़मीन पर सोना पड़ता है, फिर मौसम चाहे गरम हो या ठंडा, या बरसात का. लेखकद्वय ने देखा कि 40 डिग्री से ज़्यादा तापमान में 40 से ज़्यादा विद्यार्थी पवित्र पुस्तक को याद कर रहे हैं. इस गर्मी में भी उनके लिए वहां मात्र दो बीमार पंखे चल रहे थे.

ज़्यादातर मदरसे किसी रजिस्ट्रेशन के बगैर ही चल रहे हैं, यहां तक कि जिनके पास मुनासिब दस्तावेज़ और अच्छा इतिहास है, वे भी दुविधा का शिकार नज़र आते हैं. जिया और डॉ. परवेज़ के मुताबिक़ भारतीय मुसलमानों की सिर्फ चार प्रतिशत आबादी मदरसे में शिक्षा पाने जाती है.

वे यह भी सलाह देते हैं कि मदरसों की तालीम में सरकार की ज़िम्मेदारी और हस्तक्षेप ज़रूरी है ऐसा इसलिए भी क्योंकि मदरसों से निकले ज़्यादातर ग्रैजुएट स्तर के विद्यार्थियों को कहीं ढंग का रोज़गार नहीं मिलता, सिवाय इसके कि वे कोई नया मदरसा खोल लें या किसी मस्जिद में मुअज्जिन या इमाम (अजान देने और नमाज़ पढ़ाने वाले) हो जाएं. अगर टीचर्स, किताबें, इंटरनेट और कंप्यूटर जैसी सुविधाएं उन्हें उपलब्ध करा दी जाएं तो मदरसे भी आधुनिक होकर मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.