Author : Sushant Sareen

Published on May 15, 2018 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान में जम्हूरी हुकूमत के पास यह अधिकार होता है कि वह किसी मुकदमे को फौजी अदालत में भेज सकती है, जहां पर फैसला आनन-फानन में सुनाया जाता है। पर नवाज शरीफ ने यह भी नहीं किया। आखिर क्यों?

सियासी दांव है शरीफ का बयान

पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का डॉन को दिया गया ताजा साक्षात्कार सुर्खियों में है। इसमें उन्होंने कहा था कि हमारे मुल्क में ‘आतंकी संगठन सक्रिय हैं। हम बेशक उन्हें ‘नॉन स्टेट एक्टर’ कहें, मगर क्या उन्हें इतनी छूट मिलनी चाहिए कि वे सीमा पार जाकर मुंबई में 150 लोगों का कत्ल कर दें? हम उनके खिलाफ ट्रायल क्यों नहीं पूरा कर सकते?’ हालांकि विवाद बढ़ने पर उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग की तरफ से इसका खंडन भी आया और मीडिया पर तोहमत लगाते हुए कहा गया कि पूरा बखेड़ा नवाज शरीफ के बयान की गलत व्याख्या करने की वजह से खड़ा हुआ है। मगर बाद में खुद मियां शरीफ ने साफ कर दिया कि वह अपने बयान पर पूरी तरह कायम हैं।

पाकिस्तान के किसी बड़े ओहदेदार का ऐसा कुबूलनामा कोई पहली बार हमारे सामने नहीं आया है। मुंबई हमले के कुछ समय बाद ही पाकिस्तान के तत्कालीन गृह मंत्री रहमान मलिक ने अपने एक बयान में कहा था कि इस मामले की सभी जांच पूरी कर ली गई है और दोषियों की शिनाख्त हो चुकी है। पाकिस्तान की खुफिया फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एफआईए) के पूर्व मुखिया तारीक खोसा ने तो बाकायदा एक लेख लिखकर बताया था कि मुंबई हमले की साजिश का पर्दाफाश कर लिया गया था, मगर हम सुबूत तक पहुंचने ही वाले थे कि मुझे पद से हटा दिया गया। ठीक ऐसे ही बयान मुंबई हमलों के कुछ दिनों बाद उस वक्त के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जनरल महमूद अली दुर्रानी ने भी दिए थे।

पाकिस्तान की खुफिया फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एफआईए) के पूर्व मुखिया तारीक खोसा ने तो बाकायदा एक लेख लिखकर बताया था कि मुंबई हमले की साजिश का पर्दाफाश कर लिया गया था, मगर हम सुबूत तक पहुंचने ही वाले थे कि मुझे पद से हटा दिया गया।

इन तमाम स्वीकारोक्तियों में यह जरूर कहा गया कि 2008 के मुंबई हमले के गुनहगार पाकिस्तानी हैं, मगर किसी ने यह नहीं स्पष्ट किया कि इसमें फौज या रियासत का हाथ है। नवाज शरीफ भी ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा पाए हैं। जबकि सामान्य समझ यही कहती है कि अगर उस घटना में पाकिस्तान का हाथ नहीं है, तो फिर वहां मुकदमे क्यों चल रहे हैं? मुंबई हमले के बाद जमात उद दावा पर पाबंदियां क्यों लगाई गई थीं? उस पर कार्रवाइयां क्यों की गईं? इन सवालों के साथ यह भी पूछा जाना चाहिए कि नवाज शरीफ जब सत्ता में थे, तब उन्होंने यह मसला क्यों नहीं उठाया? उनके शासनकाल में भी मुंबई हमले से जुडे़ मुकदमे सुस्त रफ्तार में क्यों चलते रहे? पाकिस्तान में जम्हूरी हुकूमत के पास यह अधिकार होता है कि वह किसी मुकदमे को फौजी अदालत में भेज सकती है, जहां पर फैसला आनन-फानन में सुनाया जाता है। पर नवाज शरीफ ने यह भी नहीं किया। आखिर क्यों?

सच तो यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री ने इस वक्त खास कारणों से इस मसले को छेड़ा है। दरअसल, पाकिस्तान का शीर्ष सत्ता प्रतिष्ठान मियां शरीफ के आसपास का घेरा लगातार तंग करता जा रहा है। यह प्रतिष्ठान कोई और नहीं, ‘डीप स्टेट’ है, जो फौज व आईएसआई के वरिष्ठ अधिकारियों का एक अनधिकृत ढांचा है और जो जम्हूरी हुकूमत में पर्याप्त दखल रखता है। यह ढांचा शरीफ को सियासी तौर पर और कमजोर बनाने की कोशिशें कर रहा है। उन पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है। यही दबाव शरीफ को मुंह खोलने के लिए मजबूर कर रहा है। मुमकिन यह भी है कि ऐसे बयानों से वह फौज को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे होंगे कि अगर उन्हें राहत नहीं दी गई, तो उनके पास ऐसे कई राज हैं, जिनका परदे से बाहर आना ‘डीप स्टेट’ के लिए मुश्किलें बढ़ा सकता है। इस बयान का एक पहलू उनकी अपनी सियासत से भी जुड़ा है। नवाज शरीफ चाहते हैं कि निर्वाचित सरकार के मुखिया को उस बेकद्री से न अपदस्थ किया जाए, जिस तरह का व्यवहार उनके साथ किया गया है। वह यह भी चाहते हैं कि पाकिस्तान की नीतियां चुने हुए जन-प्रतिनिधि तय करें, ‘डीप स्टेट’ नहीं। वह सियासत में फौज की दखलंदाजी खत्म करने के इच्छुक हैं। इसीलिए उन्होंने इन दिनों एक नया नारा दिया है, ‘वोट को इज्जत दो’। ताजा स्वीकारोक्ति लोगों में उनकी इस छवि को और मजबूत बना सकती है।

नवाज शरीफ की मुश्किल यह है कि ‘डॉन-लीक्स’ के बाद फौज ने उनके आसपास बंदिशों का घेरा मजबूत कर दिया है।

नवाज शरीफ की मुश्किल यह है कि ‘डॉन-लीक्स’ (डॉन अखबार द्वारा किया गया खुलासा) के बाद फौज ने उनके आसपास बंदिशों का घेरा मजबूत कर दिया है। उस खुलासे से जुड़ी एक रिपोर्ट बताती है कि जब 2016 में कश्मीर अशांति की आग में जल रहा था, तो पाकिस्तान में होने वाली उच्चस्तरीय बैठकों में इसका अक्सर जिक्र होता रहता था। डीप स्टेट के सवाल होते थे कि कश्मीर अशांत है, पर दुनिया के अन्य मुल्कों में इस पर बातें नहीं हो रहीं। आखिर क्यों? तब सरकार ने फौज को बताया था कि जब भी पाकिस्तान के नेता इस मसले को उठाते हैं, तो उन्हें यह कहकर आईना दिखाया जाता है कि वे दहशतगर्दों की सरपरस्ती करते हैं। ‘डॉन-लीक्स’ की मानें, तो उन दिनों सरकारी नुमाइंदों ने बैठकों में फौज पर उंगली उठाते हुए कहा था कि जब कभी हुकूमत दहशतगर्दों पर कार्रवाई करती है, तो फौजी आलाकमान चोर दरवाजे से उनकी मदद करते हैं। इस खुलासे से तब काफी बवाल मचा था और सरकार व फौज के बीच तनाव काफी गहरा गए थे।

हालात अब भी कुछ खास नहीं बदले हैं। वहां की हुकूमत, फौज व अदालत दहशतगर्दों के लिए कवच का काम करती रहती हैं। अगर किसी दूसरे मुल्क का कोई वरिष्ठ राजनेता ऐसा कहता, तो यह उस देश के लिए शर्म का विषय माना जाता। मगर पाकिस्तान में ऐसा नहीं है। अलबत्ता वहां गुस्सा इस बात को लेकर है कि इस तरह के कुबूलनामे हो क्यों रहे हैं?

हमें पाकिस्तान की इसी मानसिकता को समझकर अपनी नीतियां तय करनी चाहिए। सच यही है कि वहां की जम्हूरी हुकूमत के पास अपनी कोई ताकत नहीं है और पाकिस्तानी फौज भारत को अपना नैसर्गिक दुश्मन मानती है। ऐसे में, तमाम मुश्किलों के बाद भी पाकिस्तान के साथ सुलह की बातचीत करना फायदेमंद नहीं है। जब तक हम पाकिस्तान के असली नीति-नियामकों का सच समझकर अपनी कूटनीति को धार नहीं देंगे, हम सफल नहीं हो सकेंगे। दुर्भाग्य से, नवाज शरीफ का यह बयान इसमें हमारी कोई मदद नहीं कर रहा।


यह लेख मूल रूप से Live हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी।

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