Author : Jayant Sinha

Published on May 18, 2020 Updated 0 Hours ago

जिस अति उग्र भूमंडलीकरण ने चीन को औद्योगिक महाशक्ति बनाया, उसी वजह से दुनिया में भारी सियासी उठा-पटक भी देखी जा रही है.

सीमाओं में सिकुड़ता भूमंडलीकरण और छिन्न-भिन्न होती आपूर्ति श्रृंखला

पिछले कई दशकों से पश्चिमी देश, अमेरिका की इस सामरिक सोच से प्रभावित होकर चीन से नज़दीकी संबंध बना रहे थे कि चीन के साथ पूर्ण संबंधों से चीन की अपारदर्शी राजनीतिक व्यवस्था में खुलापन आएगा. इससे चीन की साम्यवादी शासन व्यवस्था और उदार और खुलेपन की नीति पर चलेगी. लेकिन, कोविड-19 की महामारी के हमले के बाद इस ख़याल को फ़ौरन से पेशतर दफ़न कर दिए जाने की ज़रूरत है. चीन से नज़दीकी बढ़ाकर जिस स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं खुली व उदारवादी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना की जा रही थी, वो चीन की महान सियासी दीवार से टकरा कर चूर-चूर हो चुकी है. आने वाले समय में इसके घातक परिणाम सामने आ सकते हैं. चीन के साथ पश्चिमी देशों के क़रीबी संबंधों के बावजूद, चीन की राजनीतिक व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया. बल्कि, इसके उलट कई उदारवादी लोकतांत्रिक देशों ने चीन की तरह की औद्योगिक योजनाओं वाली नीतियां अपनानी शुरू कर दीं. आज के भौगोलिक सामरिक परिदृश्य की विडंबना ये है कि चीन के वैश्विक प्रभुत्व के स्वप्न को साकार करने का ख़र्च, पश्चिमी देशों के टैक्स दाताओं ने उठाया है. एक के बाद एक अमेरिकी सरकारों ने बहु-राष्ट्रीय कंपनियों और बड़े वित्तीय संगठनों के दबाव में आकर चीन को वैश्विक समुदाय का हिस्सा बनाने में महती भूमिका अदा की है. अमेरिकी राष्ट्रपतियों के इस चीन प्रेम की परिणति हमने बिल क्लिंटन के राज्य काल में देखी थी, जब उन्होंने चीन को विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बनाए जाने के निर्णय का स्वागत किया था.

कैसे हुआ चीन की निर्माण क्षमताओं का विकास?

चीन के विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बनने के बाद, पश्चिमी देशों ने अपनी औद्योगिक एवं निर्माण क्षमताओं को चीन के हवाले कर दिया. इसके बाद चीन ने धीरे-धीरे अपनी औद्योगिक और निर्माण क्षमताओं का विकास करके वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर अपना नियंत्रण बढ़ाना शुरू किया. अब चीन को अपना समय आने का इंतज़ार था. अपनी ज़रूरत के सामान बनाने का काम चीन को सौंपने की वजह से, पश्चिमी देशों को मज़दूरों के ख़र्च और रख रखाव के तौर पर होने वाले व्यय को बहुत कम करने में मदद मिली. इससे होने वाले वित्तीय लाभ के चलते, पश्चिमी देशों की सरकारों ने चीन की करतूतों की तरफ़ से अपनी आंखें बंद कर लीं. दूसरे देशों की अपने ऊपर निर्भरता का फ़ायदा उठाते हुए चीन ने पहले अपनी दादागीरी एशिया में बढ़ानी शुरू की. और अब वो बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के ज़रिए यूरोपीय संघ (EU) को भी अपने प्रभाव क्षेत्र के दायरे में ले आने का प्रयास कर रहा है.

जिस उग्र भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से चीन की औद्योगिक शक्ति का निर्माण हो रहा था. उसी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के कारण पश्चिमी देशों के कामकाजी तबक़े और मध्यम वर्ग के बीच राजनीतिक उठा-पटक को भी जन्म दिया. निर्माण क्षेत्र में अच्छी तनख़्वाह वाली नौकरियों से महरूम रहने और वित्तीय व तकनीकी उच्च वर्ग से बढ़ती दूरी के कारण, ये लोग भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न लाभों से वंचित रह गए थे.

कोविड-19 की महामारी के कारण विश्व अर्थव्यवस्था का पहिया जो अभी थम गया है. इससे हमें एक अवसर प्राप्त हुआ है कि हम अब तक जो हुआ उस पर नए सिरे से सोच विचार करें. और इस बात की पड़ताल करें कि अगर दुनिया पर चीन का प्रभुत्व स्थापित होता है, तो फिर विश्व व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा. हाल के वर्षों में चीन की शक्ति में वृद्धि को हम तो बड़े प्रोजेक्ट से परिभाषित कर सकते हैं. दूसरे विश्व युद्ध से पहले के ब्रिटिश साम्राज्यवाद (Pax Britannia) और दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था (Pax Americana) की ही तरह आज चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की भी चर्चा हो रही है. नई आपूर्ति श्रृंखलाओ और व्यापार मार्गों के निर्माण के साथ-साथ चीन अब अपनी शक्ति का अपने देश से बाहर विस्तार कर रहा है. अपने बीआरआई प्रोजेक्ट की मदद से चीन अपने आर्थिक हितों की पूर्ति करना चाहता है. जिसके लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले और तैयार माल को अपने बाज़ारों तक पहुंचाने वाले सभी मार्गों को चीन अपने नियंत्रण में लेना चाहता है. और ठीक उसी तरह जैसे कि ब्रिटेन ने दुनिया के लिए फ़िक्र और उदारता का चोला पहना कर अपने साम्राज्यवाद का विस्तार किया था. सोचिए, भारत में ब्रिटिश सरकार ने रेलवे लाइनें ये कह कर बिछाई थीं कि इससे भारत की जनता का भला होगा. ठीक उसी तरह, आज चीन अपने राजनीतिक प्रोजेक्ट को विश्व की प्रगति, एकता और विकास के नए आयाम के तौर पर प्रस्तुत कर रहा है.

चीन के विस्तारवाद का दूसरा आयाम तकनीक से संबंधित है. चीन इस वक़्त लगातार ये प्रयास कर रहा है कि वैश्विक डेटा अर्थव्यवस्था उसके नियंत्रण में आ जाए, जिसका वो अपने हित में इस्तेमाल करे. चीन, अपने तकनीकी कौशल का विश्व भर में प्रसार करने में जुटा हुआ है. इसके लिए वो नई पीढ़ी के संचार के मूलभूत ढांचे का निर्माण और ऐसे डिजिटल माध्यमों का निर्माण कर रहा है, जिससे तानाशाही व्यवस्था वाले देश अपनी जनता की हरकतों की निगरानी कर सकें. इस तकनीकी शक्ति की मदद से चीन आज ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जब वो भविष्य की सरकारों की रूप रेखा तय कर सकता है. जब वो विकास, वित्त, युद्ध एवं संघर्ष की मदद से भविष्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का निर्माण कर सके. और चीन पूरी दुनिया पर अपना तकनीकी प्रभुत्व जमाने के साथ-साथ अपने देश की जनता को बाहरी सूचनाओं और तकनीक से दूर रखने का प्रयास कर रहा है. कुछ लोगों का तर्क है कि अमेरिका के प्रभुत्व का दौर भी इससे कुछ ख़ास अलग तो था नहीं. चीन की ही तरह, अमेरिका ने भी विश्व अर्थव्यवस्था में अपने वर्चस्व, अपनी सैन्य शक्ति, औद्योगिक क्षमता और तकनीकी बढ़त का दुरुपयोग करते हुए ऐसी विश्व व्यवस्था का निर्माण किया था, जो उसके हितों को पोषित करती रहे. लेकिन, चीन और अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्थाओं की तुलना नहीं की जा सकती. अमेरिकी समाज में खुलापन था. दुनिया के अलग-अलग कोनों के रहने वाले व्यक्ति, समुदाय और देश अमेरिका से संवाद कर सकते थे. उससे अपनी बात मनवाने का प्रयास कर सकते थे. या फिर इसके संस्थानों के सामने अपनी अर्ज़ी पेश कर सकते थे. अलग-अलग देशों के प्रतिनिधि इसके मीडिया में अपनी बात रख सकते थे. अक्सर वो अमेरिका की राजनीति में भागीदार भी बन जाते थे. अमेरिका की दादागीरी पर इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था की लगाम थी. और अमेरिका के नियमित रूप से होने वाले चुनाव, इसे अनियंत्रित होने से रोकते थे.

नुस्खा पुराना है, अविश्वास नया है

अमेरिका की अगुवाई वाली विश्व व्यवस्था की इन्हीं ख़ूबियों की वजह से तमाम देशों को इस व्यवस्था के बहुपक्षीय संगठनों में विश्वास होता था. जबकि, ये सारे बहुपक्षीय संस्थान, अमेरिका की वित्तीय मदद से ही चलते थे. अमेरिका अपने प्रभुत्व के दौर में भी वस्तुओं, वित्त एवं कामगारों के मुक्त प्रवाह को प्रोत्साहन देता रहा था. वो खुली सरहदों, मुक्त बाज़ार व्यवस्था और खुले समाज का समर्थक है. पिछली सदी के आख़िरी दशक में अमेरिका के नेतृत्व में भूमंडलीकरण का अभियान चला, जिसमें दुनिया के तमाम देशों को भागीदार बनने का अवसर मिला.

लेकिन, ऐसे कम ही देश हैं, जो चीन की राजनीतिक व्यवस्था के अंधे कुएं में सावधानी से चल सकते हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रभाव डालने का दावा तो कोई देश कर ही नहीं सकता. यहां ये बात याद रखने लायक़ है कि अपनी शक्ति के शीर्ष पर रहने के दौरान भी अमेरिका ने वियतनाम से अपनी सेना को वापस बुलाया था. क्योंकि, वियतनाम युद्ध की उसके मीडिया में कड़ी आलोचना हो रही थी. जिसके कारण वहां की जनता से इस युद्ध को मिलने वाला समर्थन घटता जा रहा था. लेकिन, सवाल ये है कि मीकांग नदी के डेल्टा क्षेत्र में रहने वाले लोगों की छिनती हुई रोज़ी और पारिस्थितिकी को होने वाले नुक़सान को बयां करने वाली तस्वीरों का चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर कितना असर होगा? क्या, इस तबाही की तस्वीरें देख कर चीन, मीकांग के ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में चल रहे अपने प्रोजेक्ट को बंद करने का फ़ैसला कभी करेगा? क्या कोरोना वायरस की वजह से दुनिया भर में लाखों लोगों की मौत के बाद चीन की शासन व्यवस्था ख़ुद को पारदर्शी बनाने की दिशा में आगे बढ़ेगी?

इसीलिए, भूमंडलीकरण का अगला युग, जो मुख्य तौर पर चीन के ख़र्च पर होगा, वो संभवत: आज से कम स्वतंत्र और खुला होगा. चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं से संतुलन बनाने के लिए तमाम देश हो सकता है कि ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों से व्यापार को तरज़ीह दें, जहां की राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास बरकरार है. इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला भी खंड खंड होगी. बहुत से देशों की सरकारें अपने यहां से वस्तुओं, सेवाओं, वित्त और कामगारों की आवाजाही पर नियंत्रण रखेंगी. क्योंकि इनके मुक्त प्रवाह से उन देशों के राष्ट्रीय हितों को चोट पहुंचने की आशंका होगी. निश्चित रूप से हमें, एक बंद भूमंडलीकरण के लिए ख़ुद को तैयार कर लेना चाहिए. कोविड-19 के बाद की दुनिया के लिए सामान्य दौर में वापसी कर पाना बेहद मुश्किल होगा. इससे भूमंडलीकरण के इस दौर को भी क्षति पहुंचनी तय है.


 यह लेख मूल रूप से  इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है.

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