Published on Feb 26, 2020 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक इच्छाशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि कोई एक देश अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र में नहीं आता और न ही उसके पास अपने निर्णय को लागू कराने का क़ानूनी ढांचा है.

रोहिंग्या समुदाय पर अंतरराष्ट्रीय अदालत का फ़ैसला और इसकी चुनौतियां

23 जनवरी को अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने म्यांमार को आदेश दिया कि वो अपने यहां के रोहिंग्या समुदाय को भविष्य में नृशंसता से बचाने के लिए अत्यंत आवश्यक क़दम उठाए. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के इस आदेश को अंतरराष्ट्रीय न्याय के लिहाज़ से एक बड़ी उपलब्धि कह कर सराहा जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ये मुक़दमा, एक छोटा सा अफ्रीकी मुस्लिम देश  गाम्बिया लेकर गया था. और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में इस्लामिक सहयोग संगठन के 57 देशों ने गाम्बिया का समर्थन किया था. किन्हीं दो देशों के बीच विवाद के निपटारे के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ही विश्व की सबसे ऊंची न्यायिक व्यवस्था है. गाम्बिया ने म्यांमार पर आरोप लगाया था कि वो 1948 की अंतरराष्ट्रीय नरसंहार संधि का उल्लंघन करके रोहिंग्या समुदाय का नरसंहार कर रहा है.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ये मुक़दमा 10 और 11 नवंबर को सुना गया. इस सुनवाई के दौरान म्यांमार की स्टेट काउंसेलर ऑन्ग सान सू ची अपने देश के सम्मान की रक्षा के लिए स्वयं उपस्थित थीं. सू ची ने आईसीजे में ज़ोर देकर कहा कि उनकी सरकार पर लगाए गए आक्षेप अधूरे हैं. और वो हालात कि भ्रमित करने वाली ग़लत तथ्यों से भरपूर तस्वीर पेश करते हैं. इस तरह से ऑन्ग सान सू ची ने आईसीजी में म्यांमार पर लगे नरसंहार के आरोपों को सिरे से नकार दिया और कहा कि उनके देश के विरुद्ध जो आक्षेप लगाए गए हैं, उन्हें ख़ारिज कर दिया जाए.

म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र की तथ्यों की पड़ताल करने वाली कमेटी ने अपनी चेतावनी में आशंका जताई थी कि रोहिंग्या समुदाय का एक बार फिर नरसंहार हो सकता है

न्यायालय के पीठासीन जज अब्दुलक़ावी यूसुफ़ और सुनवाई के पैनल में उपस्थित 16 अन्य न्यायाधीशों द्वारा आम सहमति से 23 जनवरी को गाम्बिया की ये दरख़्वास्त स्वीकार कर ली कि रोहिंग्या के नरसंहार को रोकने के लिए कुछ प्राथमिक क़दम उठाए जाने चाहिए. न्यायालय के अनुसार, रोहिंग्या समुदाय पर लगातार ख़तरा मंडरा रहा है. इस वजह से म्यांमार को अपनी संपूर्ण शक्ति से ऐसे क़दम उठाने चाहिए, जो 1948 की जीनोसाइड कन्वेंशन के तहत प्रतिबंधित गतिविधियों को रोक सकें. इसके बाद म्यांमार उठाए गए क़दमों की जानकारी चार महीनों के भीतर आईसीजे को दे. और फिर हर छह महीने में हालात की रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में प्रस्तुत करे.

विचारों में मतभेद

मज़े की बात ये है कि रोहिंग्या समुदाय के नरसंहार के आरोपों को लेकर म्यांमार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच काफ़ी मतभेद बने हुए हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय का कहना है कि रोहिंग्या समुदाय के लोगों पर जो ज़ुल्म ढाए गए हैं, जो बड़े पैमाने पर हत्याएं हुई हैं. वो जातीय नरसंहार का बड़ा उदाहरण है. म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र की तथ्यों की पड़ताल करने वाली कमेटी ने अपनी चेतावनी में आशंका जताई थी कि रोहिंग्या समुदाय का एक बार फिर नरसंहार हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र के इस मिशन ने  सितंबर 2019 में अपनी आख़िरी रिपोर्ट में ये भी कहा था कि म्यांमार को अंतरराष्ट्रीय न्यायिक मंचों पर रोहिंग्या समुदाय के विरुद्ध नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.

म्यांमार की सरकार ने बड़ी सख़्ती से इस बात से इनकार किया है कि उसने संगठित तरीक़े से मानवाधिकारों का उल्लंघन किया था. म्यांमार का दावा है कि अगस्त 2017 को आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों पर हमला किया था. उसके बाद ही सैन्य कार्रवाई की गई, जो किसी भी उग्रवाद के विरुद्ध एक वैधानिक कार्रवाई है. म्यांमार ने संयुक्त राष्ट्र के मिशन के निष्कर्षों को एकतरफ़ा बता कर ख़ारिज कर दिया है. म्यांमार की स्टेट काउंसेलर ऑन्ग सान सू ची ने अलग-अलग अवसरों पर बार-बार यही कहा है कि उनकी सरकार, रखाइन प्रांत की परिस्थितियों को और बेहतर ढंग से संभाल सकती थी. हालांकि सू ची ने कभी भी सुरक्षा बलों द्वारा भयंकर अपराध किए जाने के आरोपों को स्वीकार नहीं किया.

हालांकि, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के प्राथमिक निर्णय से संयुक्त राष्ट्र के मिशन के निष्कर्षों की पुष्टि हुई है. इस मिशन ने पिछले दो वर्षों में म्यांमार में बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा और नरसंहार और उसकी वजह से लोगों के पलायन को दर्ज किया था. संयुक्त राष्ट्र के मिशन ने अपनी रिपोर्ट में रोहिंग्या समुदाय के ऊपर बड़े पैमाने पर ज़ुल्म-ओ-सितम के सबूत जुटाए थे. इनके अलावा रोहिंग्य के रिहायशी इलाक़ों की तबाही को भी संयुक्त राष्ट्र के मिशन ने दर्ज किया था. लेकिन, म्यांमार की सरकार ने इन सभी आरोपों को अब तक सिरे से ख़ारिज करती आई है.

आईसीजे का अस्थायी आदेश म्यांमार को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वो नरसंहार समझौते के अंतर्गत उन गतिविधियों पर लगाम लगाए, जो राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूहों को संपूर्ण या अस्थायी रूप से ख़ात्मा करते हों.

चूंकि आईसीजे की पूरी न्यायिक प्रक्रिया में अभी समय लग सकता है. ऐसी परिस्थितियों में अस्थायी क़दमों की महत्ता और बढ़ जाती है.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के लाभ क्या हैं?

आईसीजे का अस्थायी आदेश म्यांमार को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वो नरसंहार समझौते के अंतर्गत उन गतिविधियों पर लगाम लगाए, जो राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूहों को संपूर्ण या अस्थायी रूप से ख़ात्मा करते हों. इनमें न केवल किसी समुदाय के सदस्य को मारने (इस मामले में रोहिंग्या समुदाय के)पर रोक शामिल है, बल्कि उन्हें शारीरिक या मानसिक तौर पर तकलीफ़ देने से मनाही भी शामिल है. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने ये आदेश भी दिया कि म्यांमार ये भी सुनिश्चित करे कि उसकी सेना और उसके नियंत्रण वाले अन्य असंगठित सशस्त्र इकाइयां इनमें से कोई भी काम नहीं करेंगी. न ही ऐसा करने की साज़िश रचेंगी, नरसंहार को बढ़ावा नहीं देंगी, नरसंहार करने का प्रयास नहीं करेंगी. या नरसंहार में शामिल नहीं होंगी. म्यांमार को संभावित नरसंहार के किसी साक्ष्य को नष्ट करने से भी रोकना होगा.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की दी हुई इस अस्थायी व्यवस्था से रोहिंग्या समुदाय के साथ साथ बांग्लादेश की सरकार को बहुत राहत मिली है. और अब उन्हें उम्मीद की एक नई किरण दिखी है. बांग्लादेश इस वक़्त अपने कॉक्स बाज़ार इलाक़े में क़रीब दस लाख रोहिंग्या समुदायों को शरण दिए हुए है. इतनी बड़ी संख्या में रोहिंग्या शरणार्थियों के आने की वजह से बांग्लादेश, पिछले दो वर्षों से जगह और फंड की भारी कमी का सामना कर रहा है. म्यांमार की सरकार की उदासीनता की वजह से इन शरणार्थियों को उनके देश वापस भेजने के दो प्रयास असफल रहे हैं. और इसका ख़ामियाज़ा बांग्लादेश को भुगतना पड़ रहा है.

अगर आईसीजे के निर्णय को पूरी तरह से लागू किया जाता है, तो इससे रोहिंग्याओं के सुरक्षित और सम्मानजनक तरीक़े से रखाइन प्रांत में वापसी के लिए उचित माहौल बनेगा. बांग्लादेश के विदेश मंत्री ए. के. अब्दुल मोमेन के अनुसार, ‘अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का यह निर्णय मानवता की विजय है. और तमाम देशों में कार्य कर रहे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए मील का एक पत्थर है.’ अब्दुल मोमेन ने आगे कहा कि, ‘ये निर्णय गाम्बिया, ओआईसी, रोहिंग्या समुदाय के साथ-साथ बांग्लादेश की भी जीत है.’ इस निर्णय से बांग्लादेश को ये अवसर भी मिला है कि वो म्यांमार के चार बड़े सहयोगी देशों-चीन, जापान, भारत और रूस से फिर से संवाद कर सके. चूंकि इन सभी देशों के म्यांमार से बहुत अच्छे द्विपक्षीय संबंध हैं. तो बांग्लादेश इन राष्ट्रों के साथ संबंधों में गहराई लाकर ये उम्मीद कर सकता है कि रोहिंग्या संकट का स्थायी समाधान निकाला जा सके.

म्यांमार की सरकार से ये अपेक्षा की जा रही है कि वो अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा निर्देशित क़दमों को लागू करने पर अपनी रिपोर्ट मई 2020 तक आईसीजे को सौंपे. फिर म्यांमार की सरकार को हर छह महीने में इसकी रिपोर्ट तब तक देनी होगी, जब तक अंतरराष्ट्रीय अदालत आख़िरी फ़ैसले तक नहीं पहुंच जाती. उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी गतिविधियों की ये रिपोर्ट देने से म्यांमार सरकार के काम-काज की दुनिया के सबसे बड़े न्यायालय में समीक्षा हो सकेगी. हालांकि, म्यांमार ने दावा किया है कि वो मानवाधिकारों के उल्लंघन और युद्ध अपराधों के लिए जवाबदेही तय करने के लिए क़दम उठा रहा है. साथ ही वो रोहिंग्या शरणार्थियों के अपने रखाइन सूबे में लौटने के लिए भी व्यवस्था कर रहा है. फिर भी, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने संयुक्त राष्ट्र के मिशन की रिपोर्ट के आधार पर ये तय किया कि म्यांमार के आधे-अधूरे क़दमों से ये केस ख़त्म नहीं होगा. हालांकि, ये उम्मीद की जानी चाहिए कि नरसंहार समझौते के संदर्भ में इस केस का आख़िरी फ़ैसला ऐसे उचित क़दमों की दिशा में बढ़ेगा जिससे रोहिंग्या समुदाय के रहने के लिए बेहतर परिस्थितियां तैयार हों. लेकिन ये तभी संभव होगा, जब म्यांमार एक मज़बूत राजनीतिक इच्छा शक्ति का परिचय दे.

चुनौतियां

आईसीजे की राह में जो दो प्रमुख बाधाएं हैं, उनमें से पहली तो ये है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के पास अपने निर्णय लागू कराने की शक्ति नहीं है. और दूसरी बाधा ये है कि इसके फ़ैसले देशों पर बाध्यकारी नहीं होते, बल्कि स्वैच्छिक होते हैं.

अतएव, इन परिस्थितियों में राजनीतिक इच्छा शक्ति की अहमियत बहुत बढ़ जाती है. क्योंकि, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के पास किसी एक देश के ऊपर न्यायिक अधिकार नहीं हैं. न ही उसके पास क़ानूनी ढांचा है. इस संदर्भ में, अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा ऐसे उचित और असरदार तकनीकों और क़दमों को तय करने की आवश्यकता है. इससे यह होगा कि जिन देशों के पास संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ज़्यादा राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां हैं, उन्हें न्याय के कठघरे में खड़ा किया जा सके.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय को ख़ारिज करते हुए म्यांमार के विदेश मंत्रालय ने मानवाधिकार संगठनों पर ये आरोप लगाया है कि उन्होंने अदालत में मौजूदा हालात की तस्वीर को बढ़ाकर और बिगाड़ कर पेश किया है.

वहीं, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय को ख़ारिज करते हुए म्यांमार के विदेश मंत्रालय ने मानवाधिकार संगठनों पर ये आरोप लगाया है कि उन्होंने अदालत में मौजूदा हालात की तस्वीर को बढ़ाकर और बिगाड़ कर पेश किया है. फिर भी, म्यामांर का ये दावा इस हफ़्ते आए एक स्वतंत्र जांच आयोग के निष्कर्षों के उलट है. इस जांच आयोग का गठन ख़ुद म्यांमार ने ही किया था. इस आयोग ने माना था कि रखाइन प्रांत में सैन्य अभियान के दौरान नरसंहार भले न हुआ हो, मगर म्यांमार के सैनिकों ने युद्ध अपराध अवश्य किए, जब कम से कम 900 लोग मारे गए थे. पर, दिलचस्प बात ये है कि इस आयोग को सामूहिक बलात्कार या नरसंहार के आरोपों को सही ठहराने वाले एक भी सबूत नहीं मिले.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का यह निर्णय अपनी जगह से विस्थापित और कॉक्स बाज़ार के शरणार्थी शिविरों में रह रहे रोहिंग्याओं के लिए एक महत्वपूर्ण विजय है. यहां तक कि आईसीजे का यह निर्णय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को ये अधिकार देता है कि वो म्यांमार पर विस्थापित समुदायों की स्वदेश वापसी और उनके पुनर्वास के लिए उचित क़दम उठाने का दबाव बनाए. लेकिन, ऐसा होने की संभावना अभी दूर तक नहीं दिखती. क्योंकि इस प्रस्ताव को चीन वीटो कर सकता है. और सवाल ये भी है कि क्या म्यांमार, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों का पालन करेगा. ये देखना अभी बाक़ी है.

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