भारत के शहर: अधूरे प्रजातंत्रीकरण ने बाधित किया विकास
जिस चीज़ की माप ली जा सकती है, उसका प्रदर्शन निश्चित रूप से बेहतर होता है. यही कारण है कि भारत के लगभग सभी नगर निकायों की वित्तीय स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है. नगर निकायों के अपने राजस्व में उनकी ख़ुद की हिस्सेदारी जो 2002-03 में 63 प्रतिशत थी, वो 2007-08 में घटकर महज़ 53 प्रतिशत और 2017-18 में और भी कम होकर महज़ 43 फ़ीसद रह गई. नगर निकायों के घटते राजस्व के चलते ज़रूरत और संसाधनों के बीच की कमी को केंद्र सरकार से मिलने वाली मदद (12 फ़ीसद, जिसमें से 7 प्रतिशत केंद्रीय वित्तीय आयोग की मदद और पांच प्रतिशत अन्य सहयोग), राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाले सहयोग (33 प्रतिशत) और क़र्ज़ (5 प्रतिशत) लेकर पूरा किया जाता है. राष्ट्रीय स्तर पर नगर निकायों के प्रशासन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है. ज़्यादातर राज्य, नगर निकायों को प्रशासन का तीसरा स्तर मानने के बजाय, उन्हें अपने स्थानीय दफ़्तरों के तौर पर देखते हैं. यहां तक कि 1992 में हुए संविधान के 74वें संशोधन ने भी राज्य सरकारों की तुलना में स्थानीय निकायों की स्वायत्तता को घटा दिया था.
ज़्यादातर नगर निकायों में मेयर का चुनाव नही होता. मेयर की नियुक्ति की शर्तें राज्य सरकारें तय करती हैं. निगम पार्षद जहां पांच साल के लिए चुने जाते हैं, वहीं मेयर को आम तौ पर एक साल या दो साल के कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है. इससे नगर निगमों का राजनीतिक नेतृत्व कमज़ोर हो जाता है.
संसदीय लोकतंत्र का जो मज़बूत ढांचा हम केंद्र और राज्यों के स्तर पर देखते हैं, वो नगर निकायों के स्तर पर देखने को नहीं मिलता है. ज़्यादातर नगर निकायों में मेयर का चुनाव नही होता. मेयर की नियुक्ति की शर्तें राज्य सरकारें तय करती हैं. निगम पार्षद जहां पांच साल के लिए चुने जाते हैं, वहीं मेयर को आम तौ पर एक साल या दो साल के कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है. इससे नगर निगमों का राजनीतिक नेतृत्व कमज़ोर हो जाता है.
प्रजातंत्रीकरण में कमी की वजह
हमें ये बात माननी होगी कि नगर निकायों की तुलना में केंद्र और राज्य के स्तर पर प्रजातंत्रीकरण की शुरुआत चार दशक पहले ही हो गई थी. आज केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के स्तर के लोकतांत्रिक ढांचे में जो असमानता दिखती है, उसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि स्थानीय निकायों के स्तर पर प्रजातंत्रीकरण का प्रयोग देर से शुरू हुआ. लेकिन, भारत में विधायी अधिकारों वाले नगर निकायों की परंपरा का इतिहास 1688 से शुरू हुआ था, जब पूर्व मद्रास शहर में इस प्रयोग की शुरुआत हुई थी. उपनिवेशवादी सरकार ने जब स्थानीय लोगों की नाराज़गी दूर करने के लिए ‘सीमित लोकतंत्र’ की आज़ादी दी, तो 19वीं सदी के आख़िर तक ज़्यादातर नगर निगमों के अपने चुने हुए अध्यक्ष होने लगे थे. ऐसे में, नगर निकायों के प्रजातंत्रीकरण में कमी की वजह इसका हालिया प्रयोग होने से ज़्यादा जान-बूझकर की गई साज़िश ज़्यादा लगती है.
प्रॉपर्टी टैक्स और कुछ यूज़र चार्ज को छोड़ दें, तो राज्य सरकारें, नगर निकायों को कर लगाने का अधिकार देने की राह में बड़ी रुकावट बनी हुई हैं. दूसरी वजह ये भी है कि शहरों में बहुत सी जनसेवाओं जैसे कि पानी की आपूर्ति और सीवर का प्रबंधन, प्रमुख सड़कों और पुलों का निर्माण, परिवहन की सेवाओं, अग्निशमन सेवा, बिजली आपूर्ति और अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों का संचालन राज्य सरकारों के विभाग करते हैं. ये योजनाएं या तो राज्य या फिर केंद्र सरकार से सीधे वित्तीय मदद (स्मार्ट सिटी अभियान) के ज़रिए चलाई जाती हैं.
‘काम निकालने’ का ये प्रशासनिक तौर-तरीक़ा, नगर निकायों को हाशिए पर धकेल देता है. इससे उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाली वो 18 संवैधानिक ज़िम्मेदारियां भी कम हो जाती हैं, जिनका ज़िक्र संविधान की 12वीं अनुसूची में किया गया है. इसके अलावा, बड़ी चालाकी से खड़ी की गई प्रशासनिक बाधाएं, चुने हुए नगर निकायों के स्वायत्त रूप से काम करने में ख़लल पैदा करती हैं.
नगर निकायों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकारें करती हैं- हालांकि इसके लिए मेयर से सलाह मशविरा किया जाता है- लेकिन, ये मुख्य कार्यकारी अधिकारी, केंद्र या राज्य स्तर के विशेष कैडर से प्रतिनियुक्ति पर नगर निकायों में बहाल होते हैं. दूसरी बात, नगर निकायों के कर्मचारियों पर विभागीय नियंत्रण राज्य सरकारों का होता है. यहां तक कि वरिष्ठ तकनीकी कर्मचारी भी राज्य सरकार के अधीन होते हैं. तीसरी बात, राज्य सरकार को ये अधिकार होता है कि वो नगर निकायों के चुने हुए जन प्रतिनिधियों या मेयर से सलाह मशविरा किए बग़ैर, मुख्य कार्यकारी अधिकारी को एक ख़ास तरह से काम करने का निर्देश दे सकती है. जो भी सुधार किया जाता है, वो राज्य सरकारों के राजनीतिक नियंत्रण के चलते अधूरा रह जाता है. बृहत बैंगलुरू महानगर पालिके एक्ट 2020 के तहत, मुख्य आयुक्त (CEO) को मेयर के साथ साथ राज्य सरकार को भी रिपोर्ट करना पड़ता है. वहीं, ज़ोनल ऑफ़िस मेयर के साथ साथ मुख्य आयुक्त को भी रिपोर्ट करते हैं. एक विशेषज्ञ का कहना है कि, ‘ये एक विचित्र व्यवस्था है जिससे बार बार प्रशासनिक फ़ैसलों में ख़लल पड़ेगा और दिशा निर्देशों को लागू करने की कड़ी बर्बाद हो जाएगी.’ ऐसे में नगर निकायों का मौजूदा राजनीतिक ढांचा, अधूरा बना हुआ है. इससे शहरी प्रशासन को बेहतर बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर इनोवेशन और कौशल विकास के बेहद कम अवसर मिलते हैं, और नगर निकायों द्वारा टैक्स लगाने की क्षमता का पूरा इस्तेमाल करके आर्थिक विकास करके की राह भी बाधित होती है. शहरों में मूलभूत ढांचे के विकास और जनसेवा को हर नागरिक तक पहुंचाने की योजना बनाने और उसके लिए पूंजी जुटाने का अधिकार केंद्र और राज्यों की सरकार के पास होना बिल्कुल ग़ैरज़रूरी भी है और नगर निकायों के लिए नुक़सानदेह भी. क्योंकि, शहरों में मौजूद विशेषज्ञों की क़ाबिलियत और संपत्ति का इस्तेमाल सीधे तौर पर बेहतर ढंग से हो सकता है.
इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए कि नगर निकायों के राजनीतिक पद, राजनीति में करियर बनाने के इच्छुक लोगों की आख़िरी पसंद होते हैं. उन्हें डर होता है कि वो नगर निकायों की राजनीति करेंगे, तो राजनीतिक अर्थशास्त्र की निचली पायदान पर ही रह जाएंगे.
2010 में देश की कुल GDP में दो तिहाई योगदान शहरों का था, जबकि 2011 में शहरों में देश की लगभग एक तिहाई आबादी रहती थी. ऐसे में शहरों की अनदेखी करने के राजनीतिक और आर्थिक नुक़सान कम नहीं हैं. लेकिन, सभी राजनीतिक दल नगर निकायों को पूरी स्वायत्तता देने के ख़िलाफ़ हैं. ऐसे में इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए कि नगर निकायों के राजनीतिक पद, राजनीति में करियर बनाने के इच्छुक लोगों की आख़िरी पसंद होते हैं. उन्हें डर होता है कि वो नगर निकायों की राजनीति करेंगे, तो राजनीतिक अर्थशास्त्र की निचली पायदान पर ही रह जाएंगे.
नगर निकाय स्तर पर दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व की कमी साफ़ तौर पर तब दिखती है, जब हर शहर दूसरे की नक़ल करते हुए बीस साल की कटी-फटी योजना बनाता है और बहुत कम उम्मीदों के साथ काम करता है. ज़मीन और टाउन प्लानिंग से जुड़े अड़ियल क़ानून ज़मीन को उपयोग के हिसाब से ज़ोन में बांटने का स्थिर मॉडल ही दे पाते हैं. ज़मीन के ऐसे बंटवारे के बाद उनके विकास के नियम भी साफ़ नहीं होते. अक्सर ये बात किसी भी शहर के बाज़ार के प्रोत्साहन पर आधारित बहुआयामी विकास में बाधा बन जाती है.
ज़मीनी हक़ीक़त से तालमेल न बिठा पाने वाली ऐसी योजनाएं बनाने की सबसे साफ़ मिसाल शहरों का बेतरतीब विकास है. दूरगामी अवधि में पूंजी की क़िल्लत के चलते ‘योजना बनाने में निराशा का भाव’ होता है. फिर ऐसे नियम शहरों के ऐसे चहुंमुखी विकास में बाधा बनते हैं, जो शहर की बढ़ती आबादी की सेवा के लिहाज़ से उसकी क्षमताओं में इज़ाफ़ा कर सके. इस नज़रिए के चलते निचले स्तर के मकान बनते चले जाते हैं, जिन तक नगरीय सेवाएं पहुंचा पाना और भी महंगा साबित होता है. जबकि सही योजना बनाने से शुरुआत में ही किसी नई बस्ती तक बुनियादी नगरीय सेवाएं सस्ती दरों पर पहुंचा पाना आसान होता है. इसकी बहुत सी मिसालें हम दुनिया के दूसरे देशों में देखते हैं. जैसे कि लंदन और सिंगापुर में परिवहन सेवा को निजी से सार्वजनिक बनाकर, भीड़ से छुटकारा पाया जा सका. लीकेज कम करके पीने के पानी की आपूर्ति बढ़ाना, लोगों के इस्तेमाल वाले उपकरणों में बिजली की खपत कम करना और साफ़-सफ़ाई व सीवेज का सामुदायिक स्तर पर विकेंद्रीकृत प्रबंधन करके, साफ़ किए गए पानी को दोबारा सप्लाई करना और कचरे या सौर ऊर्जा की मदद से बिजली आपूर्ति करने (सैन फ्रांसिस्को) की मिसालें भी देखने को मिलती हैं.
नगर निकायों की वित्तीय कमज़ोरी के लिए राज्य और केंद्र सरकार द्वारा ज़रूरत से कम आर्थिक मदद देना और बड़े नगर निकायों तक आमदनी कम होना, ज़िम्मेदार हैं. ये दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं. नगर निकायों का लगातार बना रहने वाला वित्तीय असंतुलन जनसेवा के मानकों में गिरावट का सबब बनता है. नागरिकों की उम्मीदें कम होती हैं और फिर नगर निकायों की कर से आमदनी कम होती है. इस बात के पर्याप्त सबूत मिलते हैं कि अगर नगर निकायों की अपनी स्थानीय टैक्स वसूली को केंद्र या राज्य से मिलने वाली मदद से जोड़ दिया जाए, तो सुधार आता है.
अगर, ज़मीन की उपयोगिता और दर के हिसाब से संपत्ति कर वसूला जाए, तो इससे सामूहिक विकास होगा और ज़्यादा क़ीमत वाले इलाक़ों में ज़मीन का ‘सघन इस्तेमाल’ हो सकेगा.
सामूहिक विकास कैसे
207-18 में नगर निकायों के कुल राजस्व का 59 प्रतिशत हिस्सा अपनी आमदनी से आता था. टैक्स राजस्व में 59 फ़ीसद हिस्सा संपत्ति कर का था. भारत में संपत्ति कर की GDP में हिस्सेदारी 0.15 प्रतिशत है, जो अन्य विकासशील देशों के 0.6 से 0.7 फ़ीसद और OECD देशों के GDP के 2 प्रतिशत से कहीं अधिक की तुलना में बहुत कम है. संपत्ति कर की दरें कम हैं और अक्सर प्रॉपर्टी टैक्स का ताल्लुक़, संपत्ति के इस्तेमाल से होता है. जैसे कि ख़ुद की संपत्ति, कम ऊंचाई वाले मकान, अस्थाई मकानों का संपत्ति कर सबसे कम होता है, फिर चाहे उस इलाक़े की ज़मीन की क़ीमतें आसमान ही क्यों न छू रही हों. इससे बाज़ार को ख़राब संकेत जाता है. अगर, ज़मीन की उपयोगिता और दर के हिसाब से संपत्ति कर वसूला जाए, तो इससे सामूहिक विकास होगा और ज़्यादा क़ीमत वाले इलाक़ों में ज़मीन का ‘सघन इस्तेमाल’ हो सकेगा.
ऐसा नहीं है कि शहरों के प्रबंधकों को ज़मीन की बढ़ती क़ीमतों और स्थिर संपत्ति कर के बेमेल होने का एहसास नहीं है. लेकिन, स्थानीय स्तर पर दूरदर्शी नेतृत्व की कमी के चलते, वो मौजूदा संतुलन को नहीं छेड़ना चाहते. क्योंकि उन्हें डर होता है कि अगर जनता नाराज़ हुई, तो उनके लिए राजनीतिक समर्थन जुटा पाना मुश्किल होगा. अब ख़त्म किए जा चुके सुधारवादी, ‘कृषि क़ानूनों’ को वापस लेने के आंदोलन के ‘सफल’ होने से अफ़सरशाही को एक और ग़लत सबक़ मिला है.
संपत्ति कर का विरोध दो कारणों से होता है. पहली बात तो ये कि करदाता बिक्री के समय पहले की कैपिटल गेन्स टैक्स केंद्र सरकार को अदा कर देते हैं. संपत्ति की क़ीमत पर हर साल लगने वाला टैक्स, उससे होने वाले किसी भी तरह के लाभ से जुड़ा नहीं होता. ऐसे में संपत्ति कर तब तक अलोकप्रिय रहता है, जब तक उसे कम दर पर न वसूला जाए. शहरों में नालियों के रख-रखाव और पीने के पानी की आपूर्ति के लिए पहले ही नागरिकों से पैसे वसूले जाते हैं. जो लोग पालतू जानवर रखते हैं, उन्हें अलग से वार्षिक शुल्क देना पड़ता है. नगर निकाय, सड़क किनारे के खोमचे और ठेले वालों और साप्ताहिक बाज़ारों से भी टैक्स वसूली करते हैं. लेकिन, शहरों में पुलिस व्यवस्था, आग बुझाने की सेवा, कचरे के प्रबंध और सीवेज सिस्टम को चलाने की ज़िम्मेदारी अक्सर राज्य सरकारों के सिर पर रहती है. इसके बदले में राज्य सरकारें, गाड़ी मालिकों से रोड टैक्स लेती है. संपत्ति के लेन-देन के वक़्त स्टैंप ड्यूटी की वसूली करती है और मनोरंजन कर भी लगाती है. अब ये सब टैक्स, GST के दायरे में आ गए हैं.
अगर हर वार्ड से वसूले जाने वाले प्रॉपर्टी टैक्स का कम से कम आधा हिस्सा ख़ास मक़सद में लगाया जाए, तो संपत्ति कर की दरें बढ़ाई जा सकती हैं. क्योंकि, इससे मकान या ज़मीन के मालिक की संपत्ति की क़ीमत बढ़ेगी. जैसे कि स्ट्रीट लाइटिंग, ठोस कचरे का प्रबंधन, ब्लू-ग्रीन एरिया, सुरक्षा के ई-नेटवर्क. पैदल चलने वालों के लिए सड़क पार करने की व्यवस्था और जाम से बचने के लिए स्मार्ट ट्रैफिक सिग्नल लगाए जाएं.
इसके अलावा अगर संपत्ति कर की सालाना वसूली और उससे मिले पैसों को ख़ास मद में ख़र्च करने के लिए आवंटन सुनिश्चित करने के लिए वार्ड समितियां बना दी जाएं, तो भी संपत्ति कर की वसूली बढ़ाने में काफ़ी मदद मिल सकती है. बजट बनाने में भागीदारी बढ़ाकर राय-मशविरे से ख़र्च की व्यवस्था बनाई जा सकती है. प्रॉपर्टी टैक्स की दरें तय करने के लिए बैंगलुरू शहर ने बहुत अच्छे सुधार किए हैं. संपत्ति कर तय करने की व्यवस्था को GIS से लैस किया गया है. इससे 2007-08 से 2010-11 के बीच संपत्ति कर देने वालों की संख्या दो गुना बढ़कर 12 लाख तक पहुंच गई, और इससे होने वाली आमदनी भी 2.6 गुना तक बढ़ गई.
निष्कर्ष
भारत के शहर आकार, वित्तीय क्षमता और क्षेत्रीयता के लिहाज़ से बहुत अलग अलग हैं. ऐसे में उनकी समस्या भले एक ही हो यानी प्रजातंत्रीकरण की कमी. मगर, उनका एक जैसा समाधान खोज पाना बहुत मुश्किल है. इससे शहरों की ऊर्जा ख़त्म सी हो गई मालूम होती है. इसके लिए शहर के कुलीन वर्ग को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. क्योंकि, वो असमानता और घटिया जन सेवाओं के दुष्चक्र की लगातार इसलिए अनदेखी करते रहते हैं, क्योंकि वो अपने आप के लिए बेहतर निजी सेवा जुटा सकते हैं. शहरों के भीतर निजी सेवा वाले इलाक़ों का ये ग़ुब्बारा, कोविड-19 महामारी के दौरान फूट गया. महामारी ने हर तरह की आमदनी वालों को झटका दिया. ऐसे में नगर निकायों के भीतर असमानता की जड़ों- फिर चाहे वो संरचनात्मक हों या वित्तीय- से निपटने के लिए हमें शहरों में आने वाली अगली तबाही का इंतज़ार नहीं करना चाहिए. शहरों में आर्थिक विकास, रोज़गार और इनोवेशन तब तक पनप नहीं सकते, जब तक स्थानीय स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व को सशक्त नहीं बनाया जाता.
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